Saturday, April 26, 2008

अश्लील कौन?

जी हाँ। तो ये है आजकल का सबसे गर्म सवाल। इस विषय पर हमारे देश में पिछले कईं वर्षों से बहस जारी है। जब से समाचार चैनलों की संख्या में तेज़ी हुई है, इस विषय पर विवाद बढ़ता ही जा रहा है। सबसे ताज़ा उदाहरण बना है क्रिकेट में मनोरंजन के लिये विदेशी बालाओं के द्वारा किया जाने वाला डांस। अब तंग कपड़ों में कोई हिरोइन रीमिक्स गाने का वीडियो करे तो उस गाने पर लोग शादियों में डीजे पर आधी रात तक थिरकते नज़र आयेंगे। पूरी रात चलने वाली पेज थ्री की पार्टियों में, जिसमें नेता, अभिनेता सब शामिल होते हैं, उसमें पूरी शिरकत करते हैं। लेकिन वही लोग इन विदेशी बालाओं के नृत्य पर सवाल उठाते हैं। जिनकी पार्टियों में "बार" में रोक लगने पर वही बार बालायें नाचती दिखाई देती हैं वही "चीयर लीडर्स" के डांस पर उंगली उठाये हुए हैं।
हर इंसान का सोचने का अपना अलग नजरिया होता है, इसलिये सवाल ये नहीं उठाऊँगा कि नृत्य अश्लील है या नहीं। ये आप लोगों पर निर्भर करता है। पर एक और बात है जो मुझे सोचने पर मजबूर करती है कि मैं एक महान ऐतिहासिक संस्कृति की धरोहर वाले भारत के खोखले होते संस्कारों का गवाह बनता जा रहा हूँ।
घटना हैदराबाद के मैच की है। इन्हीं विदेशी नर्तकियों में से किसी की शिकायत आती है कि जहाँ वे नाच रही थीं उसके ठीक पीछे लोग भद्दी टिप्पणियाँ व इशारे कर रहे थे। वे घबरा गईं हैं। जो लोग घर की औरतों के साथ बुरा व्यवहार करते हैं उनसे इससे ज्यादा क्या उम्मीद की जा सकती है? सवाल ये नहीं कि उन्होंने कैसे कपड़े पहने हैं। ये उनका पेशा है और जैसा आयोजक कहेंगे वे वैसा ही करेंगी। हम ही ने उन्हें अपने घर बुलाया था। वे खुद अपनी मर्जी से कतई नहीं आईं हैं। पर इस घटना के बाद वे दोबारा आने से पहले सोचेंगी। विदेश में भारत की जो छवि बनी हुई है उस पर ये घटना दाग के समान है और छवि धूमिल हो गई है। इसमें कोई संशय नहीं है। अश्लील नृत्य किया हो अथवा नहीं किया हो परन्तु हमारे देश में जो बेइज़्ज़ती हुई है उसको शालीनता तो नहीं कह सकते?? कह सकते हैं क्या?? ये हमारे बनाये हुए ही संस्कार हैं। अगर हम कहते हैं कि वे नर्तकियाँ गलत हैं तो सही तो हम भी नहीं?? पहले हम अपने गिरेबान में क्यों नहीं झाँकते?
आये दिन हो रहा दुर्व्यवहार हमारा ही पैदा किया हुआ है। पहले हम क्यों नहीं सुधरते? नर्तकियों को बुलाया जाता है फिर उन्हीं पर रोक लगाई जाती है। ये हास्यास्पद है और भारत की पूरे विश्व में बदनामी करवाने के लिये काफी है। हम लोग मेहमान को भगवान कहते हैं और उसी का ही निरादर करते हैं। अब समझ आया कि ईश्वर इस धरती पर दोबारा जन्म लेने से क्यों घबराता है!!!
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Friday, April 18, 2008

सहनशीलता या कायरता?

