Tuesday, September 27, 2011

भूले बिसरे गीत: एस.डी बर्मन के जन्मदिन पर समर्पित आज का यह अंक Old Hindi Movies Songs SD Burman Special

एक अक्तूबर 1906 को कोमिल्ला (अब बांग्लादेश) में एक बच्चे का जन्म हुआ जो हिन्दी फ़िल्म जगत में सचिन देव बर्मन (1 अक्टूबर 1906 - 31 अक्टूबर 1975) के नाम से जाना गया। बर्मन दा ने सौ से भी अधिक बॉलीवुड और बंगाली फ़िल्मों में अपना संगीत दिया।।

वे हिन्दी और बंगाली फ़िल्म संगीत प्रेमियों के चहेते बने रहे। एस.डी बर्मन ने लता मंगेशकर, मोहम्मद रफ़ी, गीता दत्त, मन्ना डे, किशोर कुमार, हेमन्त कुमार, आशा भोंसले, शमशाद बेग़म, मुकेश व तलत महमूद सभी के साथ काम किया। 

उन्होंने बीस फ़िल्मों में स्वयं भी गाने गाये हैं। इस बार के भूले-बिसरे गीत में हैं उनके जन्मदिन पर उन्हीं के गाये हुए गीत। उनकी आवाज़ में गजब सा जादू था, कशिश थी जिसे सुनते ही हर श्रोता मंत्रमुग्ध हो जाता है।

एस.डी. बर्मन उन शख़्सियतों में शामिल थे जिन्हें अवार्ड मिलते ही उस अवार्ड की महत्ता बढ़ जाती है।

1934: गोल्ड मैडल, बंगाल ऑल इंडिया म्यूज़िक कॉंफ़्रेंस, कोलकाता
1958: संगीत नाटक अकादमी
1958: एशिया फ़िल्म सोसायटी अवार्ड

राष्ट्रीय फ़िल्म अवार्ड

  • 1970 :  पार्श्वगायक (सफ़ल होगी तेरी आराधना :  आराधना)
  • 1974: संगीत निर्देशन (ज़िन्दगी ज़िन्दगी)

1969: पद्मश्री अवार्ड

फ़िल्मफ़ेयर अवार्ड:

  • 1954: सर्वश्रेष्ठ संगीत निर्देशक : टैक्सी ड्राईवर
  • 1973: सर्वश्रेष्ठ संगीत निर्देशक : अभिमान
  • 1959: सर्वश्रेष्ठ संगीत निर्देशक : सुजाता (नामांकित)
  • 1965: सर्वश्रेष्ठ संगीत निर्देशक : गाईड (नामांकित)
  • 1969: सर्वश्रेष्ठ संगीत निर्देशक : आराधना (नामांकित)
  • 1970: सर्वश्रेष्ठ संगीत निर्देशक : तलाश (नामांकित)
  • 1974: सर्वश्रेष्ठ संगीत निर्देशक : प्रेम नगर (नामांकित)


सफ़ल होगी तेरी आराधना

फ़िल्म: आराधना (1969)
संगीत: सचिन देव बर्मन
गीत: आनन्द बख़्शी




वहाँ कौन है तेरा
फ़िल्म: गाईड (1965)


मेरे साजन हैं उस पार 
फ़िल्म: बन्दिनी (1963)




।जय हिन्द।
।वन्देमातरम।

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Thursday, September 22, 2011

हमें क्यों आवश्यकता पड़ती है एक "स्पेशल" दिन की? (माइक्रोपोस्ट) Why Do We Celebrate Hindi Divas? Why Not Everyday? (Micropost)

हर वर्ष सितम्बर माह की चौदह तारीख को हिन्दी दिवस मनाया जाता है। आखिर इन "दिवसों" की आवश्यकता क्या पड़ती है? क्यों नहीं हर दिन हम हिन्दी को अपनी आत्मा में संजो कर रख सकते? क्यों हम अंग्रेज़ों की तरह साल में एक दिन का इंतज़ार करते हैं कुछ करने के लिये। हमारे देश को व देश के लोगों को विदेशियों की आदतें कॉपी करने में आनन्द आता है। हम यह नहीं सोचते कि विदेशी को कर रहे हैं वे अच्छा है अथवा बुरा।

अग्रेज़ों के यहाँ रिश्ते आज हैं और कल नहीं। इसलिये अपने प्रेमी से प्रेम का इज़हार करने के लिये वैलेंटाईन डे बनाया। हर साल ही प्रेमी और प्रेमिका बदलते रहते हैं वहाँ। वैसे तो पति-पत्नी भी एक वर्ष साथ रह जायें वही बहुत है। उनके लिये परिवार आवश्यक नहीं इसलिये मदर्स डे व फ़ादर्स डे जैसे दिन बना डाले। चलो एक दिन तो अपने माता-पिता के पास वे जायेंगे। और हम उस श्रवणकुमार की कहानी भूल जाते हैं जो अपने अँधे माता पिता को सभी धामों की यात्रा कराता था।  क्यों नहीं श्रवणकुमार की याद में कोई दिवस मनाया जाता? है न ग्लोबलाइज़ेशन का कमाल!! देश को भूलो परदेस को याद रखो....

