Saturday, December 22, 2007

समुन्द्र पर सवाल-जवाब

१)
मीलों दूर तक
फैले हुए समुन्द्र की
अनगिनत विशाल लहरें,
आपस में टकराती हुई,
लड़ती, झगड़ती हुई,
किनारे की ओर
तड़पती हुई आती हैं,
फिर टकराकर चली जाती हैं,
कुछ वहीं दम तोड़ देती हैं
कुछ फिर इकट्ठे होकर
पुराने वेग से दौड़ कर आती हैं
फिर वही तेजी, फिर वही शोर,
जाने कहाँ से ये लहरें
इतनी ताकत लेकर आती हैं?

२)
ये लहरों की तड़प,
ये टकराव,
ये तो बस है
चन्द्रमा का आकर्षण
जो खीच लेता है
लहरों को अपनी ओर,
और ऊँची,
और ऊँची उठती हैं,
चाँद का आलिंगन करने को,
नई जान आ जाती है
विशाल सागर में,
ऊँचा उठता है छू लेने को आकाश,
फिर भी पूछते हो
कि ये ताकत कहाँ से लाता है!!
ये प्रेम ही तो है...
ये प्रेम ही तो है...
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Friday, December 7, 2007

ये यादें

कभी हलकी सी मुस्कान होठों पर,
कभी आँखें नम कर जाती हैं
कभी सपने दिखलाती हैं दिन में,
कभी मन भारी कर जाती हैं..
आह ये यादें, क्या क्या कर जाती हैं!

जब आँखों के सामने ही
सब होता हुआ सा दिखता है,
जब रात के सन्नाटे में,
कुछ सुना हुआ सा लगता है,
गाल पर खारा पानी
टपटपा जाती हैं,
आह ये यादें, क्या क्या कर जाती हैं!

जब भरी महफिल में भी
कुछ सूना सूना सा लगने लगे,
जब अपनों के बीच में भी,
अजनबी सा लगने लगे,
तब शायद बे-प्रीत होने लगती हैं,
आह ये यादें, क्या क्या कर जाती हैं!

सालों का साथ जब
पल भर ही रह जाता है,
कितने दूर कितने पास,
ये सवाल मुश्किल हो जाता है,
वो हर पल भारी कर जाती हैं,
आह ये यादें, क्या क्या कर जाती हैं!

जब रोने का बहाना नहीं मिलता,
जब हँसने का मन नहीं करता,
तब अपने आप से खुद को
दूर कर जाती हैं,
आह ये यादें, क्या क्या कर जाती हैं!

क्यों दिलों का मिलना होता है?
क्यों ये बिछड़ना होता है?
क्यों ये विरह के पल,
मन को खाने लगते हैं?
क्यों ये खूबसूरत आकाश,
काटने को दौड़ता है?
ऐसे ही अनगिनत यक्ष प्रश्न,
अब हर वक्त मेरे सामने
खड़े कर जाती हैं
आह ये यादें, क्या क्या कर जाती हैं!
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Monday, December 3, 2007

क्यों दुनिया को जन्नत बनाते नहीं?

मेरी इस रचना को ग़ज़ल कहें या कविता, ये मुझे नहीं पता। जो भी हो, मुझे आपकी टिप्पणी की उम्मीद रहेगी।
और इस रचना के माध्यम से उठाये गये सवालों को आप कितना सही मानते हैं अवश्य बताइयेगा|


दिवाली और ईद दोनों में लोग, एक दूसरे को गले लगाते हैं,
तो मुसलमान मनाते दिवाली नहीं, क्यों हिंदू ईद मनाते नहीं?

गर इंसां को है ये पता, कि सबका मालिक एक है,
क्यों मंदिर में मुसलमां, क्यों मस्जिद में हिंदू जाते नहीं?

गर धर्म सिखाये कत्ले-आम, मजहब सिखाये आतंक फैलाना,
क्यों नहीं मारते मजहब को पत्थर, क्यों धर्म को तुम जलाते नहीं?

जिसने बनाया इंसां को, उस खुदा की है ये दुनिया सारी।
तो मंदिर - मस्जिद छोड़ कर, क्यों औरों का घर बसाते नहीं?

जब धर्म अधर्म सिखाता है, और मजहब आग लगाता है,
क्यों मानते हो उस धर्म को, क्यों मजहबी आग बुझाते नहीं?

तोड़ डालो ये मंदिर मस्जिद, मालिक ने तो ये न चाहे थे,
पूरी कायनात में वो ही समाया है, क्यों दुनिया को जन्नत बनाते नहीं?
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Sunday, November 25, 2007

मेरे बाद-

कभी कभी सोचता हूँ
मेरे बाद कैसे रहोगे?
क्या वही हँसी मजाक होगा,
क्या वैसे ही चुटकुले होंगे?

क्या मैं भुला दिया जाऊँगा,
या हर बात में याद आऊँगा?
सिहरन उठती है पूरे शरीर में,
डर लगता है,
घबरा जाता हूँ जब
बिछड़ने का ख्याल
मन पर हावी होने लगता है!!

क्या इतिहास हो जायेगा
मेरा आज,
क्या भुला दिये जायेंगे
मेरे सब काज,
मेरी आवाज़ अब
नहीं गूँजेगी यहाँ पर,
नहीं गुनगुनाये जायेंगे
मेरे गीत यहाँ पर|

पर लोगों को
आदत हो जायेगी,
मेरे बिना रहने की,
मेरे बिना खाने की,
बिना मेरे घूमने की|

दो चार दिन काम के बहाने
याद आ जाया करूँगा शायद,
पर वक्त से रह जायेगी
बस एक शिकायत-

वक्त जब हँसाता है,
तो रोने क्यों देता है?
जब परायों को अपना बनाता है
तो बिछड़ने क्यों देता है?

