Thursday, December 30, 2010

तस्वीरों में देखिये: पैरों में चप्पल पहन कर दिल्ली पुलिस कैसे करती है वी.आई.पी लोगों की सिक्युरिटी और दिल्ली-यूपी बॉर्डर पर राजनैतिक दलों के बैनरों का मेला Delhi Police in Chappals For VVIP Security and Hoarding Mess At Delhi-UP Border

हाल ही में बुराड़ी, दिल्ली में कांग्रेस पार्टी का महाधिवेशन हुआ। पूरी दिल्ली और खासतौर पर रोहिणी से बस-अड्डे के रास्ते पर ढेरों बैनर व हॉडिंग लगे हुए नजर आये। तीन दिन तक चले इस महा-चिंतन में 10,000 से अधिक पुलिसकर्मी तैनात किये गये। बुराड़ी शिविर व उसके आस-पास चप्पे-चप्पे पर इतने पुलिस वाले दिख रहे थे जितने खेल-गाँव की सुरक्षा में भी नहीं दिखे। करीबन दस किलोमीटर तक हर पचास मीटर पर एक या दो पुलिसकर्मी दिखाई दे जाते।
जेब में हाथ डाले खड़ा एक पुलिस-कर्मी


इन्हीं पुलिस वालों में से एक पर हमारी नज़र पड़ गई। वज़ीराबाद चौराहे पर पुल-निर्माण के नज़दीक ही ये महाशय हाथों को जेब में डाले खड़े हुए थे।

जुराब के ऊपर चप्पल
हालाँकि इनकी बीड़ी पीते हुए की फ़ोटो तो नहीं ले पाये पर इनके पैरों की तरफ़ नजर गई तो पता चला कि जूतों की जगह जुराब के ऊपर चप्पल पहने हुए थे। ये आलम है आला नेताओं की सुरक्षा में "तैनात" पुलिस वालों का।

दूसरी तस्वीर है दिल्ली-यूपी बॉर्डर की जिसे यूपी गेट भी कहा जाता है। दिल्ली में जो बैनर अथवा हॉर्डिंग लगाये जाते हैं वे अधिकतर फ़्लाई-ऑवरों पर या मेट्रो के साथ-साथ लगे हुए दिखाई देंगे। पर जैसे ही आप यूपी गेट से गाज़ियाबाद-इंदिरापुरम में दाखिल होंगे आपको ढेर सारे हॉर्डिंग नजर आयेंगे।

राजनैतिक पार्टियों के हॉर्डिंग के पीछे छिपे दिशा निर्देश
और ये सब लगे होंगे दिशा बताने वाले बोर्ड पर। ये सिलसिला आज का नहीं है। मैं कम से कम पाँच साल से देख रहा हूँ। लेकिन तस्वीर पाँच दिन पुरानी है। काँग्रेस पार्टी की जनसभा 10 दिसम्बर को थी (बैनर के मुताबिक) पर ये आज भी आपको टँगा हुआ दिख जायेगा। यही रस्ता आगे चल कर लखनऊ भी जाता है। बोर्ड पर Lucknow का "W" दिखाई दे जायेगा।


कोशिश रहेगी कि तस्वीरों के माध्यम से आप तक कोई खबर पहुँचाई जा सके। इसी कोशिश में शुरू हुई है ये श्रॄंख्ला।

"तस्वीरों में देखिये" के पिछले अंक:

वैष्णौं देवी श्राइन बोर्ड कैसे फ़ैला रहा है प्रदूषण 


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Friday, December 24, 2010

ये चिंगु-चिंगु क्या है? हिमालय की गोद में "चिंगु" का धँधा या फिर गोरखधँधा? Chingu Business in Himalayas

हाल ही में पटनीटॉप जाना हुआ। वहाँ प्राकृतिक व मनमोहक पहाड़ियों के अलावा आपको कुछ नहीं मिलेगा। कोई खास बाज़ार या मालरोड भी नहीं है जो हर हिलस्टेशन पर आपको आमतौर पर मिल जाते हैं। पर हम बात करेंगे चिंगु की।

पटनीटॉप में दो-तीन पार्क हैं और एक मंदिर है। बाबा नाग मंदिर। हजारों साल पहले कोई ब्रह्मचारी बाबा हुए हैं। उन्हीं का यह मंदिर है। टैक्सी वाले यहाँ जरूर आपको ले कर आते हैं। मंदिर के लिये 20-25 सीढ़ियाँ उतरनी थीं। और वहाँ पर थीं करीबन आठ से दस दुकानें। हमें देखते ही सबने चिल्लाना और आवाज़ लगाना शुरु कर दिया। "सर, हमारे यहाँ आइये, चिंगु देखिये".... "चिंगु  देखने के लिये यहाँ आयें.."। एक ने तो हमसे वादा ले लिया कि हम मंदिर दर्शन के बाद उसके यहाँ आयें। तब तक हमारे मन में चिंगु को देखने और उससे मिलने की जिज्ञासा उत्पन्न हो चुकी  थी। हमने सोच लिया था कि चाहें दुकान से कुछ खरीदें या नहीं खरीदें, चिंगु से जरूर मिलेंगे।

दर्शन के पश्चात उसी दुकान पर हम पहुँच गये। हम अंदर घुसे उसके कुछ सेकेंड बाद उस दुकानदार ने दुकान पर पर्दा डाल दिया। तब तक भी चिंगु  से हम अनभिज्ञ थे। अब शुरु होती है चिंगु की कहानी। उसने कुछ इस तरह से बताना शुरू किया कि हम बस सुनते चले गये। उसने एक शॉल दिखाया। उसी को उसने चिंगु का नाम दिया। चिंगु एकतरह का शॉल होता है जो बहुत ही गर्म होता है और विशेष प्रकार की भेड़ से बनता है। उसने बताया कि पहले उस भेड़ को मारा जाता था पर अब उसको मारते नहीं हैं। उसके बच्चे के बाल उतार कर इस शॉल को बनाया जाता है। ये एक स्पेशल शॉल है जो सर्दियों में गर्म करता है और गर्मियों में बिस्तर पर चादर का काम कर सकता है। उसके ऊपर कुछ पानी के  छीँटे मारो और पंखा खोल दो। बस। कहानी मजेदार रूप ले चुकी थी और हम वहीं बैठे थे।

दुकानदारी एक कला है। आपको बेकार से बेकार चीज़ भी ऐसे बतानी है कि ग्राहक को लगे कि बस उसी के लिये ही यह चीज़ बनी है और उसके बिना ग्राहक का जीवन अधूरा है अब आगे की कहानी सुनें- चिंगु हमें छह हजार में मिलने वाला  था। पर उसके साथ मिलने वाले थे चादर-तकिये के दो सेट। उसके साथ मिल रहा था एक मखमली कम्बल। उसके साथ थी एक लोई (एक तरह की शॉल)। ये चार-पाँच चीज़े एक "फ़ैमिली-पैक" बनाती है। छह हजार में इतना कुछ। और उसने एक सेमी-पश्मीना शॉल भी देने का वादा किया जो अंगूठी में से भी निकल जाती है। ये उसने हमें करके दिखाया। आँखें फ़टी की फ़टी रह गईं।

छह हजार में छह तरह के कपड़े इस महँगाई में सही सौदा है। पर कहानी अभी बाकी थी। इसका आभास हमें नहीं लग पाया। उसने और आगे बताना शुरू किया। उसने एक रजिस्टर निकाला जिस पर जम्मू-कश्मीर सरकार का कोई डिपार्टमेंट का नाम था। शायद जम्मू-कश्मीर का केवल नाम था, मैं पूरा पढ़ नहीं पाया। उस रजिस्टर में सैकड़ों लोगों की लिस्ट थी और उनके नाम-पते व फ़ोन नम्बर दर्ज थे। दरअसल असली बात तो आगे आनी थी। चिंगु को हमने 21 महीनें से लेकर पाँच साल तक के बीच में इस्तेमाल करना था जिसके बाद उस डिपार्टमेंट का ही एक आदमी हमारे घर आयेगा और हमसे यह शॉल ले जायेगा। वो ये देखने भी घर आयेगा कि हम इस शॉल का सही इस्तेमाल कर भी रहें हैं या नहीं। हम हैरान थे... शॉल वापस ले जायेगा!!! उसके साथ वापस होंगे 75% रूपये जो हमने शॉल को खरीदने में लगाये। यानि कुल 1500 रूपये में हमें पाँच आईटम मिलने वाले थे। और 21 महीने बाद हमें मिलेगा एक और कम्बल!!

कुछ समझ नहीं आ रहा था..बार बार उस रजिस्टर में नाम और जगह पढ़ीं। गुजरात, दिल्ली, चेन्नई, राजस्थान, यूके कोई ऐसी जगह नहीं जो नहीं लिखी हुई। हमने पूछा कि हम दिल्ली कैसे लेकर जायेंगे। जवाब मिला पार्सल हो जाता है। उसके 300 रूपये अलग से लगेंगे। और 600 रू उनके विभाग का रजिस्ट्रेशन चार्ज। उसने हमें बताया कि उनके ऑफ़िस सभी जगह पर हैं, उसने हमें लिस्ट दिखाई। हमें उस लिस्ट में कनॉट प्लेस दिखाई दिया पर उसमें पूरा पता नदारद था!!

इतनी आकर्षक स्कीम। कभी नहीं सुनी। लेकिन चिंगु वापस लेकर इन्हें क्या फ़ायदा होगा? यहीं हमने उससे पूछा। जवाब मिला कि चिंगु शॉल का कपड़ा 21 महीने के इस्तेमाल के बाद और निखर जाता है। उस शॉल से फिर एक कपड़ा बनेगा जिससे तीन शॉलें और बनेंगी और हर शॉल की कीमत होगी एक लाख रू से भी ज्यादा। कहानी ने चकरा दिया था। हमने यहाँ तक कहा कि हम घर में पूछ कर ही इतना बड़ा फ़ैसला करेंगे। तब वो दुकानदार हमें अपने फ़ोन से बात कराने को राजी हो गया, पर हमें दुकान से वापस नहीं जाने दे रहा था। कोई हमें अपना फ़ोन देने और एस.टी.डी कराने तक को राजी कैसे हो सकता है?