उसी तरह हम हिन्दी भी भूल रहे हैं। अंग्रेज़ी व अन्य विदेशी भाषायें इस कदर हम पर हावी हैं कि कुछ लोग अपने दो-तीन साल के बच्चे के साथ भी अंग्रेज़ी में ही बात करते हैं। मैक-डॉनैल्ड जैसे विदेशी रेस्टोरेंट में जाकर धड़ल्ले से अंग्रेज़ी में रोब जमाते हैं। और ऐसे व्यवहार करते हैं कि जैसे हिन्दी बोलना पाप हो गया हो। हिन्दी बोलने वाला बच्चा हीन भावना का शिकार हो रहा है। 

आजकल छठीं कक्षा से फ़्रेंच व जर्मन भाषायें सिखाने का चलन शुरू हो गया। अभिभावक यह समझते हैं कि चूँकि ये भाषायें उनके बच्चे का "विकास" करेंगी इसलिये वे अपने बच्चों को जर्मन व फ़्रेंच सिखा रहे हैं। लेकिन वे नहीं जानते कि वे संस्कृत न पढ़वा कर बच्चे को बौद्धिक विकास से दूर कर रहे हैं। हमारे ग्रन्थों में व नीतियों में ऐसी गूढ़ बातों का  उल्लेख है जो हम जर्मन व स्पेनिश में नहीं सीख सकते। जर्मन व स्पेनिश जैसी भाषायें तो आप एक साल का कोई भी कोर्स करके सीख जायेंगे..पर संस्कृत कब सीखेंगे? आपको यह जानकर अचरज हो सकता है कि चीन का विश्वविद्यालय संस्कृत सिखा रहा है और विद्यार्थियों में रूचि भी है। और हम.... ग्लोबलाइज़ेशन का जमाना है...

आज हिन्दी इतनी उपेक्षित हो चुकी है कि यह "एक दिन" की मोहताज बन गई है। सबसे प्राचीन भाषाओं में से एक संस्कृत अब केवल पंडितों की भाषा बन कर रह गई है। उसका तो एक "दिवस" भी मुझे नहीं पता। क्या आपको पता है "संस्कृत दिवस" कब मनाया जाता है? बहरहाल प्रश्न जस का तस ही रह जाता है। "’हिन्दी दिवस" की आवश्यकता क्यॊं है? यदि हम प्रति दिन हिन्दी को अपनी आत्मा बना कर रखें तो शायद ....


वैसे क्या आप जानते हैं अमरीका के लोग "इंग्लिश डे" कब मनाते हैं?

जय हिन्द
वन्देमातरम
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Sunday, September 18, 2011

दो खेल, दो कहानियाँ, दो वर्तमान...पर अंजाम केवल एक.. मौत... Death Of Cricket and hockey But different reasons

एक खेल जीना चाह रहा है पर हर पल मौत से जूझ रहा है और दूसरा अपने ऐश-ओ-आराम में इतना खो गया है कि जीना भूल गया है। एक खेल गरीबी की बीमारी से जूझ रहा है तो दूसरे खेल को वो हर सुविधा मुहैया कराई जा रही है जिसकी उसे आवश्यकता है। एक खेल में खिलाड़ियों की आत्मा बसती है तो दूसरे खेल में खिलाड़ी अपनी आत्मा का सौदा करते हैं। एक हमारा राष्ट्रीय खेल है तो दूसरा राष्ट्र का खेल है।

उपर्युक्त पंक्तियों में हॉकी का दर्द सुनाई दे जायेगा। यह खेल हमारा राष्ट्रीय खेल है जिसे मेजर ध्यानचंद जैसे खिलाड़ी ने अपने पसीने सींचा और परगट सिंह व धनराज पिल्लै ने इसका ध्यान रखा। वो मेजर ध्यानचंद जिसके हॉकी पर लोग शक करते थे कि कहीं उन्होंने अपनी स्टिक में कुछ लगा तो नहीं रखा? आखिर गेंद उनकी स्टिक से हटती क्यों नहीं? परन्तु यह खेल हर पल घुटता गया। इतना उपेक्षित हो गया कि खिलाड़ी खून के आँसू पीते चले गये और एक दिन ऐसा आया जब धनराज पिल्लै जैसा शख्स चीख पड़ता है और कराह कर कहता है कि-हॉकी ने मुझे इज़्ज़त दी, शोहरत दी पर पैसा नहीं दिया।

