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Friday, November 18, 2011

एक सौ सोलह चाँद की रातें, एक तुम्हारे काँधे का तिल... मेरा कुछ सामान तुम्हारे पास पड़ा हैं... फ़िल्म इजाज़त के गीत - भाग २ Film Izaazat, Old Hindi Movies Songs

फ़िल्म- इजाज़त
गीतकार-गुलज़ार
गायिका-आशा भोंसले
संगीतकार-राहुल देव बर्मन

हिन्दी फ़िल्म "इजाज़त" सुबोध घोष की बंगाली फ़िल्म "जातुगृह" से प्रेरित है। यह उन गिनी चुनी फ़िल्मों में से एक है जिन्हें गुलज़ार ने निर्मित किया। फ़िल्म में मुख्य भूमिकायें नसीरूद्दीन शाह, रेखा व अनुराधा पटेल ने निभाई हैं।

मेरा कुछ सामान तुम्हारे पास पड़ा हैं

मेरा कुछ सामान तुम्हारे पास पड़ा हैं
सावन के कुछ भीगे दिन रखे हैं
और मेरे एक ख़त में लिपटी रात पडी हैं
वो रात बुझा दो, मेरा सामान लौटा दो

पतझड़ हैं कुछ, 
हैं ना ...
पतझड़ में कुछ पत्तों के गिरने की आहट
कानों में एक बार पहन के लौटाई थी
पतझड़ की वो शांख अभी तक काँप रही हैं
वो शांख गिरा दो, 
मेरा वो सामान लौटा दो...

एक अकेले छतरी  में जब आधे आधे भीग रहे थे
आधे सूखे आधे गिले, सुखा तो मैं ले आयी थी
गीला मन शायद, बिस्तर के पास पडा हो
वो भिजवा दो, 
मेरा वो सामान लौटा दो...

एक सौ सोलह चाँद की रातें, एक तुम्हारे काँधे का तिल
गीली मेहंदी की खुशबू, झूठमूठ के शिकवे कुछ
झूठमूठ के वादे भी, सब याद करा दो
सब भिजवा दो, 
मेरा वो सामन लौटा दो...

एक इजाजत दे दो बस
जब इस को दफ़नाऊँगी 
मैं भी वही सो जाऊँगी...

छोटी सी कहानी से

छोटी सी कहानी से, 
बारिशों की पानी से
सारी वादी भर गयी,

ना जाने क्यों, दिल भर गया,
ना जाने क्यों, आँख भर गयी

शाखों पे पत्ते थे,पत्तों पे बूंदे थी
बूंदो में पानी था,पानी में आंसू थे

दिल में गिल भी थे,पहले मिले भी थे
मिलके पराये थे, दो हमसाये थे


जय हिन्द
वन्दे मातरम

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Friday, November 11, 2011

भूले बिसरे गीत: खाली हाथ शाम आई है, खाली हाथ जायेगी..... जब आशा भोंसले और पंचम दा ने गुलज़ार के गीतों में जान डाल दी Old Hindi Songs RD Burman, Asha Bhosle, Gulzar - Film Izaazat

फ़िल्म- इजाज़त
गीतकार-गुलज़ार
गायिका-आशा भोंसले
संगीतकार-राहुल देव बर्मन

हिन्दी फ़िल्म "इजाज़त" सुबोध घोष की बंगाली फ़िल्म "जातुगृह" से प्रेरित है। यह उन गिनी चुनी फ़िल्मों में से एक है जिन्हें गुलज़ार ने निर्मित किया। फ़िल्म में मुख्य भूमिकायें नसीरूद्दीन शाह, रेखा व अनुराधा पटेल ने निभाई हैं।

खाली हाथ शाम आयी हैं, खाली हाथ जायेगी

खाली हाथ शाम आयी हैं, खाली हाथ जायेगी
आज भी न आया कोई, खाली लौट जायेगी

आज भी न आये आँसू, आज भी न भीगे नैना
आज भी ये कोरी रैना, कोरी लौट जायेगी

रात की सियाही कोई, आये तो मिटाए ना
आज ना मिटाई तो ये, कल भी लौट आयेगी

छोटी सी कहानी से, बारिशों की पानी से

छोटी सी कहानी से, बारिशों की पानी से
सारी वादी भर गयी,

ना जाने क्यों, दिल भर गया,
ना जाने क्यों, आँख भर गयी

शाखों पे पत्ते थे,पत्तों पे बूंदे थी
बूंदो में पानी था,पानी में आंसू थे

दिल में गिल भी थे,पहले मिले भी थे
मिल के पराये थे, दो हमसाये थे
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Thursday, September 1, 2011

खुसरो के गीत से जब बोल चुराये गुलज़ार ने तो निकला यह बेमिसाल गीत Amir Khusrau, Gulzar, Beautiful Lyrics Film Ghulami

