Saturday, June 28, 2008

जहाँ बात बात पर कानून को जम कर जाता है तोड़ा

आगे की लाइन कहते हुए शर्म आती है पर सच कड़ुआ होता है। गुज़रे जमाने की सिकंदर-ए-आजम फिल्म से रफी साहब का गाया हुआ एक गीत है जिसकी तर्ज पर इस लेख का शीर्षक चुना गया है। वो भारत देश है मेरा।
इस देश में असत्य है, हिंसा है और अधर्म भी है। शायद इसीलिये आज के गीतकार ऐसे गीत नहीं लिख पा रहे हैं। बात गीत की नहीं, बात आज हिंसा की होगी। बात बात पर कानून के उल्लंघन की होगी। जो हम सब करते हैं। जाने अनजाने करते हैं। क्योंकि हम सब इस "गैरकानूनी" समाज का एक हिस्सा हैं।

सोच तो काफी दिनों से रहा था इस विषय पर सवाल उठाने की पर आज मौका मिला। मुद्दे पर आते हैं। भूमिका इतनी है कि इस देश में जो कानून तोड़ता है उसको सर पर बैठाया जाता है। और ये कानून बार बार तोड़ा जाता है। खेल में कहावत है कि रिकार्ड टूटने के लिये बनते हैं पर राजनीति के इस सामाजिक अखाड़े में कानून टूटने के लिये बनते हैं। बजट के महीने में पहुँचें तो पायेंगे कि हमारी केंद्र सरकार ने किसानों के कर माफ़ कर दिये। जिन किसानों ने टैक्स नहीं भरा था उनका सारा कर माफ कर दिया गया। करीबन ७१ हजार करोड़ रूपये का। किसान गरीब होते हैं। माना। पर तकलीफ हाथों में हो और इलाज पैरों का हो तो क्या होगा? उनके पास पैसे नहीं हैं। खेती के नवीनतम साधन नहीं हैं। जो अनाज वो बेचते हैं उनको उसके उचित दाम नहीं मिलते। समस्या जस की तस है। न चाहते हुए भी कानून की नजर से देखें तो किसान गुनाहगार हैं। लेकिन उन्हें गुनाहगार बनाने वाली सरकारें किसानों को और दलदल में फँसा रहीं हैं।

रूख करते हैं राजधानी दिल्ली का। सुप्रीम कोर्ट ने यहाँ अवैध निर्माणों को तोड़ने का आदेश दिया था। कईं मकान ऐसे थे जो जरूरत से ज्यादा ऊँचे थे। किसी की दुकान आगे थी। काफी कारण रहे। पर इन सबको नज़रअंदाज़ कर सरकार नित नये कानून बना रही है। जो कालोनियाँ गलत तरीके से बसाई गईं थीं उन्हें कानूनी जामा पहनाया जा रहा है। मतलब चाहें आपने जितने भी अवैध मकान या दुकान बनाये हों पर जब तक आपके पास वोट की ताकत है आप निश्चित रहें। जम कर कानून तोड़ें। नेता आपका सदैव साथ देंगे। यहाँ हमारी ही गलती है। पर खुद पर इल्जाम लगाने में तकलीफ होती है। कैसे कहें कि यहाँ जनता सरासर गलत है। चलिये ये तो मुनष्य की प्रकृति है, अपनी गलती देख पाना हमेशा ही मुश्किल रहा है।

बैंसला साहब की करतूतों के बिना इस लेख का अंत मुमकिन नहीं है। वे कहते रहे कि अहिंसक आंदोलन कर रहे हैं। रेल की पटरियों को तोड़ना उनके लिये हिंसा नहीं है। बसें जलाई जानी भी उनके लिये हिंसा नहीं। मुझे समझ में नहीं आता है कि एक तरफ हम सरकार को कोसते हैं कि जनता की सुविधाओं के अनुसार बसें नहीं चलाईं जाती दुसरी ओर जनता स्वयं के काम आने वाली चीज़ को खुद ही आग लगाती हैं। दुकानें तोड़ी जाती हैं। अजीब विरोधाभास है। कारण क्या है? क्यों गुस्से की आग से जल रहा है भारत? खैर अंत में बैंसला साहब की बातें मान ली गईं। इन्हीं की तरह हाल ही में सिखों ने दंगा फसाद खड़ा किया। कभी शिवसेना, पवार की एन.सी.पी, राज ठाकरे की महाराष्ट्र नव निर्माण सेना कभी अलग अलग घर्मों के संगठन आदि रोज नये कारनामों को अंजाम देती हैं। लेकिन होता क्या है? कानून को बनाने वाले कानून को तोड़ते हैं और उसकी धज्जियाँ उड़ाई जाती है। अब तो हमें भी इस सबकी आदत हो गई है।

