आप सभी को गणतंत्र दिवस की बधाई। हमारा देश आज 62वां गणतंत्र दिवस मना रहा है। 26 जनवरी 1950 वो दिन है जब हमारा देश गणतंत्र घोषित हुआ था। पर आखिर गणतंत्र होने के मायने क्या हैं? क्या यह केवल परेड देखने और छुट्टी मनाने का एक और दिन है? नहीं। बिन्कुल नहीं। इसका मतलब है कि आप स्वतंत्र हैं अपनी खुद की सरकार चुनने के लिये। आपकी सरकार आपके लिये। संविधान बना, कानून बने। हमारे अधिकार और हमारे कर्त्तव्य हमें बताये गये। पर हम केवल एक ही बात का ध्यान रखते हैं। अधिकार!! पर हमारे कर्त्तव्यों का क्या? क्या आप और हम अपने कर्त्तव्यों के बारे में जानते हैं?
चलिये आप को एक ऐसे देश में ले चलते हैं जहाँ राष्ट्रगीत पर पाबंदी लगाई जाती हो? क्या आप ऐसा देश जानते हैं जहाँ राष्ट्रध्वज को फ़हराने के लिये अनुमति लेनी होती है? एक ऐसा देश बतायें जहाँ दुश्मनों के झंडे तो आप आसानी से फ़हरा सकते हैं पर अपना खुद का झंडा लहराने के लिये आपको मनाही है। जी हाँ आपने सही पहचाना यह हमारा अपना हिन्दुस्तान ही है। इस देश में आपको तिरंगा लहराने के लिये मना किया जाता है। भाजपा के तिरंगे मिशन को रोकने के लिये बहुत प्रयास किये गये। भाजपा यहाँ राजनीति कर रही है। ऐसा कुछ दल आरोप लगा रहे हैं। आरोप सही हैं या नहीं बात इसकी नहीं।जि:संदेह इस राजनीति का फ़ायदा भाजपा को पहुँचेगा। पर बात उस अधिकार की है जो हमारा गणतंत्र हमें देता है। श्रीनगर का लाल-चौक जहाँ पाकिस्तानी झंडे लहराये जाते हैं वहाँ उन लोगों पर कोई केस नहीं होता। यासिन मलिक जैसे अलगाववादी नेता जो कश्मीर को भारत से अलग देखना चाहते हैं उन्हें कोई कुछ नहीं कहता। "गदर" में सनी देओल से जब हिन्दुस्तान मुर्दाबाद कहलाया जाता है तब सनी देओल डायलॉग मारते हैं:
"आपका पाकिस्तान जिन्दाबाद है इसमें हमें कोई आपत्ति नहीं लेकिन हमारा हिन्दुस्तान जिन्दाबाद है, जिन्दाबाद रहेगा।"
इस डायलॉग पर हो सकता है कि आप, मैं और हमारे नेता लोग भी ताली बजायें। लेकिन फिर क्यों नहीं हम इन अलगाववादियों को यह कहें कि आप जब पाकिस्तान का झंडा बुलंद करते हैं तब हमें कोई आपत्ति नहीं तो फिर लालचौक पर अपने ही देश का झंडा लहराने पर उन्हें आपत्ति क्यों?