ज़िहाल-ए मिस्कीं मकुन ब-रंजिश
ब हाल-ए-हिज्रा बेचारा दिल है..
सुनाई देती है जिसकी धड़कन
हमारा दिल या तुम्हारा दिल है

फ़िल्म गुलामी का यह गीत अपने आप में एक मिसाल है। इसके गीतकार हैं गुलज़ार साहब। गुलज़ार ने फ़िल्म इंडस्ट्री को इतने नायाब गीत दिये जितने शायद किसी और गीतकार ने नहीं दिये। एक से बढ़कर एक सदाबहार गीत। उन्हीं में से एक है आज का यह गीत। इस गीत के शुरुआती बोल फ़ारसी के हैं और गुलज़ार ने इसे खूबसूरती से अमीर खुसरो के एक सूफ़ी गीत से "चुराया"।

लक्ष्मीकांत प्यारेलाल के संगीत को सुनकर इस गीत को गुनगुनाने से अपने आप को कोई नहीं रोक सकता।
फ़ारसी के शब्दों के बिल्कुल सटीक अर्थ बताने तो कठिन हैं, परन्तु प्रयास किया है। किसी को इससे बेहतर कोई अर्थ पता हो तो अवश्य बतायें।
इंटेरनेट पर खोजने पर अंग्रेज़ी भाषा में इसका मतलब लिखा हुआ आपको अवश्य मिल जायेगा।

ज़िहाल- ध्यान देना/गौर फ़रमाना
मिस्कीं- गरीब
मकुन- नहीं
हिज्र- जुदाई
भावार्थ यही निकलता है कि मेरे इस गरीब दिल पर गौर फ़रमायें और इसे रंजिश से न देखें। बेचारे दिल को हाल ही में जुदाई का ज़ख्म मिला है।

विडियो





खुसरो का वह गीत जिससे गुलज़ार को प्रेरणा मिली थी।

अमीर खुसरो ने एक गीत (तकनीकी तौर पर इसे क्या कहेंगे मैं नहीं बता सकता) लिखा जिसकी खासियत यह थी कि इसकी पहली पंक्ति फ़ारसी में थी जबकि दूसरी पंक्ति ब्रज भाषा में। फ़िल्म के गीत की तर्ज पर ही खुसरो के इस गीत को भी पढ़ें। गजब के शब्द.. कमाल की शब्दों की जादूगरी।

ज़िहाल-ए मिस्कीं मकुन तगाफ़ुल, (फ़ारसी)
दुराये नैना बनाये बतियां | (ब्रज)
कि ताब-ए-हिजरां नदारम ऎ जान, (फ़ारसी)
न लेहो काहे लगाये छतियां || (ब्रज)

शबां-ए-हिजरां दरज़ चूं ज़ुल्फ़
वा रोज़-ए-वस्लत चो उम्र कोताह, (फ़ारसी)
सखि पिया को जो मैं न देखूं
तो कैसे काटूं अंधेरी रतियां || (ब्रज)

यकायक अज़ दिल, दो चश्म-ए-जादू
ब सद फ़रेबम बाबुर्द तस्कीं, (फ़ारसी)
किसे पडी है जो जा सुनावे
पियारे पी को हमारी बतियां || (ब्रज)

चो शमा सोज़ान, चो ज़र्रा हैरान
हमेशा गिरयान, बे इश्क आं मेह | (फ़ारसी)
न नींद नैना, ना अंग चैना
ना आप आवें, न भेजें पतियां || (ब्रज)

बहक्क-ए-रोज़े, विसाल-ए-दिलबर
कि दाद मारा, गरीब खुसरौ | (फ़ारसी)
सपेट मन के, वराये राखूं
जो जाये पांव, पिया के खटियां || (ब्रज)

चाहें अमीर खुसरो हों जिनके सूफ़ी गीत आज भी उनके चाहने वालों की पहली पसंद हैं और चाहें गुलज़ार जो पिछले पाँच से छह दशकों से एक के बाद एक नायाब गीत हमें दे रहे हैं.. दोनों का ही अपने क्षेत्र में कोई मुकाबला नहीं।


यदि किसी को खुसरो के गीत के बोल के अर्थ पता हो तो हमारे साथ अवश्य बाँटें।
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Saturday, June 18, 2011

भूले बिसरे गीत - रवींद्रनाथ टैगोर की मर्मस्पर्शी कहानी पर बनी फ़िल्म का वो सदाबहार नग़मा जो देशभक्ति गीतों में मील का पत्थर साबित हुआ Story By RabindraNath Tagore, Singer Manna Dey : Kabuliwala (1961)

रवींद्रनाथ टैगोर ने एक कहानी लिखी जिसका नाम था काबुलीवाला। 1957 में इस कहानी पर तपन सिन्हा ने बंगाली भाषा में फ़िल्म बनाई और फिर हेमेन गुप्ता ने 1961 में मुम्बई में इसी कहानी पर बनी फ़िल्म का निर्देशन किया। हेमेन गुप्ता सुभाष चंद्र बोस के सेक्रेट्री भी रहे हैं।

