आगे की लाइन कहते हुए शर्म आती है पर सच कड़ुआ होता है। गुज़रे जमाने की सिकंदर-ए-आजम फिल्म से रफी साहब का गाया हुआ एक गीत है जिसकी तर्ज पर इस लेख का शीर्षक चुना गया है। वो भारत देश है मेरा।
इस देश में असत्य है, हिंसा है और अधर्म भी है। शायद इसीलिये आज के गीतकार ऐसे गीत नहीं लिख पा रहे हैं। बात गीत की नहीं, बात आज हिंसा की होगी। बात बात पर कानून के उल्लंघन की होगी। जो हम सब करते हैं। जाने अनजाने करते हैं। क्योंकि हम सब इस "गैरकानूनी" समाज का एक हिस्सा हैं।
सोच तो काफी दिनों से रहा था इस विषय पर सवाल उठाने की पर आज मौका मिला। मुद्दे पर आते हैं। भूमिका इतनी है कि इस देश में जो कानून तोड़ता है उसको सर पर बैठाया जाता है। और ये कानून बार बार तोड़ा जाता है। खेल में कहावत है कि रिकार्ड टूटने के लिये बनते हैं पर राजनीति के इस सामाजिक अखाड़े में कानून टूटने के लिये बनते हैं। बजट के महीने में पहुँचें तो पायेंगे कि हमारी केंद्र सरकार ने किसानों के कर माफ़ कर दिये। जिन किसानों ने टैक्स नहीं भरा था उनका सारा कर माफ कर दिया गया। करीबन ७१ हजार करोड़ रूपये का। किसान गरीब होते हैं। माना। पर तकलीफ हाथों में हो और इलाज पैरों का हो तो क्या होगा? उनके पास पैसे नहीं हैं। खेती के नवीनतम साधन नहीं हैं। जो अनाज वो बेचते हैं उनको उसके उचित दाम नहीं मिलते। समस्या जस की तस है। न चाहते हुए भी कानून की नजर से देखें तो किसान गुनाहगार हैं। लेकिन उन्हें गुनाहगार बनाने वाली सरकारें किसानों को और दलदल में फँसा रहीं हैं।
रूख करते हैं राजधानी दिल्ली का। सुप्रीम कोर्ट ने यहाँ अवैध निर्माणों को तोड़ने का आदेश दिया था। कईं मकान ऐसे थे जो जरूरत से ज्यादा ऊँचे थे। किसी की दुकान आगे थी। काफी कारण रहे। पर इन सबको नज़रअंदाज़ कर सरकार नित नये कानून बना रही है। जो कालोनियाँ गलत तरीके से बसाई गईं थीं उन्हें कानूनी जामा पहनाया जा रहा है। मतलब चाहें आपने जितने भी अवैध मकान या दुकान बनाये हों पर जब तक आपके पास वोट की ताकत है आप निश्चित रहें। जम कर कानून तोड़ें। नेता आपका सदैव साथ देंगे। यहाँ हमारी ही गलती है। पर खुद पर इल्जाम लगाने में तकलीफ होती है। कैसे कहें कि यहाँ जनता सरासर गलत है। चलिये ये तो मुनष्य की प्रकृति है, अपनी गलती देख पाना हमेशा ही मुश्किल रहा है।
बैंसला साहब की करतूतों के बिना इस लेख का अंत मुमकिन नहीं है। वे कहते रहे कि अहिंसक आंदोलन कर रहे हैं। रेल की पटरियों को तोड़ना उनके लिये हिंसा नहीं है। बसें जलाई जानी भी उनके लिये हिंसा नहीं। मुझे समझ में नहीं आता है कि एक तरफ हम सरकार को कोसते हैं कि जनता की सुविधाओं के अनुसार बसें नहीं चलाईं जाती दुसरी ओर जनता स्वयं के काम आने वाली चीज़ को खुद ही आग लगाती हैं। दुकानें तोड़ी जाती हैं। अजीब विरोधाभास है। कारण क्या है? क्यों गुस्से की आग से जल रहा है भारत? खैर अंत में बैंसला साहब की बातें मान ली गईं। इन्हीं की तरह हाल ही में सिखों ने दंगा फसाद खड़ा किया। कभी शिवसेना, पवार की एन.सी.पी, राज ठाकरे की महाराष्ट्र नव निर्माण सेना कभी अलग अलग घर्मों के संगठन आदि रोज नये कारनामों को अंजाम देती हैं। लेकिन होता क्या है? कानून को बनाने वाले कानून को तोड़ते हैं और उसकी धज्जियाँ उड़ाई जाती है। अब तो हमें भी इस सबकी आदत हो गई है।
ऐसे अनगिनत ही वाकये हैं जब नियमों को ताक पर रखा गया है। अभी ट्रैफिक के नियमों की बात तो करी ही नहीं। जनता ही कानून का उल्लंघन करने में सबसे आगे होती है और पुलिस, नेताओं को हम दोषी करार देते हैं क्योंकि हम अपने आप में झाँकने से डरते हैं। बात फिल्मों से शुरू की थी, खत्म भी उसी से करना चाहूँगा। मनोज कुमार ने एक फिल्म बनाई थी-"पूरब और पश्चिम"। अब तक ज्यादातर फिल्में जो देशभक्ति की बनीं हैं वे किसी न किसी युद्ध पर अथवा आतंकवादी हमले पर आधारित रहीं हैं। परन्तु ये अपने आप में अलग फिल्म थी। इसमें कोई आतंकवादी नहीं था। इसी में एक गाना था- है प्रीत जहाँ की रीत सदा। अब न तो ऐसी फिल्में बनती हैं और न ही ऐसे गाने। क्योंकि कहते हैं कि फिल्में समाज का आइना होती हैं। जब समाज वैसा नहीं रहा तो गाने कैसे बनेंगे?
