Wednesday, January 26, 2011

क्यों मनायें गणतंत्र दिवस, भाजपा की तिरंगा यात्रा और क्या है तिरंगे का इतिहास Republic Day, BJP Tiranga Yatra and History Of Indian National Flag

आप सभी को गणतंत्र दिवस की बधाई। हमारा देश आज 62वां गणतंत्र दिवस मना रहा है। 26 जनवरी 1950 वो दिन है जब हमारा देश गणतंत्र घोषित हुआ था। पर आखिर गणतंत्र होने के मायने क्या हैं? क्या यह केवल परेड देखने और छुट्टी मनाने का एक और दिन है? नहीं। बिन्कुल नहीं। इसका मतलब है कि आप स्वतंत्र हैं अपनी खुद की सरकार चुनने के लिये। आपकी सरकार आपके लिये। संविधान बना, कानून बने। हमारे अधिकार और हमारे कर्त्तव्य हमें बताये गये। पर हम केवल एक ही बात का ध्यान रखते हैं। अधिकार!! पर हमारे कर्त्तव्यों का क्या? क्या आप और हम अपने कर्त्तव्यों के बारे में जानते हैं?

चलिये आप को एक ऐसे देश में ले चलते हैं जहाँ राष्ट्रगीत पर पाबंदी लगाई जाती हो? क्या आप ऐसा देश जानते हैं जहाँ राष्ट्रध्वज को फ़हराने के लिये अनुमति लेनी होती है? एक ऐसा देश बतायें जहाँ दुश्मनों के झंडे तो आप आसानी से फ़हरा सकते हैं पर अपना खुद का झंडा लहराने के लिये आपको मनाही है। जी हाँ आपने सही पहचाना यह हमारा अपना हिन्दुस्तान ही है। इस देश में आपको तिरंगा लहराने के लिये मना किया जाता है। भाजपा के तिरंगे मिशन को रोकने के लिये बहुत प्रयास किये गये। भाजपा यहाँ राजनीति कर रही है। ऐसा कुछ दल आरोप लगा रहे हैं। आरोप सही हैं या नहीं बात इसकी नहीं।जि:संदेह इस राजनीति का फ़ायदा भाजपा को पहुँचेगा। पर बात उस अधिकार की है जो हमारा गणतंत्र हमें देता है। श्रीनगर का लाल-चौक जहाँ पाकिस्तानी झंडे लहराये जाते हैं  वहाँ उन लोगों पर कोई केस नहीं होता। यासिन मलिक जैसे अलगाववादी नेता जो कश्मीर को भारत से अलग देखना चाहते हैं उन्हें कोई कुछ नहीं कहता। "गदर" में सनी देओल से जब हिन्दुस्तान मुर्दाबाद कहलाया जाता है तब सनी देओल डायलॉग मारते हैं:

"आपका पाकिस्तान जिन्दाबाद है इसमें हमें कोई आपत्ति नहीं लेकिन हमारा हिन्दुस्तान जिन्दाबाद है, जिन्दाबाद रहेगा।"
इस डायलॉग पर हो सकता है कि आप, मैं और हमारे नेता लोग भी ताली बजायें। लेकिन फिर क्यों नहीं हम इन अलगाववादियों को यह कहें कि आप जब पाकिस्तान का झंडा बुलंद करते हैं तब हमें कोई आपत्ति नहीं तो फिर लालचौक पर अपने ही देश का झंडा लहराने पर उन्हें आपत्ति क्यों?