हम जैसे-तैसे वापस हॉटल आ गये। समझ नहीं पा रहे थे कि ये कैसा धँधा है? या फिर एक बहुत बड़ा गोरख धँधा। मैंने अपने फ़ोन पर ही इंटेरनेट पर चिंगु के बारे में जानना चाहा तो मुझे दो-तीन साईट और मिली जिन पर इस "खेल" का जिक्र था। वहाँ से पता चला कि यह "खेल" मनाली, शिमला में भी फ़ैला हुआ है। कुछ शिकायतें मिलीं जिन्हें चिंगु का फ़ैमिली-पैक पार्सल नहीं हो पाया। यही चिंगु हमें कटरा शहर में भी एक दुकान पर देखने को मिला। दुकानदार की रेट लिस्ट के मुताबिक चिंगु आपको छह हजार से साठ हजार या लाखों तक में भी मिल जायेगा। मुझे नहीं लगता कि ये क्वालिटी पर निर्भर करता है बल्कि इस पर कि ग्राहक कितना मालदार है।

हमने चिंगु नहीं खरीदा। हो सकता है कि आप भी कभी न कभी इस तरह की स्कीम से रू-ब-रू हुए हों। नहीं हुए तो हिमालय की इन हसीन वादियों का एक चक्कर काट आईये। कहीं न कहीं ये "चिंगु" आपको मिल ही जायेगा। क्या आप ये "चिंगु" अपने घर ले जाना चाहेंगे? यदि हाँ तो इसके बारे में अन्य लोगों को बतायें क्योंकि तीन ग्राहक बनाने पर आपको और भी बहुत कुछ मिलने की "गारंटी" मिलेगी। और यदि नहीं खरीदें तो मेरी तरह लोगों तक इस "आकर्षक" व सम्मोहित कर देने वाली स्कीम के बारे में जरूर बतायें। वैसे चिंगु खरीदना हो या नहीं, हिमाचल और जम्मू-कश्मीर आप एक बार जरूर होकर आयें।


"धरती पर यदि स्वर्ग है तो यहीं है यहीं है यहीं है"

॥जय हिन्द॥




धूप-छाँव में पढ़िये दो नियमित स्तम्भ:
गुस्ताखियाँ हाजिर हैं
क्या आप जानते हैं?
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Tuesday, December 21, 2010

क्या आप जानते हैं? क्या है सीमा सड़क संगठन और ड्राईवरों को कैसे बना रहा है अपने शब्दों से जागरूक Border Roads Organization Slogans

संविधान के अनुसार सड़क निर्माण की जिम्मेदारी किसी भी राज्य की सरकार की होती है। हम सभी जानते हैं कि सीमा की सुरक्षा सर्वोपरि है और हमारी सेना इस कार्य में दिन-रात लगी रहती है। सीमा की सड़कों को देश की अन्य सड़कों से जल्दी से जल्दी जोड़ा जाये जिससे यातायात में सुविधायें बढ़ सकें एवं सीमावर्ती क्षेत्रों के मार्गों को सुगम बनाया जाये इसी के मद्देनजर सीमा सड़क संगठन या Border Roads Organization की स्थापना की गई।
सीमा सड़क संगठन (BRO) का लोगो

7 मई 1960 में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने इसकी स्थापना की व इसके प्रथम चेयरमैन बने। आज इसके निदेशक, लेफ़्टिनेंट जनरल एम.सी बधानी हैं। यह संगठन उत्तर व उत्तर-पूर्वी राज्यों में तत्पर्ता से कार्य कर रहा है। इसे हिमालय की ठंड व राजस्थान की रेत और तपतपाती गर्मी से जूझना पड़ता है और पहाड़ी राज्यों के कठिन रास्तों से भी गुजरना होता है।

सीमा सड़क संगठन की वेबसाईट पर जारी ये संदेश पढ़िये:


"हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि विषम क्षेत्रों में सड़कों का निर्माण केवल कंक्रीट और सीमेन्ट से नहीं हुआ है बल्कि इसमे भारत के सीमा सड़क संगठन के वीर जवानों का खून भी शामिल है । कई वीरों ने कार्य करते हुए ड्यूटी के दौरान अपनी जान गवांई है । इन वीरो के लिए , जो सदा खतरों से खेलते हैं और मौत पर हंसते हैं, उनके  लिए ड्यूटी हमेशा पहले रही है । ये सभी वीर भारत के विभिन्न भागों से आते हैं और अपने देश की सुरक्षा के लिए न केवल हमेशा तत्पर रहते हैं बल्कि पड़ोसियों को खुशहाल बनाने में भी भरपूर योगदान दिया है ।"

हम सभी जानते हैं कि दिल्ली व अन्य किसी भी बड़े शहर में हर व्यक्ति अपनी जान हथेली पर लेकर सुबह घर से बाहर कदम रखता है। अपने आप को पायलट समझते कुछ ड्राईवर सड़कों पर घूम रहे होते हैं जिनसे बच पाना एक वीरता पुरस्कार से कम नहीं होता। सड़क किनारे आपको इस तरह के वाक्य अमूमन मिल जायेंगे जो आपको आगाह करते रहेंगे कि आप गाड़ी धीमे चलायें।

अभी अपनी जम्मू यात्रा के दौरान कुछ ऐसे ही वाक्य BRO की तरफ़ से लिखे हुए देखे। कुछ अलग लगे इसलिये आप के साथ साझा करने चाहे:

  • Keep Your Nerves On The Sharp Curves
  • This is the Highway, Don't Think it a Runway
  • Licence to Drive not to Fly
  • इतनी जल्दी क्या है प्यारे, रुक कर देख प्रकृति के नजारे
  • If Married, Divorce Speed
और ये सबसे अच्छा लगा:
  • रफ़्तार का शौक है तो पी.टी.ऊषा बनो!!!

॥जय जवान, जय हिन्द॥

"क्या आप जानते हैं"  के छोटे से स्तम्भ में लम्बा-चौड़ा लेख नहीं अपितु आप के लिये होगी रोचक एवं ज्ञानवर्धक जानकारी। चाहें इतिहास हो, विज्ञान, भूगोल, घर्म या अन्य कोई भी और विषय हो। यदि आप भी इन विषयों के बारे में कोई जानकारी बाँटना चाहें तो कमेंट अथवा ईमेल के जरिये जरूर सम्पर्क करें।
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Saturday, December 18, 2010

तस्वीरों में देखिये: वैष्णौं देवी श्राइन बोर्ड कैसे फ़ैला रहा है प्रदूषण और रात में साँझी छत से कैसा दिखता है कटरा का शहर Shrine Board Carelessness Causing Pollution?

हाल ही में वैष्णौं देवी जी के दर्शन करने का सौभाग्य मिला। भीड़ कम होने के कारण तसल्ली से दर्शन कर सके वरना आप जानते ही हैं कि पाँच घंटे की चढ़ाई और पाँच सेकंड के लिये भी दर्शन दुर्लभ होते हैं।

केवल दिल्ली में ही नहीं हर जगह ही विकास का चेहरा दिख रहा है। बाणगंगा से भवन की तरफ़ जाते हुए आप पुरानी बल्ब की लाइटों की जगह ट्यूब लाईट की नई दूधिया से नहाये हुए रास्तों से गुजरेंगे। हमारा ध्यान इस ’विकास’ की ओर नहीं जाता यदि हमें पहाड़ी पर पड़े हुए ये बल्ब दिखाई नहीं दिखते। उन्हीं पुराने बल्बों में से एक की यह झलक:

ऐसे एक-दो नहीं बल्कि सैकड़ों बल्ब यात्रा के दौरान आपको मिल जायेंगे। क्या इन बल्बों को उठाने के बारे में कुछ सोच रहा है श्राईन बोर्ड या फिर वैष्णौं देवी की यह पहाड़ी जो लोगों द्वारा फ़ेंकी गई प्लास्टिक की बोतलों व चिप्स के रैपरों से "शोभायमान" हो रही है अब बिजली के इन बल्ब से होने वाले रासायनिक प्रदूषण का भी स्वाद चखती रहेगी?

चलते चलते देखते चलिये दूसरी तस्वीर: कटरा का पवित्र शहर कुछ ऐसा दिखता है यह साँझी छत से।



अगले अंक में जानिये "सीमा सड़क संगठन" अपने शब्दों से कैसे कर रहा है लोगों को जागरुक
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Friday, December 10, 2010

तुम्हीं हो कल, आज हो तुम...