आज धूप-छाँव पर भूले-बिसरे गीत में पहले वो कहानी जिसे साहित्य जगत में ऊँचा स्थान मिला और फ़िल्म जगत में भी भरपूर सम्मान मिला। उसके बाद उस गीत की करेंगे जिसके रचनाकार रहे प्रेम धवन और जिसे गाया था मन्ना डे ने। आप सोचिये कि ये फ़िल्म-ये गीत कितना महान,कितना खास बन जाता है जब इसके साथ रवींद्रनाथ टैगोर, मन्ना डे व बलराज साहनी जुड़े हों। 

कहानी-काबुलीवाला, कहानीकार-रवींद्रनाथ टैगोर

मेरी पाँच बरस की लड़की मिनी से पल-भर भी बात किए बिना नहीं रहा जाता। दुनिया में आने के बाद भाषा सीखने में उसने सिर्फ एक ही वर्ष लगा होगा। उसके बाद से जितनी देर सो नहीं पाती हैं, उस समय का एक पल भी वह चुप्पी में नहीं खोती। उसकी माता बहुधा डाँट-फटकारकर उसकी चलती हुई ज़बान बन्द कर देती हैं, लेकिन मुझ से ऐसा नही होता। मिनी का मौन मुझे ऐसा अस्वाभाविक-सा प्रतीत होता है कि मुझसे वह अधिक देर तक नहीं सहा जाता और यही कारण हैं कि मेरे साथ उसके भावों का आदान-प्रदान कुछ अधिक उत्साह के साथ होता रहा हैं।

सवेरे मैने अपने उपन्यास के सत्रहवें अध्याय में हाथ लगाया ही था कि इतने में मिनी ने आकर कहना आरम्भ कर दिया - "बाबूजी! रामदयाल दरबान ‘काक’ को ‘कौआ’ कहता है। वह कुछ जानता नहीं न, बाबूजी।" विश्व की भाषाओं की विभिन्नता के विषय में मेरे कुछ बताने से पहले ही उसने दूसरा प्रसंग छेड़ दिया- "बाबूजी! भोला कहता था, आकाश में हाथी सूँड से पानी फेंकता है, इसी से वर्षा होती है। अच्छा बाबूजी, भोला झूठ बोलता है, है न? खाली बक-बक किया करता हैं, दिन-रात बकता रहता है।"

इस विषय में मेरी राय की तनिक भी राह न देख करके, चट से धीमें स्वर में एक जटिल प्रश्न कर बैठी- "बाबूजी! माँ तुम्हारी कौन लगती हैं?"
फिर उसने मेरी मेज के पार्श्व में पैरों के पास बैठकर अपने दोनो घुटने और हाथों का हिला-हिलाकर बड़ी शीघ्रता से मुँह चलाकर 'अटकन-बटबन दही चटाके' कहना आरम्भ कर दिया। जबकि मेरे उपन्यास के अध्याय में प्रताप सिंह उस समय कंचन माला को लेकर रात्रि के प्रगाढ़ अंधकार में बंदीगृह के ऊँचें झरोखे से नीचे कलकल करती हूई सरिता में कूद रहे थे।

मेरा घर सड़क के किनारे पर था। अचानक मिनी अपने अटकन-चटकन को छोड़कर खिड़की के पास दौड़ी गई और जोर-जोर से चिल्लाने लगी, "काबुलीवाले, ओ काबुलीवाले!"

मैले-कुचले ढीले कपड़े पहने, सिर पर कुल्ला रखे, उस पर साफा बाँधे कँधे पर सूखे फलों की झोली लटकाए, हाथ में चमन के अँगूरों की कुछ पिटारियाँ लिए, एक लम्बा-तगड़ा सा काबुली मन्द चाल से सड़क पर जा रहा था। उसे देख कर मेरी छोटी-सी बेटी के हृदय में कैसे भाव उदय हुए यह बताना असम्भव हैं। उसने जोर से पुकारना शुरु किया। मैने सोचा - 'अभी झोली कन्धे पर डाले, सिर पर एक मुसीबत आ खड़ी होगी और मेरा सत्रहवाँ अध्याय आज अधूरा रह जाएगा।'

किन्तु मिनी के चिल्लाने पर ज्यों ही काबुली ने हँसते हुए उसकी ओर मुँह फेरा और घर की ओर बढ़ने लगा, त्यों ही मिनी भय खाकर भीतर भाग गई। फिर पता ही नहीं लगा कि कहाँ छिप गई? उसके छोटे से मन में यह अन्धविश्वास बैठ गया था कि उस मैली-कुचैली झोली के अंदर ढूढ़ने पर उस जैसी और भी जीती जागती बच्चियाँ निकल सकती हैं।

इधर काबुली ने आकर मुस्कराते हुए, मुझे हाथ उठाकर अभिवादन किया और खड़ा हो गया। मैने सोचा- 'वास्तव में प्रताप सिंह औऱ कंचन माला की दशा अत्यन्त संकटापन्न हैं, फिर भी घर में बुलाकर इससे कुछ न खरीदना अच्छा न होगा।'