बड़ा छलिया है ये वक्त,
मेरी बात ही नहीं सुनता,
आवाज़ देता हूँ,
दो पल तो ठहर कमबख्त

पर क्या कभी रुका है
किसी के लिये ये वक्त?
क्या ऐसे ही चलता रहेगा
ये बेईमान वक्त?
मेरे बाद भी!!
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Sunday, November 4, 2007

कंजकें

ज्यादा भूमिका नहीं बाँधूँगा। लड़कियों का कम होना चिंता का विषय है। लेकिन हैरानी की बात ये है कि अनपढ़ तो अनपढ़ हैं ही, सभ्य समाज या शहर में बसने वाले और आधुनिक कहे जाने वाले समाज में भी बेटियों को कुछ नहीं समझा जाता।
उन्हें या तो पैदा होने से पहले ही मार दिया जाता है, या बेटों से कम तवज्जो दी जाती है। आधुनिक भारत के सभ्य व आधुनिक समाज के मुँह पर ये जोरदार तमाचा है। तमाचा जोर का लगे उसके लिये आपकी टिप्पणी आवश्यक है।

अरे पिंकू बेटे,
ज़रा बाहर जा,
गुप्ता आँटी की
निक्की को बुला ला।

पिंकू दौड़ा दौड़ा गया,
वापिस आया, माँ से बोला,
निक्की मेहता अंकल के गई है,
१५ मिनट में आने का है बोला।

नवरात्रि के इस त्योहार में
हर घर में कंजकें जीमी जायेंगी,
पर लगता है कि इस बार भी
निक्की ही सब के घर जायेगी।

जब पालने में बेटी होती है,
तो उसका गला दबाया जाता है।
पर "देवी" से आशीर्वाद मिल जाये,
इसलिये नवरात्रि में पूजा जाता है।।

ये सभ्य लोगों का समाज है,
जो बेटी नहीं पाल सकता,
न जाने किस बात का डर है
जो बेटियों को हाशिये पर है रखता।

पंजाब जैसे समृद्ध प्रदेश में भी,
लगातार बेटियाँ हो रही है कम।
जब बेटे की शादी के लिये लड़की ढूँढेंगे,
शायद तब निकलेगा सबका दम।।

तब समझेगा ये समाज,
बेटियों की अहमियत को,
जब तरसेगा आदमी,
पत्नी,बहन, भाभी और माँ को।

भयावह सा लगता है जब,

सोचता हूँ जीवन,
इन रिश्तों के बिना,

हकी़क़त सा लगने लगा था ये दु:स्वप्न,

जो इस बार मैंने कंजकों को,
पिछली बार से आठ कम गिना!!!
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Friday, October 19, 2007

सात क्षणिकायें : क्षणिकाओं में मेरा पहला प्रयास

हिंद-युग्म (www.hindyugm.com) पर आज कल क्षणिकाओं का दौर है। क्षणिका विधा ने मुझे बहुत प्रभावित किया है।
अगर आप बड़ी कवितायें नहीं पढ़ सकते तो ये छोटी छोटी पंक्तियाँ आपका ध्यान आकर्षित करती हैं
देखें मैं इसमें कितना सफल हो पाया हूँ। आपकी टिप्पणियाँ मुझे बतायेंगी कि मुझे आगे किस तरह से लिखना होगा।

१)
कीचड़ के खेल में,
इतना सन चुका हूँ मैं,
कि अब इसमें,
मजा आने लगा है।

२)
एक कुत्ता दूसरे से बोलाः
आदमी का झूठा न खाया कर,
वरना एक दिन
जानवर बन जायेगा!!

३)

ज़िन्दगी से इतना
सीख चुका हूँ मैं,
कि इंसान की परिभाषा
भूल चुका हूँ मैं!!

४)
ये कविता भी,
न जाने कहाँ से आई है,
जब ये नहीं थी,
कितना सुखी था मैं!!

५)
दोस्त चले गये,
मेरे दुश्मन
तू तो न जा,
मैं तन्हा हो जाऊँगा।

६)
माँ,
छोटे से शब्द में
स्नेह का
अथाह सागर!!

७)
पिता,
वात्सल्य की अग्नि
से जलती
चूल्हे की ताप!!

धन्यवाद|
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Monday, October 15, 2007

कदम दर कदम

कदम दर कदम चलते ही चले,
फ़ासले दरमियाँ बढ़ते ही चले...

हम रुके उस मोड़ पर, सोचा के साथ ले चलें,
आप ही तो दूर से, सलाम कर चले.....

वक्त ने भी कैसी करवटें हैं खाईं,
जो कल तलक तो संग थे, बैर हो चले....

मालूम है कि रुख हवा का किस तरफ को है,
न जाने कयूँ हम तेरा इंतज़ार कर चले...

अपनी किस्मत थी जो कुछ पल का साथ रहा,
आप भी क्या खूब थे, सपने भी साथ ले चले...

कदम दर कदम चलते ही चले,
फ़ासले दरमियाँ बढ़ते ही चले...
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Sunday, October 14, 2007

हिंद-युग्म पर अगस्त माह में प्रकाशित:दहेज़ का चलन

यूँ तो ये कविता हिंद युग्म पर पहले ही प्रकाशित हो चुकी है, और हो सकता है आप में से कुछ ने पहले पढ़ी हुई हो।परन्तु फिर भी मैं यहाँ भी इसे पोस्ट कर रहा हूँ ताकि मेरे द्वारा रचित कवितायें एक ही जगह मिल जायें।

http://merekavimitra.blogspot.com/2007/08/blog-post_20.html

जी, हमारा लड़का आई.ए.एस है,
2 साल बाहर भी रहकर आया है
इतना खर्चा हुआ,
पढ़ाया-लिखाया
इस काबिल बनाया...
अब आप ही बतायें
पैंतालीस तो, बनते ही हैं न..

लड़की के पिता ने कुछ सोचा, फ़िर बोला
आपने बात तो बिलकुल सही कही है
पर इतना पैसा लगाने की
हमारी औकात नहीं है
लड़की तो हमारी भी इंजीनियर है
पर हम पैंतीस तक ही लगा सकते हैं

लड़के के पिता अपनी बात पर कायम,
कहा,
नहीं नहीं, पैंतालीस से कम
में ये रिश्ता नहीं होगा

लड़की के पिता गिड़गिड़ाये
आखिर में चालीस पर बात मना पाये
मैं भी वहाँ खड़ा था
मिठाई बँटी,
मैंने भी खाई..
पर मन में कुछ और ही चल रहा था...

लड़के को बिकते देखने का
मेरा पहला तजुर्बा जो था...

लड़की के पिता की
आखिर ऐसी क्या मजबूरी है
जो दहेज के लालची लोगों से
रिश्ता कर रहे हैं

बात पता चली,
पड़ोस में पिछले दिनों
एक लड़की की शादी,
एन.आर.आई. खानदान में जो हुई थी

बस,
सारा माजरा समझते देर न लगी
लड़के और लड़की में रिश्ते की
ये तो बस औपचारिकता है
असली रिश्ता तो लालच और घमंड में
कब का हो चुका है...