कोयल की कूक तुम्हीं से,
हर शे’र की बहर हो तुम।
खेतों का लहलहाना तुम से

सागर की लहर हो तुम॥

चाँद की चाँदनी तुम से,
कली का मुस्कुराना तुम
मिट्टी की सुगँध तुम्हीं से,
बहारों का हो आना तुम॥
 

हीरे की चमक तुम्हीं से
घटाओं का छा जाना तुम।
प्रेम का है स्पर्श तुम्हीं से
शाम का ढल जाना तुम॥

कविता का आगाज़ तुम्हीं से,
मधुर संगीत का साज़ हो तुम।
कविता पूरी होती तुम्हीं से,
तुम्हीं हो कल, आज हो तुम।
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Sunday, December 5, 2010

क्या आप जानते हैं? कनॉट प्लेस का इतिहास और सहारा के रेगिस्तान में कितने भारत समा सकते हैं? Connaught Place and Sahara Desert

आज बात करते हैं सहारा के रेगिस्तान की। अफ़्रीका के महाद्वीप में कईं देशों में फ़ैला यहा रेगिस्तान विश्व का सबसे बड़ा रेगिस्तान है। ये इतना बड़ा है कि उत्तर अफ़्रीका के सभी देशों में यह फ़ैला हुआ है और एक तरह से यह पूरे यूरोप जितना बड़ा है|

अफ़्रीका के जिन 12 देशों में यह फ़ैला हुआ है वे हैं: अल्जीरिया, चाड, मिस्र, एरीत्रिया, लीबिया, माली, मौरिशियाना, मॉरोक्को, नाइजर, सूदान, ट्यूनिशिया व पश्चिमी सहारा। इसकी लम्बाई 4800 किमी है व यह 1800 किमी चौड़ा है। इसका अनुमानित क्षेत्रफल 94 लाख sq.km है जो कि भारत से करीबन तीन गुना अधिक है। यानि हमारे जैसे तीन देश सहारा में समा सकते हैं। अरब के रेगिस्तान से यह चार गुना बड़ा है। चीन का गोबी इसका सातवाँ हिस्सा है व दक्षिणी अफ़्रीका का कालाहारी रेगिस्तान भी इसका दसवाँ हिस्सा ही है।
नासा द्वारा अंतरिक्ष से लिया गया एक चित्र

लीबिया का रेगिस्तान
कैसे आता है भँवर?

जब भी कभी पानी का तेज बहाव किसी भी तरह की रुकावट से टकराता है, उसी समय उसमें कईं तरह के चक्कर बन जाते हैं और पहले से भी अधिक तीव्रता से घूमने लगता है। यही टकराव भँवर पैदा करता है। नदी में ये चट्टान के टकराने मात्र से उत्पन्न हो जाता है जबकि बड़े समुद्र में दो विपरीत दिशा से आने वाली विशाल लहरें इसकी उत्पत्ति का कारण बनती हैं।
यह एक पूर्णत: प्राकृतिक क्रिया है। नार्वे में विश्व के दो सबसे ताकतवर भँवर 37 किमी प्रति घंटा और 28 किमी प्रति घंटा के रफ़्तार से आते हैं।

चलते चलते:
आपने दिल्ली के कनॉट प्लेस के बारे में तो सुना ही होगा। ब्रिटेन की रानी विक्टोरिया के तीसरे बेटे प्रिंस आर्थर को "ड्यूक औफ़ कनॉट" की उपाधि दी गई थी। कनॉट आयरलैंड में एक जगह का नाम हुआ करता था। उन्हीं के नाम पर आज के सी.पी का नाम रखा गया। इसके आर्किटेक्ट थे रॉबर्ट रसैल और इसका निर्माण 1929 से 1933 के बीच किया गया।
क्या आप जानते हैं कि इस नाम से देहरादून में ही नहीं बल्कि हांगकांग और लंदन में भी जगह हैं। राजनेताओं ने इसका नाम बदल कर राजीव चौक रख दिया। सरकारी कागज़ों में बेशक इसका नाम बदल दिया हो पर दिल्ली के दिल में बना यह लोगों के लिये अभी भी सी.पी ही है।

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Tuesday, November 30, 2010

समोसे के शौकीन लालू और कर्नाटक-आंध्र में रेड्डी बँधुओं का दखल Election Result-Laloo's Samosa, Karnataka-Andhra-Media

दृश्य एक


चुनावों में हार के बाद, ज़ोर का झटका ज़ोर से पड़ने के बाद लालू और पासवान ड्राइंग-रूम बात करते हुए सुने गये।

लालू जी (गाते हुए): जाने कहाँ गये वो दिन.....कहते थे मेरे राज में .....
पासवान जी: क्या गा रहे हो लालू जी? बीड़ी जलई रे और मुन्नी बदनाम के युग में ये भी कोई गाना हुआ।
लालू जी: अरे पासवान साहिब..ये युग की बात नहीं..समय की बात है। वो भी क्या दिन थे जब समोसा हमें प्यारा हुआ करता था।

जब तक रहेगा समोसा में आलू..तब तक रहेगा बिहार में लालू....


शायद उस युग में जब मेवे, मटर और नूडल्स के समोसे बाज़ार में बिक रहें हैं आलू के बिना भी समोसा तैयार हो रहा है तो बिहार ने भी लालू बिन बिहार का रास्ता चुनने का इरादा कर लिया है।

और राहुल बाबा का कोई कमेंट नहीं आया बिहार पर?
राहुल गाँधी: मेरे इरादे अभी भी मज़बूत हैं। युवा भारत युवाओं के लिये वोट देगा। मैं अपनी पार्टी के लिये काम करता रहूँगा। और मेरी पार्टी देश के लिये..
जनता: राहुल जी, आप देश के लिये कब काम करेंगे? मंत्री बन कर देश चलाइये…

राहुल बाबा कुछ ऐसा सोच रहे हैं शायद:

लोगों को ख्वाब दिखाये थे जन्नत के हमने,
लोगों ने जहन्नुम भी नसीब न कराया हमें...

दृश्य दो

उधर कर्नाटक में भाजपा सरकार पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे जा रहे हैं। और आँध्र में जगनमोहन ने सोनिया जी की नाकमें दम कर रखा है। सुनने में आया है कि गडकरी और मैडम दोनों ने एक मीटिंग की है। उसी की एक झलक:

नितिन गडकरी: क्या हम कुछ नहीं कर सकते?
सोनिया जी: दुनिया जानती है कि दोनों राज्यों में एक ही ग्रुप ने नाटक मचा रखा है।
गडकरी जी: रेड्डी बँधु!!!
सोनिया जी: इनके और जगनमोहन रेड्डी के सम्बन्ध बड़े ही मधुर हैं। वे ही जगन को उकसा रहे हैं और जगन अपने चैनल पर हमारे लिये भला-बुरा कह रहा है।
गडकरी जी: सिर्फ़ बुरा ही कह रहा है, भला नहीं। हा हा।
सोनिया जी: ज्यादा दाँत मत फ़ाड़िये, आपकी सरकार उन्हीं की वजह से चल रही है। कर्नाटक में उनकी कितनी चलती है ये आप भी जानते हैं।
गडकरी जी: तभी तो हम लोग चुप हैं। ऊपर से आजकल कुमारस्वामी ने भी नाक में दम कर रखा है। समझ में नहीं आता कि क्या किया जाये।
सोनिया जी: एक ही तरीका है। किसी तरह से सुप्रीमकोर्ट रेड्डी ब्रदर्स को फ़टकार लगा दे और लगाम लगाये तो साँप भी मर जायेगा और लाठी भी नहीं टूटेगी। क्या ख्याल है?
गडकरी जी: लगता है आपको सुप्रीमकोर्ट की आदत सी हो गई है। कभी कभी लगता है कि कोर्ट नहीं होता तो आपकी सरकार कैसे चलती? जगन के दबाव में रोसैया जी को हटा दिया।
मैडम सोनिया: रोसैया को हटा हमने नये "रिमोट" किरण रेड्डी को मुख्यमंत्री बनाया है। हमारा शुभचिन्तक है वो।
गडकरी जी: पर जब राज्य के अधिकतर विधायक राजशेखर रेड्डी के मरने के बाद जगन की वकालत कर रहे थे तब आपने उन्हें क्यों नहीं बनाया?
मैडम: आप राजनीति में कच्चे हैं तभी कुछ नहीं कर पा रहे। जगन को बनाते तो रेड्डी बँधु आँध्र में भी तहलका मचा देते। उन्होंने हमारे राज्य में भी अवैध खनन किया है लेकिन अभी सामने नहीं आ रही है ये बात।
अब हम तेलंगाना से एक डिप्टी सी.एम. लाकर लोगों को भी खुश करने वाले हैं!!
गडकरी जी: मान गये आपको। लोग यूँ ही आपको मैडम नहीं बुलाते। एक ही पार्टी के सी.एम और डिप्टी सी.एम. ।
मैडम हमें भी कुछ गुर सिखा दीजिये। मैं भी सर बनना चाहता हूँ। इतने सारे रेड्डी ऊपर से ये येद्दि....ओह....

चलते चलते विशेष:

हाल ही में नीरा राडिया, बरखा दत्त, वीर सांघवी के बातचीत के टेप सामने आकर उनका राजनैतिक पार्टियों, खासतौर से काँग्रेस सरकार से "रिश्ता" उजागर हो चुका है।
मीडिया के मन में कुछ ऐसा चल रहा है:

हमें मालूम है सारी हक़ीकत लेकिन,
आँख मूँद कर बैठने का मजा ही कुछ और है!!!

भारत में इतनी परेशानियाँ हैं और इतने विवाद हैं, कि हम सभी कहीं न कहीं उनका हिस्सा बनते हैं दुखी होते हैं। दुखी व परेशान होना उपाय नहीं है। जो भ्रष्टाचार व अन्य बुराइयाँ हम समाज व राजनीति में देखते हैं उन मुद्दों को उठाना बहुत जरूरी है। "गुस्ताखियाँ  हाजिर हैं" स्तम्भ की शुरुआत इसी मिशन का एक हिस्सा है। यहाँ हँसी मजाक भी होगा और गम्भीर मुद्दे भी उठाये जायेंगे। ये आवाज़ आगे और बुलंद होगी यही उम्मीद है।
अगले सप्ताह नईं गुस्ताखियों के साथ फिर हाजिर होंगे। तब तक के लिये नमस्कार।

गुस्ताखियाँ जारी हैं.....

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Saturday, November 27, 2010

क्या आप जानते हैं भाग-१- दिल्ली का नाम कैसे पड़ा और २६ नवम्बर क्यों है खास? (माइक्रोपोस्ट) Name of Delhi and Significance of 26 November

"गुस्ताखियाँ हाजिर हैं" की शुरुआत के बाद आज से धूप-छाँव पर आ रहा है एक और नियमित स्तम्भ- "क्या आप जानते हैं"?