हॉकी के खिलाड़ी इस खेल को जी रहे हैं। इस खेल को ज़िन्दा रखने की कोशिश कर रहे हैं। किसी के पास प्रैक्टिस करने के जूते नहीं तो कोई एक ही जोड़ी जूतों से सारे गेम खेल रहा है और उन्हीं से प्रैक्टिस भी कर रहा है। ऐसी एकेडमी नहीं जहाँ अंतर्राष्ट्रीय स्तर की सुविधायें हों व कोच हो। काफ़ी प्रयासों व कठिन परिश्रम के पश्चात जब यही हॉकी टीम एशिया की सर्वश्रेष्ठ टीम बन कर भारत लौटती है तो इस टीम को महज पच्चीस हजार रूपये का "पुरस्कार(?)" दिया जाता है। खेल मंत्रालय इतने में ही खुश दिखाई देता और खिलाड़ियों की पीठ थपथपाता है। खिलाड़ियों में गुस्सा साफ़ दिखाई देता है जब वे इस पुरस्कार को लेने से ही मना कर देते हैं। मौका देखकर पंजाब सरकार पच्चीस लाख रूपये का ईनाम घोषित करती है तो अजय माकन जी को भारी दबाव के चलते उसी दिन पुरस्कार की राशि डेढ़-डेढ़ लाख रूपये प्रति खिलाड़ी कर देनी पड़ती है। अजय माकन जी हॉकी इंडिया और आईएचएफ़ का विवाद ही सुलझाने में ही लगे हुए हैं।

वैसे खेलों में सुधारों के लिये एक अच्छा बिल पेश किया था इन्होंने पर सत्ता और फ़ेडरेशनों के ठेकेदारों ने इसे सिरे से नकार दिया। विजय कुमार मल्होत्रा, अजय चौटाला जैसे नेता बिदके जो कईं वर्षों से अपने अपने फ़ेडरेशनों के मालिक बने बैठे हैं तो दूसरी ओर फ़ार्रूख अब्दुला को फ़ेडरेशन के अध्यक्ष की अधिकतम आयु सत्तर वर्ष करना रास नहीं आया। वे कहते हैं कि अभी तो वे "जवान" हैं इसलिये वे अध्यक्ष पद सम्भाल सकते हैं। उन्हें कौन समझाये कि एक आम इंसान भी साठ बरस में रिटायर होता है और पैसठ की उम्र में जज भी कुर्सी छोड़ देते हैं। पर नेता जी को कौन समझाये। और हमारे शरद पवार जी। वे तो चूहे की तरह "मैडम जी" की धमकी देने लग गये। भई वाह!

यह कैसी बेचारगी है? किसी भी देश के राष्ट्रीय खेल की ऐसी बुरी हालत शायद ही होगी। क्यों नहीं इसके पुनरुत्थान के लिये प्रयास किये जाते? क्यों नहीं कोई कॉर्पोरेट जगत से आगे आता है? हॉकी को पुनर्जीवित करने का समय आ गया है। आईपीएल की तर्ज पर क्यों नहीं हॉकी में भी कोई टूर्नामेंट शुरू किया जाता? कुछ वर्ष पूर्व ऐसा टूर्नामेंट ईएस्पीएन की तरफ़ से शुरू किया गया था पर लोगों की जागरूकता व सरकार की उदासीनता के कारण बंद कर दिया गय। स्कूलों से ही इस खेल में बच्चों का ध्यान लगाने की आवश्यकता है। इस समय हॉकी ऐसे मरीज की तरह है जो "कोमा" में है परन्तु अपनी इच्छा शक्ति के बल पर वापिस जीना चाह रहा हो। 

दूसरी ओर एक ऐसा खेल है जिसमें हर खिलाड़ी को औसतन तीस लाख रूपये सालाना दिया जाता है। प्रति मैच उन्हें एक से दो लाख के बीच अलग से मिलता है। इस खेल के खिलाड़ियों के पास सुविधाओं की कमी नहीं है।एड जगत इन्हें सर-माथे बिठाता है। पर ये खिलाड़ी देश से पहले अपने क्लब के बारे में सोचते हैं। ये "बिगड़ैल" खिलाड़ी हैं जिन्हें खेलों से अधिक पार्टियाँ  प्यारी हैं। और हालत ये हो गई है कि विश्व चैम्पियन टीम रैंकिंग में पाँचवें नम्बर की टीम है। पर फिर भी इस टीम के खिलाड़ियों को डेढ़ लाख से ज्यादा मिलता है। किसी की टाँग टूटी है, किसी का हाथ, किसी आँख, किसी का कान, किसी की उंगली तो किसी की कमर। वैसे अंतर्राष्ट्रीय मैच यह नहीं खेलेंगे परन्तु जहाँ पैसा होगा वहाँ ये ज़रुर जायेंगे। क्रिकेट भी बदहाल हो चुकी है। यहाँ केवल पैसा रह गया है पर खेल खत्म हो चुका है। इस पर मैं विस्तार से कुछ नहीं कहूँगा।

दो विभिन्न शैली के खेल हैं, दोनों की कहानी अलग, दोनों का इतिहास अलग, दोनों के प्रति नेताओं व कॉर्पोरेट व फ़िल्म जगत के करोड़पतियों-अरबपतियों व्यवहार अलग, दोनों का "आज" अलग। लेकिन यकीन मानिये यदि दोनों ही खेलों पर ध्यान नहीं दिया तो दोनों का ही आने वाला "कल" एक ही होगा। एक खेल गुमनामी के अँधेरों में धकेल दिया जायेगा तो दूसरा खेल सब कुछ  होते हुए भी बेमौत मार दिया जायेगा।


जय हिन्द
वन्देमातरम


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Thursday, September 15, 2011

