Saturday, April 11, 2009

दूर रहो इससे ये पार्टी अछूत है!!!

इस देश में दो सबसे बड़ी राजनैतिक दल हैं। एक है कांग्रेस जिसको सौ वर्ष से अधिक का अनुभव हो चुका है और दूसरी है भाजपा जिसको अस्तित्व में आये ३० वर्ष के करीब हो गये होंगे । क्योंकि हमारे इस कथित लोकतंत्र में कितने ही दल हो सकते हैं तो जाहिर तौर पर हर दल इन बड़ी पार्टियों में से किसी एक के साथ जुड़ना पसंद करता है। हालाँकि इस बीच कुछ दल ऐसे भी हैं जो कभी संप्रग, कभी राजग तो कभी कखग में रहे। यदि इतिहास में झाँकें तो पायेंगे कि हर दल पहले काँग्रेस में ही शामिल था। यही कांग्रेस जनता दल बनी, फिर उसके टुकड़े हो गये और न जाने कितने ही। इन सब के बीच एक पाटी और आई और वो थी भाजपा। चूँकि अधिकतर दल काँग्रेस के विभाजन से ही बने इसलिये यदा-कदा उससे जुड़ते रहते हैं। खून जो सबका एक है!!

अधिकतर दल भाजपा को साम्प्रदायिक दल मानते हैं इसलिये उससे दूर भागते रहते हैं। आखिर ये साम्प्रदायिकता होती क्या है? मनमोहन सिंह जी को बाबरी मस्जिद तोड़ी गई, ये याद रहता है। गुजरात के दंगे याद रहते हैं। कंधमाल याद रहता है। क्यों? क्योंकि ये दोनों घटनायें भाजपा से जुड़ी हुई हैं और अल्पसंख्यकों के खिलाफ हुईं। गुजरात के दंगे क्यों हुए इसको कोई नहीं देखता। गोधरा की बोगी याद नहीं रहती। लक्ष्मणानंद की हत्या याद नहीं रहती। खैर मैं कोई इन दंगों का बचाव नहीं कर रहा बल्कि प्रधानमंत्री की याद्दाश्त पर हैरान हूँ कि उन्हें ८४ के दंगे भी याद नहीं रहे। किसके राज में हुए यह भी याद नहीं रहे। यदि आप पिछली बुरी बातें भूल जाते हैं तो ये अच्छी बात है लेकिन फिर सब कुछ भूलो भई!! गुजरात याद रखते हो तो ८४ भी याद रखना सीखो।

मदरसों को सीबीएसई का सर्टीफिकेशन दिलवाना, आंध्रप्रदेश में किसी एक धर्म के नाम पर आरक्षण की बात उठाना क्या ये साम्प्रदायिकता में नहीं आता है? क्या बांग्लादेशियों को राशन कार्ड और पहचान पत्र बनवाना गैर-साम्प्रादायिक हो जाता है? ये वही बांग्लादेशी हैं जो आज लाखों की संख्या में दिल्ली में घुसे हुए हैं। हमारे देश के लोगों को मूल-भूत सुविधायें मुहैया नहीं होती और हम वोट की खातिर और बोझ उठाने को तैयार हैं। ये वही बांग्लादेशी हैं जो पूर्वोत्तर के आतंकवादी संगठन में शामिल होकर हमारे ही देश को नुकसान पहुँचा रहे हैं। क्या ये वोटों की राजनीति नहीं है? बुश के खिलाफ़ फ़तवा जारी करने वाला कांग्रेस के साथ हो सकता है। अफ्जल गुरु की फाँसी का मामला लटकता जा रहा है। सिमी पर रोक के मामले में केंद्र सरकार का ढुलमुल रवैया जग-जाहिर है। और पोटा को हटाया जाना, यह कह कर कि यह किसी एक धर्म को नुकसान पहुँचाने के लिये बनाया गया है। यदि वो कानून होता तो आज कसाब का केस खत्म हो चुका होता। पर पता नहीं कांग्रेस को पोटा समाप्त करने से क्या मिला। पर उसके अलावा आतंकवाद विरोधी एक भी कानून क्यों नहीं बनाया गया? और जब वही कानून पूरे थे तो मुम्बई की घटना के बाद अक्ल क्यों आई?

मुम्बई में जब एनएसजी कमांडो नरीमन हाऊस को आजाद करा चुके थे तो वहाँ खड़े लोगों ने "भारत माता की जय" और "वंदेमातरम" के नारे लगाने शुरु कर दिये। तो टी.वी पर कुछ "धर्म निरपेक्ष" लोगों ने इस तरह के नारों को सम्प्रदाय से जोड़ कर कहा कि ये नारे साम्प्रदायिक हैं। महज वोटों के लिये वंदेमातरम को सम्प्रदाय से जोड़ने वाले ये लोग कतई देशभक्त नहीं हो सकते।

एक और जो गम्भीर मुद्दा है वो है धर्मांतरण का। क्या जबरन धर्म बदलवाना गलत नहीं है? धर्मपरिवर्तन लालच और मजबूरी में किया जाता है। लालच पैसे का, रोटी का, मजबूरी भूख की, प्यास की। भाजपा शासित राज्यों ने जब इसके विरोध में कानून बनाया तो केंद्र सरकार ने कुबूल नहीं किया, क्या कारण हो सकता है इसका? क्या ये सब बातें किसी सम्प्रदाय का साथ देने की ओर इशारा नहीं करते। कांग्रेस का हाथ किसी एक सम्प्रदाय के साथ।
लेकिन कांग्रेस साम्प्रदायिक नहीं है। कांग्रेस तो धर्म-निरपेक्ष है। आंध्र प्रदेश में उनकी सरकार ५ प्रतिशत मुस्लिम आरक्षण का हवाला देती है। क्या अब भी कांग्रेस अपने आप को धर्म निरपेक्ष कहेगी?

कांग्रेस को राजनीति करनी आती है सौ वर्षों का अनुभव जो ठहरा लेकिन अछूत तो एक ही पार्टी है!!!
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