कुछ सौदा खरीदा गया। उसके बाद मैं उससे इधर-उधर की बातें करने लगा। रहमत, रूस, अंग्रेज, सीमान्त रक्षा के बारे में गप-शप होने लगी।
अन्त में उठकर जाते हुए उसने अपनी मिली-जुली भाषा में पूछा- "बाबूजी! आप की बच्ची कहाँ गई?"
मैंने मिनी के मन से व्यर्थ का भय दूर करने के अभिप्राय से उसे भीतर से बुलवा लिया। वह मुझसे बिल्कुल लगकर काबुली के मुख और झोली की ओर सन्देहात्मक दृष्टि डालती हुई खड़ी रही । काबुली ने झोली से किशमिश और खुबानी निकालकर देनी चाही, परन्तु उसने न ली और दुगने सन्देह के साथ मेरे घुटनों से लिपट गई। उसका पहला परिचय इस तरह हुआ।

इस घटना के कुछ दिन बाद एक दिन सवेरे मैं किसी आवश्यक कार्यवश बाहर जा रहा था। देखूँ तो मेरी बिटिया दरवाजे के पास बैंच पर बैठकर काबुली से हँस-हँस कर बातें कर रही है और काबुली उसके पैरों के समीप बैठा-बैठा मुसकराता हुआ, उन्हें ध्यान से सुन रहा है। और बीच-बीच में अपनी राय मिली-जुली भाषा में व्यक्त करता जाता हैं। मिनी को अपने पाँच वर्ष के जीवन में बाबूजी के सिवाय, ऐसा धैर्य वाला श्रोता शायद ही कभी मिला हो। देखो तो उसकी फ्रॉक का अग्रभाग बादाम-किशमिश से भरा हुआ था। मैंने काबुली से कहा, "इसे यह सब क्यों दे दिया? अब कभी मत देना।"

यह कहकर कुर्ते की जेब में से एक अठन्नी निकालकर उसे दी। उसने बिना किसी हिचक के अठन्नी लेकर अपनी झोली में रख ली।
कुछ देर बाद, घर लौटकर देखता हूँ कि उस अठन्नी ने बड़ा उपद्रव खड़ा कर दिया हैं।
मिनी की माँ एक सफेद चमकीला गोलाकर पदार्थ हाथ में लिए डाँट-फटकार मिनी से पूछ रही थी- "तूने यह अठन्नी पाई कहाँ से, बता?"
मिनी ने कहा- "काबुली वाले ने दी हैं।"
"काबुली वाले से तूने अठन्नी ली कैसे, बता?"
मिनी ने रोने का उपक्रम करते हुए कहा- "मैने माँगी नहीं थी, उसने आप ही दी हैं।"

मैने जाकर मिनी की उस अकस्मात मुसीबत से रक्षा की और उसे बाहर ले आया। मालूम हूआ कि काबुली के साथ मिनी की यह दूसरी ही भेंट थी, सो कोई विशेष बात नहीं। इस दौरान वह रोज आता रहा। और पिस्ता-बादाम की रिश्वत दे-देकर मिनी के छोटे से ह्रदय पर बहुत अधिकार कर लिया था।
देखा कि इस नई मित्रता में बँधी हुई बातें और हँसी ही प्रचलित हैं। जैसी मेरी बिटिया, रहमत को देखते ही, हँसते हुए पूछती - "काबुलीवाले, ओ काबुलीवाले! तुम्हारी झोली के भीतर क्या है?"

काबुली जिसका नाम रहमत था। एक अनावश्यक चन्द्र-बिन्दु जोड़कर मुस्कराता हुआ कहता, "हाथी।"
उसके परिहास का रहस्य क्या हैं? यह तो नहीं कहाँ जा सकता, फिर भी इन नये मित्रों को इससे तनिक विशेष खेल-सा प्रतीत होता हैं और जाडे के प्रभात में एक सयाने और एक बच्ची की सरल हँसी सुनकर मुझे भी बड़ा अच्छा लगता।
उन दोनों मित्रों में और भी एक-आध बात प्रचलित थी। रहमत मिनी से कहता, "तुम ससुराल कभी नहीं जाना, अच्छा?"

हमारे देश की लड़कियाँ जन्म से ही 'ससुराल' शब्द से परिचित रहती हैं, लेकिन हम लोग तनिक कुछ नई रोशनी के होने के कारण तनिक-सी बच्ची को ससुराल के विषय में विशेष ज्ञानी नही बना सके थे, अतः रहमत का अनुरोध वह स्पष्ट नहीं समझ पाती थी। इस पर भी किसी बात का उत्तर दिए बिना चुप रहना उसके स्वभाव के बिल्कुल विरुद्ध था। उलटे वह रहमत से ही पूछती, "तुम ससुराल कब जाओगे?"