यूनेस्को की लिस्ट में शामिल हुमायूँ का मकबरा और कुतुब मीनार : अतुल्य भारत Humayun's Tomb, Qutub Minar Unesco List

अतुल्य भारत के पिछले अंकों में यूनेस्को की लिस्ट में भारत के 28 में से तीन स्थलों के बारे में बताने के बाद आज हम दिल्ली के दो स्थलों के बारे में जानेंगे।

हुमायूँ का मकबरा
पहला है हुमायूँ का मकबरा। हाल ही में जब ओबामा भारत आये तब वे भी इस मकबरे के दर्शन करने गये थे। हुमायूँ का मकबरा ताजमहल के बनने से करीबन एक शताब्दी पहले बन कर तैयार हुआ। इस मकबरे में नये तरह उपकरण लगाये गये व शाही बाग के बीचो बीच बनाया गया। यह मक़बरा 1570 में निर्मित हुआ व इसकी सांस्कृतिक महत्त्व को समझते हुए यूनेस्को ने इसे 1993 में अपनी लिस्ट में शामिल किया। हुमायूँ की विधवा बेगम हाजी ने इसे 1569-1570 में बनवाया। इसके निर्माण में इसके वास्तुकार मिर्ज़ा गियात ने अहम भूमिका निभाई। अपनी दो गुम्बददारी छतरियों के कारण यह मुगल शैली अपने आप में अद्भुत है। यहाँ हुमायूँ के मकबरे के अलावा 150 अन्य शाही लोगों की भी कब्र हैं।


जल में मकबरे का प्रतिबिम्ब

इस मकबरे में दो गेट के साथ चार बाग हैं। यह दोनों गेट एक दक्षिण की ओर है अथवा दूसरा उत्तर की ओर। यहाँ अनगिनत जल संग्रह हैं। गुम्बद की ऊँचाई 42.5 मीटर है। इसमें संगमरमर लगाये गये हैं व छतरियों से इसे सजाया गया है। दिल्ली के अन्य बेहतरीन स्मारकों जैसे अक्षरधाम मंदिर, लाल किला, इंडिया गेट व  बहाई मंदिर आदि ऐतिहासिक व सांस्कृतिक स्थलों को छोड़ कर हुमायूँ के मकबरे में ओबामा के जाने के दो अर्थ हो सकते हैं। एक, वे इस मकबरे के अद्भुत सौंदर्य का दर्शन करना चाहते थे या फिर अपना कोई राजनैतिक कारण रहा होगा।

कुतुब मीनार

दूसरा स्मारक है कुतुब मीनार। दक्षिणी दिल्ली में स्थित कुतुब मीनार के इर्दगिर्द अन्य स्मारक भी हैं। लाल पत्थरों से निर्मित इस मीनार की ऊँचाई करीबन 238 फ़ीट है। ज़मीन पर इसका डायामीटर 47 फ़ीट का है जो सबसे ऊपर जाकर मात्र 9 फ़ीट का रह जाता है। इस स्थल का निर्माण तेरहवीं शताब्दी में शुरु हुआ व अलग अलग चरणों में हुआ। अलई दरवाज़ा, अलई मीनार और फिर कुब्बत-उल-इस्लाम मस्जिद जो भारत की सबसे पहले बनाई गईं मस्जिदों में शुमार है। इल्तुमिश का मकबरा व लोहे का स्तम्भ भी इसी क्षेत्र में आते हैं।

लौह स्तम्भ किस धातु से बना हुआ इस पर कईं वैज्ञानिक शोध करते आये हैं। वैज्ञानिक दृष्टि से यह स्तम्भ अद्भुत है क्योंकि इस पर जंग नहीं लगता जिस प्रकार अन्य साधारण लोहे की किसी वस्तु पर लगता है। इस्लामिक तानाशाही व लूट-पाट की निशानी है यह क्षेत्र जो कहा जाता है हिन्दू मन्दिरों को नष्ट करके बनाया गया। तुग़लक, लोदी, अब्दाली, गज़नवी व अन्य अनगिनत लुटेरे हमारे यहाँ आये और लूट कर चले गये। 

अलई दरवाज़ा
खैर, इस लौह स्तम्भ की ऊँचाई तेईस फ़ीट है व इस पर संस्कृत भाषा में लिखा गया है। कहा जाता है कि इसे चन्द्रगुप्त द्वितीय के राज काल में बनाया गया। इतिहास के अनुसार कुतुब मीनार के निर्माण का आरम्भ कुतुब्बुद्दीन ऐबक ने सन 1192 में किया जिसे बाद में इल्तुमिश (1211-36) व अलाउद्दीन खल्जी (1296-1316) ने पूरा किया। बाद में इसमें अन्य शासकों ने भी लगातार बदलाव किये।  यूनेस्को ने इसे इस्लामिक वास्तुकला को ध्यान में रखते हुए विश्व घरोहरों की श्रेणी में शामिल किया।
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Sunday, September 11, 2011

अमर सिंह को पहुँचे तिहाड़, दिल्ली पर आतंकी हमला और पाकिस्तान व चीन क्या कर रहे हैं राजस्थान की सीमा पर? China-Pakistan At Rajasthan Border, Amar singh sent to Tihar, Delhi Bomb Blast - Where are terrorists?