खैर, मुद्दा नाजुक है। और हम में से अधिकतर इस बेहद संवेदनशील मुद्दे की शुरुआत से अनभिज्ञ हैं। इस पर कुछ कहना मेरे लिये ठीक नहीं। लेकिन मेरा विवेक कहता है कि जब आप देश के उस हिस्से में तिरंगा नहीं लहरा सकते तो उस हिस्से को देश का हिस्सा मानना ही गलत है। और जब हमारी सरकार उसे भारत का हिस्सा मानती है तो तिरंगा लहराना राजनीति नहीं अपना हक़ होना चाहिये।

मैथिली शरण गुप्त की कलम से निकली देशभक्ति की यह पंक्तियाँ:
"जो भरा नहीं है भावों से बहती जिसमें रसधान नहीं, वह हृदय नहीं है पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं।"

कैसे बना हमारा राष्ट्र-ध्वज। आइये डालते हैं इतिहास के पन्नों पर कुछ नजर:


विजयी विश्व तिरंगा प्यारा, झंडा ऊँचा रहे हमारा.... ये बोल सुनते ही शरीर में रौंगटे खड़े होने लगते हैं और हम गर्व से कह उठते हैं कि तिरंगा हमें सबसे प्यारा है। खेलों के मैदान में दर्शक यही तिरंगा फ़ैला कर अपनी खुशी का इजहार करते हैं। १५ अगस्त को पतंगें चुनते हुए तिरंगों का खास ध्यान रखा जाता है। इतने खास तिरंगे के बारे में आइये थोड़ा जानते हैं।

२२ जुलाई १९४७ को आज के तिरंगे को मान्यता मिली। आज के तिरंगे को तो हम जानते ही हैं। तीन रंग बीच में अशोक चक्र। सबसे ऊपर केसरिया, फिर सफ़ेद और फिर हरा। लेकिन इससे पहले इस तिरंगे के कितने स्वरूप बदले हैं उसके लिये इतिहास में झाँकना होगा। सबसे पहले १९०४-०५ में स्वामी विवेकानंद की शिष्या सिस्टर निवेदिता ने एक झंडा प्रस्तुत किया। लाल और पीले रंगे के इस झंडे में वज्र और कमल के फूल भी थे। लाल रंग स्वतंत्रता संग्राम का तो पीला विजयी होने का प्रतीक था। वज्र शक्ति को तथा कमल शुद्धता को दर्शाता था। १८८२ में बंगाल की पृष्ठभूमि पर आधारित आनंदमठ उपन्यास के गीत "वंदे मातरम" को बंगाली भाषा में लिखवाया। इस झंडे को काँग्रेस के वार्षिक अधिवेशन में दिसम्बर १९०६ में प्रदर्शित किया गया।
सचिंद्रनाथ बोस का तिरंगा

उस समय और भी तरह तरह के झंडे बनाये जाने लगे। चूँकि हमारा देश का हर हिस्सा अपने आप में दूसरे से अलग है और उस समय भारत का कोई एक झंडा नहीं हुआ करता था तो हर कोई अपने सुझाव दे रहा था। उन्हीं में से एक था सचिंद्रनाथ बोस का तिरंगा जो उन्होंने ७ अगस्त १९०६ को बंगाल के विभाजन के विरोध में फ़हराया था। सबसे ऊपर था संतरी रंग, बीच में पीला व सबसे नीचे था हरा रंग। संतरी रंग की पट्टी में ८ आधे खिले हुए कमल के फूल थे। सबसे नीचे एक सूरज और एक चंद्रमा था व बीच में देवनागरी में वंदेमातरम लिखा हुआ था।
भीकाजी कामा द्वारा जर्मनी में फहराया गया तिरंगा

उसके बाद २२ अगस्त १९०७ को भीकाजी कामा ने एक और तिरंगे को जर्मनी में फ़हराया। इसमें हरा रंग सबसे ऊपर, बीच में केसरिया और सबस नीचे लाल रंग था। हरा रंग इस्लाम व केसरिया हिन्दू व बौद्ध धर्म का कहा गया। हरे रंग की पट्टी में आठ कमल थे जो ब्रिटिश हुकूमत के समय भारत के आठ प्रांतों को दर्शाते थे। लाल रंग की पट्टी पर चाँद और सूरज बने हुए थे। इस तिरंगे को भीकाजी के साथ मिलकर बनाया था वीर सावरकर और श्याम जी कृष्ण वर्मा ने।