"क्या आप जानते हैं"  के छोटे से स्तम्भ में लम्बा-चौड़ा लेख नहीं अपितु आप के लिये होगी रोचक एवं ज्ञानवर्धक जानकारी। चाहें इतिहास हो, विज्ञान, भूगोल, घर्म या अन्य कोई भी और विषय हो। यदि आप भी इन विषयों के बारे में कोई जानकारी बाँटना चाहें तो कमेंट अथवा ईमेल के जरिये जरूर सम्पर्क करें। 

दिल्ली का नाम कैसे पड़ा?


भारत की राजधानी है दिल्ली। मीडिया वाले कभी इसे दिल वालों की दिल्ली तो कभी दरिंदों की दिल्ली कहकर बुलाते हैं। इसका इतिहास आज से पाँच हजार पहले पांडवों के समय का बताते हैं जब ये पांडवों की राजधानी हुआ करती थी और इसका नाम इंद्रप्रस्थ हुआ करता था। हम ये भी जानते हैं कि अंग्रेजों ने कलकत्ता के बाद 1911 में दिल्ली को अपनी राजधानी बनाया। पर क्या आप जानते हैं दिल्ली का नाम कैसे "दिल्ली" पड़ा कैसे?

दरअसल दिल्ली का नाम कैसे पड़ा इस बारे में कईं तरह की कहानियाँ हैं। ज्यादातर इतिहासकारों का मानना है कि वर्ष 50 ईसा पूर्व (BC) में मौर्य राजा हुआ करते थे धिल्लु या दिलु। उन्होंने इस शहर का निर्माण किया और इसका नाम दिल्ली पड़ गया। कुछ कहते हैं कि तोमरवंश के राजा ने इस जगह का नाम "ढीली" रखा क्योंकि राजा धव का बनाया हुआ लोहे का खम्बा कमजोर था और उसको बदला गया। यही "ढीली" शब्द बाद में बदल का दिल्ली हो गया। तोमरवंश  के दौरान जिन सिक्कों की परम्परा थी उन्हें "देहलीवाल" कहा करते थे। तो कुछ जानकार दिल्ली को "दहलीज़" का अपभ्रंश मानते हैं। क्योंकि गंगा की शुरुआत इसी "दहलीज़" से होती है यानि दिल्ली के बाद होती है। कुछ का मानना है कि दिल्ली का नाम पहले धिल्लिका था।

मतलब यह कि जिस दिल्ली को आप और मैं जानते  हैं उसका इतिहास इतना पुराना है कि उसका असली नाम अब कोई नहीं जानता। दिल्ली को "इंद्रप्रस्थ" बुलाये जाने के बारे में आप लोगों का क्या ख्याल है?

२६ नवम्बर क्यॊं है हमारे लिये खास?

२६ नवम्बर २००८ को पाकिस्तानी आतंकियों ने मुम्बई पर हमला किया। उसके बाद से हमारी सरकार यही राग अलाप रही है कि पाकिस्तान को नहीं छोड़ेंगे। अब इस पाकिस्तानी राग की आदत सी पड़ गई है। नये नये मुख्यमंत्री  पृथ्वीराज चौहाण राष्ट्रगान के दौरान वहाँ से चले जाते हैं तो आप समझ सकते हैं कि कितना गम्भीर होकर हमारे राजनेता काम कर रहे हैं और कितना राष्ट्रप्रेम उनके मन में है।

खैर इस २६ नवम्बर को सभी जानते हैं पर एक और २६ नवम्बर हमारे लिये अहम है। 1949 में इसी दिन हमारा संविधान बनकर तैयार हुआ था जो २६ जनवरी 1950 से लागू किया गया।

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Sunday, November 21, 2010

जब राहुल टकराये भिखारी से और यम से नगर निगम व दिल्ली सरकार के कर्मचारियों की हुई मुक्का-लात Rahul met Beggar, Municipal and Delhi Govt. Workers vs. Yamraj

मेठी में एक भिखारी कुछ इस अंदाज़ में भीख माँग रहा था- भगवान के नाम पर दे दे "बाबा", अल्लाह के नाम पर दे दे "बाबा"।

वहीं से राहुल जी गुजर रहे थे।

राहुल गाँधी: तुमने पुकारा और हम चले आये, कहाँ है तुम्हारा घर... कोई बतलाये, तुमने पुकारा और हम चले आये। अमेठी मेरा संसदीय क्षेत्र है। मेरा ही नहीं मेरे परिवार का भी घर है। तुम किस जगह रहते हो?
भिखारी: राहुल बाबा, आप मेरे घर का क्या करेंगे? मैं तो जहाँ जगह मिलती है वहाँ बैठ जाता हूँ।
राहुल जी: तो फिर मैं आज रात कहाँ रुकूँगा? मैंने तो मीडिया को अमेठी आने को कह दिया था। ओह...
भिखारी: राहुल जी, आप अमेठी के लिये बहू क्यों नहीं ले आते? हर कोई यही चाहता है...
राहुल जी: आप सही कहते हैं। जल्द ही आपको खुशखबरी सुनने को मिलेगी। पर आप इतने उत्सुक क्यों हैं?
भिखारी: आप को दुल्हन मिलेगी जो आपके लिये अच्छा खाना बनायेगी और फिर हमें भी राहत मिलेगी जो आप हमारे यहाँ आते हैं। जिन गरीबों के पास खाने को रोटी नहीं वो आपको रोटी खिलाता है।
राहुल: तुम दलित हो? मुसलमान हो?
भिखारी: नहीं राहुल बाबा।
राहुल: फिर मैं तुम्हारे घर नहीं रुक सकता।

वहाँ से राहुल चल देते हैं। रास्ते में एक रिपोर्टर से टकरा जाते हैं। पीछे भिखारी बुड़बुड़ा कर रह जाता है (दलित गरीब और ब्राह्मण गरीब में क्या अंतर है?)

रिपोर्टर: सर, एक बात बतायें। आपने या आपकी सरकार ने दलितों व मुसलमानों के लिये क्या किया है?
राहुल: हमने दलितों व पिछड़ों को आरक्षण दिया है। और मुसलमानों के लिये......ह्म्म्म्म
रिपोर्टर: सुना है कि आपकी सरकार नीतीश सरकार का फ़ार्मूला लगा रही है। उन्होंने मुस्लिम समुदाय की लड़कियों के लिये रोजगार योजना चालू की थी जिसके तहत उन्हें कढ़ाई बुनाई व अन्य रोजगार शिक्षा मुफ़्त दी जा रही है। और जो कुछ वे बना रही हैं उन्हें बेच कर आमदनी भी हो रही है जिससे उनका विकास हो रहा है।
राहुल: मुझे सिब्बल जी से बात करनी होगी फिर कोई टिप्पणी करूँगा।

(पर्दा गिरता है)

२००५ में विश्व बैंक के अनुसार भारत के ४१ फ़ीसदी लोग अंतर्राष्ट्रीय गरीबी रेखा (१.२५ डालर प्रति दिन यानि ६२ रूपये प्रतिदिन) से भी नीचे है। हालाँकि इस आँकड़े में सुधार हुआ है जब १९८२ में भारत के साठ फ़ीसदी लोग गरीबी रेखा से नीचे थे। शहर में लोग औसतन २१.६ रू और गाँव में महज १४.३ रू प्रतिदिन कमाते है। सोच सकते हैं कि हालत कितनी खराब है। मुझे मालूम है कि ये ब्लॉग पढ़ने वाले १००० रूपये प्रतिदिन से अधिक कमाई करते होंगे। पर रौंगटे तब खड़े हो जाते हैं जब यह पता चले कि दुनिया के एक-तिहाई गरीब भारत में हैं। और जब राजनेता आरक्षण के नाम पर दलित गरीब व अन्य गरीब में अंतर करते हैं तो आप समझ सकते हैं कि एक गरीब पर क्या गुजरती होगी। फिर क्यों न वो भी आरक्षण की माँग करे?

और अधिक जानने के लिये यहाँ जायें।
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नगर निगम और दिल्ली सरकार के कर्मचारी मरने के बाद ऊपर यमराज के पास पहुँचे।

यमराज: कुछ साल पहले दिल्ली में इमारत गिरी थी, उसका जिम्मेवार कौन था?
कर्मचारी: यम जी, उसका जिम्मेवार तो आपकी बहन यमुना थीं।
यमराज: तुम लोगों की ये हिम्मत!!!!! गुस्ताख।
कर्मचारी: वह यमुना नदी के किनारे था और बाढ़ की वजह से इसकी नींव कमजोर पड़ गई थी।
यमराज: इमारत गिरने पर तुम दोनों जागे और फिर आनन फ़ानन में ३८ इमारतों को खाली करने का नोटिस भेज दिया। ये भी न सोचा कि वे लोग बाद में कहाँ रहेंगे?
कर्मचारी: वो हमने ...वो उनके लिये टैंट..
यमराज: जब मकान बन रहे होते हैं, तुम लोग तब पैसा खाते हो और मकान गिरने के बाद उसका इल्जाम यमुना पर लगाते हो!!! तुम्हीं लोगो ने ही इतना बड़ा अक्षरधाम और खेलगाँव यमुना के रास्ते में उसके ऊपर ही बनवा दिया। तब तो तुम्हें विदेशी कमाई नजर आ रही थी। अब बोलो? उन बेघरों को उसी अक्षरधाम और खेल गाँव में क्यों नहीं ठहरा दिया?
कर्मचारी: वो..वो... ऐसा कैसे करते हम?...