ऊपर शीर्षक में दो शब्द दिये हुए हैं। सहनशीलता व कायरता। मैं समझता हूँ कि इन दो शब्दों में बहुत बारीक सी एक लकीर है जो इन दोनों को आपस में विलग करती है। आप सोच रहे होंगे कि अचानक इनकी क्या ज़रूरत आ पड़ी है। दरअसल अभी हाल ही में जो चीन व तिब्बत को लेकर भारत में माहौल चल रहा है, उस से व्यथित होकर मुझे ये लिखना पड़ रहा है।

हम सभी जानते हैं तिब्बत पर चीन का कब्जा है। तिब्बत दुनिया का सबसे ऊँचा इलाका है इसलिये ये "दुनिया की छत" के नाम से जाना जाता है। इस देश का इतिहास सातवीं शताब्दी से शुरू होता है। सन् १९११ में ये चीन से पूरी तरह से अलग हो गया। परन्तु १९४९-५० में चीन के ४०,००० सैनिकों ने तिब्बत पर हमला बोल दिया। तिब्बत के ५००० सैनिक इतनी विशाल सेना का सामना न कर सके और जंग हार गये। तब से चीन ने तिब्बत पर कब्जा किया हुआ है।

इस विषय में यदि आपने जानना है कि किस प्रकार से जुल्म हो रहे हैं तो आप यहाँ पढ़ें।
मैं इस विषय में ज्यादा नहीं जाऊँगा बस मैं इतना जानता हूँ कि ये गलत हो रहा है। अत्याचार हो रहा है। लेकिन मैं दुखी हूँ कि भारत की सरकार चुप क्यों है? गाँधी, नेहरू की चमची ये सरकार उनके द्वारा किये गये कामों को क्यों नहीं दोहराती? उन्होंने भारत को आजाद करवाया तो ये बहरी और निकम्मी सरकार गूँगी बनकर क्यों बैठी है? चीन के खिलाफ बोलते वक्त ये मिमियाती क्यों है? क्या चीन सही कर रहा है? अगर हाँ, तो भारत ने अंग्रेज़ों के खिलाफ आंदोलन क्यों किया था? और अगर गलत कर रहा है, तो भारत तिब्बत की मदद क्यों नहीं कर रहा? भाजपा ने तिब्बतियों के समर्थन में रैली निकाली पर क्या वो सरकार में होती तो चीन को दो टूक जवाब दे पाती?

चीन एक ओर कशमीर पर अपना हक जमाये बैठा है तो दूसरी तरफ पूर्वांचल राज्यों में भी घुसपैठ जारी है। सिक्किम और अरूणाचल के कुछ हिस्सों को तो वो बड़े गर्व से अपना कहता है। चीनी राजदूत भारत में कहता है कि अरूणाचल चीन का है और भारत की सरकार चुप रहती है। भारतीय प्रधानमंत्री चीन के दौरे पर जाते हैं और सीमा रेखा की बात करे बिना ही वापस आ जाते हैं। चीन चाहें जो मर्जी करे भारत कभी भी उसके खिलाफ नहीं बोलता है। किस बात का डर है? एक बार युद्ध में हार गये, क्या इसलिये खौफ खाये बैठे हैं? चीन को मालूम है कि यदि तिब्बत आजाद हो गया तो चीन भारत पर हमला नहीं कर पायेगा। तिब्बत चीन के लिये कवच के समान है।