इसी तरह से गदर पार्टी ने अपना झंडा निकाला और बाल गंगाधर तिलक व एनी बेसेंट ने मिलकर अपने ध्वज का इस्तेमाल किया। देखिये इनकी झलक...
गदर पार्टी का तिरंगा
बाल गंगाधर तिलक व एनी बेसेंट का झंडा
सन १९१६ में पहली बार कांग्रेस ने एक ध्वज का निर्माण करने का फ़ैसला किया। ये कार्य सौंपा गया मछलीपट्टनम, आंध्रप्रदेश के लेखक पिंगली वेंकैया को। महात्मा गाँधी ने उन्हें ध्वज में "चरखा" इस्तेमाल करने की हिदायत दी। ये वो समय था जब चरखे के इस्तेमाल से लोग खादी को अपना रहे थे और उसी से एकता में बँध रहे थे। पिंगली वेंकैया ने खादी का ही ध्वज बनाया और उसमें लाल व हरे रंग की पट्टियों पर "चरखा" लगाया। परन्तु महात्मा गाँधी का मानना था कि लाल व हरा रंग तो हिन्दू और मुस्लिम समुदायों को प्रतिनिधित्व करते हैं इसलिये अन्य अल्पसंख्यक समुदायों के लिये सबसे ऊपर सफ़ेद रंग भी जोड़ा जाये। उस झंडे को १९२१ में लाया गया जिसे सबसे पहले कांग्रेस के अहमदाबाद सम्मेलन में फ़हराया गया किन्तु ये झंडा कभी भी कांग्रेस का आधिकारिक झंडा न बन सका क्योंकि ये काफ़ी हद तक आयरलैंड के झंडे से भी मेल खाता था।
1921 में कांग्रेस के अहमदाबाद सम्मेलन में फ़हराया गया झंडा कभी
1931 में कांग्रेस की कार्यकरिणी द्वारा गठित सात सदस्यीय कमेटी द्वारा पारित झंडा

देश में बहुत से लोग थे जो झंडे के साम्प्रदायिक व्याख्या से नाखुश थे। १९२४ के कलकत्ता के अपने अधिवेशन में अखिल भारतीय संस्कृत काँग्रेस ने झंडे में केसरिया रंग लाने की इच्छा जताई। उसी साल कहा गया कि गेहुँआ रंग हिन्दू संन्यासी व मुस्लिम फ़कीर दोनों का प्रतिनिधित्व करता है। सिख भी झंडे में पीले रंग को अपनाने की जिद करने लगे। इन सबके बीच १९३१ में कांग्रेस की कार्यकरिणी ने सात सदस्यीय कमेटी का गठन करने का निर्णय किया। जिसमें सरदार पटेल, जवाहर लाल नेहरू, मौलाना आज़ाद, मास्टर तारासिंह, काका कालेकर, डा. हर्दिकार व पट्टभी सीतारमैवा जैसे दिग्गज शामिल थे। इस कमेटी ने केसरिया रंग के झंडे का निर्माण किया जिसमें ऊपर चरखा बना हुआ था। ये विडम्बना है कि जिस दल के पटेल, नेहरू व आज़ाद सरीखे नेताओं ने केसरिया रंग की वकालत की उस भगवा रंग से कांग्रेस तब भी खौफ़ खाती थी और आज भी। संघ उस समय महज छह वर्ष पुराना ही था तो यह कहना कि उसके भगवा रंग से कमेटी प्रभावित हो गई होगी, बेमानी होगा। खैर कांग्रेस के लिये वो रंग साम्प्रदायिक हो गया और उस ने पटेल, नेहरू और मौलाना आज़ाद द्वारा पारित झंडे को भी मानने से इंकार कर दिया।

