नोट: लेख लम्बे होने का खेद है किन्तु इससे छोटा करने की गुंजाईश नहीं थी।
हम गाय की पूजा करते हैं, गंगा-यमुना-सरस्वती को पूजते हैं, हिमालय एवं गिरिराज जी को देवता मानते हैं, बादल एवं वर्षा पूजनीय हैं, नभ, सूर्य, चँद्रमा, तारे, मिट्टी, कलश, जल, वायु, धरती, पशु, पक्षी -ये सब हमारे पूजनीय हैं। किसी न किसी कारण से कभी हम गऊ माता को रोटी खिलाते हैं तो कभी पीपल के पेड़ में जल देते हैं, तुलसी जी की पूजा करते हैं तो व्रतों में चाँद व तारों को देखकर व्रत खोलते हैं, सूर्य नमस्कार करते हैं और बारिश के लिये इंद्र की पूजा करते हैं। यदि हम इन सभी बातों पर गौर करें तो हम प्रकृति की पूजा करते हैं। प्रकृति के हर उस हिस्से की जिसे हम अभी देख रहे हैं। व्यक्ति से लेकर पत्थर तक, पहाड़, नभ से लेकर धरती तक जिसे हम देख सकते हैं उसी की पूजा करते हैं।
प्रकृति की संरचना करने वाला परमात्मा है। कहते हैं कि जितना हम प्रकृति के नज़दीक जाते हैं उतना ही परमात्मा के करीब जाते हैं। असल में देखा जाये तो हम हैं ही नहीं। परमात्मा है तो सॄष्टि है और सृष्टि है इसलिये हम परमात्मा से मिल पाते हैं। इस संसार में यदि कोई है तो वो परमात्मा ही है। ब्रह्म है इसलिये ब्रह्मांड है। परमात्मा तो वो माला है जिसमें हम आत्माओं के फूल पिरोय गये हैं।
लेकिन आज बात परमात्मा की नहीं। बात है प्रकृति की। बात है सत्य के उस हिस्से की जिसे हम अनदेखा कर देते हैं। बात उस शक्ति की जो अर्धनारीश्वर रूप में शिव के साथ तो है पर शिव को मानने वाला यह समाज इस सच्चाई को स्वीकार नहीं कर पाता। यहाँ देवी के नवरात्रे मनाये जाते हैं, वैष्णौ देवी की कठिन यात्रा की जाती है, श्रीगंगा जी के घाट पर जाकर "पाप" धोये जाते हैं पर लड़की का होना अभिशाप से बदतर समझा जाता है या बना दिया जाता है।
कुछ बातें समझ से परे हो जाती हैं। लड़की के जन्म पर आज भी गाँव तो क्या शहर में भी अफ़सोस जताया जाता है। रीति-रिवाज़ ही कुछ ऐसे बन गये हैं। आदिवासी इलाकों में स्त्री की क्या हालत होती होगी यह सोच ही नहीं पाता हूँ। अफ़सोस इस बात का नहीं कि लड़की के होने पर दुखी क्यों होते हैं पर अफ़सोस इस बात का है कि समाज में यह बात गहराई तक अपनी पैठ बना चुकी है। ये समाज की जड़ों तक पहुँच कर समाज को नारी का शत्रु बना दिया है। पर यहाँ औरत ही औरत की शत्रु नज़र आती है। हालाँकि ये विचार उस पीढ़ी के विचार हैं जब लड़कियाँ घरों से बाहर नहीं निकलती थीं। पर फिर भी ..आखिरकार ऐसी नौबत आई ही क्यों? क्यों नहीं लड़का और लड़की एक समान माना जाता है? क्यों सरकारों को विज्ञापन जरिये यह नारे लगाने पड़ते हैं या फिर "लाडली" जैसी योजनायें शुरू करनी पड़ती हैं?