रहमत काल्पनिक ससुर के लिए अपना जबरदस्त घूँसा तानकर कहता, "हम ससुर को मारेगा।"
सुनकर मिनी 'ससुर' नामक किसी अनजाने जीव की दुरावस्था की कल्पना करके खूब हँसती।

देखते-देखते जाड़े की सुहावनी ऋतु आ गयी। पूर्व युग में इसी समय राजा लोग दिग्विजय के लिए कूच करते थे। मैं कोलकाता छोड़कर कभी कहीं नहीं गया। शायद इसीलिए मेरा मन ब्राह्मांड में घूमा करता था। यानी, कि मैं अपने घर में ही चिर प्रवासी हूँ। बाहरी ब्रह्मांड के लिए मेरा मन सर्वदा आतुर रहता था। किसी विदेश का नाम आगे आते ही मेरा मन वहीं की उडान लगाने लगता हैं। इसी प्रकार किसी विदेशी को देखते ही तत्काल मेरा मन सरिता-पर्वत-बीहड़ वन के बीच में एक कुटीर का दृश्य देखने लगता हैं और एक उल्लासपूर्ण स्वतंत्र जीवन-यात्रा की बात कल्पना में जाग उठती हैं।

इधर देखा तो मैं ऐसी प्रकृति का प्राणी हूँ, जिसका अपना घर छोड़कर बाहर निकलने में सिर कटता हैं। यही कारण हैं कि सवेरे के समय अपने छोटे-से कमरे मे मेंज के सामने बैठकर उस काबुली से गप-शप लड़ाकर बहुत कुछ भ्रमण कर लिया करता हूँ। मेरे सामने काबुल का पूरा चित्र खिंच जाता। दोनों ओर ऊबड़-खाबड़, लाल-लाल ऊँचे दुर्गम पर्वत हैं और रेगिस्तानी मार्ग, उन पर लदे गुए ऊँटों की कतार जा रही हैं। ऊँचे-ऊँचे साफे बाँधे हुए सौदागर और यात्री कुछ ऊँट की सवारी पर हैं तो कुछ पैदल है जा रहे हैं। किसी के हाथों मे बरछा हैं तो कोई बाबा आदम के जमाने की पुरानी बन्दूक थामें हुए हैं। बादलों की भयानक गर्जन के स्वर में काबुल लोग अपनी मिली-जुली भाषा में अपने देश की बातें कर रहें हैं।

मिनी की माँ बड़ी वहमी स्वभाव की थी। राह में किसी प्रकार का शोर-गुल हुआ नहीं कि उसने समझ लिया कि संसार-भर के सारे मस्त शराबी हमारे ही घर की ओर दौड़े आ रहे हैं? उसके विचारों में यह दुनिया इस छोर से उस छोर तक चोर-डकैत, मस्त, शराबी, साँप, बाघ, रोगों, मलेरिया, तिलचट्टे और अंग्रेजो से भरी पड़ी हैं। इतने दिन हुए इस दुनिया में रहते हुए भी उसके मन का यह रोग दूर नहीं हुआ।

रहमत काबुली की ओर से भी वह पूरी तरह निश्चिंत नहीं थी। उस पर विशेष नजर रखने के लिए मुझसे बार-बार अनुरोध करती रहती। जब मैं परिहास के आवरण से ढकना चाहता तो मुझसे एक साथ कई प्रश्न पूछ बैठती- 'क्या अभी किसी का लड़का नहीं चुराया गया? क्या काबुल में गुलाम नहीं बिकते? क्या एक लम्बे-तगड़े काबुली के लिए एक छोटे बच्चे को उठा ले जाना असम्भव हैं?' इत्यादि।


मुझे मानना पड़ता कि यह बात नितांत असम्भव हो सो बात नहीं, परन्तु भरोसे के काबिल नहीं। भरोसा करने की शक्ति सब में समान नहीं होती, अतः मिनी की माँ के मन में भय ही रह गया, परन्तु केवल इसीलिए बिना किसी दोष के रहमत को अपने घर में आने से मना न कर सका।

हर वर्ष रहमत माघ महीने में अपने देश लौट जाता था। इस समय वह अपने व्यापारियों से रुपया-पैसा वसूल करने में तल्लीन रहता। उसे घर-घर, दुकान-दुकान घूमना पड़ता था, मगर फिर भी मिनी से उसकी भेंट एक बार अवश्य हो जाती हैं। देखने में तो ऐसा प्रतीत होता हैं कि दोनों के मध्य किसी षड्यंत्र का श्रीगणेश हो रहा हो। जिस दिन वह सवेरे नहीं आ पाता, उस दिन देखूँ तो वह सन्ध्या को हाजिर हैं। अन्धेरे में घर के कोने में उस ढीले-ढाले जामा-पाजामा पहने, झोली वाले लम्बे-तगड़े आदमी को देखकर सचमुच ही मन में अचानक भय-सा पैदा हो जाता हैं।