१९३१ में ही कराची में फिर कमेटी बैठी और पिंगली वैंकैया को फिर कमान सौंपी गई और केसरिया, सफ़ेद व हरे रंग का एक झंडा सामने आया जिसके बीच में चरखा बना हुआ था। इस झंडे से हम सब परिचित हैं।
1931 में झंडे में कराची में हुई बैठक के बाद किये गये परिवर्तन


दूसरी ओर सुभाष चंद्र बोस ने आज़ाद हिन्द फ़ौज़ की स्थापना उस झंडे के तले की जिसमें बाघ का चित्र बना हुआ था।
आज़ाद हिन्द फ़ौज़ का तिरंगा
स्वतंत्रता दिवस के महज २४ दिन पहले आनन फ़ानन में एक कमेटी गठित की गई जिसकी अध्यक्षता डा. राजेंद्र प्रसाद को दी गई। इसमें सी. राजगोपालाचारी, सरोजिनी नायडू, अबुल कलाम आज़ाद, के.एम.मुंशी व बी.आर अम्बेडकर शामिल थे। तब चरखे का स्थान लिया सारनाथ के "चक्र" ने। इस चक्र का डायामीटर सफ़ेद पट्टी की ऊँचाई का तीन चौथाई था। इस झंडे को स्वीकृति मिली व यही झंडा आज का तिरंगा बना।
आज का तिरंगा
काश इस झंडे पर वंदेमातरम भी लिखा होता!!!
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Sunday, January 23, 2011

जीवन बुलबुला Life is the bubble Hindi poem

जीवन दरिया, बहता पानी,

जीवन आकाश, अनन्त अनादि,




जीवन प्राण, जीवन वायु,
जीवन रेत, जीवन खेत,
जीवन आशा, जीवन निराशा,
जीवन धूप, जीवन छाँव


जीवन रंग, जीवन संगीत,
जीवन गीत,जीवन मीत,
जीवन हार, जीवन जीत

जीवन डगर, जीवन मंज़िल
जीवन समंदर, जीवन साहिल

जीवन पंछी, जीवन उड़ान,
जीवन आस्था, जीवन विश्वास
जीवन वृक्ष, जीवन समर्पण

जीवन बुलबुला...
क्षणभंगुर!!
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Saturday, January 15, 2011

प्या़ज़ के बढ़ते दामों के बीच मजबूर मनमोहन को मिला अटल का सहारा और प्याज के जमाखोरों के खिलाफ़ एक छोटी सी अपील Manmohan Met Atal Onion Issue | An Appeal to All Against Onion Traders and Hubs

ज से करीबन बारह वर्ष पूर्व दिल्ली में भाजपा की सरकार को प्याज़ ने ऐसा रुलाया कि आजतक भाजपा ने दिल्ली की गद्दी पर कब्जा नहीं पाया है। इसलिये जब भी प्याज के दाम बढ़ते हैं तब राजनैतिक गलियारे में हलचल शुरु हो जाती है।

ऐसा नहीं है कि केवल प्याज़ की कीमतों में बढ़ोतरी हुई है। इजाफ़ा हर चीज़ के दामों में हुआ है। सभी सब्ज़ियाँ महँगी हुईं हैं। जो सब्जी पच्चीस रूपये में एक किलो होती थी वो अब 250 ग्राम रह गई है। लेकिन प्याज़ की बात ही कुछ और है। हमारे प्रणव मुखर्जी और मनमोहन जी को इसकी चिंता सता रही है।

पिछले बीस बरसों में जब से गठबँधन सरकारें शुरू हुई हैं तब से "मजबूर" होना एक रिवाज़ बन गया है। स्व नरसिंह राव जी। उन से "मजबूर" तमगा प्रधानमंत्री को मिलना प्रारम्भ हुआ। जो फिर श्री गुजराल और देवेगौड़ा जी को भी मिला। नरसिंहराव की सरकार में वित्त मंत्री की जिम्मेदारी सम्भालने वाले मनमोहन आज प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठे हैं। चाहें गुजराल हों या देवेगौड़ा या फिर मनमोहन सभी को काँग्रेस पार्टी ने मजबूरी में कुर्सी पर बैठाया। पार्टी भी मजबूर और पीएम साहब भी मजबूर।