विकीपीडिया के अनुसार:

अक्षरधाम को सन २००० अप्रैल में बनाने की इजाजत डी.डी.ए ने दी। और नवम्बर २००० में बनना शुरु हुआ। नवम्बर २००५ में यह बनकर तैयार हुआ। जमीन के नीचे मजबूती के लिये १५ फ़ीट तक ५० लाख ईंटें लगाईं गई। और इस तरह यमुना के ठीक ऊपर कंक्रीट का जाल बिछा दिया गया और उसका रास्ता बदल दिया गया। यमुना तो और बेहतर करने की बजाय अब खेलगाँव बना दिया गया और नदी से नाला बना दिया गया है।
आप सोच रहे होंगे कि यमराज ने कर्मचारियों को नरक भेजा या स्वर्ग? उन्होंने उन्हें वापस मृत्युलोक भेज दिया। वे नहीं चाहते थे कि यमलोक में भी भ्रष्टाचार फ़ैले।
(पर्दा गिरता है)


भारत में इतनी परेशानियाँ हैं और इतने विवाद हैं, कि हम सभी कहीं न कहीं उनका हिस्सा बनते हैं दुखी होते हैं। दुखी व परेशान होना उपाय नहीं है। जो भ्रष्टाचार व अन्य बुराइयाँ हम समाज व राजनीति में देखते हैं उन मुद्दों को उठाना बहुत जरूरी है। "गुस्ताखियाँ  हाजिर हैं" स्तम्भ की शुरुआत इसी मिशन का एक हिस्सा है। यहाँ हँसी मजाक भी होगा और गम्भीर मुद्दे भी उठाये जायेंगे। ये आवाज़ आगे और बुलंद होगी यही उम्मीद है।
अगले सप्ताह नईं गुस्ताखियों के साथ फिर हाजिर होंगे। तब तक के लिये नमस्कार।

गुस्ताखियाँ जारी हैं.....
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Saturday, November 13, 2010

"गुस्ताखियाँ हाजिर हैं" :नया स्तम्भ Socio-Political Sarcastic Humour New Series Part-1

मित्रों, पहली बार हास्य-व्यंग्य की खट्टी-मीठी चटनी लेकर आपके समक्ष नया स्तम्भ ला रहा हूँ -
"गुस्ताखियाँ हाजिर हैं"

आज की कहानी के पात्र:

मैडम सोनिया जी, आडवाणी जी, अम्मा जी, करूणानिधि और बाबा रामदेव।

(पर्दा उठता है)

आडवाणी जी:
सोनिया जी, आप मेरे जन्मदिन पर क्या तोहफ़ा दे रही हैं?
सोनिया जी
: आडवाणी जी, वैसे तो मुझे लोग मैडम के नाम से बुलाते हैं, पर फिर भी मैं आपको नाराज़ न करते हुए आपके सवाल का जवाब देती हूँ। काँग्रेस सोच रही है, नहीं नहीं, मैं सोच रही हूँ कि आपको कुछ मंत्रियों के इस्तीफ़े उपहार में दिये जायें।
आडवाणी जी: वाह मैडम जी, वाह!! राहुल बाबा को मेरा आशीर्वाद देना, वे मेरे पास गुलदस्ता ले कर आये थे। उनसे बात करके अच्छा लगा।
सोनिया जी
: पर आडवाणी जी, इतनी नज़दीकियाँ अच्छी नहीं। लोग क्या सोचेंगे। खासतौर पर आपकी पार्टी आपके बारे में क्या सोचेगी।
आडवाणी जी: वो तो मेरे बारे में वैसे भी अब कुछ भी नहीं सोचते। बुढ़ापे में अब तो भगवान राम का ही सहारा।

बाबा रामदेव (नेपथ्य) : आप लोग गहरी साँस लेते हुए स्विस बैंक से काला धन वापिस क्यों नहीं मँगाते ?  जनता का लाखों करोड़ो रुपया वहाँ जमा है।

सोनिया जी
: लगता है कोई हमारी बातें सुन रहा है। आप राम का जिक्र कर रहे थे? आपको तो न राम मिले और न ही कुर्सी। दोनों ने आपको छोड़ दिया।
आडवाणी जी (स्वयं को कुर्सी पर बैठा सोचते हुए): फिर भी मैं राम राज के सपने देखता हूँ और उन्हें अपना आदर्श राजा मानता हूँ।
सोनिया जी
: इस "आदर्श"ता ने तो हमसे हमारा मुख्यमंत्री छीन लिया है पर हमारे पास भी एक राजा है। जो था, है और रहेगा। हम ए.राजा को पा कर धन्य हुए हैं।

बाबा रामदेव
(नेपथ्य): मैं कहता हूँ आप लोग पेट अंदर करते हुए स्विस बैंक से काला धन वापिस लाने का प्रयास क्यों नहीं करते ?

तभी करूणानिधि जी आते हैं।
करूणानिधि जी: मैडम सोनिया, ये राम-वाम छोड़ो। ये कुछ नहीं होता। हम राम को नहीं मानते। हम ए.राजा को वापिस नहीं बुलायेंगे।
सोनिया जी
: आप निश्चिंत रहें। हमारी पार्टी भी कुछ नहीं करेगी। हमने सुप्रीम-कोर्ट में उनकी शराफ़त का एफ़ीडेविट जमा करवा दिया है। हम उनकी शराफ़त साबित करनेके लिये कानून का सहारा लेंगे।
अम्मा जी: मैडम जी, यदि आप ए.राजा को गद्दी से हटा भी देते हैं, तब भी आपको महारानी की कुर्सी से कोई नहीं हटा पायेगा। हम आपके साथ हैं। (मन में) न जाने कब से सत्ता की मिठाई नहीं चखी है।

बाबा रामदेव (नेपथ्य) : अरे कोई हाथ गर्दन के पीछे से आगे ला कर नाक पकड़ते हुए जनता का पैसा देश में वापस तो लाओ ।
सोनिया जी: आडवाणी जी, आपके यहाँ वक्ता बड़े अच्छे हैं। ये बात तो दुनिया मानती है। सुषमा जी, जेटली जी हों या अन्य बड़े नेता।
आडवाणी जी
: हाँ, नितिन की अगुआई में हम अच्छा प्रदर्शन कर रहे हैं। हमारा किला अब अभेद्य है।

जनता(नेपथ्य) : तभी आपकी पार्टी के लोग शब्दों के "बूमरैंग" फ़ेंकते रहते हैं। सुदर्शन चक्र आपके किले पर खुद ही आकर लग गया है।
एक कांग्रेसी: कोई चाहें हमें कितना बुरा भला कह ले पर मैडम जी के लिये एक शब्द भी नहीं सुनेंगे हम। तोड़फ़ोड़ मचा देंगे, आग लगा देंगे।
बाबा रामदेव (नेपथ्य): अरे कोई तो हाथों को पैरों से मोड़कर कमर पर लाते हुए.....

(पर्दा गिरता है)
क्रमश:
अगले अंक में: अन्य पात्रों से मुलाकात और नईं गुस्ताखियाँ।
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क्या आप जानते हैं स्विस बैंकों में इतना पैसा जमा है कि ३० साल तक हम और आप कोई टैक्स न भरें तो भी सरकार का काम बन जाये!!! ३० साल का टैक्स!!!


भारत में इतनी परेशानियाँ हैं और इतने विवाद हैं, कि हम सभी कहीं न कहीं उनका हिस्सा बनते हैं दुखी होते हैं। दुखी व परेशान होना उपाय नहीं है। जो भ्रष्टाचार व अन्य बुराइयाँ हम समाज व राजनीति में देखते हैं उन मुद्दों को उठाना बहुत जरूरी है। "गुस्ताखियाँ  हाजिर हैं" स्तम्भ की शुरुआत इसी मिशन का एक हिस्सा है। यहाँ हँसी मजाक भी होगा और गम्भीर मुद्दे भी उठाये जायेंगे। ये आवाज़ आगे और बुलंद होगी यही उम्मीद है।
अगले सप्ताह नईं गुस्ताखियों के साथ फिर हाजिर होंगे। तब तक के लिये नमस्कार।

गुस्ताखियाँ जारी हैं.....
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Thursday, November 4, 2010

दीपावली पर बाल-मन की कविता Children Poem on Diwali Festival

छोटे बच्चे प्रणव गौड़ द्वारा दीपावली के त्यौहार पर रचित यह बाल-कविता।
प्रणव (कुश) कुलाची हंसराज स्कूल, दिल्ली में तीसरी कक्षा में पढ़ते हैं और इन्हें शतरंज खेलने का शौक है। इनकी बाल-कवितायें बाल उद्यान पर प्रकाशित होती रही हैं।

दीपों का त्योहार दीवाली।
खुशियों का त्योहार दीवाली॥

वनवास पूरा कर आये श्रीराम।
अयोध्या के मन भाये श्रीराम।।

घर-घर सजे , सजे हैं आँगन।
जलते पटाखे, फ़ुलझड़ियाँ  बम।।

लक्ष्मी गणेश का पूजन करें लोग।
लड्डुओं का लगता है भोग॥

पहनें नये कपड़े, खिलाते है मिठाई ।
देखो देखो दीपावली आई॥

अन्य कवितायें:
इंद्रधनुष- कविता और पेंटिंग
प्रणव गौड़ 'कुश' की होली
गणतंत्र दिवस पर चली छोटी कूची
किस्मस ट्री की पेंटिंग
चाचा नेहरू कक्षा 1 के एक छात्र की दृष्टि में
दिवाली पर एक बच्चे द्वारा बना चित्र
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Saturday, October 30, 2010

त्योहार, बाज़ारवाद और बदलते रिश्ते Commercialization Of Festivals and Changing Relations

त्योहारों के मौसम में
बाज़ार में
प्यार की सेल
लगी है,
लोग
रहीम व कबीर 
के दोहे भूल गये हैं,
उन्हें चॉकलेट द्वारा
बातों में मिठास घोलना
सिखाया जा रहा है।

बाज़ार में महँगे उपहार
रिश्तों को
मज़बूत करना
चाह रहे है
मकान को सुंदर
बनाने के लिये
तरह तरह के
झालर
खरीदे जाते हैं

मन के झालर
उखड़े पड़े हैं,
उन पर गोंद
चिपकी हुई है
शायद महँगे झालर
दीवारों पर से उतरी हुई
सीमेंट और सफ़ेदी
की परत
को ढँक देंते हैं

हर "ब्रैंड"
परिवार और
रिश्तों को मज़बूत
करना चाहता है,
रिश्ते मज़बूत
होते हैं
लोग सामाना खरीदते हैं
उस ब्रैंड से उनका
नया रिश्ता बनता है

घरों को
सर्फ़ से चमकाया,
चमचमाती लाइटों से
सजाया जाता है,
दिल को
साफ़ करने का
कोई साबुन
नहीं मिलता है बाज़ार में!!

