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Sunday, October 2, 2011

दो अक्टूबर: परिवर्तन संसार का नियम है.. आत्मविश्लेषण. 2nd October.. Time to Introspect

नोट: लेख लम्बा है पर मैं चाह कर भी छोटा नहीं कर पाया।

प्रिय मित्रों,

कुछ साल पहले तक घर घर में एक कैलेंडर अथवा पोस्टर लगा रहता था जिस पर लिखा होता था - परिवर्तन संसार का नियम है। जब बड़े हुए और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों में नौकरी करी तो पता चला कि भगवान कृष्ण का यह वचन आज का मैनेजमेंट फ़ंडा बन गया है। "Embrace Change" और "Change is Good" जैसे जुमले हर मैनेजमेंट गुरु की ज़ुबान पर चढ़े हुए हैं। गनीमत यह है कि अमरीका अथवा ब्रिटेन ने इस "सत्य" का पेटेंट नहीं करवाया।

आज दो अक्टूबर है। गाँधी और शास्त्री का जन्मदिन है... समय आत्मविश्लेषण का है। समय पिछले एक वर्ष में हुई घटनायें व परिवर्तनों को जानने व समझने का है। पिछले वर्ष जो एक सिलसिला प्रारम्भ किया था उसी को आगे ले जाने का है।

क्या देश व दुनिया में परिवर्तन हुआ है?

मुझे याद है पिछले वर्ष भी मैंने देश में हो रहे कथित "डिवलेप्मेंट" पर चिंता व्यक्त की थी। कहीं खाली जमीन दिखी नहीं कि "डिवलेप्मेंट" की बातें शुरू हो गईं। जब तक उस जमीन पर गगन चुम्बी इमारतें व मॉल नहीं बन जाते तब तक हम, बिल्डर व सरकार तीनों ही साँस नहीं लेते। फिर चाहें जमीन का वो हिस्सा कितना ही उपजाऊ क्यॊं न हो। इसी "विकास" का नतीजा रहा भट्टा पारसौल का गाँव। ग्रेटर नोएडा में हुए इस हड़कम्प की गूँज आज तक विभिन्न कोर्टों में चल रही है। कभी राहुल गाँधी भट्टा पारसौल पहुँचते हैं तो कभी फ़रीदाबाद व गुड़गाँव के लोग राहुल बाबा के खिलाफ़ नारेबाजी करते हैं। अजब सी राजनीति होने लगी है। कभी सिंगूर की जमीन तो कभी ओड़ीशा में पोस्को का प्लांट। हर ओर केवल जमीन की जंग है। महाभारत काल में हुई जमीन की जंग इसके आगे छोटी पड़ती नज़र आती है। इससे स्पष्ट समझ आ जाता है कि डिवलेप्मेंट पर हमारी सोच में कोई बदलाव नहीं आया है। तेलंगाला के मुद्दे को हर पार्टी गरमा कर रखना चाहती है। चाहें जगन रेड्डी हो...टीआरएस हो..तेदेपा हो..भाजपा अथवा कांग्रेस.. सभी तेलंगाना चाहते हैं... वोट बटोरना चाहते हैं..

न जाने कितने और राज्यों के टुकड़े निकल कर आने बाकि हैं अभी भारत में से...

