ये कविता मैंने पिछले साल लिखी थी..पर आज भी इसमें "वर्ष" को छोड़ कोई और बदलाव की आवश्यकता नहीं पड़ी :-(
60 का हुआ भारत,
61 में किया प्रवेश
सैकड़ों बदलाव देखे हमने,
फ़िर भी वैसा अपना देश |
तब भी नहीं थी खाने को,
दो वक्त की सूखी रोटी,
अब भी इस देश में,
आधी जनता भूखी है सोती |
47 में भी हुए थे,
मजहब के नाम पर दंगे..
आज भी आये दिन,
होते रहते हैं ये अड़ंगे |
कभी सोने की चिड़िया था,
तब अंग्रेज़ों ने लूटा था भारत
अब भी भारत लुटता है,
नेताओं से कहाँ है राहत ?
पर बदलाव तो आया है..
आज हर क्षेत्र मे,
भ्रष्टाचार का साया है
पहले पंजाब में खौफ़ था,
आज कशमीर से कन्याकुमारी तक,
आतंक ही आतंक छाया है |
क्या दिन और क्या रात,
सरहद पर जगते हैं जवान,
यहाँ नेता शान से सोते,
उन्हीं का कफ़न तन पर तान |
वो ज़माना और था,
जब प्रेमचन्द की रचनायें
बिकती थी खड़े खड़े |
आजकल 'वीमेंस एरा' और,
'स्टारडस्ट' का ज़माना है,
उपन्यास सड़ते हैं पड़े पड़े |
नेह्रू जी ने तिरंगा फ़हराया था,
दिया था निर्भयता से,
देश के नाम संदेश,
आज दिन में भी डरे डरे,
प्रधानमन्त्री को टीवी पर से,
देेखता है सारा देश |
पतंग उड़ाना कभी,
अपनी शान थी होती,
आज इसे उड़ाने पर,
कड़ी पाबंदी है होती |
60 साल में ये हालत है.
आगे क्या होगा ?
ये सोच कर मन घबरता है,
ट्रक के पीछे पढ़करः
"100 में से 99 बेईमान
फ़िर भी मेरा भारत महान"
"भारत" अपनी किस्मत पर,
मन ही मन,
कभी हँसता, कभी रोता,
अपनी ही गलियों में खोता जाता है...
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