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Sunday, March 13, 2016

क्षणिकाएँ Kshanikaayein

क्षणिकाएँ

समय

कितना कहा
रूका ही नहीं
आज शायद
किसी दुश्मन ने 
आवाज़ दी होगी!!

दर्द

इसकी भी आदत
पड़ ही जायेगी
ये दर्द अभी नया जो है...

चेहरे

कितना घूमा..
पर मुखौटे ही देखने को मिले
चेहरे कहीं खो गये हैं क्या?
आज आइना भी
मुझसे यही कह रहा है!!

मिलावट

मिलावट का दौर
जारी है
आज तो मैं भी 
इससे अछूता नहीं रहा...

माँ

माँ रात को सोती ही नहीं
जब से पैदा हुआ हूँ
तभी से है उसे
ये लाइलाज बीमारी!!
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Monday, February 15, 2016

Hindi Poem - Radha Krishna Meera Shyam Love

1)

जो राधा से किया कृष्ण ने
जो कृष्ण को मिला राधा से

जब गोकुल छोड़ रहा था कन्हैया
तो राधा ने न रोका
न टोका
और न ही पूछा कि
फिर कब मिलोगे?

न कृष्ण ने दी दिलासा!

राधा की आँखों में
देख लिया होगा प्यार
और राधा ने सुन ली होगी
कान्हा के दिल के सागर से निकली
बांसुरी की वो धुन

फिर बिछड़े तो न मिले..

और अमर हो गया
राधा कृष्ण का
वो निश्छल प्रेम

Love means surrender
Love means faith
Love means losing yourself

2)

प्रेम
मीरा का श्याम से
ज़हर को अमृत बना देने का प्रेम
शबरी और राम का झूठे बेर
खिलाने का निर्मल प्रेम
सीता राम का
समर्पण और कर्त्तव्य-अग्नि
की कसौटी से गुज़रता अविरल प्रेम

Love doesn't demand anything. Where there is demand, there is no love.

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Monday, February 11, 2013

हवा...

कभी नर्म हवा के झोंके सी
गालों को चूम जाती है
सिर सहलाती-
पीठ थपथपाती है

तो कभी
तेज़ आँधी- तूफ़ान सी
सब कुछ उड़ा ले जाती है

रेतीली हवा में
धुंधला जाती है तस्वीर...

कभी गर्म तो कभी सर्द
बहती रहती है
निरंतर...

हवा के रुख से ही
मोड़ लेती है
ज़िन्दगी ...

पर जब हवा चलना छोड़ दे
तो 
घुट जाता है दम...
रुक जाती है 
ज़िन्दगी
थम जाता है सफ़र...
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Tuesday, February 14, 2012

प्रेम एक दिन का मोहताज नहीं.. Valentines Day Special

जब बादल
धरती की प्यास बुझाता है
तो नहीं पूछता
कि क्या दोगी बदले में..
न कर पाता है
धरती का आलिंगन
न ही छू पाता है उसको
बस प्रेम की एक बरसात
भिगो देती है धरती
और कर देती है तर बतर.....
लहलहा उठते है खेत
और मदमस्त हो जाते
पशु-पक्षी-मानव
धरती की गोद में...

हर सुबह
सूरज लेता है
अँगड़ाई,
जगाता है धरती को
और कर देता है रोशन
चारों ओर
बिना यह सोचे कि
क्या मिलेगा उसे
धरती को जिंदा रख कर!!



सागर की
ऊँची उठती लहरें
जब स्पर्श करना चाहती हैं,
चूमना चाहती हैं
चाँद को
तब चाँद भी मुस्कुराता हुआ
बस बिखेर देता है चाँदनी
और रात के अँधेरे में
निखर उठता है सागर भी...
चाँद के प्रेम में..
लहरों का वेग बढ़ता चला जाता है
चाँद को पाने की चाह में...

