शायद पाँचवीं कक्षा की बात होगी। पता नहीं पर काफ़ी समय बीत गया जब ये कविता पढ़ी थी। कुछ वक्त पहले ये दोबारा पढ़ने का मौका मिला। "बसन्ती हवा" का असर इन वर्षों में कम नहीं हुआ है।
वहीं बसन्ती हवा आपके समक्ष फिर ला रहा हूँ। आशा करता हूँ कि कुछ यादें तो आप की भी ताज़ा हो ही जायेंगी। कविता के कुछ पंक्तियों को समझने का दोबारा प्रयास किया है।
"बसन्ती हवा" के दो पद्य अर्थ सहित:
चढ़ी पेड़ महुआ,
थपाथप मचाया;
गिरी धम्म से फिर,
चढ़ी आम ऊपर,
उसे भी झकोरा,
किया कान में 'कू',
उतरकर भगी मैं,
हरे खेत पहुँची -
वहाँ, गेंहुँओं में
लहर खूब मारी।
अर्थ:
महुआ के पौधे की डालियाँ काफ़ी सख्त होती हैं। कवि कहता है कि हवा पेड़ पर इधर-उधर कूदती फ़ाँदती है किन्तु कुछ भी प्राप्त न होने पर नीचे गिर जाती है। फिर वो आम के पेड़ पर जाती है जो महुआ से नरम पेड़ है। किन्तु तभी कोई उसे पुकारता है और वो आम के पेड़ को छोड़ कर खेतों में चली जाती है।
यदि महुआ के वृक्ष को लक्ष्य समझा जाये तो कवि कहता है कि हवा ने अपने लक्ष्य को पाने का अथक प्रयास किया किन्तु असफ़ल रही। फिर वो उस कठिन लक्ष्य को छोड़ सरल लक्ष्य की ओर (आम के पेड़ की ओर) लपकती है। परन्तु वहाँ भी थोड़ी सी कठिनाई आते ही अपने लक्ष्य से भटक जाती है व उस सरल लक्ष्य को भी नहीं पा सकी।
पहर दो पहर क्या,
अनेकों पहर तक
इसी में रही मैं!
खड़ी देख अलसी
लिए शीश कलसी,
मुझे खूब सूझी -
हिलाया-झुलाया
गिरी पर न कलसी!
इसी हार को पा,
हिलाई न सरसों,
झुलाई न सरसों,
हवा हूँ, हवा मैं
बसंती हवा हूँ!
अर्थ:
फिर वही हवा अलसी के खेतों में घुस गई। अलसी के फूल टहनियों से इस तरह से जुड़ होते हैं कि उन्हें तोड़ना कठिन हो जाता है। हवा ने भी भरसक प्रयत्न किया किन्तु तोड़ न सकी। फिर वह सरसों के खेतों में गई। पर चूँकि वो अलसी में असफ़ल रही थी इसलिये उसने सरसों के फूलों को तोड़ने का प्रयास तक नहीं किया।
कभी कभार जीवन में किसी हार से हम इतने दुखी हो जाते हैं कि हर लक्ष्य कठिन मालूम होता है। हम निराशा से घिरे होने के कारण सरल कार्यों को भी मन लगा कर नहीं करते और उनमें भी असफ़ल होने का भय लगा रहता है।
आगे पढ़िये "केदारनाथ अग्रवाल" की कलम से लिखी एक सदाबहार कविता।
बसंती हवा
हवा हूँ, हवा मैं
बसंती हवा हूँ।
सुनो बात मेरी -
अनोखी हवा हूँ।
बड़ी बावली हूँ,
बड़ी मस्तमौला।
नहीं कुछ फिकर है,
बड़ी ही निडर हूँ।
जिधर चाहती हूँ,
उधर घूमती हूँ,
मुसाफिर अजब हूँ।
न घर-बार मेरा,
न उद्देश्य मेरा,
न इच्छा किसी की,
न आशा किसी की,
न प्रेमी न दुश्मन,
जिधर चाहती हूँ
उधर घूमती हूँ।
हवा हूँ, हवा मैं
बसंती हवा हूँ!
जहाँ से चली मैं
जहाँ को गई मैं -
शहर, गाँव, बस्ती,
नदी, रेत, निर्जन,
हरे खेत, पोखर,
झुलाती चली मैं।
झुमाती चली मैं!
हवा हूँ, हवा मै
बसंती हवा हूँ।
चढ़ी पेड़ महुआ,
थपाथप मचाया;
गिरी धम्म से फिर,
चढ़ी आम ऊपर,
उसे भी झकोरा,
किया कान में 'कू',
उतरकर भगी मैं,
हरे खेत पहुँची -
वहाँ, गेंहुँओं में
लहर खूब मारी।
पहर दो पहर क्या,
अनेकों पहर तक
इसी में रही मैं!
खड़ी देख अलसी
लिए शीश कलसी,
मुझे खूब सूझी -
हिलाया-झुलाया
गिरी पर न कलसी!
इसी हार को पा,
हिलाई न सरसों,
झुलाई न सरसों,
हवा हूँ, हवा मैं
बसंती हवा हूँ!
मुझे देखते ही
अरहरी लजाई,
मनाया-बनाया,
न मानी, न मानी;
उसे भी न छोड़ा -
पथिक आ रहा था,
उसी पर ढकेला;
हँसी ज़ोर से मैं,
हँसी सब दिशाएँ,
हँसे लहलहाते
हरे खेत सारे,
हँसी चमचमाती
भरी धूप प्यारी;
बसंती हवा में
हँसी सृष्टि सारी!
हवा हूँ, हवा मैं
बसंती हवा हूँ!
27 comments:
बहुत खूब तपन,
बचपन की कविता को हम तक पहुँचाने के लिए धन्यवाद. भावार्थ देकर बहुत अच्छा किया.
सौंवी पोस्ट के लिए बधाई. अनेकों सौपान चढ, निरंतर तरक्की के लिए शुभकामनाएं.
Apki kavitao me bohot tajgi h.... apse nivedan h likhte rahiye.
Ye kavita mujhe bachpan maible jata hai..apki wajah se ise pura padhne ka awasar mila Dhanyawad
Kash wo bachapan kabhi na jate jb ham sirf kabitae gungunaya krte the, aaj bhot arse bad phir arju hui h....
Kash wo bachapan kabhi na jate jb ham sirf kabitae gungunaya krte the, aaj bhot arse bad phir arju hui h....
Kash wo bachapan kabhi na jate jb ham sirf kabitae gungunaya krte the, aaj bhot arse bad phir arju hui h....
Very nice meaning of the poem
if any one can send me the Interpretation of whole poem, i will be thankful to him.
Can anyone send the meaning of the poem
इस कविता का लेखक कौन है
I just love it
Lekhak kedarnath agarwal hain
Nic
बहुत अच्छा।
Kon si class ki ye Kavita h
Bahut sunder samjhaya hai dhanyawad
Yaar iska earth mil jaye
I like that poem ��������
Is pure ka kya arth hoga
Is pure ka kya arth hoga
Best poem in my life ever.. thanks
I love it..
केढारनाथ अग्रवाल
My favourite poem.
WOWW, NICE ONE SIR
Nice so bewtifhul
Always time'best zindagi bachpan hi hai ..
👌🏻👌🏻👌🏻👌🏻👌🏻
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