इसके कुछ कारण मैं सोच पाता हूँ - पहला, लड़का कमाता है और लड़की नहीं। पर आज के समय में दोनों ही कमाते हैं। दूसरा, लड़की पराया धन होती है और किसी दूसरे के घर चली जायेगी। शादी में खर्चा होगा। इसका एक अहम कारण दहेज-प्रथा भी है जो शहरी-रईसों में भी उतनी ही चलन में है जितनी यूपी-बिहार के गाँवों में। तीसरा कारण वंश का आगे बढ़ना माना जा सकता है। और यदि हम यह मानें कि अनपढ़ लोगों में लड़का-लड़की को अलग दृष्टि से देखते हैं तो यह कहना भी गलत होगा। पंजाब एवं हरियाणा में लड़का-लड़की का अनुपात सबसे कम है और यह दोनों ही राज्य शिक्षा एवं धन दोनों ही तरह से सुदृढ़ राज्य हैं। या इतने पिछड़े भी नहीं हैं। तो क्या यह मान लें कि पुरुष प्रधान समाज में वंश का आगे बढ़ाना एक प्रमुख कारण हो सकता है कन्या-भ्रूण हत्या का? लड़की के होने पर दुखी होने का? क्यों हर कोई लड़का होने का ही आशीर्वाद देता है? क्या कोई इसका एक कारण बता सकता है? हालाँकि मेरा पूरा विश्वास है कि भविष्य में ये भेद दूर हो जायेगा।
संसार तीन चीज़ों से चल रहा है - धन, ताकत एवं ज्ञान। यानि लक्ष्मी, शक्ति व सरस्वती देवियाँ। इनकी तो हम दीवाली व नवरात्रि में पूजा करते हैं। यदि हम पत्थर के टुकड़े टुकड़े कर दें इतने बारीक की जब हम माइक्रोस्कोप में देखें तो हमें एटम यानि अणु दिखाई दें वहीं अणु जो हमारे अंदर हैं। इन्हीं से बनता है हमारा शरीर भी। इन्हें कहते हैं क्वार्क। एटम से भी छोटा पार्टिकल। इनमें भार होता है, इनमें शक्ति होती है। वही शक्ति जो हम सब में है, वही शक्ति जो वायु में भी है और पत्थर में भी। जो पर्वत में , चट्टान में, नदी-झरनों में है। वही शक्ति जो पशु-पक्षी में है। वही शक्ति जिसकी हम पूजा करते हैं। जब देवियों की पूजा हो सकती है, कंजकों को पूजा जाता है तो लड़की होने पर मातम क्यों मनाया जाता है? और फिर नारी ही तो पुरुष को जन्म देती है....
मनुस्मृति में कहा है:
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता:। अर्थात जहाँ नारियों की पूजा होता है वहाँ देवताओं का निवास होता है।
फिर इतनी सी बात समझने में इतनी देर क्यों लगा रहा है हमारा समाज?
भाग-२
इंतज़ार के वे पल सबसे लम्बे लग रहे थे.....हर माँ को मेरा प्रणाम
दिन दस दिसम्बर २०११, रात्रि नौ बजे। हम अस्पताल में थे। मेरी पत्नी वहाँ भर्ती थी। हमारी डॉक्टर शहर में नहीं थी। हालाँकि स्टाफ़ पूरा ध्यान रख रहा है। वो रात उसके प्रसव-पीड़ा का भयानक दर्द उठा। इतना भयानक कि मैं और मम्मी मेरी पत्नी के साथ लगातार खड़े रहे और उसका हौंसला बढ़ाते रहे। किन्हीं कारणों से रात को डिलीवरी नहीं हो पाई। हमें बताया गया कि हमारी डॉक्टर सुबह आयेगी। उन्होंने हमसे बात भी करी और यकीन दिलाया कि जैसे ही आवश्यकता पड़ेगी वे चली आयेंगी। पर वो रात काटनी कठिन होती जा रही थी। कभी कभी ऐसा होता है कि आप कोई जरूरी काम कर रहे होते हैं इसलिये नींद को टालते रहते हैं पर हमारी तो नींद ही उड़ चुकी थी। एक ओर पत्नी की चीखें और लगातार दिये जाने वाले इंजेक्शन व ग्लूकोज़ तो दूसरी ओर था इंतज़ार.... सुबह का इंतज़ार..
सुबह के पाँच बज चुके थे। पत्नी की स्थिति में कोई सुधार नहीं। उसे बहलाया कि सुबह हो गई है तो डॉक्टर भी आ जायेगी। इंतज़ार खत्म होता दिखाई दे रहा था। पर तभी हमें बताया गया कि सिज़ेरियन ऑप्रेशन किया जायेगा और डॉक्टर आठ-नौ बजे तक आयेंगी। इंजेक्शन व ग्लूकोज़ दोनों निरंतर जारी थे। बच्चे की हृदयगति कम हो रही थी। एक समय आँख से आँसू आते हुए रोकने पड़ गये। सांत्वना देते देते कब अपनी सांत्वना खोने लगे हमे पता ही नहीं लगा.... इतना दर्द, इतनी पीड़ा.. शायद ईश्वर ने मुझे इसलिये उस रात वहाँ रोका था कि मैं जान सकूँ कि इस धरती पर जिसके माध्यम से मैंने जन्म लिया उस जननी का स्थान स्वर्ग से भी ऊपर क्यों है!!