राजनैतिक दलों का वोट के लिये नीतियों में बदलाव करना भी जस का तस है। तमिलनाडु विधानसभा में अम्मा और "करूणा" के सागर करूणानिधि ने राजीव के हत्यारों का समर्थन कर फ़ाँसी रोकनी चाही तो चहीं जम्मू कश्मीर में भी हालात कुछ अलग नहीं हैं। भाजपा को छोड़ सभी दल अफ़्ज़ल गुरू को बचाने में लगे हैं। हालाँकि राज्य में कांग्रेस थोड़े पसोपेश में है। परन्तु अब्दुल्लाओं व मुफ़्तियों का रूख स्पष्ट है। समझ यह नहीं आता कि प्रधान मंत्री के हत्यारों व संसद और देश के गद्दारों का कोई हिमायती कैसे हो सकता है? वोटों की खातिर राष्ट्रभक्ति को दाँव पर कैसे लगाया जा सकता है। वैसे खबर पंजाब से भी थी कि अकाली दल आतंकवादी भुल्लर की सजा माफ़ कराना चाहता है पर अपबे सहयोगी भाजपा के दबाव के कारण कुछ कर नहीं पाया। यहाँ भी कोई परिवर्तन नहीं। कोई बदलाव नहीं।

पिछले दो दशकों से आरक्षण की आग लगातार भड़की हुई है। राजनैतिक दल इसे शांत करना भी नहीं चाहते।  आरक्षण की लकड़ी से जितनी आग भड़केगी उतना ही वोट का चूल्हा जलता रहेगा। आरक्षण नामक बैसाखी ने देश को अपंग बना दिया है। मायावती ने हाल ही में कभी मुसलमानों, कभी अगड़ों तो कभी जाटों को आरक्षण देने की माँग रखी। मतलब यह कि आरक्षण पर भी इस देश में कोई परिवर्तन नहीं आया है। न ही कोई अन्ना और न ही कोई रामदेव आगे आया है।

जमीन से बात शुरू हुई थी तो जमीन पर ही खत्म करना चाहूँगा। बात करते हैं कर्नाटक में हुए अवैध खनन की व बेल्लारी के रेड्डी बँधुओ की। दक्षिण भारत में पहली बार बनी भाजपा की सरकार की नैया "जमीन" ने ही डगमगा दी। पूर्व मुख्यमंत्री येद्दुयरप्पा पर "जमीन" के इतने आरोप लगे कि उनको अपनी कुर्सी से हाथ धोना पड़ा। पर हक़ीकत यह भी कि कर्नाटक एकमात्र राज्य नहीं है जहाँ अवैध खनन हो रहा है। कोर्ट की नज़र जरा भी टेढ़ी हुई तो आंध्र से हो रहे अवैध निर्यात, ओड़ीशा व झारखंड में भी चल रहे खनन पर रोक लगाई जा सकती है और कईं "बड़ी मछलियाँ" भी इस जाल में फ़ँस सकती हैं।


राजनीति को छोड़ कर यदि समाज की बात करें तो कभी कभार लगता है कि शायद हम सभ्य समाज का हिस्सा ही नहीं है। गलियों से निकलो तो लोगों ने अपने घर के बाहर कूड़ा डाला होता है। नगर निगम की गाड़ी मुफ़्त में कूड़ा उठाने आती है उसके बावजूद लोग कूड़ा फ़ैलाते हैं, सड़क पर पान खा कर थूकते हैं। ऐसे लोगों से निवेदन है कि कृपया अपने घर में सोफ़े पर बैठ कर फ़र्श पर थूकें।

पिछले एक सप्ताह में दिल्ली में दो-तीन ऐसी घटनायें हुईं जो ये दर्शाती है कि हमारी "सोच" व "स्टेटस" में कितना परिवर्तन हुआ है। गुड़गाँव टोल पर आधी रात में टोलकर्मी की हत्या। वजह मात्र 27 रूपये। दिल्ली-नोएडा टोल पर टवेरा द्वारा एक पुलिसकर्मी को उड़ा देना। कारण - पुलिसवाला तेज़ आती टवेरा को रोकने को कह रहा था। और दो दिन पूर्व ही रात को 18-19 साल का एक एक युवक (बच्चा ?) तेज़ गाड़ी चलाता हुआ फ़ुटपाथ से टकराया और मारा गया। आप ही बतायें कि विचारों व सामाजिक दृष्टि से हम कितने बीमार हैं?