लोगों के दिलों में
प्यार व मिठास 
घोलने
के लिये,
ये त्योहार हर साल
आते हैं,
रिश्ते जस के तस हैं
मन की अयोध्या में
राम आयें
या न आयें,
बदलते समय के
बदलते रिश्तों से
बाज़ार हमेशा खुश हैं।

आप सभी पाठकों व मित्रों को दीपावली की हार्दिक शुभकामनायें।
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Friday, October 15, 2010

भूल, भूख, भूत और भारत: Commonwealth Games and Hunger Index

क्या आपको मालूम है भगत सिंह की जन्मतिथि क्या है? क्या आपको मालूम है मोहम्मद गौरी ने पृथ्वीराज चौहान पर कितनी बार हमला किया था? क्या आपको पता है कि हमारे पहले शिक्षामंत्री कौन थे? हो सकता है कि आपको ये सब बातें पता हों या पढ़ी हुईं हों परन्तु देश की आधी आबादी इन बातों से बेखबर है। ये लोग शहर के कथित आज की पीढ़ी के नौजवान हो सकते हैं अथवा किसी सुदूर गाँव के लोग। चलिये तो बहुत पुरानी बातें हैं, क्या आपको याद है कि राष्ट्रपति प्रतिभा सिंह पाटिल ने किस नेता को हराया था? क्या आपको पता है कि प्रधानमंत्री किस राज्य से राज्यसभा सदस्य हैं? अभी कल ही खबर आई कि जॉन अब्राहम को १५ दिन की सजा हो गई है। कारण २००६ में गलत ड्राईविंग बताया गया। आपमें से कितनों को इस बारे में याद था? और हम में से कितनों को दो साल बाद ये बात याद रहेगी?
बात को आगे न घुमाते हुए मुद्दे पर आते हैं। बात सीधी से यह है कि हम भारतीयों को भूलने की बहुत आदत है। हम जल्द ही बात व घटना भूल जाते हैं। शायद इसलिये कि और भी जरूरी काम हमें करने होते हैं। ऊपर दी हुई बातें हमारी दिनचर्या पर असर नहीं डालती हैं। मुदा उठाना इसलिये आवश्यक लगा कि आप सभी जानते हैं कि कॉमेनवेल्थ खेलों में करोड़ों का घपला हुआ है। भारतीय खिलाड़ियों के चमत्कारी प्रदर्शन ने कलमाड़ी और कांग्रेस सरकार की घाँधलियों को छुपा सा दिया है। हर और खेलों के शुभारम्भ और महासमापन का राग चल रहा है।

जिस समय ये खेल चल रहे थे उसी समय एक अंतर्राष्ट्रीय संस्था (International Food Policy Research Institute) ने हमें बताया कि जिस देश के आप बाशिंदे हैं उस देश में चीन और पाकिस्तान से ज्यादा लोग भूखे हैं। इस देश में भुखमरी हमारे "दुश्मन" देशों से कहीं ज्यादा है। अब आप ये नहीं कहियेगा कि ये देश हमारे दुश्मन नहीं हैं। कहीं आप ६२, ६५, ७१, ९९ की लड़ाइयाँ तो नहीं भूल गये? १९६२ का चीन धोखा और उसके बाद पाकिस्तान के धोखे तो नहीं भूल गये? क्योंकि हमारे नेता और कुछ लोग इन बातों को भूल जाते हैं और अमन की आशा का पैगाम उठाते हैं। सुनने में बहुत अच्छा लगाता है वैसे। जवाहरलाल नेहरू को चीन ने धोखा दिया और अटल बिहारी वाजपेयी को पाकिस्तान ने। वही हम अपने भूतकाल की भूलों से सबक नहीं लेते जिसकी वजह से हमारा वर्तमान बना है।

हम बात कर रहे हैं भुखमरी की। इस संस्था के अनुसार ८४ देशों में भारत का नम्बर ६७ है जबकि पाकिस्तान ५२ और चीन नौवें नम्बर हैं। उम्मीद है कि खेलों के चकाचौंध ने आपको गर्वांवित किया हो तो ये आँकड़ें आपको शर्मिंदा कर रहे होंगे और यदि फिर भी आपको लगता हो कि इंडिया शाइन कर रहा है और शेयर मार्केट आपको आकर्षित कर रही हो तो दिल थाम कर बैठिये क्योंकि हम नेपाल और श्रीलंका से भी पीछे हैं और बांग्लादेश से केवल एक पायदान का अंतर। आगे के आँकड़े जानना चाहेंगे? विश्व के कम वजनी बच्चों में से ४२ प्रतिशत केवल भारत में हैं।

क्योंकि हम लोग शहरी हैं और इस लेख को पढ़ने वाले भी अधिकतर शहरी होंगे और शायद उस भूख से अनजान जो इस भारत को अंदर ही अंदर खाये जा रही है। ७० हजार करोड़। इतने रूपये खर्च हुए हैं हमें "गर्व" महसूस कराने में। धिक्कार है ऐसे झूठे गर्व पर। भला हो खिलाड़ियों का जिन्होंने देश का सम्मान बढ़ाया। खेलों ने नहीं खिलाड़ियों ने सम्मान बढ़ाया है। भूखों का मुद्दा किसी चैनल ने नहीं उठाया है क्योंकि खेल आड़े आ गये हैं। क्या सुरेश कबाड़ी और शीला आँटी इन आँकड़ों को जानती हैं? क्या हमारे युवराज राहुल बाबा इन को जानते हैं? या फिर दलितों के घर रहने के अलावा भी देश के लिये उन्होंने कुछ किया है? उन्होंने भी दलितों की झुग्गी में चूल्हे पर अपनी राजनैतिक रोटी सेंकनी होती है। कहते हैं कि चूल्हे की रोटी बड़ी स्वादिष्ट होती है। पिछले सात सालों में सत्तर हजार करोड़ खर्च किये यदि कांग्रेस की केंद्र सरकार भूखों पर भी ध्यान देते तो शायद आज हम कम से कम पाकिस्तान से ऊपर होते।

चलते चलते गाँधी जी का वो जंतर बताते जायें जो NCERT की हर किताब के शुरू में हुआ करता था। शायद हम उस जंतर को भी भूल गये। आजकल की किताबों में ये जंतर पाया जाता है या नहीं इसका पता नहीं। हम कुछ भी काम करें तो ये सोचे कि क्या इस काम से उस बच्चे का भला होगा जो आपने सबसे गरीब देखा होगा।

न भूलें याद रहीं न भूत याद रहा और न ही भूख। और हम सोचते रहे कि इंडिया आगे बढ़ रहा है पर भारत तो भूखा सो रहा है।

वन्देमातरम, जय हिन्द।
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Saturday, October 2, 2010

दो अक्तूबर: मैं ज़िन्दगी भी बड़ी दोग़ली गुज़ारता हूँ

दो अक्तूबर। दो ऐसे लोगों का जन्मदिन जिन्होंने इस देश के भविष्य को बदला और आज का भारत इन दोनों के योगदान से बना और खड़ा है। मोहनदास करमचंद गाँधी और लाल बहादुर शास्त्री। हालाँकि सारा संसार गाँधी जयन्ती मनाता है पर शास्त्री जी का कम योगदान नहीं रहा है। विडम्बना है कि सत्य का नारा देने वाले गाँधी के देश में सत्य बोलने वालों की कमी हो गई है। न लोग सच्चे रहे हैं, न मीडिया सच कहता है और न ही लोग सच सुनने की हिम्मत रखते हैं। ये और बात है कि महात्मा गाँधी नई पीढ़ी के लिये विवादों में घिरे रहने वाले व्यक्ति हैं।

दूसरी ओर लाल बहादुर शास्त्री हैं। चूँकि वे "गाँधी" अथवा "नेहरू" नहीं थे इसलिये कांग्रेस पार्टी ने उन्होंने कभी भी तरजीह नहीं दी। आज उनका जन्मदिन है ये भी कम लोगों का पता होता है। जय जवान, जय किसान का नारा देने वाला ये इंसान इस धरती से गया तो उसने सोचा भी नहीं था कि इस देश में न अब जवान की कद्र होगी न ही किसान को इंसान समझा जायेगा। जवान और किसान दोनों ही भूखे मरेंगे या मार दिये जायेंगे।

आखिर लोग जन्मदिन क्यों मनाते हैं? कईं वर्षों से यही सवाल मेरे मन में घूम रहा है। उन्हें बहुत खुशी होती है सेलिब्रेट करने में। इस दिन बधाइयों का ताँता लग जाता है। बधाई देने वाला सही में खुश होता है या नहीं पता नहीं पर इस दिन औपचारिकतायें जरूर निभाई जाती हैं। चाहें फ़ोन हो, एस.एम.एस हो, ईमेल अथवा ओर्कुट। औपचारिकतायें निभाने के लिये तो नेता भी जाने जाते हैं जब दो अक्टूबर के दिन ही राजघाट जाना याद रहता है। हर तरफ़ महज औपचारिकातायें ही हैं। औपचारिकतायें निभाना एक मजबूरी बन जाती है क्योंकि यही इस समाज का हिस्सा है।

मेरे लिये ये दिन पूरे साल का सबसे निराशावादी दिन होता है। पूरे साल आशा और निराशा के मध्य में जूझते हुए जब ये दिन आता है तो मन निराशा से भर जाता है। निराशा अपने चरम पर होती है। ज़िन्दगी का उद्देश्य कमज़ोर पड़ता दिखाई देता है। आशावादी होने के सारे दावे फ़ीके पड़ जाते हैं। एक तरफ़ तो मन सोचता है कि कर्म ही प्रबल है, कर्म ही महान है। मनुष्य अपना भाग्य खुद बनाता है तो फिर मुश्किल आने पर वही मन मन्दिर की ओर क्यों भागता है। क्या आस्तिकता एक कमजोरी है? ये दोहरा रूप क्यों?