देवेगौड़ा और मनमोहन के बीच देश की जनता ने अटल जी की भी सरकार देखी। जब अटल ने कुर्सी सम्भाली तब न तो पार्टी मजबूर थी और न ही प्रधानमंत्री। पर गठबँधन का नियम है-मजबूर प्रधानमँत्री मजबूत गठबँधन। बस यही उसूल तब भी चल निकला। ममता दीदी उस जमाने में भी सरकार में थीं, अब भी हैं। तब जयललिता ने अटल को गिराया अब करूणानिधि ने रुला रहे हैं।
तो आप लोग समझ ही गये होंगे कि हमारे प्रधानमंत्री कितने और क्यों मजबूर हैं? ये अब जगजाहिर है।

2004 में अटल और मनमोहन में कुछ इस तरह गीत-संवाद हुआ था-
अटल: तेरी दुनिया से दूर, चले होके "मजबूर" हमें याद रखना....
मनमोहन सिंह: जाओ कहीं भी सनम, तुम्हें इतनी कसम हमें याद रखना....


पवार की पावर, राजा की मनमानी से दो-चार होते दिखते "मनु" भाई उन्हीं बातों को याद करते जब राजनीति के बूढ़े शेर अटल बिहारी वाजपेयी के पास पहुँचे-

मनमोहन: अटल जी, ये आप ने कहाँ फ़ँसा दिया। मैं तो कहीं का नहीं रहा।
अटल: क्या हुआ मनमोहन जी? खैरियत?
मनमोहन: कहाँ की खैरियत??आप को तो सब पता है गठबँधन की सरकार क्या बला होती है!!
अटल जी: पर मनमोहन जी, मैंने तो कभी गठबँधन (शादी) किया नहीं था इसलिये फ़ँसा। आप तो अनुभवी व्यक्ति हैं।
मनमोहन: ज़िन्दगी की गाड़ी और राजनीति में फ़र्क होता है। राजनीति में आते ही मैं भी काला हो गया हूँ। कुछ उपाय सुझायें।
अटल: मैं तो ये सोच ही रहा था कि आप यदि वित्त विभाग में ही रहते तो अच्छा था कहाँ राजनीति के अखाड़े में टूट पड़े। देखिये मैं तो अब बीमार रहता हूँ तो राजनीति से भी दूर ही हो गया हूँ। एक सुझाव देता हूँ। बीमारी का नाटक कीजिये और संन्यास ले लीजिये।
मनमोहन: ये बात तो आपने दुरुस्त कही। पर...पर...पर....
अटल: आपकी गाड़ी "पर" पर क्यों अटक गई? आपको मेरी बीमारी तो नहीं लग गई? अगला शब्द कब बोलेंगे?
मनमोहन: अरे नहीं नहीं, मैं तो ये सोच रहा था कि मैडम बुरा तो नहीं मान जायेंगी?

प्रधानमंत्री मजबूर, सरकार मजबूर..पर क्या आप और हम मजबूर हैं? बात कर रहे थे प्याज़ की। मेरे एक मित्र ने मुझसे पूछा कि क्या प्याज़ इतना जरूरी है कि हम उसके बिना नहीं  रह सकते? क्या नवरात्रि में साल के अठारह दिन हम बिना प्याज़ का खाना नहीं खाते? क्या सावन के महीने में हम प्याज़ बंद नहीं करते? इन सभी सवालों का जवाब यदि "हाँ" है तो- यदि हम प्याज़ की खपत कम कर दें तो क्या इसकी कीमत कम नहीं होगी? जमाखोर कब तक गोदामों में प्याज़ रखेंगे? याद रखिये ये नेता ही जमाखोर हैं। यहीं आग लगाते और बुझाते हैं। प्याज़ नेताओं को रुला सकता है पर यदि "हम" एक हो जायें तो कुछ भी कर सकते हैं। आप सभी पाठकों से अपील है-प्याज़ के आगे, जमखोरों के आगे मजबूर न हों। मजबूत बनें।
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Tuesday, January 11, 2011