लेकिन, जब देखता हूँ कि मिनी 'ओ काबुलीवाला' पुकारते हुए हँसती-हँसती दौड़ी आती हैं और दो भिन्न आयु के असम मित्रों में वही पुराना हास-परिहास चलने लगता हैं, तब मेरा सारा हृदय खुशी से नाच उठता हैं।

एक दिन सवेरे मैं अपने छोटे कमरे में बैठा नई पुस्तक के प्रुफ देख रहा था। जाड़ा विदा होने से पूर्व, आज दो-तीन दिन से खूब जोर से अपना प्रकोप दिखा रहा हैं। जिधर देखों, उधर इस जाड़े की ही चर्चा हो रही हैं। ऐसे जाडे़-पाले में खिड़की में से सवेरे की धूप मेज के नीचे मेरे पैरों पर आ पड़ी। उसकी गर्मी मुझे अच्छी प्रतीत होने लगी। लगभग आठ बजे का समय होगा। सिर से मफलर लपेटे ऊषा चरण सवेरे की सैर करके घर की और लौट रहे थे। ठीक उसी समय एक बड़े ज़ोर का शोर सुनाई दिया।

देखूँ तो अपने उस रहमत को दो सिपाही बाँधे लिए जा रहे हैं। उसके पीछे बहुत से तमाशाई बच्चों का झुंड चला आ रहा हैं। रहमत के ढीले-ढीले कुरते पर खून के दाग हैं और सिपाही के हाथ में खून से लथपथ छुरा। मैने द्वार से बाहर निकलकर सिपाही को रोक लिया और पूछा- 'क्या बात हैं?'

कुछ सिपाही से और कुछ रहमत के मुँह से सुना कि हमारे पड़ोस में रहने वाले एक आदमी ने रहमत से एक रामपुरी चादर खरीदी थी। उसके कुछ रुपए उसकी ओर बाकी थे, जिन्हें देने से उसने साफ इनकार कर दिया। बस, इसी पर दोनों में बात बढ़ गई और रहमत ने उसे छुरा निकालकर घोंप दिया। रहमत उस झूठे बेईमान आदमी के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार के अपशब्द सुना रहा था। इतने में "काबुलीवाला, काबुलीवाला", पुकारती हुई मिनी घर से निकल आई।

रहमत का चेहरा क्षण-भर में कौतुक हास्य से चमक उठा। उसके कन्धे पर आज झोली नहीं थी, अतः झोली के बारे में दोनों मित्रों की अभ्यस्त आलोचना न चल सकी। मिनी ने आते ही पूछा- ‘’तुम ससुराल जाओगे?"
रहमत ने प्रफुल्लित मन से कहा- "हाँ, वहीं तो जा रहा हूँ।"

रहमत ताड़ गया कि उसका यह जवाब के चेहरे पर हँसी न ला सकेगा और तब उसने हाथ दिखाकर कहा- "ससुर को मारता पर क्या करुँ, हाथ बँधे हुए हैं।"

छुरा चलाने के अपराध में रहमत को कई वर्ष का कारावास मिला।

रहमत का ध्यान धीरे-धीरे मन से बिलकुल उतर गया । हम लोग अब अपने घर में बैठकर सदा के अभ्यस्त होने के कारण, नित्य के काम-धन्धों में उलझे हुए दिन बिता रहे थे, तभी एक स्वाधीन पर्वतों पर घूमने वाला इंसान कारागर की प्राचीरों के अन्दर कैसे वर्ष पर वर्ष काट रहा होगा, यह बात हमारे मन में कभी उठी ही नहीं। और चंचल मिनी का आचरण तो और भी लज्जाप्रद था। यह बात उसके पिता को भी माननी पड़ेगी। उसने सहज ही अपने पुराने मित्र को भूलकर पहले तो नबी सईस के साथ मित्रता जोड़ी, फिर क्रमशः जैसे-जैसे उसकी वयोवृद्धि होने लगी, वैसे-वैसे सखा के बदले एक के बाद एक उसकी सखियाँ जुटने लगी। और तो क्या, अब वह अपने बाबूजी के लिखने के कमरे में भी दिखाई नहीं देती। मेरा तो एक तरह से उसके साथ नाता ही टूट गया हैं।

कितने ही वर्ष बीत गए? वर्षो बाद आज फिर शरद ऋतु आई हैं। मिनी की सगाई की बात पक्की हो गई। पूजा की छुट्टियों में उसका विवाह हो जाएगा। कैलाशवासिनी के साथ-साथ अबकी बार हमारे घर की आनन्दमयी मिनी भी माँ-बाप के घर में अंधेरा करके सुसराल चली जाएगी।

सवेरे दिवाकर बड़ी सज-धज के साथ निकले। वर्षों के बाद शरद ऋतु की यह नई धवल धूप सोने में सुहागे का काम दे रही हैं। कोलकाता की संकरी गलियों से परस्पर सटे हुए पुराने ईटझर गन्दे घरों के ऊपर भी इस धूप की आभा ने इस प्रकार का अनोखा सौन्दर्य बिखेर दिया हैं।