राजनैतिक दृष्टि से पिछला सप्ताह काफ़ी उथल-पुथल का रहा। वैसे तो पिछले दो-तीन वर्षों में कोई भी दिन ऐसा नहीं बीता जब पक्ष व विपक्ष शांत रहे हों। दिग्विजय सिंह जी ने रामदेव को ठग की उपाधि तक डाली। बेल्लारी बँधुओं को कर्नाटक में हो रहे अवैध खनन के मामले में जेल भेज दिया है। अन्ना की टीम अपनी अगली रणनीति के लिये मीटिंग कर रही है। लेकिन तीन मुद्दे महत्त्वपूर्ण रहे जिनमें से दो पर तो मीडिया की नज़र गई पर एक खबर ऐसी थी जो पर्दे के पीछे रह गई। 


पहली खबर रही अमर सिंह को तिहाड़ भेजने की। आज के हालात ऐसे हैं जिसमें या तो तिहाड़ में 800 लोगों के लिये एक ऑडिटॉरियम बनवा देना चाहिये या फिर संसद में तिहाड़-एक्स्टेंशन खोल देना चाहिये। "वोट के बदले नोट" का केस जो वर्ष 2008 में चर्चा का विषय रहा। अमर सिंह के ऊपर आरोप है कि उन्होंने भाजपा के तीन सांसदों को सरकार के पक्ष में वोट डालने के लिये घूस दी। उन्होंने अदालत में अर्जी दी कि उनकी दोनों किडनी खराब चल रही हैं और वे काफ़ी बीमार हैं। जज ने उनकी ये अपील खारिज कर दी और उन्हें अदालत में दोपहर 12.30 बजे तक हाजिर होने का आदेश दिया। उनके साथ भाजपा के दो पूर्व सांसद भी जेल भेज दिये गये। जिन तीन सांसदों को रिश्वत दी गई थी उनमें से एक आज भी सांसद हैं इसलिये बिना लोकसभा सेक्रेट्री के आदेश के उन्हें जेल नहीं भेजा सकता था।

यदि आपको याद हो तो यह एक स्टिंग ऑप्रेशन था जिसे भाजपा ने आईबीएन के साथ मिलकर किया था। भाजपा के तीनों सांसदों ने जानबूझ कर रिश्वत ली और कैमरे में कैद करना चाहा। भाजपा ने संसद में रूपयों  की गड्डी उछालीं और यह उम्मीद करी की आईबीएन स्टिंग ऑप्रेशन की  वीडियो जनता को दिखायेगा। लेकिन इस चैनल ने यह कहकर वीडियो दिखाने से मना कर दिया कि तस्वीरें साफ़ नहीं थीं। अब  इसे क्या कहा जाये मुझे नहीं मालूम। और इन सब में हैरानी की बात यह रही सीबीआई ने सत्ता पक्ष के एक भी नेता पर आरोप नहीं लगाये।   मतलब यह कि अमर सिंह ने रिश्वत दी,  भाजपा सांसदों ने रिश्वत ली, चैनल ने सब रिकॉर्ड किया पर इन सबसे जिस सरकार का फ़ायदा होना था उस सत्ता पक्ष में कोई आरोपी नहीं।

दूसरा मुद्दा रहा दिल्ली में हुआ बम विस्फ़ोट। तेरह लोग मारे गये और सौ के करीब घायल हुए। सरकार की ओर से वही रिकॉर्डेड बयान जो शायद उन्होंने पहले भी कईं बार यही बयान दिये होंगे। सुन सुन कर कान भी पक गये हैं। माना कि हर बम विस्फ़ोट नहीं रोका जा सकता। पर होने के बाद आतंकवादी पकड़े तो जा सकते हैं? लेकिन नहीं, चार दिन में एक  भी आतंकवादी पकड़ा नहीं गया। सारी एजेंसियाँ अपने हिसाब से केस देख रही हैं। दिल्ली के पिछले कितने ही बम विस्फ़ोटों में एक भी आरोपी को नहीं पकड़ा जा सका है। क्या कर रही हैं सुरक्षा एजेंसियाँ? और यदि एक आध कोई अफ़्ज़ल या नलिनी जैसा पकड़ा भी जाता है तो उसे सजा नहीं होती। क्योंकि यदि फ़ाँसी हो गई तो किसी को अल्पसंख्यक वोट नहीं मिलेंगे तो किसी को अपने राज्य के। यह कैसा ’वोट’तंत्र है?


दस साल पहले अमरीका में आतंकी हमला हुआ। उसके दस साल में एक भी नहीं। और जिसने हमला किया वो  लादेन भी मारा गया। लेकिन हमारे देश में दस साल पहले संसद पर हमला हुआ। वह संसद जिससे देश चलता है। भारत की आन-बान-शान की धज्जियाँ उड़ा दी गईं। उस हमले के दस साल के अंदर इस  देश में 38 हमले हो चुके हैं। लेकिन किसी को सजा नहीं हुई। अफ़्ज़ल और कसाब जेल में कबाब खा रहे हैं। पर कैद में होते हुए भी आज़ाद हैं। यह कैसा कानून है? यह कैसा संविधान?