धन्य है ये समाज,
मेरा समाज हमारा समाज
बुद्धिजीवियों के इस समाज में
पढ़े लिखे दूल्हों का बाज़ार लगता है
हर शख्स बिकता है...हर रिश्ता बिकता है
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Sunday, September 30, 2007

बचपन यादें इंतज़ार ईश्वर और मैं

२ अक्टूबर २००७:
आज सूर्य की २५ परिक्रमायें पूरी कर ली हैं । यकीन नहीं होता। हर पल इतनी तेज़ी से भागा है पर वक्त पर इसका कोई असर नहीं पड़ता। ये भागता रहता है और हम हाँफ़ते रह जाते हैं। इन पच्चीस बरसों में खोना पाना चलता ही रहा। ज़िंदगी के इस सफ़र में रिश्ते बनते गये, दोस्त बनते चले गये, छूटते गये। कुछ से थोड़े समय का साथ मिला, कुछ आज भी मेरे साथ हैं। परिवार का साथ हमेशा रहा। बुज़ुर्गों का साथ छूटा पर उनका आशीर्वाद आज भी मेरे साथ है। शायद उनकी दुआओं का ही असर है जो आज का तपन आपके सामने है।मित्रों की सलाह, उनका साथ और परिवार का प्रेम सब को मेरा धन्यवाद व प्रणाम।।
इन सब के बीच एक परमात्मा भी है, जिसमें सारे ब्रह्मंड समाये हुए हैं, जिसमें हम हैं, जिसका अंश हम सब में है, जिसके बिना ये जीवन मुमकिन नहीं हैं। शत शत नमन।
आज तक अगर मुझसे कोई भूल हुई हो या आपमें से किसी का दिल दुखाया हो तो मैं क्षमापार्थी हूँ। आपका साथ व आशीर्वाद मिलता रहे बस यही आशा है।
आज मेरे मन में जो भाव उमड़े हैं उन्हें ३ कविताओं में शामिल करने का प्रयास किया है। कही कुछ कमी रह गई हो तो क्षमा कीजियेगा। कविताओं में त्रुटि हो सकती है पर भाव आप तक पहुँचे बस यही चाहता हूँ। मेरा मानना है कि आपके मन में भी ये भावनायें कभी न कभी ज़रुर जगी होंगी|

१)बातें भूल जाती हैं यादें याद आती हैं...

जीवन के ये पच्चीस बरस..
कुछ इस तरह से गुजरे,
पलक झपकते ही पल में
एक उम्र गुजरी हो जैसे।।

वो कल ही की बात थी, जो बारिश में नाँव चलाया करते थे,
पिठ्ठू गरम, पकड़म पकड़ाई, खूब चिल्लाया करते थे।
कभी विष अमृत, कभी पोशम पा, कभी ऊँच नीच का पापड़ा,
आँख मिचौली खेलते, कोकलाची गाया करते थे।।

मम्मी पापा के खेल खिलौने,
दादी नानी की कहानियाँ याद आती हैं,
वो ममता भरी गोद याद आती है,
वो मीठी मीठी लोरियाँ याद आती हैं।
नानी का वो खटोला याद आता ही
जिस पर अब मेरी टाँगें भी नहीं आती हैं।

पापा की पीठ पर चढ़ना याद आता है,
बहन से बात बात पर लड़ना याद आता है।
गर्मियों की छुट्टियों में खट्टे मीठे फ़ालसे,
छत पर तारे गिनना याद आता है,
सुबह सैर पर जाना, पार्क में खेलना,
कँधे पर बस्ता टाँगे स्कूल जाना याद आता है

उन बातों को याद करके, दिल आज भी झूम उठता है,
आँखें नम हो जाती हैं
क्या यही ज़िन्दगी है?
ऐसा लगता है मानो, बचपन जाते ही,
ज़िन्दगी खत्म हो जाती है।

ये आज की ही बात है, जब खुद को टटोलता हूँ,
बचपन तलाशता हुआ, समाज को देखता हूँ,
लोग हँसना भूल गये हैं,रोना आता है,
पाना भूल गये हैं, बस खोना आता है|

दूध पी कर बड़े होगे, समझदार बनोगे,
जब छोटे होते थे तो समझाया जाता था
समझदारों की दुनिया से जब वास्ता पड़ा,
ऐसा लगा मानो..
बहलाया जाता था, फ़ुसलाया जाता था।

इन खोखले विचारों की दुनिया में,
जज़बातों का कोई मोल नहीं,
यहाँ झूठी दिखावाट का बाज़ार लगता है,
ईमान व सच्चाई का कोई मोल नहीं।

जीवन के इस मोड़ पर खड़ा मैं,
पल पल का जब हिसाब लगाता हूँ
मेरा बचपन मुझको लौटा दे
ईश्वर से बस यही गुहार लगाता हूँ।
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२) तुम्हारा इंतज़ार है...

जीवन के इस मोड़ पर,
अब एक साथी तलाशता हूँ,
वो खड़ा रहे हर दम साथ,
ऐसा हमसफ़र चाहता हूँ।

जिसका साथ पा कर मैं,
छू लूँ सारे आसमां..
जो रहे संग मेरे हमेशा,
पूरे करे मेरे अरमां।।

एक अज़ीज़ दोस्त बन कर रहे,
हर गलती पर मुझे सुधारे,
गमों की धूप को झेल लें
वो मेरे सहारे, मैं उसके सहारे।

मैं जानता हू शब्द के,
रास्ते अनेक होते हैं
गर मेरी आवाज़ पहुँचे उस तक......
इंतज़ार नहीं होता है अब उसका
मेरे नयन उसकी राह तकते हैं।
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३) तू है आसमां में, तेरी ये ज़मीं है...

तेरी दुनिया में आया हूँ,
तुझे ये शीश झुकाता हूँ।
मानव जन्म मिला जो मुझको
तेरा शुक्र मनाता हूँ।।

भूले से भी कभी किसी से,
न करें कभी बर्ताव बुरा।
कर्म हमेशा नेक करें
सब के लिये निकले दुआ।

यही विनती करता हूँ मैं तुझसे
मुझे हमेशा इंसान बनाये रखना,
ज़िन्दगी रहे या मौत भी मिल जाये कभी
हाथ सर पर हमेशा बनाये रखना||

आभारः तपन शर्मा
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Saturday, September 8, 2007

मौत???

