आठ वर्ष पूर्व..
ये वो वक्त था जब कॉलेज के दोस्त कॉलेज से घर जा रहे होते थे। बस का इंतज़ार करने के बाद एक डी.टी.सी की बस आती तो दौड़ कर उस पर चढ़ जाते थे। गुलाबी रंग का साढ़े बारह रूपये का कॉलेज-पास बना हुआ था। कोई दूसरी खाली बस दिखी तो उस पर चढ़ गये। एक से दूसरे पर, दूसरे से तीसरे पर। पसीने की परवाह किये बगैर। आज की तरह लाल रंग की ए.सी. बस जो नहीं थी तब.. वो तो एक डब्बा था...
कभी कभार बस का इंतज़ार करते हुए भूख लगती तो फ़ुटपाथ पर बैठे हुए खीरे-मूली वाले से खीरा खरीद कर खा लेते। मसाला लगाये हुए मूली और उस पर नींबू..वाह क्या स्वाद आता था। कभी गोला-गिरी खा लेते। पचास पैसे का पानी पी लेते तो कभी उसी ठेले से नींबू-पानी या फिर कहीं से बंटा!! मसालेदार पापड़ का स्वाद आज भी याद है।
वर्ष 2011..
कॉलेज के हम दोस्त सॉफ़्टवेयर इंजीनियर अथवा मैनेजर बन गये हैं। चालीस..पचास..साठ हजार रूपये महीने की तन्ख्वाह...ए.सॊ कैब में सफ़र करने के अलग ठाठ हैं। कम्पनी तो वही जो कैब "प्रोवाईड" करे। मुफ़्त की कैब हो तो कहने ही क्या!! टीम की पार्टी होती है तो पित्ज़ा या "मैक-डी" का बर्गर। कोल्ड ड्रिंक तो होगी ही पर अगर वाइन-बीयर का घूँट भी गले को तर कर जाये तो वारे-न्यारे। अरे हाँ "हार्ड-ड्रिंक" के साथ जो पापड़ मिलता है वो....कहीं बाहर जाना हो तो "बिसलेरी" की बोतल का होना अत्यन्त आवश्यक है। पन्द्रह रूपये की ही तो है!!
ट्रैफ़िक सिग्नेल पर ऑफ़िस की ए.सी कैब खड़ी है। एफ़.एम. पर आज के जमाने के गाने बज रहें हैं। बाहर फ़ुटपाथ पर खीरे वाला गंदे पानी से खीरे धो रहा है। गोला-गिरि वाला उसी बदबूदार पानी गोले पर छिड़क रहा है। पचास पैसे वाला पानी अब एक रूपये का हो गया है। प्यास काफ़ी लगी है.. .ठेले वाले ने गिलास कब धोया होगा पिछली बार? खुले में पापड़ वाला पापड़ लिये खड़ा है...सब कुछ कितना "अन-हाइजिनिक" है.....छि:...
1 comment:
dunia badal gae hai.
Post a Comment