भारत और इंडिया में बढ़ता अंतर निराशावाद को जन्म देता है। मेरे दोस्त नई इमारतों के खड़े होने को डेवलेप्मेंट यानि विकास का नाम देते हैं तो मुझे हँसी आती है। यदि विकास से खुशी आती तो अमरीका सबसे खुशहाल देश होता। क्या हजार वर्ष पहले हम खुश नहीं थे? क्या किसान की जमीन के अच्छे मोल देकर उसको खुश किया जा सकता है? जिस देश में खाने को दाना न हो उस देश में मोबाइल मुफ़्त बाँटे जाते हैं, खेलों पर अरबों लुटाये जाते हैं।

जब मैं कहता हूँ कि राम मंदिर अयोध्या में बने तो मुझे खुशी होगी। क्या ये कहने से मैं सेक्युलर नहीं रहता? एक मन कहता है कि हर इंसान का भगवान एक है तो फिर मन राम की ओर क्यों भागता है? क्या सेक्युलर होना एक ढोंग के बराबर है? क्या महात्मा गाँधी मरते हुए जब मुख से "हे राम" निकालते हैं तो वे एक हिन्दू और कम्युनल हो जाते हैं? क्या मदर टेरेसा जब यीशु की पूजा करती हैं तो वे एक ईसाई व एक कम्युनल हो जाती हैं? तो फिर राम का नाम लेना अपराध क्यों? जिस जमीन पर उन्होंने जन्म लिया उस जगह पर विवाद क्यों? आज का इंसान चेहरे पर मुखौटे लगाये फ़िरता है।

कितना घूमा..
पर मुखौटे ही देखने को मिले
चेहरे कहीं खो गये हैं क्या?
आज आइना भी
मुझसे यही कह रहा है!!

उस रूप में अच्छा दिखने की कोशिश करता है। सबसे प्यार मोहब्बत की बातें करता है। कभी कभी प्रयास करता हूँ कि मन निश्छल हो, किसी के प्रति द्वेष, ईर्ष्या न हो। पर यदि ऐसा हो जाये तो इंसान भगवान बन जाये। क्या हर व्यक्ति स्वयं को धोखा देता है? मिलावट के इस युग में लोगों में मिलावट आ गई है शायद।

मिलावट का दौर
जारी है
आज तो मैं भी
इससे अछूता नहीं रहा...

अपने जीवन काल में हम कितने ही व्यक्तियों से मिलते हैं, कुछ अच्छे दोस्त बन जाते हैं तो किसी से दिल नहीं मिलते। ये नहीं कह सकता कि वे अच्छे थे या बुरे पर अपने साथ मेल नहीं बैठा। जैन धर्म में एक दिन "क्षमा दिवस" के रूप में मनाते हैं। सोच रहा हूँ कि साल का यह दिन मैं भी क्षमा दिवस मनाऊँ।

हाल ही में मुन्नवर राणा के चंद शे’र पढ़े थे। उन्ही की कलम का एक शे’र है:
"कहीं पे बैठ के हँसना कहीं पे रो देना, मैं ज़िन्दगी भी बड़ी दोग़ली गुज़ारता हूँ "

नोट: मन कहता गया और उंगलियाँ चलती गईं। भूल-चूक माफ़।
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Thursday, September 2, 2010

गाँव एक गाली के सिवा आज कुछ भी नहीं

१९५७ का वह दौर था जब आज की पीढ़ी पैदा भी नहीं हुई थी। न ही आज के नये फ़िल्मी सितारे और न ही अधिकतर निर्माता निर्देशक। उस दौर में एक फ़िल्म आई जिसका नाम था ’नया दौर’। दिलिप कुमार-वैजयन्ती माला अभिनीत इस फ़िल्म में वो गाँव दिखाया गया जहाँ फ़ैक्ट्री लगाई जा रही है और ’विकास’ किया जा रहा है। उस तांगेवाले के संघर्ष की कहानी है जो इस कथित विकास और आधुनिकीकरण के खिलाफ़ लड़ता है।

१८५७ का वह दौर नया दौर कहलाया गया। जब हर दौर के आगे एक नया दौर आता है तब उस दौर को समझ लेना चाहिये कि यही उसके अंत की शुरुआत है। ’नया दौर’ हिन्दी फ़िल्म सिनेमा की बेहतरीन फ़िल्मों में से एक कही जाती है जिसने गाँव की हकीकत और उसके हालात से वाकिफ़ कराया। आज का दौर बदला है। आज गाँव की पृष्ठभूमि पर फ़िल्में कम ही बनती हैं। हाल ही में आई थी पीपली लाइव। खैर उस पर काफ़ी लोगों ने बहुत कुछ कहा है। आज हम जानेंगे कि ’पीपली लाइव’ ने हमारे नये दौर के लिये क्या छुपा रखा है।

आज के दौर में निर्देशक चाहता है कि जो दिखाया जा रहा है वो एकदम सच लगे। उसी सच्चाई को दिखाने के लिये एक नया हथियार ढूँढा गया है और वो है गाली। जो आमतौर पर आप को गली में, बाज़ार में, बस में, सड़क पर चलते हुए, रेल में, शहर में, गाँव में कहीं भी सुनाई दे जायेगी। वही गाली अब फ़िल्म को सफ़ल बनाने का तुरुप बनती जा रही है। इसका इस्तेमाल विशाल भारद्वाज, अनुराग कश्यप जैसे निर्देशक अपनी फ़िल्मों में अमूमन करते रहे हैं। ओमकारा में सैफ़ अली खान तो इश्किया में विद्या बालन और हाल ही में पीपली लाइव। गाली पहले भी दी जाती थी। धर्मेंद्र अपनी हर फ़िल्मों में कुत्ते, कमीने कहते नजर आते रहे हैं। ’बसन्ती इन कुत्तों के सामने मत नाचना’, ’कुत्ते मैं तेरा खून पी जाऊँगा’ आदि डायलॉग बहुत मशहूर हुए। पर अब बात कुछ और है। अब इन गालियों का ’स्टेंडर्ड’ बदल गया है। या कहें कि बढ़ गया है।

ऐसी फ़िल्में अधिकतर गाँव से जुड़ी हुई दिखाई गई हैं, जिससे ऐसा लगता है कि गाँव के लोग ही अधिकतर गाली का इस्तेमाल करते हैं। क्या गाँव की बात सुनाने के लिये गाली ही एक तरीका रह गई है? निर्देशिका अनुषा रिज़्वी क्या बिना अभद्र भाषा के फ़िल्म नहीं बना सकती थीं? क्या गाली देना और सुनवाना इतना जरूरी है? और क्या अब वही एक सच्चाई रह गई है? या फिर गाँ व के लोग अब गाली देना सीखें हैं या शहरी इतने शरीफ़ हैं कि उनके मुँह से ऐसी भाषा निकलती ही नहीं? क्या ’नया दौर’ में जब गाँव की कहानी बताई गई तब निर्देशक ने ’यह सच्चाई’ छुपा दी थी? बिना अभद्र भाषा के जब १९५७ की फ़िल्म सफ़ल हो सकती है तो आज की ’पीपली’ क्यों नहीं?

किसान की आत्महत्या का मुद्दा ऐसा है को आज हर एक बच्चे को भी बताना व समझाना जरूरी है। ये एक ऐसा मुद्दा है जो इस देश के हर इंसान से जुड़ा है चाहें वो छोटा हो या बड़ा। पीपली लाइव को ’ए’ रेटिंग दे कर इसको वयस्कों का बना दिया गया। क्या १५ साल के बच्चों को आज किसान की हक़ीकत से रूबरू नहीं होना चाहिये? जब दसवीं के बच्चे को भूगोल और विज्ञान में मिट्टी, देश, हवा पानी के बारे में बताया जा सकता है तो इससे जुड़े हुए उस किसान के बारे में क्यों नहीं जो हमारा पेट भरता है और खुद भूखा रहता है? क्या उसको यह जानने का हक़ नहीं है कि यदि किसान मरेंगे तो एक दिन ये समाज भी मरेगा? पर शायद समाज पहले ही मर चुका है। ’नया दौर’ आज भी नया ही है। आज भी आधुनिकीकरण और विकास के नाम पर किसान को दबाया जाता है। आज भी नेता और बड़े-बड़े उद्योगपति मिलकर किसान की ही जमीन खा रहे हैं। किसान सड़कों पर उतर आये हैं। इस मुद्दे का राजनीतिकरण हो चुका है।

आज गाँव में किसान खेती छोड़ रहे हैं। अपनी जमीन ’विकास’ के नाम समर्पित कर रहे हैं। और हम शहरी खुश हो रहे हैं क्योंकि मॉल खुलेगा तो अगली ’पीपली लाइव’ देखने हम उसी नये थियेटर में जायेंगे। किसान की जमीन पर बने उस मल्टीप्लेक्स में बड़ी स्क्रीन पर किसान की ही फ़िल्म देखी जायेगी। फ़िल्में और समाज दोनों ही आधुनिक हो गये हैं। जहाँ एक और फ़िल्में समाज की भाषा समाज को ही दिखा रही है वहीं समाज एक नये दौर में नये सपने बुनने में व्यस्त है।
गाँव के किसान शहर आते हैं और शहर का विकास करते हैं। शहर उस इंडिया का हिस्सा है जो ’शाईन’ कर रहा है।

विदेशों में कामयाबी के झंडे गाड़ रहा है। और गाँव उस भारत का हिस्सा है जहाँ इस देश की सत्तर प्रतिशत आबादी रहती है और शहर की चकाचौंध को आशाओं की नजरों से देखती है। "जय जवान जय किसान" का नारा आज बेमानी हो गया है। शहरी उद्योगपतियों और फ़िल्मकारों और हमारे समाज की मानें तो गाँव एक गाली के सिवा आज कुछ भी नहीं!!!
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Friday, April 16, 2010

वो लूटते रहे.. हम लुटते रहे...

