Wednesday, February 20, 2008

रंगीन होती भारत की सड़कें

जब आप इस शीर्षक को पढ़ेंगे तो सोचने लगेंगे कि तपन ये किस बारे में लिख रहा है। होली आने में तो अभी करीबन एक महीना है क्योंकि तभी सड़कें रंगों से सराबोर होती हैं तो ये किस बारे में बात कर रहा है?

होली में हम रंग हम पिचकारी से डालते हैं परन्तु यहाँ जो आए दिन सड़कों पर लाल-लाल रंग हम डालते हैं उसका क्या? मुद्दे पर आता हूँ। मैं बात कर रहा हूँ पान तम्बाकू खाने वालों के मुँह से निकलने वाले लाल रंग से रंगे हुए थूक का!!
कभी कोई रिक्शे वाला पान चबाये हुए रिक्शा चलाते चलाते सडक पर थूक देता है और लीजिये जनाब सड़क पर एक दिलचस्प डिज़ाईन तैयार। और कभी कोई व्यक्ति अपनी मस्ती में मगन सड़क किनारे चलते हुए, अपनी बाईं ओर गर्दन करता है और मुँह से पीक निकालता है और फुटपाथ, "थूक बाथ" बन जाता है| अब वो ये नहीं देखता कि पीछे से कोई आ रहा है या नहीं।

वाह!! पूरा सीन नज़रों के सामने तैर गया। अब तो चलते हुए सिर्फ ट्रैफिक का ही नहीं थूक वर्षा का भी ख्याल रखना होता है। ये तो बात हुई रिक्शे चलाने वाले व पैदल चलने वालों की। कहते हैं कि कार खरीदने का मतलब ये नहीं कि अक्ल भी खरीद ली गई। जब कार का शीशा नीचे होता है या ट्रैफिक सिग्नल पर कार का दरवाज़ा खुलता है तो आपने किसी सज्जन को सड़क रंगीन करते ज़रूर देखा होगा।

चाहे किसी भी तबके के लोग हों, चाहें अनपढ़ हों अथवा ऊँचे स्थान पर बैठे पढ़े लिखे मूर्ख लोग, सब के सब एक ही थाली के चट्टे बट्टे हैं। अब मुँह में पान डाला है तो थूकना तो पड़ेगा ही।

ज़रा इन सज्जनों से कहें कि अगर पान खाने का इतना ही शौक है तो अपने घर के फर्श पर क्यों नहीं थूकते? दरअसल हम अपने घर को ही अपना समझते हैं। जब हमारे हक की बात आती है तो हम कभी दिल्ली हमारी है, मुम्बई हमारी है, ऐसे नारे देते हैं और जब अपनी ड्यूटी की बात आती है तो हम पीछा छुड़ाते हैं। कि ये काम सरकार का है। फलाना काम निगम वाले देखेंगे। हम लोग कभी भी अपने देश को,प्रदेश को, शहर को अपना समझते ही नहीं है। वरना किसी भी तरह से गंदा करने की सोचते ही नहीं। सड़कों पर कूड़ पड़ा रहता है। हम अपने घर का निकला कूड़ा घर के बाहर ही डाल देते हैं। चलो घर से तो निकला कम से कम। आगे की ज़िम्मेदारी सरकार की है। हम ये क्यों करें?

पूरे शहर को अगर कैन्वास पर उतारा जाये तो एक ज़बर्दस्त माडर्न आर्ट बन जाये।

हमारी सोच इतनी अविकसित है और हम क्या सोच कर अमरीका, यूरोप से बराबरी करते हैं। अरे अगर बराबरी करनी है तो सफाई में बराबरी करो, वहाँ लोगों की तरह ही कानून के नियमों का पालन करो। हम लोग अमरीका जा कर नहीं थूकेंगे, यहाँ वापस आकर वहाँ की तारीफ करेंगे और फिर यहाँ आकर वही काम करते हैं। हद है बेशर्मी की। अपने हक को माँगने वालों कभी अपने फर्ज़ की तरफ भी ध्यान दो। सरकार और शिक्षकों का ये फर्ज़ बनता है कि बच्चों को डिग्रियाँ बाँटने के अलावा उनको नैतिक शिक्षा भी दें ताकि अगली बार कोई थूकने से पहले हर कोई सोचे कि वो अपने घर पर, व अपनी मातृभूमि पर थूक रहा है जिसे हम हिन्दुस्तानी माँ का दर्जा देते हैं।
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Saturday, February 9, 2008

