Saturday, October 30, 2010

त्योहार, बाज़ारवाद और बदलते रिश्ते Commercialization Of Festivals and Changing Relations

त्योहारों के मौसम में
बाज़ार में
प्यार की सेल
लगी है,
लोग
रहीम व कबीर 
के दोहे भूल गये हैं,
उन्हें चॉकलेट द्वारा
बातों में मिठास घोलना
सिखाया जा रहा है।

बाज़ार में महँगे उपहार
रिश्तों को
मज़बूत करना
चाह रहे है
मकान को सुंदर
बनाने के लिये
तरह तरह के
झालर
खरीदे जाते हैं

मन के झालर
उखड़े पड़े हैं,
उन पर गोंद
चिपकी हुई है
शायद महँगे झालर
दीवारों पर से उतरी हुई
सीमेंट और सफ़ेदी
की परत
को ढँक देंते हैं

हर "ब्रैंड"
परिवार और
रिश्तों को मज़बूत
करना चाहता है,
रिश्ते मज़बूत
होते हैं
लोग सामाना खरीदते हैं
उस ब्रैंड से उनका
नया रिश्ता बनता है

घरों को
सर्फ़ से चमकाया,
चमचमाती लाइटों से
सजाया जाता है,
दिल को
साफ़ करने का
कोई साबुन
नहीं मिलता है बाज़ार में!!

लोगों के दिलों में
प्यार व मिठास 
घोलने
के लिये,
ये त्योहार हर साल
आते हैं,
रिश्ते जस के तस हैं
मन की अयोध्या में
राम आयें
या न आयें,
बदलते समय के
बदलते रिश्तों से
बाज़ार हमेशा खुश हैं।

आप सभी पाठकों व मित्रों को दीपावली की हार्दिक शुभकामनायें।
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Friday, October 15, 2010

भूल, भूख, भूत और भारत: Commonwealth Games and Hunger Index

क्या आपको मालूम है भगत सिंह की जन्मतिथि क्या है? क्या आपको मालूम है मोहम्मद गौरी ने पृथ्वीराज चौहान पर कितनी बार हमला किया था? क्या आपको पता है कि हमारे पहले शिक्षामंत्री कौन थे? हो सकता है कि आपको ये सब बातें पता हों या पढ़ी हुईं हों परन्तु देश की आधी आबादी इन बातों से बेखबर है। ये लोग शहर के कथित आज की पीढ़ी के नौजवान हो सकते हैं अथवा किसी सुदूर गाँव के लोग। चलिये तो बहुत पुरानी बातें हैं, क्या आपको याद है कि राष्ट्रपति प्रतिभा सिंह पाटिल ने किस नेता को हराया था? क्या आपको पता है कि प्रधानमंत्री किस राज्य से राज्यसभा सदस्य हैं? अभी कल ही खबर आई कि जॉन अब्राहम को १५ दिन की सजा हो गई है। कारण २००६ में गलत ड्राईविंग बताया गया। आपमें से कितनों को इस बारे में याद था? और हम में से कितनों को दो साल बाद ये बात याद रहेगी?
बात को आगे न घुमाते हुए मुद्दे पर आते हैं। बात सीधी से यह है कि हम भारतीयों को भूलने की बहुत आदत है। हम जल्द ही बात व घटना भूल जाते हैं। शायद इसलिये कि और भी जरूरी काम हमें करने होते हैं। ऊपर दी हुई बातें हमारी दिनचर्या पर असर नहीं डालती हैं। मुदा उठाना इसलिये आवश्यक लगा कि आप सभी जानते हैं कि कॉमेनवेल्थ खेलों में करोड़ों का घपला हुआ है। भारतीय खिलाड़ियों के चमत्कारी प्रदर्शन ने कलमाड़ी और कांग्रेस सरकार की घाँधलियों को छुपा सा दिया है। हर और खेलों के शुभारम्भ और महासमापन का राग चल रहा है।

जिस समय ये खेल चल रहे थे उसी समय एक अंतर्राष्ट्रीय संस्था (International Food Policy Research Institute) ने हमें बताया कि जिस देश के आप बाशिंदे हैं उस देश में चीन और पाकिस्तान से ज्यादा लोग भूखे हैं। इस देश में भुखमरी हमारे "दुश्मन" देशों से कहीं ज्यादा है। अब आप ये नहीं कहियेगा कि ये देश हमारे दुश्मन नहीं हैं। कहीं आप ६२, ६५, ७१, ९९ की लड़ाइयाँ तो नहीं भूल गये? १९६२ का चीन धोखा और उसके बाद पाकिस्तान के धोखे तो नहीं भूल गये? क्योंकि हमारे नेता और कुछ लोग इन बातों को भूल जाते हैं और अमन की आशा का पैगाम उठाते हैं। सुनने में बहुत अच्छा लगाता है वैसे। जवाहरलाल नेहरू को चीन ने धोखा दिया और अटल बिहारी वाजपेयी को पाकिस्तान ने। वही हम अपने भूतकाल की भूलों से सबक नहीं लेते जिसकी वजह से हमारा वर्तमान बना है।