खैर, मुद्दा नाजुक है। और हम में से अधिकतर इस बेहद संवेदनशील मुद्दे की शुरुआत से अनभिज्ञ हैं। इस पर कुछ कहना मेरे लिये ठीक नहीं। लेकिन मेरा विवेक कहता है कि जब आप देश के उस हिस्से में तिरंगा नहीं लहरा सकते तो उस हिस्से को देश का हिस्सा मानना ही गलत है। और जब हमारी सरकार उसे भारत का हिस्सा मानती है तो तिरंगा लहराना राजनीति नहीं अपना हक़ होना चाहिये।
मैथिली शरण गुप्त की कलम से निकली देशभक्ति की यह पंक्तियाँ:
"जो भरा नहीं है भावों से बहती जिसमें रसधान नहीं, वह हृदय नहीं है पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं।"
कैसे बना हमारा राष्ट्र-ध्वज। आइये डालते हैं इतिहास के पन्नों पर कुछ नजर:
विजयी विश्व तिरंगा प्यारा, झंडा ऊँचा रहे हमारा.... ये बोल सुनते ही शरीर में रौंगटे खड़े होने लगते हैं और हम गर्व से कह उठते हैं कि तिरंगा हमें सबसे प्यारा है। खेलों के मैदान में दर्शक यही तिरंगा फ़ैला कर अपनी खुशी का इजहार करते हैं। १५ अगस्त को पतंगें चुनते हुए तिरंगों का खास ध्यान रखा जाता है। इतने खास तिरंगे के बारे में आइये थोड़ा जानते हैं।
२२ जुलाई १९४७ को आज के तिरंगे को मान्यता मिली। आज के तिरंगे को तो हम जानते ही हैं। तीन रंग बीच में अशोक चक्र। सबसे ऊपर केसरिया, फिर सफ़ेद और फिर हरा। लेकिन इससे पहले इस तिरंगे के कितने स्वरूप बदले हैं उसके लिये इतिहास में झाँकना होगा। सबसे पहले १९०४-०५ में स्वामी विवेकानंद की शिष्या सिस्टर निवेदिता ने एक झंडा प्रस्तुत किया। लाल और पीले रंगे के इस झंडे में वज्र और कमल के फूल भी थे। लाल रंग स्वतंत्रता संग्राम का तो पीला विजयी होने का प्रतीक था। वज्र शक्ति को तथा कमल शुद्धता को दर्शाता था। १८८२ में बंगाल की पृष्ठभूमि पर आधारित आनंदमठ उपन्यास के गीत "वंदे मातरम" को बंगाली भाषा में लिखवाया। इस झंडे को काँग्रेस के वार्षिक अधिवेशन में दिसम्बर १९०६ में प्रदर्शित किया गया।
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सचिंद्रनाथ बोस का तिरंगा |
उस समय और भी तरह तरह के झंडे बनाये जाने लगे। चूँकि हमारा देश का हर हिस्सा अपने आप में दूसरे से अलग है और उस समय भारत का कोई एक झंडा नहीं हुआ करता था तो हर कोई अपने सुझाव दे रहा था। उन्हीं में से एक था सचिंद्रनाथ बोस का तिरंगा जो उन्होंने ७ अगस्त १९०६ को बंगाल के विभाजन के विरोध में फ़हराया था। सबसे ऊपर था संतरी रंग, बीच में पीला व सबसे नीचे था हरा रंग। संतरी रंग की पट्टी में ८ आधे खिले हुए कमल के फूल थे। सबसे नीचे एक सूरज और एक चंद्रमा था व बीच में देवनागरी में वंदेमातरम लिखा हुआ था।
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भीकाजी कामा द्वारा जर्मनी में फहराया गया तिरंगा
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उसके बाद २२ अगस्त १९०७ को भीकाजी कामा ने एक और तिरंगे को जर्मनी में फ़हराया। इसमें हरा रंग सबसे ऊपर, बीच में केसरिया और सबस नीचे लाल रंग था। हरा रंग इस्लाम व केसरिया हिन्दू व बौद्ध धर्म का कहा गया। हरे रंग की पट्टी में आठ कमल थे जो ब्रिटिश हुकूमत के समय भारत के आठ प्रांतों को दर्शाते थे। लाल रंग की पट्टी पर चाँद और सूरज बने हुए थे। इस तिरंगे को भीकाजी के साथ मिलकर बनाया था वीर सावरकर और श्याम जी कृष्ण वर्मा ने।
इसी तरह से गदर पार्टी ने अपना झंडा निकाला और बाल गंगाधर तिलक व एनी बेसेंट ने मिलकर अपने ध्वज का इस्तेमाल किया। देखिये इनकी झलक...