हमारे घर पर दिवाकर के आगमन से पूर्व ही शहनाई बज रही हैं। मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा हैं कि जैसे यह मेरे हृदय की धड़कनों में से रो-रोकर बज रही हो। उसकी करुण भैरवी रागिनी मानो मेरी विच्छेद पीड़ा को जाड़े की धूप के साथ सारे ब्रह्मांड़ में फैला रही हैं। मेरी मिनी का आज विवाह है।

सवेरे से घर में बवंडर बना हुआ हैं। हर समय आने-जाने वालों का ताँता बँधा हुआ हैं। आँगन में बाँसों का मंडप बनाया जा रहा हैं। हरेक कमरे और बरामदे में झाड़-फानूस लटकाए जा रहे हैं और उनकी टक-टक की आवाज मेरे कमरे में आ रही हैं। 'चलो रे!', 'जल्दी करो!', 'इधर आओ!' की तो कोई गिनती ही नहीं हैं।
मैं अपने लिखने-पढ़ने के कमरे में बैठा हुआ खर्च का हिसाब लिख रहा था। इतने में रहमत आया और अभिवादन करके ओर खड़ा हो गया।

पहले तो मैं उसे पहचान ही न सका। उसके पास न तो झोली थी और न पहले जैसे लम्बे-लम्बे बाल और न चेहरे पर पहले जैसी दिव्य ज्योति ही थी। अंत में उसकी मुस्कान देखकर पहचान सका कि यह तो रहमत है।
"क्यों रहमत कब आए?" मैंने पूछा।
"कल शाम को जेल से छूटा हूँ।" उसने कहा।

सुनते ही उसके शब्द मेरे कानों में खट से बज उठे। किसी खूनी को अपनी आँखों से मैंने कभी नही देखा था। उस देखकर मेरा सारा मन एकाएक सिकुड़-सा गया! मेरी यही इच्छा होने लगी कि आज के इस शुभ दिन में वह इंसान यहाँ से टल जाए तो अच्छा हो।

मैंने उससे कहा- "आज हमारे घर में कुछ आवश्यक काम है, सो मैं उसमें लगा हुआ हूँ। आज तुम जाओ, फिर आना।"
मेरी बातें सुनकर वह उसी क्षण जाने को तैयार हो गया, परन्तु द्वार के पास आकर कुछ इधर-उधर देखकर बोला, "क्या, बच्ची को तनिक नहीं देख सकता?"

शायद उसे यही विश्वास था कि मिनी अब भी वैसी ही बच्ची बनी हुई है। उसने सोचा हो कि मिनी अब भी पहले
की तरह "काबुलीवाला, ओ काबुलीवाला" पुकारती हुई दौड़ी चली आएगी। उन दोनों के पहले हास-परिहास में किसी प्रकार की रुकावट न होगी। यहाँ तक कि पहले की मित्रता की याद करके वह एक पेटी अंगूर और एक कागज के दोने मं थोड़ी-सी किसमिश और बादाम, शायद अपने देश के किसी आदमी से माँग-ताँगकर लेता आया था। उसकी पहले की मैली-कुचैली झोली आज उसके पास न थी।
मैंने कहा, "आज घर में बहुत काम है। सो किसी से भेंट न हो सकेगी।"

मेरा उत्तर सुनकर वह कुछ उदास-सा हो गया। उसी मुद्रा में उसने एक बार मेरे मुख की ओर स्थिर दृष्टि से देखा। फिर अभिवादन करके दरवाजे के बाहर निकल गया।

मेरे हृदय मे न जाने कैसी एक वेदना-सी उठी। मैं सोच ही रहा था कि उसे बुलाऊँ, इतने मे देखा कि वह स्वयं ही आ रहा हैं।
वह पास आकर बोला- 'ये अंगूर और कुछ किशमिश, बादाम बच्ची के लिए लाया था, उसको दे दीजिएगा।'
मैने उसके हाथ से सामान लेकर पैसे देने चाहे, लेकिन उसने मेरे हाथ को थामते हुए कहा- 'आपकी बहुत मेहरबानी बाबू साहब! हमेशा याद रहेगी, पैसा रहने दीजिए।' थोड़ी देर रूककर वह फिर बोला- 'बाबू साहब! आपकी जैसी मेरी भी देश में एक बच्ची हैं। मैं उसकी याद करके आपकी बच्ची के लिए थोड़ी-सी मेवा हाथ में ले आया करता हूँ। मैं यहाँ सौदा बेचने नहीं आता।'

यह कहते हुए उसने ढीले-ढाले कुरते के अन्दर हाथ डालकर छाती के पास से एक मैला-कुचैला मुड़ा हुआ कागज का टुकड़ा निकला औऱ बड़े जतन से उसकी चारों तह खोलकर दोनो हाथों से उसे फैलाकर मेरी मेज पर रख दिया।