ऐसे अनगिनत ही वाकये हैं जब नियमों को ताक पर रखा गया है। अभी ट्रैफिक के नियमों की बात तो करी ही नहीं। जनता ही कानून का उल्लंघन करने में सबसे आगे होती है और पुलिस, नेताओं को हम दोषी करार देते हैं क्योंकि हम अपने आप में झाँकने से डरते हैं। बात फिल्मों से शुरू की थी, खत्म भी उसी से करना चाहूँगा। मनोज कुमार ने एक फिल्म बनाई थी-"पूरब और पश्चिम"। अब तक ज्यादातर फिल्में जो देशभक्ति की बनीं हैं वे किसी न किसी युद्ध पर अथवा आतंकवादी हमले पर आधारित रहीं हैं। परन्तु ये अपने आप में अलग फिल्म थी। इसमें कोई आतंकवादी नहीं था। इसी में एक गाना था- है प्रीत जहाँ की रीत सदा। अब न तो ऐसी फिल्में बनती हैं और न ही ऐसे गाने। क्योंकि कहते हैं कि फिल्में समाज का आइना होती हैं। जब समाज वैसा नहीं रहा तो गाने कैसे बनेंगे?
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Sunday, June 15, 2008

स्वार्थ व झूठ से भरे ४ वर्ष

आप सोच रहे होंगे कि ४ साल किस बात के? दरअसल कल यानि १४ जून २००८ को इस कार्पोरेट जगत के चार साल पूरे हुए। कहने को तो जनवरी २००४ से काम करना शुरू किया था परन्तु चूँकि डिग्री जून में मिली थी इसलिये पहले ६ महीने गिनती में नहीं आ सकते। खैर मुद्दा ये नहीं है। आप लोगों ने एक फिल्म देखी होगी कारपोरेट| मैंने नहीं देखी, अभी देखनी है। कहते हैं उसमें इस जगत की कईं परतें खोली हुई हैं। मुझे भी इस धंधे में चार बरस पूरे हुए। लेकिन मेरा दायरा आईटी की बहुराष्ट्रीय कम्पनियों तक ही सीमित होगा। उम्मीद है अब तक आप आगे की भूमिका समझ चुके होंगे।

चलिये शुरू करते हैं मेरी पहली कम्पनी से। काम अच्छा, बहुत अच्छा। लोग अच्छे। बहुत बढ़िया तरीके से सब कुछ चल रहा था। आज की तारीख में मुफ्त में लस्सी और शीतल पेय (कोल्ड ड्रिंक) कौन सी कम्पनी पिलाती है? हर शुक्रवार को हिन्दी फिल्म दिखाई जाती थी। लेकिन एक दिन अचानक अफवाह उड़ती है कि १०० लोगों को निकाल दिया गया है। रोंगटे खड़े हो जाते हैं। यकायक सब खत्म। जो नये छात्र कालेजों से अरमान लेकर आते हैं कि बड़ी कम्पनी में काम करेंगे उन इंजीनियरों को मना कर दिया जाता है। उस समय कुछ समझ नहीं आ रहा था। ऊपर वालों ने कहा कि प्रोजेक्ट नहीं चल रहे थे। लेकिन यदि ऐसा था तो लोगों को कम्पनी में आने का न्योता ही क्यों दिया? क्या ये कम्पनी की दूरदर्शिता की कमी थी या कुछ और? क्योंकि ये सिलसिला बदस्तूर जारी रहा। क्या मंशा रही थी कम्पनी की? ये भी अफवाह थी कि कम्पनी भूमि में निवेश करना चाहती है इसीलिये साफ्टवेयर में ध्यान नहीं दे रही। पता नहीं क्या सच है क्या झूठ? कहते हैं कि अगर व्यापार करना है तो मालिक को भावुकता का त्याग करना पड़ता है। शायद ऐसा ही तब हुआ होगा। लेकिन लोगों के भविष्य को अँधकार में घकेल कर!! आज की तारीख में ये हाल काफी कम्पनियों में सुनने को मिल रहा है। शायद भावनायें व संवेदनायें कहीं खो गईं हैं स्वार्थ के सागर में?