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गदर पार्टी का तिरंगा
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बाल गंगाधर तिलक व एनी बेसेंट का झंडा
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सन १९१६ में पहली बार कांग्रेस ने एक ध्वज का निर्माण करने का फ़ैसला किया। ये कार्य सौंपा गया मछलीपट्टनम, आंध्रप्रदेश के लेखक पिंगली वेंकैया को। महात्मा गाँधी ने उन्हें ध्वज में "चरखा" इस्तेमाल करने की हिदायत दी। ये वो समय था जब चरखे के इस्तेमाल से लोग खादी को अपना रहे थे और उसी से एकता में बँध रहे थे। पिंगली वेंकैया ने खादी का ही ध्वज बनाया और उसमें लाल व हरे रंग की पट्टियों पर "चरखा" लगाया। परन्तु महात्मा गाँधी का मानना था कि लाल व हरा रंग तो हिन्दू और मुस्लिम समुदायों को प्रतिनिधित्व करते हैं इसलिये अन्य अल्पसंख्यक समुदायों के लिये सबसे ऊपर सफ़ेद रंग भी जोड़ा जाये। उस झंडे को १९२१ में लाया गया जिसे सबसे पहले कांग्रेस के अहमदाबाद सम्मेलन में फ़हराया गया किन्तु ये झंडा कभी भी कांग्रेस का आधिकारिक झंडा न बन सका क्योंकि ये काफ़ी हद तक आयरलैंड के झंडे से भी मेल खाता था।
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1921 में कांग्रेस के अहमदाबाद सम्मेलन में फ़हराया गया झंडा कभी |
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1931 में कांग्रेस की कार्यकरिणी द्वारा गठित सात सदस्यीय कमेटी द्वारा पारित झंडा |
देश में बहुत से लोग थे जो झंडे के साम्प्रदायिक व्याख्या से नाखुश थे। १९२४ के कलकत्ता के अपने अधिवेशन में अखिल भारतीय संस्कृत काँग्रेस ने झंडे में केसरिया रंग लाने की इच्छा जताई। उसी साल कहा गया कि गेहुँआ रंग हिन्दू संन्यासी व मुस्लिम फ़कीर दोनों का प्रतिनिधित्व करता है। सिख भी झंडे में पीले रंग को अपनाने की जिद करने लगे। इन सबके बीच १९३१ में कांग्रेस की कार्यकरिणी ने सात सदस्यीय कमेटी का गठन करने का निर्णय किया। जिसमें सरदार पटेल, जवाहर लाल नेहरू, मौलाना आज़ाद, मास्टर तारासिंह, काका कालेकर, डा. हर्दिकार व पट्टभी सीतारमैवा जैसे दिग्गज शामिल थे। इस कमेटी ने केसरिया रंग के झंडे का निर्माण किया जिसमें ऊपर चरखा बना हुआ था। ये विडम्बना है कि जिस दल के पटेल, नेहरू व आज़ाद सरीखे नेताओं ने केसरिया रंग की वकालत की उस भगवा रंग से कांग्रेस तब भी खौफ़ खाती थी और आज भी। संघ उस समय महज छह वर्ष पुराना ही था तो यह कहना कि उसके भगवा रंग से कमेटी प्रभावित हो गई होगी, बेमानी होगा। खैर कांग्रेस के लिये वो रंग साम्प्रदायिक हो गया और उस ने पटेल, नेहरू और मौलाना आज़ाद द्वारा पारित झंडे को भी मानने से इंकार कर दिया। ।
१९३१ में ही कराची में फिर कमेटी बैठी और पिंगली वैंकैया को फिर कमान सौंपी गई और केसरिया, सफ़ेद व हरे रंग का एक झंडा सामने आया जिसके बीच में चरखा बना हुआ था। इस झंडे से हम सब परिचित हैं।
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1931 में झंडे में कराची में हुई बैठक के बाद किये गये परिवर्तन |
दूसरी ओर सुभाष चंद्र बोस ने आज़ाद हिन्द फ़ौज़ की स्थापना उस झंडे के तले की जिसमें बाघ का चित्र बना हुआ था।
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आज़ाद हिन्द फ़ौज़ का तिरंगा |
स्वतंत्रता दिवस के महज २४ दिन पहले आनन फ़ानन में एक कमेटी गठित की गई जिसकी अध्यक्षता डा. राजेंद्र प्रसाद को दी गई। इसमें सी. राजगोपालाचारी, सरोजिनी नायडू, अबुल कलाम आज़ाद, के.एम.मुंशी व बी.आर अम्बेडकर शामिल थे। तब चरखे का स्थान लिया सारनाथ के "चक्र" ने। इस चक्र का डायामीटर सफ़ेद पट्टी की ऊँचाई का तीन चौथाई था। इस झंडे को स्वीकृति मिली व यही झंडा आज का तिरंगा बना।
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आज का तिरंगा |
काश इस झंडे पर वंदेमातरम भी लिखा होता!!!