भारत के पास किस बात की कमी है? आज इसके पास हर तरह के मारक हथियार हैं, जो युद्ध के समय काम आ सकते हैं। चीन से युद्ध करने में हम पूरी तरह सक्षम हैं। तिब्बत को आजाद करवाने से भारत का ही भला होगा। फिर इस नेक काम को करने से पीछे क्यों हटें? भारत का इतिहास रहा है कि इसने बहुत सहनशीलता दिखाई है। कोई भी यु्द्ध करने से पहले कईं बार सोचा है। कभी खुद हमला नहीं किया है। लेकिन यहाँ बात सहनशीलता की नहीं। सही या गलत में से एक को चुनने की है। हमारा पड़ोसी हमारे से मदद की गुहार लगा रहा है और हम डरे सहमें से बैठे हैं। अगर हम तिब्बत को सैनीय मदद न भेजें पर बस उसके आंदोलन को सपोर्ट करें तब भी उनकी हौंसला अफ़ज़ाई के लिये काफी होगा। परन्तु लगता है हमारा देश सहनशील बना रहेगा। आखिर कब तक?मैं समझता हूँ कि भारत सहनशीलता की लकीर फाँद कर कायरता की श्रेणी में प्रवेश कर चुका है, जिसे अपने आप पर विश्वास नहीं है। किस हक से हम आजादी की सालगिरह मनाते हैं जब हम हमारे पड़ोसी को आज़ाद नहीं करा सकते। भारत स्वयं को शांति का दूत कहता है और शांति प्रिय तिब्बतवासियों के लिये कुछ भी नहीं कर रहा है। तीन किमी की ओलम्पिक मशाल की दौड़ औपचारिक व हास्यास्पद लगती है। आज चीन का गुलाम अकेला तिब्बत ही नहीं, भारत भी है।
आपका इस विषय में क्या कहना है। कृपया टिप्पणी करें।
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Friday, April 11, 2008

मिस्टर लाल का परिवार

मि.लाल के परिवार को जानिये मेरी नज़र से। आपकी टिप्पणियों का इंतज़ार रहेगा।

लो चले हैं मिस्टर लाल संग अपने परिवार के
श्रीमती जी और बच्चों को तोहफे दिलवाने त्योहार के।

आज बच्चे खुश हैं, पापा मोबाइल दिलवाने जा रहे हैं,
बीवी और बच्चों के चेहरे पर स्माइल लाने जा रहे हैं।

बड़े दिनों से जिद थी घर में, मॉल से लायेंगे मोबाइल,
चाहें घर में पानी न हो, या फिर न हो रिफाइंड ऑइल।

कोई इनके दिल से पूछे कितने का फोन खरीद पायेंगे,
दस तारीख भी तो सर पे है, होम लोन कैसे चुका पायेंगे।

दिल्ली के एक इलाके में अभी अभी एक घर लिया है ,
आधी पगार है उसमें जाती, ओवरटाइम भी खूब किया है।

लाल जी हैं परेशान, सरदी में आ रहा है पसीना,
गाड़ी की भी तो फरमाइश बाकी है, आने दो अगला महीना

आबादी की तरह बढ़े जा रहा है क्रेडिट कार्ड का बिल ,
परिवार के खर्चे से तेजी से धड़क रहा है लाल जी का दिल।

अभी हाल ही में तो डूबे थे शेयरों में पचास हजार,
साठ हजार पगार महीने की, फिर भी लगते हैं लाचार।

न ज़मीन अपनी है, न घर अपना है, न ही अपनी है गाड़ी,
सस्ते लोन और लालच ने लाल जी की बचत बिगाड़ी।

किसी भुलावे में जी रहा है, मध्यम वर्ग का हर परिवार
मार्केट, मनी, मॉल, मोबाइल से हर कोई है कितना बीमार।
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Tuesday, April 1, 2008

खबरिया चैनलों की होड़ में बिगड़ता बचपन

मैं ये लेख पहले लिखना चाहता था परन्तु कोई न कोई बात हो जाती और इसमें देरी हो जाती। पर शनिवार को जो बात हुई उसके बाद मुझे ये लिखने के लिये समय निकालना ही पड़ा। अभी कुछ महीनों से एक नाम जो हर हफ्ते मीडिया की खबरों में होता है वो है खली उर्फ दिलीप सिंह। चाहें कोई देश के प्रधानमंत्री का नाम नहीं जानता हो, पर आज की तारीख में खली के नाम और काम से सब वाकिफ़ हैं। पेशे से WWE का पहलवान है। इस तरह की कुश्ती भारत में करीबन १७ सालों से दिखाई जा रही है। जबसे केबल चालू हुआ, तब से। मैं छोटा हुआ करता था और ये कुश्ती बहुत पसंद थी, परन्तु वही देख पाते थे जिनके यहाँ केबल था। अब हर घर में केबल है तो सभी देखते हैं। ट्रम्प कार्ड्स भी खूब बिका करते थे।