आज की तारीख में भारत दो हिस्सों में बँट चुका है। एक भारत तरक्की कर रहा है। व्यापार, आई.टी व दूसरे क्षेत्रों में आगे बढ़ रहा है।यहाँ आगे बढ़ना, मतलब देश में खूब पैसा आ रहा है। बहुत खुशी होती है जब मध्यम वर्गीय परिवार का कोई आदमी कार, ए.सी खरीदता है। आज से १० साल पहले तक शायद ऐसा नहीं सोचा जा सकता था, पर आज सब मुमकिन है। हम वैज्ञानिक दृष्टि से और सुदृढ होते जा रहे हैं। ऊँची-ऊँची गगन चुम्बी इमारतों, फ़्लाइओवरों,आलीशान होटलों की चकाचौंध, बार, डिस्को, लम्बी गाड़ियाँ, इन सब को देख कर यकीन हो जाता है कि भारत के नाम का डंका आज पूरी दुनिया में क्यों बज रहा है?
लेकिन एक सच और भी है। और वो कड़वा सच है, जो हमारी पोल खोलता है। हमसे कहता है कि क्यों स्वयं को धोखे में रख रहे हो? और भी बहुत कुछ है करने को। एक कार खरीदने को देश की तरक्की नहीं कहते। देश की तरक्की होती है, समाज से। पर हमारा समाज ही संकीर्ण मानसिकता से ग्रस्त है। आगे बढ़ने की चाहत हमे वो कदम भी उठाने पर मजबूर कर देती है, जो न्यायसंगत नहीं होता, जिस कदम से किसी दूसरे के अरमानों का खून होता है।
जो किसी की लाश से होकर गुजरता है। जिस देश में दुनिया के बड़े रइस हैं, उस देश की ७०% जनता को पीने का पानी नहीं है, खाने को रोटी नहीं है, काम करने को रोजगार नहीं है, पहनने को एक जोड़ी कपड़ा नहीं है।फ़िर भी हम तरक्की कर रहे हैं। ये कैसी विडंबना है़!! न जाने क्यों मुझे लगता है हम पैसे की दौड़ में अपने सिद्धांतों का खून करते जा रहे हैं। संस्कृति की नींव खोखली होती जा रही हे।
इस कविता में हो सकता है मैं निराशावादी होऊं, इसके मैं आपसे माफ़ी माँगना चाहूँगा और आगे की कविताओं में आशावादी बनने का प्रयास करूँगा। आपको जैसा भी लगे, या जो आपके मन में इस बारे में बात हो, तो कृपया मुझे बतायें। आपकी टिप्पणियाँ मुझे आगे बढ़ने में मदद देती हैं।


अपनी जवानी में,
मैं हँसता था,
ठहाके लगाता था..
सबसे कहा करता था
देखना,
मेरे बच्चे मेरा नाम
रोशन करेंगे,
सब मिलजुलकर,
प्यार से,
एक ही घर में रहेंगे..

लहलहाते खेतों को देखकर,
मेरा मन आनन्दित होता,
सब के घर में रोटी होगी,
न भूखे सोयेगा कोई बच्चा,
ये सोच कर मैं,
चैन की नींद सोता।

आज़ादी के लिये,
लक्ष्मी बाई और् सरोजिनी को
लड़ते हुए देखकर,
मैं निश्चिन्त था,
भारत की स्त्री,
इस पुरूष समाज में,
अपनी पहचान बनायेगी,
ये सोचकर

संस्कृति की सीख,
जो दी है,
मैंने अपने बच्चों में,
वो उसका मान करेंगे,
कुछ बातें सीख,
अपने ग्रंथों से,
विश्व में अपना नाम करेंगे।

आज साठ साल की,
दहलीज़ पर मैं खड़ा,
उम्र के इस पड़ाव पर,
सोचता हूँ उन दिनों को-

और कराह उठता हूँ-
बहुओं की चीखों से,
उदास होता हूँ-
किसानों की मौतों से,
दिल रोता है-
शहीदों की लाशें देख कर,
विवश महसूस करता हूँ-
नेताओं के गोरखधन्धों पर,
डरता हूँ- लोगों को
खून का प्यासा देखकर,
सहम जाता हूँ-
लोगों की आँखों में
वहशियानापन देखकर,
खून खोलता है-
प्रकृति का विनाश देख कर..
दर्द होता है-
मासूम बच्चे को भूख से
बिलखते देखकर..

सारे सपने,
बिखरते दिखाई देते है..
जब धर्म के नाम पर,
लोग भगवान बाँटते
दिखाई देते हैं..

क्या सोचा था...
क्या पाया...
पाश्चात्य की होड़ में,
अपनी संस्कृति,
अपनी भाषा, अपना पहनावा,
सब गुमराह हो गये,
और पश्चिम के रंग में
ढलता पाया..

ए मालिक,
दे दे तू मेरे बच्चों में
बस इतनी सी समझ,
न भागें पैसे की तरफ़,
दें जज़्बातों पर भी ध्यान,
तोड़ें लालच व
द्वेष की मोटी परत,

मेरे मालिक..
मुझ बूढ़े पर,
एक रहम कर,
साठ साल की उम्र में,
मुझे इन रोगों से मुक्त कर..

काश! कोई मेरी आवाज़ सुन ले..
काश! कोई नई रोशनी कर दे..
काश! कोई दवा दे दे..

इन चीख, चिल्लाहट,
रूदन, तड़प,
बिलखना, मारना,
पीटना, भागना
भूख, लाचारी,
इन सब से,
सिर फ़टा जाता है..
और आगे कितना रुलायेगा भगवान?
ये "भारत" तुझसे
मौत चाहता है..
ये "भारत" तुझसे
मौत चाहता है॥

आभारः तपन शर्मा
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Saturday, August 25, 2007

रक्षा बंधन

राखी के त्योहार से हर कोई परिचित है। ये उन त्योहारों में से एक है जो किसी धर्म, जाति विशेष से संबन्ध नहीं रखता।
ये वो त्योहार है जिसने हिंदू रानी कर्णावती और मुगल बादशाह हुमायूँ को प्रेम के बँधन में बाँधा। ये वो त्योहार है जिसने राजा पुरू को युद्ध में सिकंदर को मारने से रोका, क्योंकि पुरू की कलाई में सिकंदर की बीवी की राखी बँधी थी।

यूँ तो आमतौर पर राखी बहन बाँधती है.. पर ऐसा हमेशा ज़रूरी नहीं। पौराणिक ग्रंथों के अनुसार रानी शचि ने पति इंद्र को वृत्र नामक राक्षस से युद्ध के लिये जाने से पूर्व इसी प्रकार धागा बाँधा था।
यम-यमुना और द्रौपदी-कृष्ण का जिक्र किये बिना ये त्योहार अधूरा है।