ये सब घटनायें होती हैं तो दिल दुखी होता है कि आखिर हम जा कहाँ रहे हैं? क्या इसी को कहते हैं "डिवलेप्मेंट"? क्या यही है जीडीपी की "ग्रोथरेट"? वैसे पैसा ही खुशी का पैमाना होता तो आज पश्चिम भी सुखी होता। देश में केवल भ्रष्टाचार ही एक मात्र मुद्दा नहीं.. अन्नाओं व बाबाओं व गुरूओं को आगे आना ही होगा। 

परिवर्तन कहाँ कहाँ ?

यदि भगवान कृष्ण की मानें तो परिवर्तन तो संसार में होगा ही। पर यह परिवर्तन अच्छा होगा या बुरा...? पिछले एक वर्ष में इस देश ने भ्रष्टाचार के कईं केस झेले हैं। किन्तु बाबा रामदेव का कालेधन का आंदोलन और अन्ना हजारे का भ्रष्टाचार के विरूद्ध भूख हड़ताल ने देश में कुछ परिवर्तन अवश्य किया है। मैं यह नहीं कहूँगा कि सभी नेताओं व जनता का हृदय परिवर्तन हो गया है। पर हाँ यह अन्ना के अनशन का असर था कि दिल्ली सरकार व नगर निगम ने सिटीज़न चार्टर की पन्द्रह सितम्बर से शुरूआत कर दी। अब हर काम करने से पहले सरकार व निगम के अधिकारी हमें उस काम में लगने वाले समय के बारे में बता दिया करेंगे।  

हम सरकारी लोकपाल व जनलोकपाल की बातें करते हैं किन्तु जब हमें यह पता चले कि 55 प्रतिशत भारतीयों ने अपने "कर कमलों" के द्वारा रिश्वत दी है तो पैरों तले जमीन खिसकते देर न लगेगी। जब जनता ही भ्रष्ट है तो "ऊपर"वाले क्या करेंगे। हम सुविधा के नाम पर "एजेंटों" को पैसा खिलाते हैं। ट्रैफ़िक पुलिस को तो पचास रूपये के "पत्ते" से "पटा" लेते हैं।

पिछले एक वर्ष में ही फ़ेसबुक व ट्विटर ने जो धमाल मचाया है उससे सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में क्रान्ति आई है। इसी का नतीजा रहा कि अन्ना का अनशन इतना कामयाब हो पाया। लोगों में जागरूकता आ रही है। सूचना तेज़ गति से लोगों तक पहुँच रही है। पर इससे थोड़ा बच कर रहने की भी आवश्यकता है क्योंकि गलत सूचना भी उतनी ही तेज़ गति से चलेगी।

एक भ्रष्टाचार ही नहीं अपितु और भी अन्य क्षेत्र हैं जहाँ हमें सुधार की जरूरत है। विदेश नीति पर मैं कुछ नहीं कहूँगा। चीन के बारे में कुछ नहीं कहूँगा। आप सब जानते ही हैं। बंग्लादेशियों का गैरकानूनी तरीके से भारत में दाखिल होना...आदि आदि...
लेख के पहले हिस्से में भी मैं कुछ बीमरियों के बारे मैं पहले ही बता चुका हूँ जिनसे देश जूझ रहा है।

जिस देश में जीडीपी की दर आठ से नौ प्रतिशत है वह देश यदि महिला उत्पीड़न, भुखमरी व कुपोषण में कभी सौ देशों के नीचे तो कभी डेढ़ सौ देशों से भी नीचे रहे तो यह उस देश के लिये डूब मरने जैसा है। स्वयं को सबसे अधिक विकासशील कहे जाने वाले देश की हालत इतनी बदतर है यह सोचा भी नहीं जा सकता। यह देश किस हक़ से संयुक्त राष्ट्र में अपनी सीट चाह रहा है यह चिंतन करने वाली बात है। इसमें गर्व करने वाली कोई बात नहीं है।

धूप-छाँव, मैं और मेरा दायित्व?