भारत में इस कुश्ती के काफी दर्शक हैं और इन दर्शकों में बच्चों की तादाद शायद ९० फीसदी से ऊपर होगी। ये हाल ही में और ज्यादा चर्चा में तब आई जब खली का नाम भी इस कुश्ती में शामिल किया गया। खली भारत का है इसीलिये इस कुश्ती की खबर हर चैनल पर दिखाई जाने लगी। जिस कुश्ती का परिणाम २-३ सप्ताह के बाद पता चलता था वो उसके खत्म होते के साथ ही पता चलने लगा। वो दिन दूर नहीं जब इसका सीधा प्रसारण भी होने लगेगा। लेकिन इन सब के बीच ये कोई ध्यान नहीं दे रहा है कि मासूम बच्चों पर क्या असर पड़ेगा।

मुझे गुस्सा आता है मीडिया पर जो "तेज़" व "सच्ची" खबर आगे रखने का दावा करते हैं पर इन वादों और दावों को पूरा करने में पूरी तरह से नाकामयाब हैं। ये सभी जानते हैं कि इस कुश्ती के पहलवान पूरी तरह से प्रशिक्षित हैं व ये लड़ाई फिक्स होती है। यानि कि परिणाम पहलवानों को पहले से ही पता होता है व जो भी दाँव उन्हें लगाना होता है वे उसकी पहले से ही पूरी प्रैक्टिस करके रखते हैं। किस दाँव को कैसे खेलना है ये उन्हें सिखाया जाता है। और इसके उन्हें पैसे भी खूब मिलते हैं। ये एक धारावाहिक की तरह है जिसके सारे किरदारों पर कहानी लिखी जाती है और ये किरदार उस कहानी को निभाते हैं। पर ये सब बातें हमारा मीडिया नहीं बताता। क्योंकि यदि ऐसा किया गया तो उनके चैनल की टी आर पी कम हो जायेगी। चैनलों का मकसद केवल टी आर पी को बढ़ाने का है। हमारे समय में मीडिया इतना नहीं था इसलिये ये सब बातें हमें पता चलने में देरी हुई। अब इस कुश्ती को देखते हुए ये पता होता है कि ये सब दाँवों की इन पहलवानों को आदत है। पर बच्चों को ये सब कौन बतायेगा?

अब मैं बताता हूँ कि गत शनिवार हुआ क्या था। मेरी बुआ का लड़का जो महज ६ साल का है हमारे घर आया हुआ था। काफी होशियार है और कम्प्यूटर को बखूबी इस्तेमाल करता है। वो मेरे एक और छोटे भाई से खली और ट्रम्प कार्ड्स के बारे में बातें कर रहा था। इस पर मैं उसे समझाने लगा कि ये सब लड़ाई नकली होती है और उस पर ध्यान न दे।
"पर न्यूज़ में दिखाते हैं, तो क्या वो गलत बतायेंगे?"। मैं उसका जवाब सुनकर हैरान रह गया और सच बताऊँ तो मैं इस तरह के जवाब के लिये तैयार नहीं था।

दरअसल इसी तरह की बातें सभी बच्चों के मन में गहरा प्रभाव छोड़ती है। बच्चे हिंसक हो जाते हैं और यही मीडिया फिर स्कूल प्रशासन को दोषी करार देता है। सच्ची खबरें देने का ढोंग करते ये झूठे चैनल केवल अपनी रोटियाँ सेंकने में लगे हुए हैं। कोई भी ये सच्चाई बताने की हिम्मत नहीं कर रहा है। मैं आप सब से गुजारिश करूँगा कि आपके रिश्ते में जितने भी छोटे बच्चे हैं उन सब को सिखायें कि इन सब बातों में न पड़ें|

वरना वो दिन दूर नहीं जब हर स्कूल में गोलियाँ चलेंगी। और इन तेज़ , चालाक, झूठे खबरिया चैनलों को एक और सनसनीखेज़, सच्ची व दर्दनाक खबर मिल जायेगी जो इनका चैनल अगले एक सप्ताह तक चलाती रहेगी।
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