इसी त्योहार और भाई बहन के रिश्ते को समर्पित ,एक छोटी सी कविता लिखी है। आशा है आपको पसंद आयेगी।

भाई बहन के प्रेम का,
है अजब अनोखा बंधन,
प्यार भी तकरार भी,
सच्चा है, और है ये कंचन॥

भाई बहन की करता रक्षा,
सारी खुशियाँ कर देता अर्पण,
पल पल भाई का ध्यान रखना,
जानता है बहन का मन॥

जिस दिन रानी कर्णावती ने,
बाँधा हुमायूँ की कलाई पे धागा,
वो दिन इतिहास का था स्वर्णिम,
जब रिश्ते का मान बढ़ा गया धागा॥

इस अनूठे बँधन को,
शब्दों में बयां करना है मुश्किल,
जहाँ तकरार में प्रेम घुलता है और,
कच्चे धागे से बँधते हैं दिल॥


आभार,
तपन शर्मा
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Tuesday, August 14, 2007

60 का हुआ भारत

ये कविता मैंने पिछले साल लिखी थी..पर आज भी इसमें "वर्ष" को छोड़ कोई और बदलाव की आवश्यकता नहीं पड़ी :-(


60 का हुआ भारत,
61 में किया प्रवेश
सैकड़ों बदलाव देखे हमने,
फ़िर भी वैसा अपना देश |

तब भी नहीं थी खाने को,
दो वक्त की सूखी रोटी,
अब भी इस देश में,
आधी जनता भूखी है सोती |

47 में भी हुए थे,
मजहब के नाम पर दंगे..
आज भी आये दिन,
होते रहते हैं ये अड़ंगे |

कभी सोने की चिड़िया था,
तब अंग्रेज़ों ने लूटा था भारत
अब भी भारत लुटता है,
नेताओं से कहाँ है राहत ?

पर बदलाव तो आया है..

आज हर क्षेत्र मे,
भ्रष्टाचार का साया है
पहले पंजाब में खौफ़ था,
आज कशमीर से कन्याकुमारी तक,
आतंक ही आतंक छाया है |

क्या दिन और क्या रात,
सरहद पर जगते हैं जवान,
यहाँ नेता शान से सोते,
उन्हीं का कफ़न तन पर तान |

वो ज़माना और था,
जब प्रेमचन्द की रचनायें
बिकती थी खड़े खड़े |
आजकल 'वीमेंस एरा' और,
'स्टारडस्ट' का ज़माना है,
उपन्यास सड़ते हैं पड़े पड़े |

नेह्रू जी ने तिरंगा फ़हराया था,
दिया था निर्भयता से,
देश के नाम संदेश,
आज दिन में भी डरे डरे,
प्रधानमन्त्री को टीवी पर से,
देेखता है सारा देश |

पतंग उड़ाना कभी,
अपनी शान थी होती,
आज इसे उड़ाने पर,
कड़ी पाबंदी है होती |

60 साल में ये हालत है.
आगे क्या होगा ?
ये सोच कर मन घबरता है,

ट्रक के पीछे पढ़करः
"100 में से 99 बेईमान
फ़िर भी मेरा भारत महान"
"भारत" अपनी किस्मत पर,
मन ही मन,
कभी हँसता, कभी रोता,
अपनी ही गलियों में खोता जाता है...
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Sunday, July 29, 2007

किसान

खाते पीते शहरी लोग,
गाँव में लहलहाते खेत,
मेहनती किसान ।

शहर में दौड़ती कार,
गाँव में रोबीला साहूकार,
कर्ज़दार किसान ।

बढ़ते रेस्तरां, व्यञ्जन,
रोटी को तरसता,
भूखा किसान ।

पेट भरना दूसरों का,
हँसते हुए सिखा गया,
मुर्दा किसान ।
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खेल

पुल पर तेज़ी से चलती ट्रेन से बाहर मैने झाँका है
एक कब्रिस्तान नज़र मुझको आया है..

उसी के पास एक ज़मीन..और उस पर कुछ बच्चे..
क्रिकेट खेलते..खेल को देखते..हँसी मजाक करते..

किल्लियाँ बिखर जाती हैं एक गेंद से..
बल्लेबाज बल्ले को पटकता है ज़ोर से..

मैं देखता हूँ एक खिलाड़ी को पैविलियन वापस जाते हुए..
और दूसरे को अपनी बारी शुरु होने पर खुश नज़र आते हुए..

कुछ ही पलों में आँखों से दृश्य ओझल हो रहा है...
धीरे धीरे ही सही...अब ये मुझे समझ में आ रहा है

इस खेल के मैदान में खेलती दुनिया सारी है
अम्पायर के निर्देशों पर..ये खेल निरन्तर जारी है..

ये खेल निरन्तर जारी है.. ये खेल निरन्तर जारी है..
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Sunday, July 22, 2007

आमेर : किले से खंडहर के ओर

आमेर का दुर्ग..



करीबन 10-12 साल पहले देखा था तो देखता ही रह गया। इतना विशाल और मजबूत, जैसे अपने महान इतिहास की हर गाथा बयान कर रह हो।
कईं सौ साल पुरना यह दुर्ग जयपुर को आगे बढ़ते हुए देख रहा है..


पर खुद पीछे जाता जा रहा है
आमेर आज भी वहीं खड़ा है.. लेकिन उसका रूप बदल चुका है.. वो जर्जर हो चुका है..ऐसा लगता है मानो आखिरी साँसें ले रहा हो.. 10 साल् बाद अगर मैं फ़िर देखने जाऊँ तो हो सकता है उसे न पाऊँ!!
ज़रा नीचे एक तस्वीर पर नज़र डालें..



इस दीवार पर कुछ शीशे अब नहीं हैं.. अंदर कमरे की दीवार का और भी बुरा हाल है..
जनता की मेहरबानी है
अब उन तस्वीरों को देखते हैं जिन्हें देखकर उन कारीगरों के बारे में सोचा करता हूँ कि आज तो हम नई तकनीक से ऊँचे कंक्रीट की इमारतें खड़ी करते हैं..वो लोग तब किस प्रकार से पहाड़ के ऊपर महल बनाया करते थे..





और अब यह है खूबसूरत कारीगरी का नमूना... क्या बढ़िया चित्रकारी है..


नज़र नहीं आ रही?? हम ही लोगों ने उखाड़ फ़ेंकी है.. शायद कुछ लोगों को बहुत पसंद आ गई
शुक्र है भारतीयों का कद आमतौर पर बड़ा नहीं होता..