देखा कि कागज के उस टुकडे पर एक नन्हें से हाथ के छोटे-से पंजे की छाप हैं। फोटो नहीं, तेल चित्र नहीं, हाथ में थोडी-सी कालिख लगाकर, कागज के ऊपर उसी का निशान ले लिया गया हैं। अपनी बेटी के इस स्मृति-पत्र को छाती से लगाकर, रहमत हर वर्ष कोलकाता की गली-कूचों से सौदा बेचने के लिए आता हैं और तब वह कालिख चित्र मानो उसकी बच्ची के हाथ का कोमल स्पर्श, उसके बिछड़े हुए विशाल वक्षःस्थल में अमृत उडेलता रहता हैं।

देखकर मेरी आँखें भर आई और फिर मैं इस बात को बिल्कुल ही भूल गया कि वह एक मामूली काबुली मेवा वाला है, मैं एक उच्चवंश का रईस हूँ। फिर मुझे ऐसा लगने लगा जो वह हैं, वहीं मैं ही हूँ। वह भी एक बाप हैं और मैं भी। उसकी पर्वतवासिनी छोटी बच्ची की निशानी मेरी ही मिनी की याद दिलाती हैं। मैने तत्काल ही मिनी को बुलाया, हालाँकि इस पर अन्दर घर में आपत्ति की गई, परन्तु मैंने उस पर कुछ भी ध्यान नहीं दिया। विवाह के वस्त्रों और अलंकारों में लिपटी हुई बेचारी मिनी मारे लज्जा के सिकुड़ी हुई-सी मेरे पास आकर खड़ी हो गई।
उस अवस्था में देखकर रहमत काबुली पहले तो सकपका गया। उससे पहले जैसी बातचीत न करते बना। बाद में हँसते हुए बोला- 'लल्ली! सास के घर जा रही हैं क्या?'

मिनी अब सास का अर्थ समझने लगी थी, अतः अब उससे पहले की तरह उत्तर देते न बना। रहमत की बात सुनकर मारे लज्जा के उसके कपोल लाल-सुर्ख हो उठे। उसने मुँह फेर लिया। मुझे उस दिन की याद आई, जब रहमत के साथ मिनी का प्रथम परिचय हुआ था। मन में एक पीड़ा की लहर दौड़ गई।

मिनी के चले जाने के बाद, एक गहरी साँस लेकर रहमत फर्श पर बैठ गया। शायद उसकी समझ में यह बात एकाएक साफ हो गई कि उसकी बेटी भी इतनी ही बड़ी हो गई होगी और उसके साथ भी उसे अब फिर से नई जान-पहचान करनी पडेगी। सम्भवतः वह उसे पहले जैसी नहीं पाएगा। इन आठ वर्षों में उसका क्या हुआ होगा, कौन जाने? सवेरे के समय शरद की स्निग्ध सूर्य किरणों में शहनाई बजने लगी और रहमत कोलकाता की एक गली के भीतर बैठा हुआ अफगानिस्तान के मेरु-पर्वत का दृश्य देखने लगा।

मैने एक नोट निकालकर उसके हाथ में दिया और बोला- 'रहमत! तुम देश चले जाओ, अपनी लड़की के पास। तुम दोनों के मिलन-सुख से मेरी मिनी सुख पाएगी।'

रहमत को रुपए देने के बाद विवाह के हिसाब में से मुझे उत्सव-समारोह के दो-एक अंग छाँटकर काट देने पड़े। जैसी मन में थी, वैसी रोशनी नहीं करा सका। अंग्रेजी बाजा भी नहीं आया। घर में औरतें बड़ी बिगड़ने लगी। सब कुछ हुआ, फिर भी मेरा विचार हैं कि आज एक अपूर्व ज्योत्स्ना से हमारा शुभ समारोह उज्ज्वल हो उठा।



गीतकार-प्रेम धवन, गायक-मन्ना डे, संगीतकार-सलिल चौधरी

ऐ मेरे प्यारे वतन, ऐ मेरे बिछड़े चमन
तुझपे दिल कुर्बान, तू ही मेरी आरज़ू
तू ही मेरी आबरू, तू ही मेरी जान

माँ का दिल बन के कभी सीने से लग जाता है तू
और कभी नन्हीं सी बेटी बन के याद आता है तू
जितना याद आता है मुझको, उतना तड़पाता है तू
तुझपे दिल कुर्बान...

तेरे दामन से जो आए उन हवाओं को सलाम
चूम लूँ मैं उस ज़ुबां को जिसपे आए तेरा नाम
सबसे प्यारी सुबह तेरी, सबसे रंगीं तेरी शाम
तुझपे दिल कुर्बान...

छोड़ कर तेरी गली को दूर आ पहुंचे हैं हम
है मगर ये ही तमन्ना तेरे ज़र्रों की कसम
जिस जगह पैदा हुए थे, उस जगह ही निकले दम
तुझपे दिल कुर्बान...

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