हँसी मनोरंजन में टूटता भारत

पिछले दिनों मैंने एक लेख लिखा था झूठे, मतलब परस्त - हम भारतीय!! जिसमें मैंने भारतीयों की क्षेत्रवाद व नस्लवाद के प्रति पाक-साफ़ दिखने वाली छवि पर कुछ प्रश्न किये थे। आज थोड़ा और आगे बढ़ते हैं। कुछ ऐसी बातें जो हमारी एकता पर सवाल करती हैं, कुछे ऐसी बातें जिनसे हमारे भारत के शरीर पर पड़ती झुर्रियाँ, मकानों में दरारें व घर-परिवार में दीवार खिचती दिखाई देती है। जिसकी झलक आप खेल में, चुनावों में, यहाँ तक कि टीवी के कार्यक्रमों में भी देख सकते हैं। मैं यहाँ ये साफ़ के देना चाहता हूँ कि कारण और भी हैं परन्तु मैं फिलहाल एक को ही ध्यान में रख कर लिख रहा हूँ।
करीबन १२-१३ साल पहले २ कार्यक्रम शुरू हुए थे। एक था दूरदर्शन पर आने वाला "मेरी आवाज़ सुनो" व ज़ी पर अभी भी धूम मचाने वाला "सा रे ग म" जो आजकल "सारेगमप" के नाम से जाना जाता है। मंशा थी कि जनता में से बेहतरीन आवाज़ें आगे लाना ताकि हमारे देश में संगीत कोने कोने तक फैले और नई प्रतिभाओं को आगे आने का मौका मिल सके। सब बढ़िया तरीके से चल रहा था। कुछ ३-४ वर्ष पूर्व अचानक ही मनोरंजन जगत में इस कार्यक्रम को टक्कर देने के लिये सोनी ने इंडियन आइडल की शुरुआत की। उसी दौरान क्रांति आई और संगीत के ऐसे ही कुछ और कार्यक्रम शुरू हुए। लेकिन बदले हुए अंदाज़ में। इन प्रोग्रामों को "रियालिटी शो" का नाम दिया गया। चूँकि अब नलों से ज्यादा मोबाइल हो गये हैं तो क्यों न लोगों को मैसेज करना भी सिखाया जाये। ये बीडा उठाया समाचार चैनलों ने जो हर रोज़ किये जाने बेतुके सवालों पर पोल करते हैं और लोगों के मैसेज इंबोक्स में ज़ंग लगने से रोकते हैं। कम्पीटीशन इस कदर बढ़ गया कि अब इन शो में जजों के होने या न होने का कोई मतलब नहीं रह गया और लोगों से फोन की सहायता से वोट माँगे जा रहे हैं। हाँ भई, भारत देश में लोकतंत्र जो है।
मजाक में कही जाने वाली एक कहावत है : इस देश में क्रिकेट और राजनीति पर इस विषय में शून्य ज्ञान रखने वाले भी १ घंटे तक बिना रुके बोल सकते हैं। अब इसमें संगीत को भी जोड़ देना चाहिये। अब ज़रा वोट माँगने के तरीके पर गौर फरमायें। मैं राजस्थान के सभी लोगों से अपील करूँगा कि मुझे वोट करें। यहाँ राजस्थान की जगह आप पंजाब, हरियाणा, आँध्र, तमिलनाडु, उप्र, कश्मीर, असम, बंगाल कोई भी राज्य लगा सकते हैं। ये सभी जानते हैं कि इस तरह की वोटिंग से हमारे मन में उस प्रतियोगी के लिये अलग जज़्बात उभरते हैं और हम ये भूल जाते हैं कि हम प्रदेश के लिये नहीं, देश के लिये चुनना होता है। और यहाँ शुरू होता है देश का बिखराव। यहाँ राज्यों के हिसाब से ही नहीं वरन् धर्म और मजहब के आधार पर भी वोटिंग होती है। मैं किसी को ठेस नहीं पहुँचाना चाहता पर २-३ वर्ष पूर्व एक ऐसे ही शो में काज़ी व रूपरेखा के चुने जाने पर बवाल हुआ था। उत्तर पूर्व से एक के बाद एक संचिता, देबोजीत, अनीक,प्रशांत का आगे आना, व तीन क्षेत्रों में पिछड़ने के बाद इशमीत का उत्तर क्षेत्र(जिसमें उनका अपना राज्य पंजाब आता है) में आगे आना, व और भी कईं ऐसे किस्से हुए हैं। मैं इनकी प्रतिभाओं पर संदेह नहीं कर रहा हूँ।हजारों लाखों लोगों में से चुने गये हैं तो कुछ तो दम होगा ही। जिनमें एक खराब परन्तु कईं बार ऐसा हुआ है जब उम्मीदवार केवल इसलिये आगे है क्योंकि उसके क्षेत्र के लोगों ने वोट करे थे। खराब प्रदर्शन भी उस उम्मीदवार को खेल में बनाये रखता है। जिस मकसद से "मेरी आवाज़ सुनो" व "सारेगम" प्रतियोगितायें होतीं थीं वो मकसद अब खत्म होता जा रहा है या यूँ कहें कि वो मकसद ही बदल गया है।
उम्मीदवार खुद फोन व सिम खरीद कर लोगों में बाँटते फिर रहे हैं। फोन कम्पनी करोड़ों कमा रही है। यही हाल चैनलों का है। लोग बावलों की तरह वोट करते हैं।
ये कहाँ का संगीत है? ये किस बात का मनोरंजन है? इसलिये तो इन कार्यक्रमों को शुरू नहीं किया गया था? पैसे की खनक ने पायल और तबले की आवाज़ों को दबा दिया है। रूपये और पैसे की दौड़ में कहीं हम भारत की एकता को तो नहीं बेच रहे हैं? ये बात हमें समझनी चाहिये। चैनल व सरकार दोनों से अनुरोध है कि अगर आप तक मेरी बात पहुँचे तो कृपया जनता के वोटों को बंद कराइये। मैं जानता हूँ चैनल व मोबाइल कम्पनी दोनों को घाटा होगा पर संगीत व भारत की अखंडता के लिये यदि नोटों व वोटों को भुला दें तो यही सभी के लिये हितकारी होगा।
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Tuesday, February 5, 2008