घॄणा-ईर्ष्या-द्वेष के
इस दौर में,
इंसान ने चुना है एक दिन
प्रेम करने के लिये
प्रेम भी
चढ़ा दिया गया है भेंट
बाज़ारवाद की
खो गये हैं मायने प्रेम करने के
प्रेमी-प्रेमिका के लिये भी...
अब किताब में
सूखा हुआ गुलाब का फूल नहीं मिलता..
और न ही कोई बनाता है "पेन फ़ेंड"
फ़ास्ट पीढ़ी ने बदल दिया चलन
और बदलते हैं प्रेमी
हर बरस, हर महीने
हर दिन, हर पल..
कपड़ों के
फ़ैशन और स्टेटस के अनुसार...

प्रेम आलिंगन में नहीं..
प्रेम चुम्बन में नहीं...
प्रेम रूह का रूह से है..
प्रेम इंसानियत में है...
प्रेम आँखों के पानी में है..
सहलाते हुए हाथों में है...
प्रेम मौन में है..
प्रेम ईश्वर है...

प्रेम कन्हैया का राधा से है...
कृष्ण का सुदामा से है
प्रेम शबरी का राम से है,
और मीरा का श्याम से है...
प्रेम में कोई शर्त नहीं
प्रेम में कोई नहीं है बँधन ...
प्रेम केवल है समर्पण..
प्रेम कल भी था और है आज भी..
प्रेम एक दिन का मोहताज नहीं...!!
-----------------------------------------------------------------------------------------

हमने देखी है इन आँखों की महकती खुशबू..
हाथ से छू कर इसे रिश्तों का इल्जाम न दो...
सिर्फ़ अहसास है ये रूह से महसूस करो..
प्यार को प्यार ही रहने दो कोई नाम ने दो...

There is only one type of love - Unconditional Love
Spread Love Every Day


जय हिन्द
वन्देमातरम

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Tuesday, December 6, 2011

अहम ब्रह्मास्मि ! Aham Brahmasmi

आत्मा
परमात्मा
आदि अनन्त
साधु व संत
सप्तरंगी छँटा
वादियों में घटा
खग विहग
वर्षा सावन
वन उपवन
पवित्र पावन

मरूभूमि की रेत
सरसों के खेत
खेत में फ़सल
वायु व जल
गीत संगीत
पूनम का चाँद
अमावस की रात

सुख दुख
आज कल
काल चक्र
अच्छा बुरा
अच्छा क्या?
बुरा क्या ?

तेरा मेरा
अपना पराया
तुझमें समाया
खुशी गम
माया व भ्रम...

धूप छाँव
राह  मंज़िल
समंद्र व साहिल
मस्जिद मंदिर
पंडित काज़ी
एक ही जहाज
एक ही माझी

कंस रावण
दुर्योधन दुशासन
कृष्ण या राम
एक ही नाम
ॐकार निराकार

पुरुष प्रकृति
साकार आकृति

रे सर्वज्ञ !
रे सर्वेश्वर !
अर्धनारीश्वर..
क्यूँ है मौन
मैं हूँ कौन ?
मृत्यु जीवन
सत्य अटल
एक सत्य
सत्य असत्य
अग्नि नभ
तुझमें सब
अंतरिक्ष नक्षत्र
ब्रह्म सर्वत्र
तुझमें संसार
मुझमें संसार
तू मैं
मैं तू

अहम ब्रह्मास्मि !

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Saturday, October 29, 2011

झाँसी की रानी - सुभद्राकुमारी चौहान Jhansi Ki Rani ( By Subhadra Kumari Chahan)


पिछले कुछ वर्षों से बच्चों के पाठ्यक्रम से वे राष्ट्रभक्ति व जीवन से रूबरू कराने वाली शिक्षाप्रद कवितायें "लुप्त" हो गईं हैं। सोचा कि क्यों न उन्हें दोबारा पढ़ा जाये और ब्लॉग पर उतारा जाये। हालाँकि ये कवितायें इंटेरनेट पर काफ़ी जगह मिल जायेंगी परन्तु इन्हें पढ़ने का मज़ा ही कुछ और है। इसी कड़ी में आज की कविता समर्पित है रानी लक्ष्मी बाई को। सुभद्राकुमारी चौहान द्वारा लिखित झाँसी की रानी-


जन्म: 19 नवम्बर 1835 , वाराणसी, उत्तर प्रदेश
मृत्यु: 17 जून 1858, ग्वालियर, मध्यप्रदेश
पाठकों से विनती है कि ऊपर दी गईं जन्म व मृत्यु की तिथियों से रानी लक्ष्मीबाई की आयु का अंदाज़ा लगायें। रौंगटें न खड़े हों तो कहियेगा... ऐसी वीरांगना को शत शत नमन.....

सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी,
बूढ़े भारत में भी आई फिर से नयी जवानी थी,
गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी,
दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी।
चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
कानपूर के नाना की, मुँहबोली बहन छबीली थी,
लक्ष्मीबाई नाम, पिता की वह संतान अकेली थी,
नाना के सँग पढ़ती थी वह, नाना के सँग खेली थी,
बरछी ढाल, कृपाण, कटारी उसकी यही सहेली थी।
वीर शिवाजी की गाथायें उसकी याद ज़बानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
लक्ष्मी थी या दुर्गा थी वह स्वयं वीरता की अवतार,
देख मराठे पुलकित होते उसकी तलवारों के वार,
नकली युद्ध-व्यूह की रचना और खेलना खूब शिकार,
सैन्य घेरना, दुर्ग तोड़ना ये थे उसके प्रिय खिलवार।
महाराष्ट-कुल-देवी भी उसकी आराध्य भवानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
हुई वीरता की वैभव के साथ सगाई झाँसी में,
ब्याह हुआ रानी बन आई लक्ष्मीबाई झाँसी में,
राजमहल में बजी बधाई खुशियाँ छाई झाँसी में,
वीर बुंदेलों सी विरदावली सी वह आई झाँसी में।
चित्रा ने अर्जुन को पाया,शिव से मिली भवानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
उदित हुआ सौभाग्य, मुदित महलों में उजियाली छाई,
किंतु कालगति चुपके-चुपके काली घटा घेर लाई,
तीर चलाने वाले कर में उसे चूड़ियाँ कब भाई,
रानी विधवा हुई, हाय! विधि को भी नहीं दया आई।
निसंतान मरे राजाजी रानी शोक-समानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
बुझा दीप झाँसी का तब डलहौज़ी मन में हरषाया,
राज्य हड़प करने का उसने यह अच्छा अवसर पाया,
फ़ौरन फौजें भेज दुर्ग पर अपना झंडा फहराया,
लावारिस का वारिस बनकर ब्रिटिश राज्य झाँसी आया।
अश्रुपूर्ण रानी ने देखा झाँसी हुई बिरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
अनुनय विनय नहीं सुनती है, विकट शासकों की माया,
व्यापारी बन दया चाहता था जब यह भारत आया,
डलहौज़ी ने पैर पसारे, अब तो पलट गई काया,
राजाओं नव्वाबों को भी उसने पैरों ठुकराया।
रानी दासी बनी, बनी यह दासी अब महरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
छिनी राजधानी दिल्ली की,लिया लखनऊ बातों-बात,
कैद पेशवा था बिठुर में, हुआ नागपुर का भी घात,
उदैपुर, तंजौर, सतारा, करनाटक की कौन बिसात?
जबकि सिंध, पंजाब ब्रह्म पर अभी हुआ था वज्र-निपात।
बंगाले, मद्रास आदि की भी तो वही कहानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
रानी रोयीं रनिवासों में, बेगम ग़म से थीं बेज़ार,
उनके गहने कपड़े बिकते थे कलकत्ते के बाज़ार,
सरे आम नीलाम छापते थे अंग्रेज़ों के अखबार,
'नागपूर के ज़ेवर ले लो लखनऊ के लो नौलख हार'।
यों परदे की इज़्ज़त परदेशी के हाथ बिकानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
कुटियों में थी विषम वेदना, महलों में आहत अपमान,