लेकिन अभी तो स्वार्थ का एक सिरा ही देखने को मिला है। अब जानते हैं इंजीनियरों की राय। जहाँ ज्यादा पैसा देखा वहाँ कूद पड़े। फलानी कम्पनी यदि अमरीका भेजती है तो अपनी नौकरी छोड़ने में मिनट नहीं लगती है। पैसा किसे बुरा लगता है? फिर नमकहलाली व वफादारी जैसे शब्द अब कहानियों में ही सुनने को मिलते हैं। ये खेल इमोशंस से नहीं खेला जाता है, इन चार वर्षों ने ये बात तो घूँट घूँट कर पिलाई है मुझे। वो दौर गया जब लोग एक ही कम्पनी के होकर रह जाते थे और अपनी सारी उम्र उसी में लगाते थे। आज की तारीख में ऐसे आदमी को मूर्ख कह कर पुकारा जाता है। यदि आकड़ों की मानें तो एक इंजीनियर औसतन हर ७ महीने में कम्पनी बदलता है। कारण जो भी रहें। क्या है इस बेरूखी का राज़? क्यों नहीं हो पाते लोग संतुष्ट अपनी नौकरी से? क्या पैसा सचमुच बड़ा हो गया है? या लोगों की इच्छायें भानुमति का पिटारा बनती जा रहीं हैं? लेकिन ये भी कहा जाता है कि कम्पनी नहीं छोड़ी जाती बल्कि मैनेजर छोड़ा जाता है। लोगों की अपने मैनेजर से नहीं बनती है? क्या रवैया होता है काम करवाने का? क्या माहौल होता है काम का? किस तरह की चिंताओं से गुजरना होता है? काम का बोझ? कारण बहुत हो सकते हैं पर लगता है शाहरूख खान ने इन्हीं आकड़ों से प्रेरित होकर "विश" का एड बनाया है। थोड़ा और 'विश' करो।

चलिये स्वार्थसागर से बाहर आते हैं। ये बात आईटी के लोगों को पता होगी शायद। चूँकि ज्यादातर काम विदेश से आता है। तो जिस तरह का काम आता है उन्हें वैसे ही बंदे चाहिये होते हैं। लेकिन यदि न हों तो? कोई चिंता नहीं। एक नकली रिज़्यूम बनाओ और भेज दो। नकली काम दिखाया जाता है। नकली अनुभव होता है। सब कुछ दिखावा। जब काम आयेगा तब की तब देखी जायेगी। मैं इस तरह का शिकार हो चुका हूँ। जो काम मैंने कभी किया नहीं था उसमें ८ महीने बताये गये!!! इसी झूठ पर टिकी होती है कम्पनी की आय!!

ये मेरा अनुभव था ४ सालों का। कहाँ कहाँ सिफारिश चलती है वो नहीं बताऊँगा। क्योंकि वो तो पुरानी रीत चली आई है। हमारी नस नस में समाई है और आगे भी रहेगी। आई टी की कमोबेश हर कम्पनी में यही हाल हैं। ये हो सकता है कि कुछ लोग मेरी बातों पर आपत्ति करें परन्तु ये मेरी व्यक्तिगत राय थी। जो मैंने देखा मैंने सबके सामने रखा। अभी तो चार ही साल पूरे करें हैं आगे क्या क्या देखने को मिलेगा ये वक्त ही बतायेगा।
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Wednesday, June 4, 2008

माँ, तितली कैसी होती है?



रविवार को NDTV पर एक प्रोग्राम देख रहा था जिसका प्रसारण डल झील से हो रहा था। बहस हो रही थी कि क्या विकास पर्यावरण को नुकसान पहुँचा रहा है। उसी बहस के कुछ मुद्दों का जिक्र आगे के लेख में करूँगा। बहस की शुरूआत में डल झील के आसपास हो रहे निर्माण कार्य के बारे में बताया गया, जो शायद वहाँ के विकास के लिये हो रहा था। किन्तु उससे झील को काफी नुकसान पहुँच रहा है। आसपास के पेड़ कट रहे हैं। शायद मनुष्य के रहने के लिये। अजीब विडम्बना है। रहने के लिये पेड़ को काटना पड़ता है, जिससे मानव जिंदा रहता है। विडम्बना से ज्यादा मुझे मनुष्य के इस कार्य में विरोधाभास झलकता है।