अक्टूबर २०१० वह दौर था जब मैंने धूप-छाँव पर दोबारा लिखना शुरू किया था। करीबन दो साल के लम्बे अंतराल के पश्चात दोबार अपने ब्लॉग पर लिखना एक सुखद अनुभव रहा। इस बार राजनैतिक व सामाजिक लेखों के अलावा "क्या आप जानते हैं" व "तस्वीरों में देखिये" जैसे स्तम्भ शुरू किये। इसके अलावा राजनीति पर चुटकी लेने के लिये "गुस्ताखियाँ हाजिर हैं" जैसी श्रूंख्ला भी लिखनी शुरू की। समय बीतता गया और "भूले बिसरे गीत" व "अतुल्य भारत" जैसी श्रूंख्लायें भी आरम्भ हो गईं। राजनीति के लेखों से ऊब का नतीजा रहा है इन सभी स्तम्भों की शुरुआत। कभी कभी देश में हो रही राजनीति देखकर मन खिन्न हो जाता है। और इन स्तम्भों के लिये "मसाला" ढूँढते हुए मेरा स्वयं का भी भरपूर ज्ञानवर्धन हुआ।

पिछले वर्ष से अब तक कुछ परिवर्तन हुआ है पर कुछ और बदलाव की इच्छा है। कहीं पढ़ा कि कोई व्यक्ति सही अथवा गलत नहीं होता। सभी अलग तरह के व्यक्ति हैं। सभी की सोच व विचार अलग हैं। यह तो हमारी परवरिश व हमारे साथ हुई घटनायें हैं जिनके प्रभाव से हम किसी व्यक्ति को अच्छा व बुरा समझ लेते हैं।

कबीर दास जी कहते हैं कि बुरा जो देखन मैं चला तो मुझसे बुरा न कोए।

हम किसी दूसरे को सुधार नहीं सकते.. कोई अच्छा मित्र हो तो एक या दो बार सलाह जरूर दे सकते हैं..पर स्वयं को सुधारने का जिम्मा तो हम पर ही है। यदि अपनी बात करूँ तो मुझमें कुछ बुरी आदते हैं। थोड़ा बहुत जो इस बुद्धि को समझ आया वह यह है कि कभी किसी बात पर चिड़चिड़े न हो। मेरी सबसे बुरी आदत यह है कि जो चीज़ मुझे अच्छी नहीं लगती या कोई मेरे मुताबिक नहीं बोलता या करता तो मैं चिड़चिड़ा हो जाता हूँ। मैं ये मान नहीं पाता कि दूसरा व्यक्ति मुझसे अलग है। आगे गाड़ी धीरे चल रही है.. मुझे परेशानी है... किसी ने रेड लाईट पार कर दी.. मुझे तक़लीफ़ है...छोटा भाई या बहन मेरे कहे अनुसार काम नहीं करता तो मैं चिड़चिड़ा हो जाता हूँ.. उन्हें डाँट देता हूँ.... और भी कईं छोटी छॊटी बातें होती हैं जो हमार खून जलाने का काम करती हैं। उससे किसी का भला नहीं होता बल्कि स्वयं का शरीर ही खराब होता है।

क्रोध मनुष्य का व बुद्धि का शत्रु है। इस वर्ष यही वाक्य को समझ कर आगे बढ़ने का प्रयास करना है। अभी तक धर्म व अध्यात्म ही एक तरीका नज़र आ रहा है जिससे स्वयं में सुधार हो सकता है। हमारे ग्रंथों में गीता-रामचरितमानस में न जाने कितनी ही अनगिनत बातें हैं जो हम उनसे सीख सकते हैं। कोई भी व्यक्ति परफ़ेक्ट नहीं होता। थोड़ी बहुत गुंजाईश हमेशा रहती है, रहेगी। जीवन से सीखना जिसने जारी रखा वही सफ़ल है। जीवन में कुछ करने की इच्छा है। रूका हुआ पानी केवल सड़ता है जबकि बहता पानी स्वयं भी प्रफ़ुल्लित रहता है और उसके राह में आने वाले पेड़-पौधों को भी खुशियाँ देता है। जिस किसी से भी अच्छी बात सीखने को मिले सीख लो। कईं ऐसी बातें पढ़ने को मिल जाती हैं..कुछ मित्र ऐसी बातें कह जाते हैं कि दिल में घर कर जाती हैं..उन सभी का धन्यवाद जिनसे मैंने तिनका भर ही सीखा हो... 