हम बात कर रहे हैं भुखमरी की। इस संस्था के अनुसार ८४ देशों में भारत का नम्बर ६७ है जबकि पाकिस्तान ५२ और चीन नौवें नम्बर हैं। उम्मीद है कि खेलों के चकाचौंध ने आपको गर्वांवित किया हो तो ये आँकड़ें आपको शर्मिंदा कर रहे होंगे और यदि फिर भी आपको लगता हो कि इंडिया शाइन कर रहा है और शेयर मार्केट आपको आकर्षित कर रही हो तो दिल थाम कर बैठिये क्योंकि हम नेपाल और श्रीलंका से भी पीछे हैं और बांग्लादेश से केवल एक पायदान का अंतर। आगे के आँकड़े जानना चाहेंगे? विश्व के कम वजनी बच्चों में से ४२ प्रतिशत केवल भारत में हैं।

क्योंकि हम लोग शहरी हैं और इस लेख को पढ़ने वाले भी अधिकतर शहरी होंगे और शायद उस भूख से अनजान जो इस भारत को अंदर ही अंदर खाये जा रही है। ७० हजार करोड़। इतने रूपये खर्च हुए हैं हमें "गर्व" महसूस कराने में। धिक्कार है ऐसे झूठे गर्व पर। भला हो खिलाड़ियों का जिन्होंने देश का सम्मान बढ़ाया। खेलों ने नहीं खिलाड़ियों ने सम्मान बढ़ाया है। भूखों का मुद्दा किसी चैनल ने नहीं उठाया है क्योंकि खेल आड़े आ गये हैं। क्या सुरेश कबाड़ी और शीला आँटी इन आँकड़ों को जानती हैं? क्या हमारे युवराज राहुल बाबा इन को जानते हैं? या फिर दलितों के घर रहने के अलावा भी देश के लिये उन्होंने कुछ किया है? उन्होंने भी दलितों की झुग्गी में चूल्हे पर अपनी राजनैतिक रोटी सेंकनी होती है। कहते हैं कि चूल्हे की रोटी बड़ी स्वादिष्ट होती है। पिछले सात सालों में सत्तर हजार करोड़ खर्च किये यदि कांग्रेस की केंद्र सरकार भूखों पर भी ध्यान देते तो शायद आज हम कम से कम पाकिस्तान से ऊपर होते।

चलते चलते गाँधी जी का वो जंतर बताते जायें जो NCERT की हर किताब के शुरू में हुआ करता था। शायद हम उस जंतर को भी भूल गये। आजकल की किताबों में ये जंतर पाया जाता है या नहीं इसका पता नहीं। हम कुछ भी काम करें तो ये सोचे कि क्या इस काम से उस बच्चे का भला होगा जो आपने सबसे गरीब देखा होगा।

न भूलें याद रहीं न भूत याद रहा और न ही भूख। और हम सोचते रहे कि इंडिया आगे बढ़ रहा है पर भारत तो भूखा सो रहा है।

वन्देमातरम, जय हिन्द।
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Saturday, October 2, 2010

दो अक्तूबर: मैं ज़िन्दगी भी बड़ी दोग़ली गुज़ारता हूँ

दो अक्तूबर। दो ऐसे लोगों का जन्मदिन जिन्होंने इस देश के भविष्य को बदला और आज का भारत इन दोनों के योगदान से बना और खड़ा है। मोहनदास करमचंद गाँधी और लाल बहादुर शास्त्री। हालाँकि सारा संसार गाँधी जयन्ती मनाता है पर शास्त्री जी का कम योगदान नहीं रहा है। विडम्बना है कि सत्य का नारा देने वाले गाँधी के देश में सत्य बोलने वालों की कमी हो गई है। न लोग सच्चे रहे हैं, न मीडिया सच कहता है और न ही लोग सच सुनने की हिम्मत रखते हैं। ये और बात है कि महात्मा गाँधी नई पीढ़ी के लिये विवादों में घिरे रहने वाले व्यक्ति हैं।

दूसरी ओर लाल बहादुर शास्त्री हैं। चूँकि वे "गाँधी" अथवा "नेहरू" नहीं थे इसलिये कांग्रेस पार्टी ने उन्होंने कभी भी तरजीह नहीं दी। आज उनका जन्मदिन है ये भी कम लोगों का पता होता है। जय जवान, जय किसान का नारा देने वाला ये इंसान इस धरती से गया तो उसने सोचा भी नहीं था कि इस देश में न अब जवान की कद्र होगी न ही किसान को इंसान समझा जायेगा। जवान और किसान दोनों ही भूखे मरेंगे या मार दिये जायेंगे।