वरना छत की इस नक्काशी के कुछ शीशे हम में से किसी एक के घर की शोभा बढ़ा रहे होते!!

आगे के चित्र आपको विचलित भी कर सकते हैं और शायद सोचने पर मजबूर भी कि 21वें सदी में 10 प्रतिशत की विकास दर के सथ भारत तरक्की कर रहा है(?) या फ़िर केवल "पैसा पैसा" छोड़ कर और भी कुछ सोचने की ज़रूरत है!!



हम में से ही किसी एक ने थूका है इतिहास पर!!


टूट रहीं हैं दीवारें..


खत्म हो रहा है इतिहास



मरम्मत का काम जारी है..


गाइड ने बताया कि 40 करोड़ मिले हैं किले को ठीक करने के लिये...
पर सरकारी के काम को आप और हम अच्छी तरह से समझते हैं..
पर हर बार सरकार को दोष मढ़ना किस हद तक सही है.. इस बार दोषी हम और आप हैं..
हम लोग ही शीशे निकालते हैं.. हम ही थूकते हैं.. हम ही प्रेम संदेश लिखते हैं दीवारों पर..
अब सवाल उठता है कि हम क्या करसकते हैं.. हर उस शख्स को जिसे आप इतिहास को गंदा करते हुए पायें.. तुरं त रोकें..
हमसे ही इतिहास बना है.. हम ही बिगाड़ रहे हैं.. इन धरोहरों को देखने के लिये देश विदेश से पर्यटक आते हैं..भारत का नाम और शोभा इन्ही किलों में है.. इसके अस्तित्व को बचाये रखने में मदद करें.. यही विनती है
वर्ना अगली पीढ़ी हमें दोष देगी कि इतिहास को हमने वर्तमान में तबाह करके भविष्य की पीढ़ी को सिवाये पत्थरों और मिट्टी के ढेरों के कुछ न दिया!!
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Saturday, July 21, 2007

उदयपुर : मरूस्थल में हरियाली फ़ैलाती वीरों की भूमि

पधारो सा
अभी हाल ही में राजस्थान की यात्रा करने का अवसर मिला। यात्रा के शुरू में ही राजस्थान की गर्मी और दिल्ली की तरह ही चिलचिलाती धूप का मंजर सोचे बैठा था। यात्रा शुरू हुई और कुछ ऐसे दृश्य देखने को मिले...



दूर दूर तक पेड़ और पहाड़ियाँ..


सोचा कि ये धरती और भी हरी भरी होती यदि यहाँ की मिट्टी ऐसी न होती...



पृथ्वी राज चौहान की धरती, अजयमेरू में पुष्कर जी को प्रणाम किया


और आगे बढ़ गये..
जी हाँ अजयमेरू का ही बिगड़ा हुआ शब्द है अजमेर..
पुष्कर में मौसम को देख कर अंदाजा लगाना शुरू हो गया था


कि 300 कि मी दूर उदयपुर में कैसा मौसम होने वाला है..
पहाड़ी रस्ता ऐसा कि अंदाजा लगाना मुश्किल हो जाये कि हम हिमाचल, उत्तरांचल या पूर्वांचल में नहीं अपितु रेगिस्तान को सुशोभित करती अरावली पहाड़ियों पर चले जा रहे हैं..

राजस्थान में संगमरमर का काम काफ़ी होता है..


रास्ते में कुछ ऐसे दृश्य भी देखने को मिले.. शायद बारिश का पानी भर गया है... पानी के बीचों बीच खड़े ये पेड़ शायद यही कहानी बयां कर रहे हैं..


पूरे दिन के सफ़र के बाद हम उदयपुर पहुँचे..
आगे बढ़ने से पहले उदयपुर के बारे में बता देना उचित रहेगा। राजस्थान को मूलतः दो भागों में बाँटा जाता है.. मारवाड़ और मेवाड़.. उदयपुर मेवाड़ में आता है। इस शहर को वीर राणा सांगा के पुत्र और महाराणा प्रताप के पिता, उदय सिंह ने बनवाया था इसी लिये इस का नाम उदयपुर पड़ गया..

फ़व्वारों

(ये चित्र अंतरजाल से लिया गया है)
व झीलों का शहर है उदयपुर..

ये है फ़तह सागर झील.. ये राणा फ़तह सिंह के द्वारा बनाई गई

अरावली वाटिका को देखते हुए फ़िर हम पहुँचे प्रताप स्मारक.. यहाँ से मेवाड़ और उदयपुर की जो गाथा हमने सुननी शुरू की उसे सुनकर आज भी रौंगटे खड़े हो जाते हैं और इस धरती के राजपूतों के प्रति अपने आप नतमस्तक हो जाता हूँ..
ज़रा बोर्ड पर लिखी इस कविता को पढ़िये..

एक एक पंक्ति जैसे उन शूरवीरों की कहानी कह रही हो.. जिन्होंने न कभी किसी मुगल शासक की गुलामी करी और न ही अंग्रेज़ों को मेवाड़ की इस धरती पर राज करने दिया...काश सभी राजा ऐसे ही होते..

महाराणा प्रताप और चेतक...


कहते हैं कि ये मूर्ति प्रताप और चेतक की कद काठी की ही है..
प्रताप का कद था सात फ़ीट से भी ज्यादा!!!



हल्दीघाटी के युद्ध में जब चेतक को चोट पहुँची तो प्रताप के सेनापति(जो प्रताप क हमशक्ल लगता था) ने प्रताप को रणभूमि से चले जाने को कहा और खुद प्रताप का मुकुट धर के युद्ध लड़ने लगा। लेकिन वो मानसिंह के सैनिकों के द्वारा पहचाना गया.. क्योंकि उसकी म्यान में एक ही तलवार थी!!!
चित्र को दोबारा देखिये.. प्रताप अपने साथ दो तलवारें रखते थे..निहत्थे पर उन्होंने कभी वार नहीं किया..

कुछ और पंक्तियाँ इस वीर योद्धा के नाम




कईं किमी तक के क्षेत्र में फ़ैली फ़तह सागर झील की 2 और झलकियाँ...





और फ़िर है पिछोला झील..