आईपीएल की अजब कहानी, क्रिकेटरों पर बरसा सोने का पानी- दादा के नाम छोटी सी पोस्ट Dada cricketing career over after IPL auction? A Micro-post

भारतीय हॉकी के महान खिलाड़ी धनराज पिल्ले ने एक बार कहा था कि उन्हें हॉकी ने इज्जत, मान दिया पर पैसा नहीं दिया। ये कहते हुए उनकी आँखें छलक आईं थीं लेकिन हॉकी के लिये उनका समर्पण व प्यार बरकरार रहा। आज आईपीएल में जब युवा क्रिकेटरों के ऊपर पैसे की बरसात होते देखा तो सोच रहा हूँ कि कहीं हमारे युवाओं में "लालच" न बढ़ जाये और हॉकी को जो थोड़े बहुत सितारे मिल रहे हैं वे खत्म न हो जायें। लेकिन एशियन गेम्स और कॉमेनवेल्थ की कामयाबी मुझे झुठला भी सकती है।

नीलामी में उगते सूरज को सलाम किया और जम कर धन वर्षा की गई। ब्लैक मनी को व्हाईट किये जाने की इस प्रथा को शुरु किये जाने वाले "जनक" के ऊपर केस चल रहा है और उसकी टीमें राजस्थान और पंजाब अब आईपीएल में दोबारा अपनी किस्मत आजमाने के लिये जम कर मैदान में कूद चुकी हैं। कमोबेश यही हाल भारतीय टीम को टीम इंडिया बनाने वाले "दादा" का रहा। गौरतलब है कि सौरव गांगुली एक प्रिंटिंग प्रेस के मालिक हैं और उनकी गिनती कोलकाता के सबसे अमीर खानदानों में होती है। जिस खेल को उन्होंने अपनाया और पैसे के लिये नहीं बल्कि "पैशन" के लिये खेला उसी खेल में बाज़ार के "खिलाड़ियों" ने उन पर बोली भी नहीं लगाई। भारत को विश्वकप के फ़ाइनल तक पहुँचाने वाले कप्तान की किस्मत शायद उनके लिये ग़मों और मुश्किलों का "कप" भर रही है। एक भी खरीददार न मिलने का ग़म ज्यादा है या फिर चैपल प्रकरण के बाद टीम से दुखदाई विदाई का ये उनसे बेहतर कोई नहीं जानता।

लोग कहते हैं कि गाँगुली  में अहंकार है और उनमें "एटीट्यूड प्रॉब्लम" है। जानकारी के लिये बता दें कि इसी आईपीएल में सौरव गाँगुली की टीम में जगह बनाने वाला विश्व के दस सबसे अहंकारी खिलाडियों में जिसका नाम शामिल है वो युवा युवराज भी खेल रहा है। पिछले सीजन में सबसे ज्यादा रन बनाने वाले खिलाड़ियों में से एक सौरव गाँगुली के साथ किस्मत ने कितना ही बड़ा खिलवाड़ क्यों न किया हो लेकिन उनके चेहरे पर निराशा के बादल नहीं आते। कहते हैं इज़्ज़त और मान खरीदा नहीं जा सकता। भारत की "दीवार" जिसे ऑफ़साईड का भगवान कहती थी और भारतीय क्रिकेट को ऊँचाइयों और बुलंदियों तक पहुँचाने वाले इस महान खिलाड़ी को पैसे से नहीं अपने खेल से इज़्ज़त मिलती है।

चलते चलते गीतों भरी गुस्ताखियाँ

सौरव गाँगुली: हम से क्या भूल हुई, जो ये सजा हमको मिली....
शाहरूख खान: अब तेरे बिन जी लेंगे हम...
जवान खून(आईपीएल के लिये): दिल चीज़ क्या है..आप मेरी जान लीजिये....
टीमों के मालिक: आईपीएल है एक जुआ, कभी जीत भी कभी हार भी....
बीसीसीआई: पैसा, ये पैसा.... न बाप बड़ा न मैया... सबसे बड़ा रुपैया...