यह दोनों खबरें मीडिया में चर्चा में रहीं लेकिन सप्ताह के आरम्भ में एक ऐसी घटना घटी जो इक्के-दुक्के समाचार-पत्रों में ही नज़र आईं वो भी केवल एक ही दिन।

राजस्थान के बाड़मेर में एक गाँव है मुनाबाओ। यह गाँव पाकिस्तान के बॉर्डर पर स्थित है। पाकिस्तान इसी बॉर्डर के नज़दीक ही रेलवे स्टेशन बना रहा है। आप कहेंगे कि इसमें हर्ज ही क्या है? नियम के अनुसार किसी भी अंतर्राष्ट्रीय सीमा के 150 गज के दायरे के अंदर कोई भी देश निर्माण नहीं कर सकता है। जबकि पाकिस्तान जो रेलवे स्टेशन बना रहा है वो केवल दस मीटर की दूरी पर है। जी हाँ, केवल दस मीटर। 2006 में उन्होंने इस सीमा पर ट्रैक बिछाना शुरु किया था जो अब सीमा के बेहद नज़दीक आ गया है। अब चौकाने वाली एक और बात यह है कि ये सब काम एक चीनी कम्पनी कर रही है। 

अब आप लोगों को सब समझ आ गया होगा। चीनी ड्रैगन ने पश्चिमी सीमा पर भी अपना कब्जा कर लिया है। सीमा सुरक्षा बलों की हर हरकत पर चीन की नज़रें हैं। हम चारों ओर से घिर चुके हैं। भारत ने अपनी शिकायत दर्ज कराई है पर...। इन सबसे क्या मिलेगा भारत को? श्री एस.एम.कृष्णा जैसे विदेश मंत्री हमारे पास हैं। कौन सा आरोपी पाकिस्तान की जेल में है कौन सा राजस्थान की यह उन्हें नहीं पता। सरबजीत को पाकिस्तान ने क्यों पकड़ रखा है यह उन्हें नहीं पता। हीना रब्बानी खार उनसे पहले हुर्रियत नेताओं से क्यों मिलीं यह भी उन्हें नहीं पता। सरकार के प्रधानमंत्री हों या राहुल बाबा या सोनिया जी सभी लिखा हुआ भाषण पढ़ते हैं और हमारे कृष्णा साहब तो किसी दूसरे देश का ही भाषण पढ़ देते हैं तो कहाँ विरोध जतायें हम? ऐसे विदेश मंत्री के दरवाजे पर खटखटायें? ठोस विदेशी नीतियों की कमी है हमारे पास या फिर इच्छा शक्ति की?

चलते-चलते: सोनिया जी वापिस आ गई है। "मैडम आईं राहत लाईं" का नारा लगा रहे होंगे कांग्रेसी नेता। देखते हैं अगला सप्ताह क्या नये रंग लेकर आता है।
चीन पाकिस्तान से बड़ा शत्रु है... 

जय हिन्द
वन्देमातरम
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Tuesday, September 6, 2011

कांग्रेस सरकार, टीम अन्ना, देशद्रोह व कुछ "सुविचार" Congress Government, Anti-Team Anna Campaign

टीम अन्ना को इस आंदोलन से कुछ हासिल नहीं हुआ.. न सरकारी लोकपाल बिल वापिस हुआ.. न वो तारीख बताई गई जब तक जनलोकपाल बिल पास होगा.. ऊपर से दस तरह के "दिखावटी" बिल और आ गये सरकार के पास...अब अगर  कुछ होगा तो संसद में बहस... इस आंदोलन से हार केवल टीम अन्ना की हुई है...और अब सरकार के वार पर वार.. देखें आगे क्या होता है.. अन्ना ने कहा आधी लड़ाई जीते हैं... मुश्किल लगता है...

हाल ही में किरण बेदी, प्रशांत भूषण व ओमपुरी पर संसद की अवहेलना का आरोप लगाया गया। सांसद संसद की गरिमा की दलील देने लगे। किरण बेदी कहती हैं "सांसद विश्वासघाती हैं" तो क्या गलत कहा है? प्रशांत भूषण जब कहते हैं कि "सांसद पैसा लेकर  सवाल पूछते हैं" तो क्या गलत कहते हैं? क्या सांसदों पर पहले कभी घूस का आरोप नहीं लगा है? बकायदा सुबूत हैं उसके। और जब आवेश में ओमपुरी के मुँह से सांसदों को अनपढ़ और गँवार कहा गया तो वो इस देश की जनता की आवाज़ थी। आज हर सोशल नेटवर्किंग साईट पर नेताओं के खिलाफ़ नारे पढ़े जा सकते हैं। वैसे सांसद जब संसद में बहस करते हैं तब अनपढ़-गँवार नहीं बल्कि पढ़े लिखे गँवार जरूर लगते हैं।

(ये मैंने क्या लिख दिया......!!)

अब पढ़ते हैं अन्य "सुविचार"...

