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Tuesday, December 20, 2011

कर्म करो तुम ज्ञान से, श्रेष्ठ ज्ञान है धर्म । कर्म योग ही धर्म है, धर्मयोग ही कर्म ॥ - रूस द्वारा भग्वद्गीता पर पाबन्दी Russia Bans Bhagvad Geeta Text

रूस में गीता पर कोहराम मचा हुआ है। कुछ लोगों का कहना है कि इसमें उग्रवाद को बढ़ावा दिया गया है। भाई को भाई से लड़वाया गया है। लड़ाई की शिक्षा दी गई है।

मेरा मत:
श्रीकृष्ण ने गीता का पाठ उस अर्जुन को दिया जो युद्ध क्षेत्र में अपने हथियार डाल देता है। यदि हमारे सैनिक पाकिस्तान व चीन के सामने युद्ध के मैदान में हाथ खड़े कर दें..तो? वे गोली चलाने से घबराने लगे तो?
यह शिक्षा उस अर्जुन को दी गई जो अपने कर्त्तव्य से दूर भाग रहा था। उस अर्जुन को जिसमें संदेह ही संदेह भरा हुआ था। जिसे अपने कर्म का ध्यान नहीं था..जिसे अपने धर्म का ज्ञान नहीं.. जो कर्मयोग से भटक गया था। 

कृष्ण कहते हैं:

कर्मण्यवाधिकारस्ते मा फ़लेषु कदाचन.. अर्थात कर्म करो फल की इच्छा न करो...

वे कहते हैं कि यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानि: भवति भारत.. जब जब धर्म की हानि होती है तब तब वे जन्म लेते हैं।

कृष्ण आत्मा व परमात्मा का ज्ञान देते हैं। वे मुक्ति की बात करते हैं। वे कर्म करने की बात करते हैं। वे धर्म का पालन करने की बात करते हैं। परमात्मा आदि से अनादि तक है। शरीर नश्वर है। जीवन व मृत्यु तो बस आत्मा के लिये एक पड़ाव है। वे कहते हैं कि कर्म का त्याग न करो अपितु त्याग भाव से कर्म करो। वे निराकार परमात्मा को समझाने की कोशिश करते हैं। वे कहते हैं कि "वे" अजन्मा हैं.. वे आदिकाल में भी थे आज भी हैं और हमेशा रहेंगे... वे आत्मा के काल-चक्र को समझाते हैं। वो आत्मा जो शरीर को केवल वस्त्र की तरह पहनता है। आत्मा को कर्म करने के लिये शरीर धारण करना होता है चाहें मनुष्य का हो अथवा पशु का। आत्मा अपने पिछले कर्म व इच्छाओं के कारण ही शरीर का त्याग करता है या नया शरीर धारण करता है। कर्मानुसार ही फल की प्राप्ति होती है।


वे कहते हैं कि तीन तरह के कर्म होते हैं: कर्म, अकर्म व विकर्म। कर्म तो कर्म है ही, विकर्म होता है वह कर्म जो किसी इच्छा के लिये किया जाये और अकर्म होता है वह कर्म जिसे करने के पश्चात आप उसके फल की इच्छा नहीं करते अपितु परमात्मा जो भी देता है उसे मान लेते हैं। अकर्म ही श्रेष्ठ है। कोई भी कार्य अथवा कर्म करते हुए कब "मैं" का भाव आ जाये तो उस कर्म का लाभ ही क्या? कोई भी कार्य करें तो परमात्मा के लिये ही हो।

और भी गूढ़ बातें इसमें कहीं गई हैं जो मुझ जैसे मूढ़ को कम ही समझ आती है। लेकिन इतना समझ आता है कि जीवन जीने की सीख देती है यह पुस्तक। इस पुस्तक को राष्ट्रीय पुस्तक घोषित किया जाये अथवा नहीं इसमें मैं कुछ नहीं कहना चाहता। करें तो अच्छा न करें तो भी अच्छा। यदि हम इस पुस्तक को पढ़ लें व इसकी बारीकियों को व शिक्षाओं को अपने जीवन शैली में उतार लें तो शायद धरती स्वर्ग बन जाये या यूँ कहें कि लोकपाल की आवश्यकता ही न पड़े जिसके कारण आज राजनीति में हड़क्म्प मचा हुआ है। इस पुस्तक पर पाबन्दी लगायें या न लगायें लेकिन इस पुस्तक की आवाज़ व सत्यता को कोई समाप्त नहीं कर सकता। गीता का ज्ञान केवल द्वापर युग तक ही सीमित नहीं है वो उससे पहले भी था आज भी है और प्रकृति के अंत तक रहेगा।

मुझे रूस के लोगों से कोई शिकायत नहीं क्योंकि शायद वे इस ब्रह्म सत्य को समझ ही नहीं पा रहे हैं। पश्चिम से लोग आत्मिक व आध्यात्मिक ज्ञान हेतु भारत आते हैं तो उसका कारण भारत की आधात्मिकता की जड़ें भग्वद्गीता में होना ही है। मुझे उनपर क्रोध नहीं आ रहा है, वे बैन करना चाहें तो कर सकते हैं।

पूरी गीता में कहीं भी "हिन्दू" धर्म की बात नहीं कही गई है। क्योंकि तब कोई मजहब था ही नहीं। "हिन्दू" शब्द ही नहीं था। केवल मानवता थी, कर्म था, धर्म था। उसमें जिस धर्म की बात कही गई है उसे हम मजहब या रिलीजन से न तोले। धर्म का शाब्दिक अर्थ किसी भी भाषा में मिलना कठिन है। यहाँ धर्म का आशय पिता का धर्म, पुत्री का धर्म, पत्नी का, माँ का, सेवक का धर्म, राजा का धर्म आदि धर्मों से है।

अर्जुन युद्ध क्षेत्र के मध्य में क्षत्रिय धर्म से भटक जाता है। उसे दुशासन या दुर्योधन का अधर्म दिखाई नहीं देता। वो मोहवश अपना गांडीव छोड़ देता है और तब श्रीकृष्ण उससे कहते हैं:


कर्म करो तुम ज्ञान से, श्रेष्ठ ज्ञान है धर्म ।
कर्म योग ही धर्म है, धर्मयोग ही कर्म ॥

जय हिन्द
वन्देमातरम

नोट: जल्दबाजी में लिखा गया लेख है, त्रुटि सम्भव है।
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