खैर, बात ये भी उठी कि क्या ऐसा हो सकता है कि विकास भी होता रहे और पर्यावरण भी बचा रहे। किसी ने कहा कि हाँ, ये सम्भव है बशर्ते हम विकास के तरीके को बदले। यहाँ किसी ने ये भी कहा कि क्यों न डल झील की देखरेख किसी प्राईवेट संस्था को दे दी जाये। इस बात पर उमर अब्दुल्ला बिगड़ गये। राजनेता हैं भई। उन्होंने पलटवार किया और कहा कि सरकार अगर इस काम को प्राइवेट लोगों के हाथ में सौंप दे तो क्या जनता उसका फालतू खर्च उठाने को तैयार है? क्योंकि जो कम्पनी इस काम को अपने हाथों में लेगी वो बाद में पैसा भी जनता से ही निकालेगी। इस बात का उन सज्जन के पास जवाब नहीं था। अब जब अपनी जेब पर बन आई तो आवाज़ उठेगी क्यों? फिर चाहें पर्यावरण जाये भाड़ में।

अभी बीच में ही एक और सज्जन ने विकास पर ही सवाल उठा दिया। क्या जो हम निर्माण कर रहें हैं, उसको विकास कहा जा सकता है? ये विकास कहा जाये या फिर कुछ और... उनके कहने का आशय स्पष्ट था कि क्या पहाड़ों, पेड़ों को काट काट कर बड़ी-बड़ी इमारतें बनाना ही विकास कहलाता है? मुझे उनकी बात सही लगी। आज दिल्ली में जो ऊँची ऊँची इमारते हैं, गाज़ियाबाद, गुड़गाँव में सोसायेटियाँ बन रही हैं, वे सभी बनाते हुए पेड़ों के लिये जगह नहीं छोड़ रहीं हैं। आप देखेंगे जो सोसाइटी ९०-२००० के दशक में बनी हो और जो आज की तारीख में बन रही हो उसमें जमीन और आसमान का फर्क है। जगह कम हो गई है। न पार्किंग की जगह है और पेड़ अथवा पार्क को भूल ही जायें। कीमतें बढ़ गईं हैं। कमाल है!! जिन जगहों पर पहले बच्चों के खेलने के लिये पार्क होते थे, आज उन्हीं जगहों पर बच्चों को पढ़ाया जाता है। मेरा मतलब है कि स्कूल खोल दिया गया है। अब बच्चे किताबों में 'प' से पार्क पढ़ा करेंगे और देखने के लिये कम्प्यूटर तो है ही।

क्या वाकईं इसको विकास कहते हैं?

जहाँ पहले खेत हुआ करते थे, वहाँ की जमीन के लिये पैसे वाले घराने लड़ रहे हैं। वहाँ खाने के लिये कुछ नहीं पर गाडी के लिये कारखाने बनाने की योजना हो रही है। जिन लोगों को खाने और रहने के लिये लोन लेना पड़ता है, उन्हीं लोगों को गाडी के सपने दिखाये जा रहे हैं। अपना घर न सही, अपनी गाड़ी का सपना तो पूरा हो। जिस देश के लोग सड़क पर जरा सी टक्कर होते ही आपस में भिड़ जाते हों वहाँ के लोगों को अब और सावधान हो जाना चाहिये क्योंकि अब लड़ाई में बहुत सारी गाडियाँ और कूदने वाली हैं।

कार्यक्रम के अंत में एंकर एक ऐसा सवाल पीछे छोड़ जाता है जो सोचने पर मजबूर कर देता है। कुछ वर्ष बाद जब आने वाली पीढी हमसे पूछेगी कि तितली कैसी होती है? तब शायद हमारे पास पछताने और मुँह छिपाने के अलावा कुछ नहीं बचेगा। अभी भी शहरों में तितली लुप्त प्रजातियों में शामिल हो रही है। मैं आप पर छोड़ता हूँ कि क्या अँधाधुँध हो रहे निर्माण को विकास कहा जाये जहाँ पर्यावरण की धज्जियाँ उड़ रही हैं?? ये भविष्य हमारा है। या हम लोग चाहें तो मिल कर विकास की नईं परिभाषा गढ़ें। सदाचार, भाइचारे का विकास...लोगों के आचरण का विकास...शिष्टाचार का विकास...आदि..जवाब हमें ही ढूँढने है...

दो बातें कहनी रह गईं...पहली..वन्य जीवों को नुकसान.. बाघों की निरंतर कमी जग जाहिर है..राष्ट्रीय पशु ही न रहेगा तो?
दूसरा... GNP(Gross Net Production) में बढोतरी हो रही है परन्तु GNH (Gross Net Happiness) में कमी हो रही है... इसको विकास का नाम दिया जाता है... ये भी उसी बहस का ही एक हिस्सा थीं..

जाते जाते एक बात और-आज विश्व पर्यावरण दिवस है
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