वीर सैनिकों के मन में था अपने पुरखों का अभिमान,
नाना धुंधूपंत पेशवा जुटा रहा था सब सामान,
बहिन छबीली ने रण-चण्डी का कर दिया प्रकट आहवान।
हुआ यज्ञ प्रारम्भ उन्हें तो सोई ज्योति जगानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
महलों ने दी आग, झोंपड़ी ने ज्वाला सुलगाई थी,
यह स्वतंत्रता की चिनगारी अंतरतम से आई थी,
झाँसी चेती, दिल्ली चेती, लखनऊ लपटें छाई थी,
मेरठ, कानपूर, पटना ने भारी धूम मचाई थी,
जबलपूर, कोल्हापूर में भी कुछ हलचल उकसानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
इस स्वतंत्रता महायज्ञ में कई वीरवर आए काम,
नाना धुंधूपंत, ताँतिया, चतुर अज़ीमुल्ला सरनाम,
अहमदशाह मौलवी, ठाकुर कुँवरसिंह सैनिक अभिराम,
भारत के इतिहास गगन में अमर रहेंगे जिनके नाम।
लेकिन आज जुर्म कहलाती उनकी जो कुरबानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
इनकी गाथा छोड़, चले हम झाँसी के मैदानों में,
जहाँ खड़ी है लक्ष्मीबाई मर्द बनी मर्दानों में,
लेफ्टिनेंट वाकर आ पहुँचा, आगे बड़ा जवानों में,
रानी ने तलवार खींच ली, हुआ द्वन्द्ध असमानों में।
ज़ख्मी होकर वाकर भागा, उसे अजब हैरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
रानी बढ़ी कालपी आई, कर सौ मील निरंतर पार,
घोड़ा थक कर गिरा भूमि पर गया स्वर्ग तत्काल सिधार,
यमुना तट पर अंग्रेज़ों ने फिर खाई रानी से हार,
विजयी रानी आगे चल दी, किया ग्वालियर पर अधिकार।
अंग्रेज़ों के मित्र सिंधिया ने छोड़ी रजधानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
विजय मिली, पर अंग्रेज़ों की फिर सेना घिर आई थी,
अब जनरल स्मिथ सम्मुख था, उसने मुँह की खाई थी,
काना और मंदरा सखियाँ रानी के संग आई थी,
युद्ध श्रेत्र में उन दोनों ने भारी मार मचाई थी।
पर पीछे ह्यूरोज़ आ गया, हाय! घिरी अब रानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
तो भी रानी मार काट कर चलती बनी सैन्य के पार,
किन्तु सामने नाला आया,यह था संकट विषम अपार,
घोड़ा अड़ा, नया घोड़ा था, इतने में आ गये अवार,
रानी एक, शत्रु बहुतेरे, होने लगे वार-पर-वार।
घायल होकर गिरी सिंहनी उसे वीर गति पानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
रानी गई सिधार चिता अब उसकी दिव्य सवारी थी,
मिला तेज से तेज, तेज की वह सच्ची अधिकारी थी,
अभी उम्र कुल तेइस की थी, मनुज नहीं अवतारी थी,
हमको जीवित करने आयी बन स्वतंत्रता-नारी थी,
दिखा गई पथ, सिखा गई हमको जो सीख सिखानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
जाओ रानी याद रखेंगे हम कृतज्ञ भारतवासी,
तेरा यह बलिदान जगावेगा स्वतंत्रता अविनासी,
होवे चुप इतिहास, लगे सच्चाई को चाहे फाँसी,
हो मदमाती विजय, मिटा दे गोलों से चाहे झाँसी।
तेरा स्मारक तू होगी, तू खुद अमिट निशानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
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Tuesday, August 9, 2011