  • हुर्रियत नेता सैयद अली शाह गिलानी कहते हैं शहीद ओसामा बिन लादेन के शोक में प्रार्थना सभा की जाये। आगे बयान आता है कि कश्मीर की आज़ादी ही एकमात्र रास्ता है।
  • मीरवाईज़ उमर अफ़्ज़ल गुरू की फ़ाँसी पर कहते हैं कि यदि उमर व फ़ारूख अब्दुल्ला को अफ़्ज़ल की फ़िक्र है तो उन्हें इस्तीफ़ा दे देना चाहिये।
  • अरूंधति रॉय भी काफ़ी बार माओवादियों के समर्थन में खुलकर बोल चुकी हैं। हुर्रियत नेताओं के साथ एक ही मंच पर आकर कश्मीर की आज़ादी का गुणगान कर चुकी हैं। उनके हिसाब से कश्मीर भारत का हिस्सा है ही नहीं क्योंकि वो कभी भारत में था ही नहीं।
  • उमर अब्दुला का हालिया बयान आया है कि यदि जम्मू-कश्मीर की विधानसभा यदि अफ़्ज़ल गुरू की फ़ाँसी माफ़ करने की अर्जी दे तो क्या हिन्दुस्तान चुप बैठेगा। बातों बातों कईं बार अलगाववादियों का साथ दे चुके हैं और कश्मीर को भारत का हिस्सा नहीं मानने से आनाकानी करते रहते हैं।
  • जामा मस्जिद के शाही इमाम कहते हैं  कि भ्रष्टाचार के विरूद्ध आंदोलन मुस्लिम-विरोधी है और मुसलमानों को इसमें शामिल नहीं होना चाहिये। वे न जाने कितनी बार हिन्दुस्तान विरोधी नारे लगा चुके हैं।
  • दिग्विजय सिंह ओसामा को "जी" कहकर सम्बोधित करते हैं और उसकी मृत्यु पर शोक प्रकट करते हैं। वैसे ये महाशय बहुत ज्ञानी हैं.. अन्ना की टीम का पूरा "सच" बस यही जानते हैं.. बाबा रामदेव को महाठग घोषित कर दिया है इन्होंने.. पिछले दस वर्षों में इन्हें बाबा रामदेव नहीं दिखाई दिये पर बस इसी साल ये नींद से जागे हैं। जबकि सच्चाई यह है कि यदि रामदेव सही राजनीति खेल पाते तो इनके आकाओं के पसीने छूट जाते।


और भी न जाने कितने ही ऐसे "सच्चे देशभक्त" महानुभाव हैं जो अपनी ज़ुबान से  "सुविचार" बोल चुके हैं। लेकिन उन पर कोई आरोप नहीं लगाये जाते..कांग्रेस सरकार कुछ नहीं कहती...क्यों? क्या माओवादियों को समर्थन देना..  अलगाववादियों का साथ देना देशद्रोह नहीं?

केजरीवाल, किरण बेदी, प्रशांत भूषण को खरी खोटी सुनाने वाला सत्ता पक्ष उमर अब्दुल्ला के बयान पर क्यों चुप्पी साध लेता है? हुर्रियत नेताओं को नज़रबंद रखा जाने का  दिखावा क्यों किया जाता है? पाकिस्तान की विदेश मंत्री हमारे मन्त्रियों से मिलने से पहले हुर्रियत नेताओं से मिलती हैं वो भी नई दिल्ली में..  सरकार की नाक के ठीक नीचे..यही हुर्रियत नेता श्रीनगर में पाकिस्तानी झंडे लहराते हैं और जश्न मनाते हैं..


कमाल है.. फिर भी आँखें मींच लेती है सरकार...

काले धन के साढ़े तीन लाख करोड़ नजर नहीं आते लेकिन केजरीवाल के नौ लाख जरूर खलते हैं.. सरकार की गरीबी का अंदाज़ा लगाया जा सकता है...

आप ही बतायें देशद्रोह बड़ा है या संसद की अवहेलना? संसद देश की है। सरकार को संसद की गरिमा नज़र आती है परन्तु देश की मिटती साख और देश के विरूद्ध आग उगलते शब्द नज़र नहीं आते।

वैसे उमर अब्दुल्ला और अरूँधति रॉय पर सरकार चुप रहेगी। नई दिल्ली व श्रीनगर में हुर्रियत नेताओं के देश विरोधी बयान पर सरकार आँखें मूँद लेगी। बुखारी और मीरवाईज़ उमर और अफ़्ज़ल गुरू पर हो रही राजनीति भी उन्हें दिखाई नहीं देगी। कारण आप और मैं दोनों जानते हैं...

हम आह भी भरते हैं तो हो जाते हैं बदनाम,
वे कत्ल भी करें तो चर्चा नहीं होता...


एक अंतिम प्रश्न:  एक बार मान लेते हैं कि संसद जनता से बड़ी है.. सांसद हमारे कर्ताधर्ता हैं.. मंत्री व प्रधानमंत्री राजा हैं तो जिस अफ़्ज़ल ने संसद पर.. हमारे "महान", "सच्चे", "देशप्रेमी" सांसद, कर्त्तव्यनिष्ठ मंत्रियों पर हमला करवाया उसकी फ़ाँसी पर क्या आपत्ति है?