उदयपुर की शोभा बढ़ाती इन झीलों के मध्य में लेक पैलेस और जल महल नाम के 2 महल शामिल हैं जो उदयपुर को विश्व प्रसिद्ध करते हैं..
गौरतलब है अरूण नायर / लिज़ हर्ले की शादी यहीं पर हुई, और रवीना टंडन ने भी यहीं पर विवाह समारोह किया था..
एक रात के लिये यदि कमरा चाहिये तो 2.5 लाख रुपय तक खर्च करने पड़ सकते हैं..
अभी वर्तमान के महाराणा सिटी पैलेस में रहते हैं.. सिटी पैलेस में कैमरा ले जाने के 200 रू थे इसी लिये फ़ोटो लेने में असमर्थ रहा..
महाराणा की एक दिन की कमाई है मात्र 9 लाख (रू में..)
अब आप सोच ही सकते हैं सिटी पैलेस कितना खास रहा है। यहाँ पर्यटकों के लिये रात को विभिन्न कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं..सिटी पैलेस का एक हिस्सा संग्रहालय है.. एक कार्यक्रम आयोजन के काम आता है..और एक में महाराणा स्वयं रहते हैं..
अपना रक्त बहा कर जिन वीरों ने इस धरती को पवित्र रखा, वहाँ के राजा साल में 9-10 महीने बाहर रहते हैं..
महाराणा सूर्यवंशी हैं इसीलिये सिटी पैलेस में एक विशाल सोने का सूर्य हुआ करता था, परंतु इमेरजेंसी के दौरान हमारी प्रधानमंत्री जी ने उसको वहाँ से हटवा दिया... सफ़ेद टोपी वालों के सुपुर्द हो गया महाराणाओं का सूर्य!!!

सिटी पैलेस के बाद हमने रूख किया हल्दीघाटी का.. जहाँ महाराणा प्रताप और जयपुर के राजा मानसिंह के बीच हुआ था... बादशाह अकबार प्रताप से डरते थे तो उन्होंने जयपुर के राजा को युद्ध में भेजा।जयपुर के राजा मानसिंह अकबर की पत्नी जोधाबाई के भाई थे।
घाटी को हल्दीघाटी क्यों कहते हैं इसका पता आपको यहाँ के पत्थरों और चट्टानों को देख कर लग जायेगा..


घोड़े पर हैं प्रताप और हाथी पर हैं मानसिंह..



ध्यान से देखने पर पता चलेगा कि घोड़े के चेहरे पर हाथी का मुखौटा लगा हुआ है.. ऐसा इसीलिये किया गया ताकि हाथी घोड़े को छोटा बच्चा समझे..
जैसे ही महाराणा ने भाले से मानसिंह पर वार करने का प्रयास किया, हाथी ने सूँड में पकड़ी हुई तलवार से चेतक की एक टाँग को घायल कर दिया.. प्रताप रण भूमि को अपने सेनापति को सौंप वहाँ से जंगल की और भागे..घायल चेतक उन्हें 4-5 किमी दूर ले गया.. प्रताप के प्रति एक जानवर की स्वामिभक्ति को देख कर शक्ति सिंह (प्रताप का भाई जो अकबर से मिल गया था) का भी हृदय परिवर्तन हुआ और वो प्रताप की रक्षा के लिये दौड़ पड़ा..
प्रताप उसके पश्चात जंगल में ही रहे..
वीरों की भूमि को प्रणाम.. इतिहास में अपना नाम अमर कर गये राणा सांगा और महाराणा प्रताप जैसे योद्धा..
शत् शत् नमन
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Sunday, July 1, 2007

हिंदयुग्म पर मेरी कविता

http://merekavimitra.blogspot.com/2007/06/blog-post_22.html

कविता- आक्सीज़न का सिलेंडर

पापा पापा, वो वाला सिलेन्डर दिलवाओ ना,
बेटा जिद करके इशारे से बोला।
बेटा, वो आपको बाद में दिलवायेंगे..
आपने तो अभी घर वाला सिलेंडर भी नहीं खोला॥

पापा उसमें से स्ट्रॉबेरी की खुशबू आती है, मुझे तो वैनीला पसंद है।
पापा हैरान परेशान सोचने लगे,
हम तो खुली हवा में साँस लेते थे,
इसके पास तो ऑक्सीजन में वैराईटीज़ की गँध है॥

रे इंसान तेरी अजीब माया है,
फ़्री की ऑक्सीजन को आज 200 रू प्रति लीटर बनाया है।
पहले तो सिर्फ़ पानी में कम्पीटीशन था,
आजकल ऑक्सीजन का भी बिज़नेस चलाया है॥

बाप ने बेटे को बहलाया-फुसलाया,
फ़ेयर से खरीदेंगे, यह कहकर वापस चलने का मन बनाया॥

थोड़ी दूर चलते ही बेटा कूदने लगा,
पापा वो देखो पेड़! यह कहकर उसकी तरफ़ दौड़ने लगा॥

बेटा बोला,पापा इससे कागज़ बनता था न, हमें सब पढाया गया है,
ऑनलाइन क्लासिस में ट्रीज़ऑनलाइन.कॉम पर सब बताया गया है॥

घर पहुँचते के साथ ही टीवी पर खबर थी..
मुम्बई में सवेरे से ही हल्की बारिश हो रही थी।

पापा ये आसमान से पानी कैसे गिरता है, मुझे भी देखना है।
आपने कहा था छुट्टियों में मुम्बई की बारिश दिखाने चलना है॥

आज 2147 में हर घर के बाहर एक मॉल होना चाहिये..
ऑक्सीजन के सिलेंडर का अच्छा खासा मोल होना चाहिये॥

हँसियेगा नहीं, ये मेरा नहीं कहना है..
आदमी ऐसा कर रहा है..ज़माने का ये कहना है॥
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Thursday, January 25, 2007

धर्म

हिंदू और मुस्लिम में झगड़े..कभी 84 के दंगे..कभी बाबरी कांड..और आजकल तो जैसे विश्व ईसाई और इस्लाम धर्म में बँट गया है।

धर्म..!!!आखिर ये धर्म है क्या? ये क्या है जिसके लिये हम झगड़ते हैं..एक दूसरे के बारे में बुरा सोचते हैं..द्वेष की भवना से देखते हैं,जहाँ मौका मिले वहाँ तिरस्कार करते हैं... धर्म के बारे में जानने की इच्छा हुई..अभी पिछले दिनों एन.डी.टी.वी. पर "हम लोग" में इसी विषय पर चर्चा भी हुई। पता चला कि धर्म शब्द संस्कृत भाषा की धृ धातु से बना है, और इसका अर्थ होता है "धारण करना", या "पालन करना"।