मैं अब तक क्यों मौन हूँ? Why Am I Silent Spectator of Crime happening in my city?

मित्रों,

आज से चार वर्ष पूर्व मैंने यह कविता लिखी थी। हो सकता है आप में से कुछ लोगों ने यह पढ़ी हुई हो पर आज स्वतंत्रता दिवस विशेष पर यह आज भी सामयिक है। देश में कितनी पीढ़ा और असंवेदनशीलता है यह कविता उसके बारे में बताती है। कहते हैं जुर्म सहने और जुर्म देख कर आवाज़ उठाने वाला उतना ही बड़ा गुनाहगार है जितना जुर्म करने वाला.. और आज के इस दौर में शोषण को देखते रहने वाले लोगों की तादाद बढ़ रही है....

अँधा वो नहीं,

जो चलने के लिये,
डंडे का सहारा ले,
अँधा तो वो है,
जो अत्याचार होते देखे,
और आँखें फिरा ले।

बहरा वो नहीं,
जिसको सुनाने के लिये,
ऊँचा बोलना पड़ता है,
बहरा वो है,
जो कानों में रूई ठूँस कर,
इंसाफ किया करता है।

गूँगा वो नहीं,
जिसके मुँह में ज़ुबान नहीं,
गूँगे वो हैं,
जो चुप रहते हैं जब तक,
रुपया उन पर मेहरबान नहीं।

यहाँ अँधे, गूँगे बहरों की,
फ़ौज दिखाई देती है,
यहाँ मासूम खून से तरबतर,
मौजें दिखाई देती हैं।

खूब सियासत होती है,
लोगों के जज़्बातों पर,
जश्न मनाया जाता है,
यहाँ ज़िंदा हज़ारों लाशों पर।

यहाँ धमाके होने चाहिये
ताकि खाना हजम हो सके,
मौत का तांडव न हो तो,
चेहरे पर रौनक कैसे आ सके।

यहाँ बगैर लाल रंग के,
हर दिन बेबुनियाद है,
लाशों को ४७, ८४, ०२ की,
काली तारीखें याद हैं।

कोई पूछे उन अँधों से,
कैसे देखा करते हो बलात्कार,
कोई पूछे उन बहरों से,
कैसे सुन लेते हो चीत्कार,
कोई पूछे उन गूँगों से,
क्यों मचाया है हाहाकार।

मुझसे मत पूछना,
इन सवालों को,
मुझे नहीं पता मैं अँधा हूँ,
बहरा हूँ, गूँगा हूँ या कौन हूँ?
हद है!
हर सवाल पर,
मैं अब तक क्यों मौन हूँ??
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Monday, August 8, 2011

संवेदना की अर्थी No Feelings Left In Metros

कल बस से कटा था एक हाथ,
कराहता रहा वो,
तड़पता रहा वो
कईं घंटे
एक मेट्रो शहर में-
हिन्दुस्तान का दिल कहते हैं हम जिसे!!

आज कार चलाते एक शख्स ने
टक्कर मार दी गाय को,
और पलट कर भी न देखा-
श्राद्ध पर रोटी खिलाने के लिये
गाय ढूँढेगा
तब शायद याद आ जाये
इस बेज़ुबान की-
माँ का दर्जा दिया है हमने जिसे!!

सड़क किनारे  पड़े पड़े
लाश बन गया है एक शरीर-
जिसे ठोकर मारते हुए
चल पड़ी है दुनिया
तरक्की की राह पर,
विश्व का
नम्बर एक बनने की चाह लिये

कहते हैं ये शहर नहीं सोता
पर हाँ
आँखें जरूर मूँद लेता है
पीड़ा देख नहीं सकता पगला!!

लाशें चीख रही हैं-
समय की माँग है-
संवेदना की
अर्थी पर रोने के लिये
रूदालियों को बुलाया जाये!!!
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Sunday, July 17, 2011

हिन्दुस्तान की राजनीति का साप्ताहिक सार Weekly Update Of Indian Politics

भ्रष्टाचार पर
चहुँ ओर से घिरी सरकार ने
किया मंत्रिमंडल फ़ेरबदल-
किसी की कुर्सी गई,
किसी को मिला सत्कार
जमकर हुई
राजनैतिक उथलपुथल।
पर इससे नहीं बदलेगा
सरकार का भ्रष्ट चेहरा
शतरंज खेलती मैडम हैं
मनमोहन तो हैं बस एक मोहरा ।

कईं बरसों से
रेल मंत्रालय
चढ़ता आया है
गठबंधन की बलि,
कभी बिहार की
शान होती थी रेल,
अब बंगाल की ओर चली।

