आज तक आपने चीन की हरक़तों के बारे में सुना होगा। कराची में पाकिस्तान की सहायता से, बंगाल की खाड़ी में बंग्लादेश से मदद और भारतीय महासागर में श्रीलंका , तीनों दिशाओं से भारत के ऊपर नज़र रखे हुए है। अरूणाचल प्रदेश व कश्मीर में घुसपैठ जारी है। फिर भी भारत सरकार सोई हुई है। पता नहीं किस बात से डरते हैं हम? पर आज मैं आपको जो बताने जा रहा हूँ वो सुनकर आप भी उसी तरह से हैरान हो जायेंगे जिस तरह से मैं हो गया था।
जिस भाषा की कद्र उसके अपने देश में नहीं होती वो भाषा हमारे पड़ोसी शत्रु देश में शोभायमान हो रही है। जिस भाषा को एक सम्प्रदाय की भाषा मान कर हमारी सरकार केवल वोट बैंक की खातिर नजरअंदाज़ करती रही है वही भाषा चीन में अध्ययन का विषय बनी हुई है। मैं बात कर रहा हूँ हमारी मातृभाषा हिन्दी से भी अधिक उपेक्षित भाषा व हिन्दी की जननी संस्कृत की। जी हाँ इस देश की सबसे पुरानी भाषा संस्कृत जिसे आज हिन्दुओं की भाषा माना जाता है।
आजकल भारत में छठी कक्षा से ही अपनी भाषा चुनने की स्वतंत्रता मिल जाती है। बच्चे जर्मन, फ़्रैंच व स्पेनिश जैसी भाषाओं को संस्कृत से ऊपर मानते हुए चुनते हैं क्योंकि ये भाषायें आगे चलकर नौकरी दिलवाने में मदद करती हैं। यानि वो भाषा जिसे इस देश की राष्ट्रभाषा बनना चाहिये था वो राजनीति व जटिल पाठ्यक्रम के कारण हाशिये पर जाती जा रही है।
चलिये भारत की बात छोड़ते हैं और चीन की बात करता हूँ। चीन के पीकिंग विश्वविद्यालय की बात करें तो वहाँ पर संस्कृत विषय पर 1960 से अध्ययन व लोगों को संस्कृत सिखाने का कार्यचल रहा है। इसे जी ज़ानलिन की छत्रछाया में देश में प्रसिद्धि मिली। करीबन 2000 वर्ष पूर्व बौद्ध गुरुओं के माध्यम से संस्कृत चीन तक पहुँची। यहाँ 60 विद्यार्थी संस्कृत पढ़ते हैं व कईं पुस्तकों का संस्कृत से चीनी भाषा में अनुवाद भी करते हैं। यहाँ के विद्यार्थियों में जबर्दस्त लगन है और सटीक उच्चारण सीखने की इच्छा भी है।
नई दिल्ली से चीनी विश्वविद्यालय पढ़ाने के लिये गये संस्कृत विद्वान सत्यव्रत शास्त्री जी ने बताया कि तिब्बत में बहुत सी हस्तलिखित पुस्तकें हैं जो संस्कृत से तिब्बती व चीनी भाषा में अनूदित है किन्तु संस्कृत में मिलनी दुर्लभ है। वे कहते हैं कि अब वक्त आ गया है कि हम इस भाषा की कद्र करें व इसको पहचानें। वे आगे बताते हैं कि चीनी विद्यार्थी बहुत तेज़ी से इस भाषा को सीख रहे हैं। ये विद्यार्थी पी.एच.डी कर रहे हैं। ये लोग भगवद गीता और कालिदास की कुमारसम्भव में अध्ययन कर रहे हैं।
आपको यदि यकीन न हो तो आप अंग्रेज़ी दैनिक "हिन्दू" के इस लिंक पर जा कर इसके बारे में अधिक जान सकते हैं।
ये बात दुखी करती है कि जिस देश में वैदिक शिक्षा व संस्कृत अनिवार्य करनी चाहिये उस देश की आज की कथित "युवा" पीढ़ी को इन दोनों के बारे में ही ज्ञान नहीं है। कोई राज्य वैदिक शिक्षा शुरु करते भी हैं तो स्वयं को "धर्मनिरपेक्ष" कहने वाली कुछ पार्टियाँ टाँग अड़ाने से बाज नहीं आती हैं। ये वोट-बैंक की राजनीति हमारे देश को विपरीत दिशा में ले जा रही है। समय आ गया है संस्कृत के पाठ्यक्रम में सुधार करने का जिससे बच्चों में इसके प्रति दिलचस्पी बढ़े व इस भाषा को उचित सम्मान मिल सके। क्या ऐसे मिल सकेगा इसे सम्मान? आज पहली बार मैं चीन के साथ खड़ा हो रहा हूँ। घर की भाषा को घर में इज़्ज़त नहीं मिल रही और शत्रु देश उसे पूज रहा है। अचम्भा!!! हैरानी!!! दु:ख!!! खुशी!!! सब कुछ है इस खबर में....