टीपू सुल्तान की तलवार ब्रिटेन में 5 लाख पाऊंड में बेची गई.... ये तलवार भारत से 1799 में मैसूर से चुराई गई थी... या कहें कि लूटी गई थी....
इस देश को पहले अब्दाली, लोदी व गज़नवी ने लूटा... फिर मुगलों ने और फिर बचा खुचा अंग्रेज ले गये....
वो लूटते रहे.. हम लुटते रहे...
Paulo Cohelo के Alchemist उपन्यास में लिखा था: अगर कोई घटना आपके साथ एक बार होती है.. तो जरूरी नहीं कि दोबारा हो। पर अगर दो बार होती है तो तीसरी बार जरूर होगी। कहने का आशय यह कि अगर पहली गलती से नहीं सीखा तो कभी नहीं सीख सकते।
इसलिये ये लूटने-लुटने की परम्परा चली आ रही है।
चल रही है... चलती रहेगी....
आपका क्या ख्याल है?
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Monday, April 5, 2010

तेरे पास मोबाइल नहीं है??

एक गली से गुज़रते हुए दो मज़दूरों की बातें सुनी। एक मज़दूर दूसरे को हैरानी से पूछता हुआ कहता है:
तेरे पास मोबाइल नहीं है!!!
मैं तुझे बुलाऊँगा कैसे?

मन में तुरंत विचार आया कि जिन मज़दूरों के पास खाने को रोटी नहीं, पीने को पानी नहीं आज की तारीख में उनके पास मोबाइल अवश्य मिलेगा। बड़ी विडम्बना ही कही जायेगी कि जिस देश में साफ़ पानी पीने के लिये उतने नल नहीं हैं उससे ज्यादा तो आपको मोबाइल मिल जायेंगे।
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Thursday, January 28, 2010

ये शवयात्रा जारी रहेगी (?) Death of Hockey and sports crisis

पिछले सप्ताह से हॉकी फ़ेडरेशन और खिलाड़ियों के बीच तनातनी बढ़ती हुई दिखाई दी। ऐसा नहीं कि यह लड़ाई अभी शुरु हुई हो। ये एक पीड़ा है हॉकी की व हॉकी खिलाड़ियों की। यह ज्वालामुखी है जो समय समय पर फ़टता ही रहेगा जब जब हॉकी असहाय महसूस करेगी। जब जब हॉकी का दम घुटेगा उसमें से लावा निकलता रहेगा। कभी पूर्व खिलाड़ी धनराज पिल्लै ने कहा था- "हॉकी ने मुझे मान दिया, इज्जत और शौहरत दी पर दौलत न दी"। आखिर कब तक खिलाड़ी बिना पैसे के खेलते रहेंगे? आखिर कब तक खिलाड़ी सुविधाओं के अभाव में खेलते रहेंगे और फिर हम उनसे विश्वकप जीतने की उम्मीदें भी करें।

बचपन से हमें सिखाया गया है कि हॉकी हमारा राष्ट्रीय खेल है। पर इसके हालात देख कर कहीं से लगता नहीं कि यह राष्ट्रीय खेल है। भविष्य में बच्चे इसे मानने से ही इनकार करेंगे। हॉकी व फ़ुटबॉल जैसे खेलों की दयनीय हालत का जिम्मेदार क्रिकेट की लगातार बढ़ती लोकप्रियता को भी माना जाता रहा है। एक समय था जब भारतीय हॉकी का बोलबाला हुआ करता था और हमने एक के बाद एक लगातार सोने के तमगे हासिल किये पर क्रिकेट का आगमन जैसे इस खेल को ग्रहण लगा गया। १५ जनवरी को हुआ सूर्य ग्रहण तो ४ घंटे में टल गया पर हॉकी पर लगा ग्रहण कब हटेगा ये कोई नहीं जानता। परगट सिंह, पिल्लै और दिलीप टर्की जैसे खिलाड़ी आते-जाते रहेंगे पर ग्रहण का अंधकार हमेशा इस खेल पर कायम रहेगा।

क्रिकेट के खेल में खिलाड़ी टीम में न भी खेलें तो भी १५ लाख सालाना कमा सकते हैं। पर इससे ठीक उलट हॉकी में खिलाड़ी खेल भी लिये तो भी कुछ मिलेगा या नहीं उस पर संशय बना रहता है। हाल ही में विवाद को जब ’सहारा’ का सहारा मिला तो खेल प्रेमियों में खुशी की लहर दौड़ पड़ी थी। केपीएस गिल की हरकतों के बाद जब भारतीय हॉकी संघ तो तोड़ा गया और हॉकी इंडिया की स्थापना हुई तब लगा कि हॉकी का काया पलट होगा। पर ऐसा हुआ नहीं। संघ का नाम तो बदला पर हालात जस के तस ही रहे। हॉकी को सुधारने के प्रयास होते कहीं दिखाई नहीं दे रहे।

यदि आप दस वर्ष के किसी बच्चे से क्रिकेट टीम के खिलाड़ियों के नाम पूछेंगे तो वह ग्यारह की बजाय तीस बता सकता है। अब जरा हॉकी खिलाड़ियों के नाम पूछिये। तीन भी बता दे तो समझ लीजिये की हॉकी की उन्नति तय है। पर
ऐसा होता कहीं दिख तो नहीं रहा है। पूछ कर जरूर देखियेगा। यदि आप सच्चे खेल प्रेमी होंगे तो दुखी होगे। क्रिकेट की अधिकता दूसरे खेलों का ही नहीं पर भस्मासुर की तरह स्वयं का भी अंत करने की ओर अग्रसर है। ट्वेंटी-२० का खेल टेस्ट मैच के असली क्रिकेट को खत्म कर रहा है। साल भर में महज चार टेस्ट मैच खेलेगी भी भारतीय टीम। इससे ज्याद दुखद बात क्या होगी? क्रिकेट खिलाड़ी जहाँ करोड़ो का टैक्स भर रहे हैं जबकि दूसरे खेलों में लाख रूपये कमाने में भी पसीना निकल जाता है। कुश्ती, तीरंदाजी, टेनिस में पदकों के जीतने पर कुछ उम्मीद तो बंधती दिखती है पर सप्ताह भर चले इस झगड़े को देखते हुए फिर उम्मीदें ध्वस्त हो जाती हैं।

क्या करें कि यह मृत खेल फिर से जीवित हो सके? क्या हमारी व्यवस्था इसे ठीक कर सकती है? बीसीसीआई का नाम आप को पता होगा। ये बोर्ड भारत में क्रिकेट चलाता है। इस बोर्ड में बड़े से बड़े नेता बैठे हुए हैं जो अपना पैसा बनाने में लगे हुए हैं। शरद पवार आइसीसी के उपाध्यक्ष बने और अब डालमिया की तरह ही अध्यक्ष पद पाने की लालसा में हैं। मिल भी जायेगा। आइसीसी को पता है कि विश्व का सबसे कमाऊ क्रिकेट बोर्ड है बीसीसीआई। अब एक बात और आपको बता दूँ कि क्रिकेट ही नहीं बल्कि सभी खेलों में सबसे कमाऊ बोर्ड है हमारा बीसीसीआई। इस पर राज करने वाले यदि सच्चे क्रिकेट प्रेमी होते तो पैसे के लालच में क्रिकेट को ट्वेंटी-२० की आग में न झोंकते! हॉकी को जिंदा रखने का रास्ता इसी बोर्ड के पास है। यदि क्रिकेट बोर्ड हॉकी संघ को अपनी कमाई का १० फ़ीसदी हिस्सा भी दे दे तब भी हॉकी का कायकल्प किया जा सकता है। पर वे ऐसा करेंगे क्यों? उनका स्वार्थ पूरा नहीं होता है इसमें। आज हॉकी में सभी खिलाड़ी इसलिये हैं क्योंकि वे खेल को चाहते हैं, जबकि क्रिकेट में इसलिये क्योंकि वे पैसे और नाम को चाहते हैं। हॉकी संघ पर भी राजनेताओं की बजाय पूर्व खिलाड़ियों को काबिज होना पड़ेगा तभी बात बनेगी।

एक बात और सोचने वाली है कि हमारे स्कूल हॉकी को बढ़ावा क्यों नहीं देते? क्रिकेट सिखाने के लिये कोच नियुक्त किये जाते हैं, उनपर पैसा खर्च किया जाता है तो फिर हॉकी व फ़ुटबॉल क्यों नहीं सिखाया जा सकता। बचपन से ही यदि क्रिकेट के साथ साथ हॉकी भी सीखने को मिलेगी तो क्यों हॉकी आज की तरह तरसेगी? यदि बचपन से ही हमें हॉकी सिखाया जाये तो ध्यानचंद फिर पैदा हो सकते हैं और हम फिर से आने वाली पीढ़ी को गर्व से कह सकते हैं कि हॉकी हमारा राष्ट्रीय खेल है। यदि ऐसा न हुआ तो हॉकी की शवयात्रा यूँ ही जारी रहेगी।
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