चाहें बिहार चाहें बंगाल
रेल रही हमेशा कंगाल
परियोजनायें-
पटरी से उतरी पड़ी हैं
हाशिये पर है
सुरक्षा का ख्याल।

मुम्बई एक मर्तबा फिर दहली
सरकार ने हुँकार भरी-
आतंकवाद का मुकाबला
डटकर करेंगे
आतंकवादियों को
जल्द ही पकड़ेंगे...
पर प्रधानमंत्री जी...
पकड़कर आप करेंगे क्या?
जिनके अपने चले गये
उन्हें वापस ला सकेंगे क्या?

आपके नेता कहते हैं-
हम पाकिस्तान से बेहतर हैं!!!
तो अब ये दिन आ गये हैं..
पाकिस्तान से मुकाबला करेंगे क्या?
राहुल बाबा का अंदाज़ विलग
हमले रोके नहीं जा सकते।
हमले रोके नहीं जा सकते?
पाकिस्तान, बांग्लादेश
टोके नहीं जा सकते?

अफ़्ज़ल कसाब को मत मारो
डेढ़ सौ लोगों के कातिलों को
मत चढ़ाओ तुम फ़ाँसी पर...
पर इतना हम पर उपकार करो...
जैसे उन्हें सुरक्षित रखा है..
हमारी सुरक्षा का भी
वैसा पुख़्ता इंतज़ाम करो...
वैसा पुख्ता इंतज़ाम करो....

कभी रेल होगी
कभी आतंकवादी हमलों से होगा
यमराज का
हम पर वार-
परोक्ष रूप से हत्या का 
कोई गुनाह नहीं होता यार-
हिन्दुस्तान की राजनीति का 
यही है साप्ताहिक सार,
यही है साप्ताहिक सार।


जय हिन्द
वन्देमातरम
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Saturday, April 23, 2011

"बसन्ती हवा"- केदारनाथ अग्रवाल द्वारा लिखित सदाबहार कविता Basanti Hawa - Written By KedarNath Agarwal

यह पोस्ट धूप-छाँव पर सौंवी पोस्ट है। आशा है कि आप सभी पाठकों को पसन्द आयेगी। आपकी टिप्पणियों से लिखते रहने की प्रेरणा मिलती है। कृपया टिप्पणी अवश्य करें।

शायद पाँचवीं कक्षा की बात होगी। पता नहीं पर काफ़ी समय बीत गया जब ये कविता पढ़ी थी। कुछ वक्त पहले ये दोबारा पढ़ने का मौका मिला। "बसन्ती हवा" का असर इन वर्षों में कम नहीं हुआ है।
वहीं बसन्ती हवा आपके समक्ष फिर ला रहा हूँ। आशा करता हूँ कि कुछ यादें तो आप की भी ताज़ा हो ही जायेंगी। कविता के कुछ पंक्तियों को समझने का दोबारा प्रयास किया है।

"बसन्ती हवा" के दो पद्य अर्थ सहित:

चढ़ी पेड़ महुआ,
थपाथप मचाया;
गिरी धम्म से फिर,
चढ़ी आम ऊपर,
उसे भी झकोरा,
किया कान में 'कू',
उतरकर भगी मैं,
हरे खेत पहुँची -
वहाँ, गेंहुँओं में
लहर खूब मारी।

अर्थ:
महुआ के पौधे की डालियाँ काफ़ी सख्त होती हैं। कवि कहता है कि हवा पेड़ पर इधर-उधर कूदती फ़ाँदती है किन्तु कुछ भी प्राप्त न होने पर नीचे गिर जाती है। फिर वो आम के पेड़ पर जाती है जो महुआ से नरम पेड़ है। किन्तु तभी कोई उसे पुकारता है और वो आम के पेड़ को छोड़ कर खेतों में चली जाती है।