।जय हिन्द।
।वन्देमातरम।
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जिस भाषा की कद्र उसके अपने देश में नहीं होती वो भाषा हमारे पड़ोसी शत्रु देश में शोभायमान हो रही है। जिस भाषा को एक सम्प्रदाय की भाषा मान कर हमारी सरकार केवल वोट बैंक की खातिर नजरअंदाज़ करती रही है वही भाषा चीन में अध्ययन का विषय बनी हुई है। मैं बात कर रहा हूँ हमारी मातृभाषा हिन्दी से भी अधिक उपेक्षित भाषा व हिन्दी की जननी संस्कृत की। जी हाँ इस देश की सबसे पुरानी भाषा संस्कृत जिसे आज हिन्दुओं की भाषा माना जाता है।
आजकल भारत में छठी कक्षा से ही अपनी भाषा चुनने की स्वतंत्रता मिल जाती है। बच्चे जर्मन, फ़्रैंच व स्पेनिश जैसी भाषाओं को संस्कृत से ऊपर मानते हुए चुनते हैं क्योंकि ये भाषायें आगे चलकर नौकरी दिलवाने में मदद करती हैं। यानि वो भाषा जिसे इस देश की राष्ट्रभाषा बनना चाहिये था वो राजनीति व जटिल पाठ्यक्रम के कारण हाशिये पर जाती जा रही है।
चलिये भारत की बात छोड़ते हैं और चीन की बात करता हूँ। चीन के पीकिंग विश्वविद्यालय की बात करें तो वहाँ पर संस्कृत विषय पर 1960 से अध्ययन व लोगों को संस्कृत सिखाने का कार्यचल रहा है। इसे जी ज़ानलिन की छत्रछाया में देश में प्रसिद्धि मिली। करीबन 2000 वर्ष पूर्व बौद्ध गुरुओं के माध्यम से संस्कृत चीन तक पहुँची। यहाँ 60 विद्यार्थी संस्कृत पढ़ते हैं व कईं पुस्तकों का संस्कृत से चीनी भाषा में अनुवाद भी करते हैं। यहाँ के विद्यार्थियों में जबर्दस्त लगन है और सटीक उच्चारण सीखने की इच्छा भी है।
नई दिल्ली से चीनी विश्वविद्यालय पढ़ाने के लिये गये संस्कृत विद्वान सत्यव्रत शास्त्री जी ने बताया कि तिब्बत में बहुत सी हस्तलिखित पुस्तकें हैं जो संस्कृत से तिब्बती व चीनी भाषा में अनूदित है किन्तु संस्कृत में मिलनी दुर्लभ है। वे कहते हैं कि अब वक्त आ गया है कि हम इस भाषा की कद्र करें व इसको पहचानें। वे आगे बताते हैं कि चीनी विद्यार्थी बहुत तेज़ी से इस भाषा को सीख रहे हैं। ये विद्यार्थी पी.एच.डी कर रहे हैं। ये लोग भगवद गीता और कालिदास की कुमारसम्भव में अध्ययन कर रहे हैं।
आपको यदि यकीन न हो तो आप अंग्रेज़ी दैनिक "हिन्दू" के इस लिंक पर जा कर इसके बारे में अधिक जान सकते हैं।
ये बात दुखी करती है कि जिस देश में वैदिक शिक्षा व संस्कृत अनिवार्य करनी चाहिये उस देश की आज की कथित "युवा" पीढ़ी को इन दोनों के बारे में ही ज्ञान नहीं है। कोई राज्य वैदिक शिक्षा शुरु करते भी हैं तो स्वयं को "धर्मनिरपेक्ष" कहने वाली कुछ पार्टियाँ टाँग अड़ाने से बाज नहीं आती हैं। ये वोट-बैंक की राजनीति हमारे देश को विपरीत दिशा में ले जा रही है। समय आ गया है संस्कृत के पाठ्यक्रम में सुधार करने का जिससे बच्चों में इसके प्रति दिलचस्पी बढ़े व इस भाषा को उचित सम्मान मिल सके। क्या ऐसे मिल सकेगा इसे सम्मान? आज पहली बार मैं चीन के साथ खड़ा हो रहा हूँ। घर की भाषा को घर में इज़्ज़त नहीं मिल रही और शत्रु देश उसे पूज रहा है। अचम्भा!!! हैरानी!!! दु:ख!!! खुशी!!! सब कुछ है इस खबर में....
।जय हिन्द।
।वन्देमातरम।