धूप-छाँव के नियमित स्तम्भ


गुस्ताखियाँ हाजिर हैं




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Tuesday, January 4, 2011

एक चवन्नी की भूली-बिसरी दास्तान 25 paisa coins no more Refresh Your memory with some old photos

जैसा कि आप सभी जानते हैं कि जल्द ही चवन्नी हमारे बीच से चली जाने वाली है। इसलिये आज का यह लेख समर्पित है उन छोटे सिक्कों के नाम जिनके सहारे कभी हम अपनी ज़िन्दगी गुजारा करते थे।

किसी भी वस्तु के मोल-भाव के लिये सिक्कों का चलन राजा महाराजाओं के समय से रहा है। शुरू में एक वस्तु के बदले दूसरी वस्तु लेने का चलन था जो बाद में मुद्रा में बदल गया। हर राजा ने अपने राज्य में अलग किस्म के सिक्के चलाये। सोने की अशरफ़ी से लेकर चाँदी की मोहरें तो हमने नहीं देखीं पर एक-दो के पैसे जरूर देखें हैं।

अंग्रेजों की ईस्ट इंडिया कम्पनी ने बंगाल, बम्बई और मद्रास से सोने की मोहरें व चाँदी के सिक्के चालू किये जो रूपये के आठवें व सोलहवें हिस्से तक के थे। मद्रास से उन्होंने २ रूपये का सिक्का भी निकाला। 1 पाई, १/२, १/४, १.५, १, २ पैसे के सिक्के आम थे।

जब भी कोई व्यक्ति अपनी बात की सच्चाई बताना चाहता है तो वो एक ही बात कहता है : "मेरी बात सोलह आने सही है"। अंग्रेज़ी में : I am cent percent correct. सोलह आना मिलकर एक रूपया बनाते हैं, इसीलिये, चार आना से बिगड़कर चौ आना और फिर चवन्नी बनी। इसी तरह अठन्नी भी। पर एक समय ऐसा था जब इस एक आने के भी कईं हिस्से होते थे। 1/16, 1/8,1 /4 आना।

बाद में तांबे, एल्युमीनियम आदि दूसरे पदार्थों से भी सिक्के बनने शुरु हो गये। महँगाई बढ़ती चली गई और सिक्कों की कीमत घटती चली गई। लोगों ने सिक्के जमा करने की अपनी आदत बना ली। आज आलम यह है कि एक, दो, पाँच, दस, बीस पैसे के सिक्के गुजरे जमाने की बातें हैं। आज ये अंक तो वहीं हैं पर इनके पीछे की इकाई (Unit)  बदल गई है। पैसे रूपये में बदल चुके हैं। धीरे धीरे जब भिखारियों ने भी ये पैसे लेने बंद कर दिये तब सरकार की नींद टूटी । सरकार महँगाई पर काबू नहीं पा सकती इसलिये इन सिक्कों को ही बंद करने का फ़ैसला कर लिया। 30 जून को चवन्नी का आखिरी दिन होगा। जल्द ही अठन्नी को भी बंद करने का निर्णय लिया जा सकता है। आज़ादी के बाद जब इन सिक्कों को शुरु किया गया तब इन्हें "नये पैसे" कहा जाता था। अब ये "नये पैसे" पुराने हो गये हैं।

चवन्नी भी सरकार से यही कह रही है: सखी सैयां तो खूब ही कमात है.. महँगाई डायन खाये जात है....
आईये चवन्नी को अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि दें। आपको छोड़ जाते हैं चवन्नी और उसके साथियों की चंद तस्वीरों के साथ...

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