फ़िर सवाल उठता है कि धर्म कितने प्र्कार के होते हैं..बहुत हो सकते हैं..जैसे राष्ट्र धर्म,पिता धर्म, शिष्य धर्म, स्त्री धर्म..इत्यादि.. धर्म का अर्थ प्रकृति या स्वभाव है जैसे कि सूर्य का धर्म है- गर्मी एवं प्रकाश प्रदान करना। मनुष्य के जीवन में धर्म का अर्थ है कर्त्तव्य पालन करना। जैसे माता-पिता का धर्म है संतान का पालन-पोषण करना तथा संतान का धर्म है उनकी आज्ञा का पालन करना व उनकी सेवा करना। इसी प्रकार गुरु का धर्म शिक्षा प्रदान करना और शिष्य का धर्म है ज्ञान प्राप्त करना।

हम कहते हैं कि पुत्र धर्म का पालन करो..ये तो सभी मजहबों में एक ही होता है...पर कमाल है..हम हिंदू, इस्लाम, सिख,पारसी..इन सबको कैसे भूल गये?? अगर उपर्युक्त शब्द धर्म नहीं हैं तो क्या हैं?? मैं भी आश्चर्यचकित हो गया था..मैंने धर्म का अंग्रेज़ी अनुवाद ढूँढने का प्रयास किया... रिलीजन..अंग्रेज़ी में यही कहते है धर्म को..अब मेरा विचार रिलीजन शब्द की उत्पत्ति पर गया..''रिलीजन'' शब्द लैटिन के ''री''। लीगारे'' से आता है, जिसका शाब्दिक अर्थ ''बाँधना'' होता है। इसका यह अभिप्रेत है कि जो प्रेम और सहानुभूति के आधार पर मानवों को एकीकृत करता है या मानव को ईश्वर से जोड़ता है और फिर उसे विश्वात्मा से मिलाता है लेकिन अंग्रेजी के ''रिलीजन'' शब्द का संस्कृत पर्यायवाची धर्म कतई नहीं हो सकता शायद धर्म को किसी और भाषा में समझना या अनुवाद करना मेरे लिये कठिन है..पर मैं फ़िलहाल इतना ज़रूर जान गया हूँ कि धर्म कभी डराता नहीं,धर्म प्रेम करना सिखाता है..धर्म समाज को बाँटता नहीं, जोड़ना सिखाता है..

चाहें कोई भी ग्रंथ हम उठा लें..कोई भी ये नहीं कहता कि ईश्वर अनेक हैं..हिंदू हो या मुस्लिम या और कोई भी "धर्म" सभी एक ही भगवान की पूजा करते हैं...बस तरीके विलग हैं..जब सबका पिता एक है..तो किसके लिये लड़ रहे हैं?? मुझे लगता है कि "धर्म" के नाम पर "धर्म" से खेला जा रहा है..शान्त मन से सोचने की बात है..

हमें चाहिये हम ये इंसानों के बनाये "धर्म" (हिंदू, इस्लाम, सिख, ईसाई) को छोड़ें और ईश्वर के रचे हुए धर्म को..यानि सामाजिक धर्म,पुत्र धर्म, पिता का धर्म, गुरू का धर्म..रिश्तों का धर्म...इनको माने..मंदिर मस्जिद तोड़ेंगे तो नुकसान तो एक ही के पिता का हुआ!!आप किस धर्म को मानते हैं?? ये निर्णय आप पर है....मैं तो इतना ही समझ पाया हूँ..आपको जानना है तो 2 लिंक्स हैं...
http://navbharattimes.indiatimes.com/articleshow/1451802.cms
http://www.tempweb34.nic.in/xprajna_annie/html/dharm_marm.php
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अप्पदीपो भव

महावीर स्वामी ने कहा हैः अप्पदीपो भव इस का अर्थ हैःस्वयं अपने दीपक बनो। जब दृष्टि बाहर से मुड़कर भीतर चली जाती है, तो अपने आप में सब कुछ पा लेती है।
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मनुः भव

मनुः भव का अर्थ है..मनुष्य बनो...आज कल हम मनुष्य होकर भी..मनुष्य नहीं हैं..केवल शाब्दिक तौर पे मनुष्य नहीं होना है..वरन वो सभी गुण होने चाहियें, व उन्हें अपने अंदर धारण करना चाहिये..जो इश्वर ने एक् मानव के अंदर देखने चाहे थे..
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आनंद मरते नहीं..

आनंद मरते नहीं..ये केवल एक फ़िल्म का डायलोग नहीं है...अपितु ये शब्द हमें जीने की राह दिखाते हैं..ज़िन्दगी का मकसद देते हैं..
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न हार में न जीत में, किञ्चित नहीं भयभीत मैं...

न हार में न जीत में, किञ्चित नहीं भयभीत मैं...
कर्त्तव्य पथ पर जो भी मिले..यह भी सही..वह भी सही..

मतलब साफ़ है..अपने कर्म करते चले जाओ..परिणाम की चिन्ता न करते हुए..पूरे लगन और निष्ठा के साथ अपना काम करो..और बाकि कुछ सोचने की ज़रूरत नहीं है..सफ़लता असफ़लता हमारे हाथ में नहीं है..पर हम कर्म तो कर ही सकते हैं...ये तो हमारे हाथ में है ही...जो असफ़ल होने से डरते हैं वे आगे कुछ नहीं कर सकते..
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ज़िन्दगी एक नींद

ज़िन्दगी एक नींद की तरह् है..कब पूरी हो जाये पता ही नहीं चलता..इसीलिये जितने सपने देख सकते हो देखो..जितना उन्को साकार करने की सोच् सकते हो करो..न जाने कब नींद पूरी हो जाये और् आप फ़िर कभी सपने ना देख ना पायें.!!
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कौन है सबसे कामयाब निर्देशक??

ईश्वर है सबसे बड़ा निर्देशक...ईश्वर ही हम सब के जीवन की कहानियाँ खुद ही लिख रहा है, निर्देशन कर रहा है..कमाल की बात है..इतने बड़े नाटक को अकेले ही निर्देशित कर रहा है !!और कमाल् तो इस बात का है..हम किरदार हैं और हम ही नहीं समझ पा रहे हैं के हमारे साथ क्या करवाया जाने वाला है..पर निर्देशक गुणी है..हमारा बुरा नहीं होने देगा...इस बात का पूर्ण विश्वास है..पर कम से कम ये तो बता देता के कौन सा किरदार कितनी देर तक् स्टेज पर रहेगा!!!
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