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इस देश में असत्य है, हिंसा है और अधर्म भी है। शायद इसीलिये आज के गीतकार ऐसे गीत नहीं लिख पा रहे हैं। बात गीत की नहीं, बात आज हिंसा की होगी। बात बात पर कानून के उल्लंघन की होगी। जो हम सब करते हैं। जाने अनजाने करते हैं। क्योंकि हम सब इस "गैरकानूनी" समाज का एक हिस्सा हैं।
सोच तो काफी दिनों से रहा था इस विषय पर सवाल उठाने की पर आज मौका मिला। मुद्दे पर आते हैं। भूमिका इतनी है कि इस देश में जो कानून तोड़ता है उसको सर पर बैठाया जाता है। और ये कानून बार बार तोड़ा जाता है। खेल में कहावत है कि रिकार्ड टूटने के लिये बनते हैं पर राजनीति के इस सामाजिक अखाड़े में कानून टूटने के लिये बनते हैं। बजट के महीने में पहुँचें तो पायेंगे कि हमारी केंद्र सरकार ने किसानों के कर माफ़ कर दिये। जिन किसानों ने टैक्स नहीं भरा था उनका सारा कर माफ कर दिया गया। करीबन ७१ हजार करोड़ रूपये का। किसान गरीब होते हैं। माना। पर तकलीफ हाथों में हो और इलाज पैरों का हो तो क्या होगा? उनके पास पैसे नहीं हैं। खेती के नवीनतम साधन नहीं हैं। जो अनाज वो बेचते हैं उनको उसके उचित दाम नहीं मिलते। समस्या जस की तस है। न चाहते हुए भी कानून की नजर से देखें तो किसान गुनाहगार हैं। लेकिन उन्हें गुनाहगार बनाने वाली सरकारें किसानों को और दलदल में फँसा रहीं हैं।
रूख करते हैं राजधानी दिल्ली का। सुप्रीम कोर्ट ने यहाँ अवैध निर्माणों को तोड़ने का आदेश दिया था। कईं मकान ऐसे थे जो जरूरत से ज्यादा ऊँचे थे। किसी की दुकान आगे थी। काफी कारण रहे। पर इन सबको नज़रअंदाज़ कर सरकार नित नये कानून बना रही है। जो कालोनियाँ गलत तरीके से बसाई गईं थीं उन्हें कानूनी जामा पहनाया जा रहा है। मतलब चाहें आपने जितने भी अवैध मकान या दुकान बनाये हों पर जब तक आपके पास वोट की ताकत है आप निश्चित रहें। जम कर कानून तोड़ें। नेता आपका सदैव साथ देंगे। यहाँ हमारी ही गलती है। पर खुद पर इल्जाम लगाने में तकलीफ होती है। कैसे कहें कि यहाँ जनता सरासर गलत है। चलिये ये तो मुनष्य की प्रकृति है, अपनी गलती देख पाना हमेशा ही मुश्किल रहा है।
बैंसला साहब की करतूतों के बिना इस लेख का अंत मुमकिन नहीं है। वे कहते रहे कि अहिंसक आंदोलन कर रहे हैं। रेल की पटरियों को तोड़ना उनके लिये हिंसा नहीं है। बसें जलाई जानी भी उनके लिये हिंसा नहीं। मुझे समझ में नहीं आता है कि एक तरफ हम सरकार को कोसते हैं कि जनता की सुविधाओं के अनुसार बसें नहीं चलाईं जाती दुसरी ओर जनता स्वयं के काम आने वाली चीज़ को खुद ही आग लगाती हैं। दुकानें तोड़ी जाती हैं। अजीब विरोधाभास है। कारण क्या है? क्यों गुस्से की आग से जल रहा है भारत? खैर अंत में बैंसला साहब की बातें मान ली गईं। इन्हीं की तरह हाल ही में सिखों ने दंगा फसाद खड़ा किया। कभी शिवसेना, पवार की एन.सी.पी, राज ठाकरे की महाराष्ट्र नव निर्माण सेना कभी अलग अलग घर्मों के संगठन आदि रोज नये कारनामों को अंजाम देती हैं। लेकिन होता क्या है? कानून को बनाने वाले कानून को तोड़ते हैं और उसकी धज्जियाँ उड़ाई जाती है। अब तो हमें भी इस सबकी आदत हो गई है।
ऐसे अनगिनत ही वाकये हैं जब नियमों को ताक पर रखा गया है। अभी ट्रैफिक के नियमों की बात तो करी ही नहीं। जनता ही कानून का उल्लंघन करने में सबसे आगे होती है और पुलिस, नेताओं को हम दोषी करार देते हैं क्योंकि हम अपने आप में झाँकने से डरते हैं। बात फिल्मों से शुरू की थी, खत्म भी उसी से करना चाहूँगा। मनोज कुमार ने एक फिल्म बनाई थी-"पूरब और पश्चिम"। अब तक ज्यादातर फिल्में जो देशभक्ति की बनीं हैं वे किसी न किसी युद्ध पर अथवा आतंकवादी हमले पर आधारित रहीं हैं। परन्तु ये अपने आप में अलग फिल्म थी। इसमें कोई आतंकवादी नहीं था। इसी में एक गाना था- है प्रीत जहाँ की रीत सदा। अब न तो ऐसी फिल्में बनती हैं और न ही ऐसे गाने। क्योंकि कहते हैं कि फिल्में समाज का आइना होती हैं। जब समाज वैसा नहीं रहा तो गाने कैसे बनेंगे?