आखिर लोग जन्मदिन क्यों मनाते हैं? कईं वर्षों से यही सवाल मेरे मन में घूम रहा है। उन्हें बहुत खुशी होती है सेलिब्रेट करने में। इस दिन बधाइयों का ताँता लग जाता है। बधाई देने वाला सही में खुश होता है या नहीं पता नहीं पर इस दिन औपचारिकतायें जरूर निभाई जाती हैं। चाहें फ़ोन हो, एस.एम.एस हो, ईमेल अथवा ओर्कुट। औपचारिकतायें निभाने के लिये तो नेता भी जाने जाते हैं जब दो अक्टूबर के दिन ही राजघाट जाना याद रहता है। हर तरफ़ महज औपचारिकातायें ही हैं। औपचारिकतायें निभाना एक मजबूरी बन जाती है क्योंकि यही इस समाज का हिस्सा है।

मेरे लिये ये दिन पूरे साल का सबसे निराशावादी दिन होता है। पूरे साल आशा और निराशा के मध्य में जूझते हुए जब ये दिन आता है तो मन निराशा से भर जाता है। निराशा अपने चरम पर होती है। ज़िन्दगी का उद्देश्य कमज़ोर पड़ता दिखाई देता है। आशावादी होने के सारे दावे फ़ीके पड़ जाते हैं। एक तरफ़ तो मन सोचता है कि कर्म ही प्रबल है, कर्म ही महान है। मनुष्य अपना भाग्य खुद बनाता है तो फिर मुश्किल आने पर वही मन मन्दिर की ओर क्यों भागता है। क्या आस्तिकता एक कमजोरी है? ये दोहरा रूप क्यों?

भारत और इंडिया में बढ़ता अंतर निराशावाद को जन्म देता है। मेरे दोस्त नई इमारतों के खड़े होने को डेवलेप्मेंट यानि विकास का नाम देते हैं तो मुझे हँसी आती है। यदि विकास से खुशी आती तो अमरीका सबसे खुशहाल देश होता। क्या हजार वर्ष पहले हम खुश नहीं थे? क्या किसान की जमीन के अच्छे मोल देकर उसको खुश किया जा सकता है? जिस देश में खाने को दाना न हो उस देश में मोबाइल मुफ़्त बाँटे जाते हैं, खेलों पर अरबों लुटाये जाते हैं।

जब मैं कहता हूँ कि राम मंदिर अयोध्या में बने तो मुझे खुशी होगी। क्या ये कहने से मैं सेक्युलर नहीं रहता? एक मन कहता है कि हर इंसान का भगवान एक है तो फिर मन राम की ओर क्यों भागता है? क्या सेक्युलर होना एक ढोंग के बराबर है? क्या महात्मा गाँधी मरते हुए जब मुख से "हे राम" निकालते हैं तो वे एक हिन्दू और कम्युनल हो जाते हैं? क्या मदर टेरेसा जब यीशु की पूजा करती हैं तो वे एक ईसाई व एक कम्युनल हो जाती हैं? तो फिर राम का नाम लेना अपराध क्यों? जिस जमीन पर उन्होंने जन्म लिया उस जगह पर विवाद क्यों? आज का इंसान चेहरे पर मुखौटे लगाये फ़िरता है।

कितना घूमा..
पर मुखौटे ही देखने को मिले
चेहरे कहीं खो गये हैं क्या?
आज आइना भी
मुझसे यही कह रहा है!!

उस रूप में अच्छा दिखने की कोशिश करता है। सबसे प्यार मोहब्बत की बातें करता है। कभी कभी प्रयास करता हूँ कि मन निश्छल हो, किसी के प्रति द्वेष, ईर्ष्या न हो। पर यदि ऐसा हो जाये तो इंसान भगवान बन जाये। क्या हर व्यक्ति स्वयं को धोखा देता है? मिलावट के इस युग में लोगों में मिलावट आ गई है शायद।

मिलावट का दौर
जारी है
आज तो मैं भी
इससे अछूता नहीं रहा...

अपने जीवन काल में हम कितने ही व्यक्तियों से मिलते हैं, कुछ अच्छे दोस्त बन जाते हैं तो किसी से दिल नहीं मिलते। ये नहीं कह सकता कि वे अच्छे थे या बुरे पर अपने साथ मेल नहीं बैठा। जैन धर्म में एक दिन "क्षमा दिवस" के रूप में मनाते हैं। सोच रहा हूँ कि साल का यह दिन मैं भी क्षमा दिवस मनाऊँ।

हाल ही में मुन्नवर राणा के चंद शे’र पढ़े थे। उन्ही की कलम का एक शे’र है:
"कहीं पे बैठ के हँसना कहीं पे रो देना, मैं ज़िन्दगी भी बड़ी दोग़ली गुज़ारता हूँ "

नोट: मन कहता गया और उंगलियाँ चलती गईं। भूल-चूक माफ़।
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