और तभी मैथिली शरण गुप्त ने भी कहा कि जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गदापि गरियसी।
बहरहाल समय गुजरता गया और हम वैसे ही उस कमरे में खड़े रहे। इंतज़ार के वे पल सबसे लम्बे लग रहे थे। एक एक पल बरस लग रहा था। पौने दस बजे हमारी डॉक्टर आईं और उन्होंने ऑप्रेशन की मोहर लगाई। मेरी पत्नी को ऑप्रेशन थियेटर ले जाया गया। हम लोग उसके साथ थे। पिछली रात जो दर्द उठा था वो अभी उसके साथ था। बीस मिनट का इंतज़ार और साढ़े दस बजते ही हमारे घर श्रीलक्ष्मी का आगमन हुआ। और हमारे चेहरे पर मुस्कान छा गई। फ़ोन घुमाये गये और खुशखबरी बाँटी गई।
एक लड़की जब माँ बनती है तो उसका दूसरा जन्म होता है। यह कहावत सुनी थी देखी नहीं थी। लड़की के जीवन में जो बदलाव आते हैं वे एक लड़के के जीवन में नहीं आ सकते। शारिरिक व मानसिक बदलावों से जूझती है एक भारतीय नारी। शादी के बाद अपना घर छोड़ना होता है और किसी और घर में जाकर बाकि की ज़िन्दगी बितानी होती है। मैं सोच भी नहीं पा रहा हूँ कि यदि मुझे ऐसा करने को कहा जाये तो क्या मैं रह पाऊँगा? क्या कोई लड़का ऐसा कर भी सकता है? इस पुरूष प्रधान समाज में स्त्री को ही यह भार उठाना पड़ता है। शायद ईश्वर ने बच्चे को जन्म देने के लिये इसलिये भी स्त्री को चुना क्योंकि वह पुरुष से अधिक संयमशील है। उसे यह ज्ञात था कि एक स्त्री ही इस चुनौती को निभा सकती है। नौ महीने तक की शारीरिक व मानसिक तकलीफ़ झेलना कोई हँसी खेल तो नहीं!!
पिछले दिनों एक बात की और जानकारी हासिल हुई। "श्री" कहते हैं लक्ष्मी को, सम्पूर्ण विश्व को.. इसका व्यापक अर्थ हो सकता यह तो मालूम था। पर हम पुरूष के नाम के आगे "श्री" और स्त्री के नाम के आगे "श्रीमति" क्यों लगाते हैं यह नहीं ज्ञात था। शब्दों के सफ़र से यह शंका भी दूर हो गई कि हम पुरूषों ने स्त्री से उनका "श्री" लेकर स्वयं अपने नाम के आगे लगाकर गर्व महसूस कर रहे हैं। हद है...
मुनव्वर राणा की कुछ पंक्तियाँ माँ को समर्पित हैं:
मैंने रोते हुए पोंछे थे किसी दिन आँसू
मुद्दतों माँ ने नहीं धोया दुपट्टा अपना
लबों पे उसके कभी बद्दुआ नहीं होती
बस एक माँ है जो मुझसे ख़फ़ा नहीं होती
किसी को घर मिला हिस्से में या दुकाँ आई
मैं घर में सबसे छोटा था मेरे हिस्से में माँ आई
इस तरह मेरे गुनाहों को वो धो देती है
माँ बहुत गुस्से में होती है तो रो देती
ये ऐसा कर्ज़ है जो मैं अदा कर ही नहीं सकता
मैं जब तक घर न लौटू मेरी माँ सजदे में रहती है
खाने की चीज़ें माँ ने जो भेजी थीं गाँव से
बासी भी हो गई हैं तो लज्जत वही रही
बरबाद कर दिया हमें परदेस ने मगर
माँ सबसे कह रही है बेटा मज़े में है
अंत में:
भूखे बच्चों की तसल्ली के लिये,
माँ ने फिर पानी पकाया देर तक
हर माँ को मेरा सलाम... मातृत्व की परिभाषा मैं नहीं कर सकता.....