यदि महुआ के वृक्ष को लक्ष्य समझा जाये तो कवि कहता है कि हवा ने अपने लक्ष्य को पाने का अथक प्रयास किया किन्तु असफ़ल रही। फिर वो उस कठिन लक्ष्य को छोड़ सरल लक्ष्य की ओर (आम के पेड़ की ओर) लपकती है। परन्तु वहाँ भी थोड़ी सी कठिनाई आते ही अपने लक्ष्य से भटक जाती है व उस सरल लक्ष्य को भी नहीं पा सकी। 

पहर दो पहर क्या,
अनेकों पहर तक
इसी में रही मैं!
खड़ी देख अलसी
लिए शीश कलसी,
मुझे खूब सूझी -
हिलाया-झुलाया
गिरी पर न कलसी! 
इसी हार को पा, 
हिलाई न सरसों,
झुलाई न सरसों,
हवा हूँ, हवा मैं
बसंती हवा हूँ!


अर्थ:
फिर वही हवा अलसी के खेतों में घुस गई। अलसी के फूल टहनियों से इस तरह से जुड़ होते हैं कि उन्हें तोड़ना कठिन हो जाता है। हवा ने भी भरसक प्रयत्न किया किन्तु तोड़ न सकी। फिर वह सरसों के खेतों में गई। पर चूँकि वो अलसी में असफ़ल रही थी इसलिये उसने सरसों के फूलों को तोड़ने का प्रयास तक नहीं किया। 


कभी कभार जीवन में किसी हार से हम इतने  दुखी हो जाते हैं कि हर लक्ष्य कठिन मालूम होता है। हम निराशा से घिरे होने के कारण सरल कार्यों को भी मन लगा कर नहीं करते और उनमें भी असफ़ल होने का भय लगा रहता है।


आगे पढ़िये "केदारनाथ अग्रवाल" की कलम से लिखी एक सदाबहार कविता। 

बसंती हवा
हवा हूँ, हवा मैं
बसंती हवा हूँ।


        सुनो बात मेरी -
        अनोखी हवा हूँ।
        बड़ी बावली हूँ,
        बड़ी मस्तमौला।
        नहीं कुछ फिकर है,
        बड़ी ही निडर हूँ। 
        जिधर चाहती हूँ,
        उधर घूमती हूँ,
        मुसाफिर अजब हूँ।


न घर-बार मेरा,
न उद्देश्य मेरा,
न इच्छा किसी की,
न आशा किसी की,
न प्रेमी न दुश्मन,
जिधर चाहती हूँ
उधर घूमती हूँ।
हवा हूँ, हवा मैं
बसंती हवा हूँ!


        जहाँ से चली मैं
        जहाँ को गई मैं -
        शहर, गाँव, बस्ती,
        नदी, रेत, निर्जन,
        हरे खेत, पोखर,
        झुलाती चली मैं।
        झुमाती चली मैं! 
        हवा हूँ, हवा मै
        बसंती हवा हूँ।


चढ़ी पेड़ महुआ,
थपाथप मचाया;
गिरी धम्म से फिर,
चढ़ी आम ऊपर,
उसे भी झकोरा,
किया कान में 'कू',
उतरकर भगी मैं,
हरे खेत पहुँची -
वहाँ, गेंहुँओं में 
लहर खूब मारी।


        पहर दो पहर क्या,
        अनेकों पहर तक
        इसी में रही मैं!
        खड़ी देख अलसी
        लिए शीश कलसी,
        मुझे खूब सूझी -
        हिलाया-झुलाया
        गिरी पर न कलसी! 
        इसी हार को पा,
        हिलाई न सरसों,
        झुलाई न सरसों,
        हवा हूँ, हवा मैं
        बसंती हवा हूँ!


मुझे देखते ही
अरहरी लजाई,
मनाया-बनाया,
न मानी, न मानी;
उसे भी न छोड़ा - 
पथिक आ रहा था,
उसी पर ढकेला;
हँसी ज़ोर से मैं,
हँसी सब दिशाएँ,
हँसे लहलहाते
हरे खेत सारे,
हँसी चमचमाती
भरी धूप प्यारी;
बसंती हवा में
हँसी सृष्टि सारी!
हवा हूँ, हवा मैं
बसंती हवा हूँ!
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