पहले भी कहा है आज फिर दोहराऊँगा, कसाब तो अपने देश पाकिस्तान के लिये हिन्दुस्तान आया.. उसको मारने से पहले अपने देश के गद्दार अफ़्ज़ल को फ़ाँसी दो।



नोट: आज का यह लेख नहीं.. भड़ास है.. जो कईं हिन्दुस्तानियों के दिलों में है... आज लिखते हुए दिमाग नहीं लगा पाया..



वन्देमातरम।
जय हिन्द।
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Thursday, September 1, 2011

खुसरो के गीत से जब बोल चुराये गुलज़ार ने तो निकला यह बेमिसाल गीत Amir Khusrau, Gulzar, Beautiful Lyrics Film Ghulami

ज़िहाल-ए मिस्कीं मकुन ब-रंजिश
ब हाल-ए-हिज्रा बेचारा दिल है..
सुनाई देती है जिसकी धड़कन
हमारा दिल या तुम्हारा दिल है

फ़िल्म गुलामी का यह गीत अपने आप में एक मिसाल है। इसके गीतकार हैं गुलज़ार साहब। गुलज़ार ने फ़िल्म इंडस्ट्री को इतने नायाब गीत दिये जितने शायद किसी और गीतकार ने नहीं दिये। एक से बढ़कर एक सदाबहार गीत। उन्हीं में से एक है आज का यह गीत। इस गीत के शुरुआती बोल फ़ारसी के हैं और गुलज़ार ने इसे खूबसूरती से अमीर खुसरो के एक सूफ़ी गीत से "चुराया"।

लक्ष्मीकांत प्यारेलाल के संगीत को सुनकर इस गीत को गुनगुनाने से अपने आप को कोई नहीं रोक सकता।
फ़ारसी के शब्दों के बिल्कुल सटीक अर्थ बताने तो कठिन हैं, परन्तु प्रयास किया है। किसी को इससे बेहतर कोई अर्थ पता हो तो अवश्य बतायें।
इंटेरनेट पर खोजने पर अंग्रेज़ी भाषा में इसका मतलब लिखा हुआ आपको अवश्य मिल जायेगा।

ज़िहाल- ध्यान देना/गौर फ़रमाना
मिस्कीं- गरीब
मकुन- नहीं
हिज्र- जुदाई
भावार्थ यही निकलता है कि मेरे इस गरीब दिल पर गौर फ़रमायें और इसे रंजिश से न देखें। बेचारे दिल को हाल ही में जुदाई का ज़ख्म मिला है।

विडियो





खुसरो का वह गीत जिससे गुलज़ार को प्रेरणा मिली थी।

अमीर खुसरो ने एक गीत (तकनीकी तौर पर इसे क्या कहेंगे मैं नहीं बता सकता) लिखा जिसकी खासियत यह थी कि इसकी पहली पंक्ति फ़ारसी में थी जबकि दूसरी पंक्ति ब्रज भाषा में। फ़िल्म के गीत की तर्ज पर ही खुसरो के इस गीत को भी पढ़ें। गजब के शब्द.. कमाल की शब्दों की जादूगरी।

ज़िहाल-ए मिस्कीं मकुन तगाफ़ुल, (फ़ारसी)
दुराये नैना बनाये बतियां | (ब्रज)
कि ताब-ए-हिजरां नदारम ऎ जान, (फ़ारसी)
न लेहो काहे लगाये छतियां || (ब्रज)

शबां-ए-हिजरां दरज़ चूं ज़ुल्फ़
वा रोज़-ए-वस्लत चो उम्र कोताह, (फ़ारसी)
सखि पिया को जो मैं न देखूं
तो कैसे काटूं अंधेरी रतियां || (ब्रज)

यकायक अज़ दिल, दो चश्म-ए-जादू
ब सद फ़रेबम बाबुर्द तस्कीं, (फ़ारसी)
किसे पडी है जो जा सुनावे
पियारे पी को हमारी बतियां || (ब्रज)

चो शमा सोज़ान, चो ज़र्रा हैरान
हमेशा गिरयान, बे इश्क आं मेह | (फ़ारसी)
न नींद नैना, ना अंग चैना
ना आप आवें, न भेजें पतियां || (ब्रज)

बहक्क-ए-रोज़े, विसाल-ए-दिलबर
कि दाद मारा, गरीब खुसरौ | (फ़ारसी)
सपेट मन के, वराये राखूं
जो जाये पांव, पिया के खटियां || (ब्रज)

चाहें अमीर खुसरो हों जिनके सूफ़ी गीत आज भी उनके चाहने वालों की पहली पसंद हैं और चाहें गुलज़ार जो पिछले पाँच से छह दशकों से एक के बाद एक नायाब गीत हमें दे रहे हैं.. दोनों का ही अपने क्षेत्र में कोई मुकाबला नहीं।


यदि किसी को खुसरो के गीत के बोल के अर्थ पता हो तो हमारे साथ अवश्य बाँटें।
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