लेखों के जरिये तो यह सफ़र जारी रहेगा ही पर आने वाले वर्ष में जमीनी स्तर पर भी कुछ सामाजिक कार्य करने की इच्छा है।

अगले कुछ माहों में धूप-छाँव पर भी आप धर्म व अध्यात्म से जुड़े कुछ लेख पढ़ सकेंगे। मैं अभी इन सब बातों में बहुत छॊटा हूँ इसलिये त्रुटि की पूरी सम्भावना है।

जैन धर्म में एक दिन होता है जब लोग अपनी गलतियों के लिये क्षमा माँगते हैं। यदि कोई भूल हुई हो या मेरे कारण किसी का भी दिन दुखा हो तो उसके लिये मैं क्षमाप्रार्थी हूँ।

देश व दुनिया में कब परिवर्तन होगा पता नहीं.. सही ..गलत..कुछ नहीं पता... पर स्वयं में अपनी बुद्धि के अनुसार बदलाव की चाह लिये...
स्वयं में, देश में, लोगों में....परिवर्तन के इंतज़ार में.. अगला साल क्या रंग लेकर आयेगा पता नहीं....

घरों में से "गीता-सार" भी न जाने कहाँ खो गया है...

रामचरितमानस के उत्तरकांड की सूक्तियों के साथ लेख समाप्त करता हूँ।


परहित सरस धरम नहीं भाई ।
परपीड़ा सम नहीं अधमाई ॥



परोपकार के समान कोई धर्म नहीं..दूसरों को पीड़ित करने के समान कोई पाप नहीं...





फ़िल्म सफ़र का यह गाना आज गुनगुनाने का मन कर रहा है...




नदिया चले, चले रे धारा,
नदिया चले, चले रे धारा,
चन्दा चले, चले रे तारा
तुझ को चलना होगा,
तुझ को चलना होगा
तुझ को चलना होगा,
तुझ को चलना होगा

जीवन कहीं भी ठहरता नहीं है
जीवन कहीं भी ठहरता नहीं है
आँधी से, तूफ़ान से डरता नहीं है
तू ना चलेगा तो चल देंगी राहें
तू ना चलेगा तो चल देंगी राहें
मंजिल को तरसेंगी तेरी निगाहें
तुझ को चलना होगा
तुझ को चलना होगा
तुझ को चलना होगा
तुझ को चलना होगा
नदिया चले, चले रे धारा,
चन्दा चले, चले रे तारा
तुझ को चलना होगा,
तुझ को चलना होगा
तुझ को चलना होगा,
तुझ को चलना होगा

पार हुआ वो रहा जो सफर में
पार हुआ वो रहा जो सफर में
जो भी रुका, घिर गया वो भंवर में
नाव तो क्या, बह जाए किनारा
नाव तो क्या, बह जाए किनारा
बड़ी ही तेज समय की है धारा
तुझ को चलना होगा
तुझ को चलना होगा
तुझ को चलना होगा
तुझ को चलना होगा
नदिया चले, चले रे धारा,
चन्दा चले, चले रे तारा
तुझ को चलना होगा,
तुझ को चलना होगा
तुझ को चलना होगा,
तुझ को चलना होगा


जय हिन्द
वन्देमातरम

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