हिंदयुग्म : प्रगति मैदान में हुआ 'पहला सुर' का भव्य विमोचन

हिंद युग्म को आज हिंदी ब्लागों में ज्यादातर पाठक जानते हैं। ये अपने आप में एक अलग व अनूठे प्रोजेक्ट की तरह है जिसका मकसद लोगों में हिंदी के खोये हुए अस्तित्व, मान-सम्मान को वापस लौटाना है। हिंद युग्म की कोशिश रही है कि ज्यादा से ज्यादा लोग हिंदी में लिखें, हिंदी को पढें, हिंदी में बोलें। इसके अलावा भारत अथवा विश्व में जितनी भी प्रतिभायें छुपी हुई हैं, उनको आगे आने का मार्ग भी इसी मंच द्वारा दिया जा रहा है। यहाँ कवि, कहानीकार, संगीतकार, गीतकार, गायक, चित्रकार सभी का समान तरह से स्वागत होता है। इसी के चलते हिंद युग्म ने उससे जुड़े हुए सभी संगीतकार, गीतकार, गायकों के द्वारा गाये हुए गीतों की एक एल्बम निकालने का निर्णय लिया। और अभी रविवार, ३ फरवरी को प्रगति मैदान में इस एलबम का विमोचन (रिलीज़) भी हुआ।
ज्यादा जानकारी हेतु पढें :
http://merekavimitra.blogspot.com/2008/02/blog-post_7922.html

यदि आप दिल्ली में हैं और पुस्तक मेले में जा रहे हैं तो एक बार हिंद-युग्म के इस प्रयास को और सार्थक बनाने हेतु उसके स्टैंड पर अवश्य जायें और इससे जुड़ी सारी पुरानी व भविष्य में होने वाली गतिविधियों के बारे में जानें।
स्टैंड का पता-
हॉल नं॰ १२, स्टैंड नं॰ एस १/१० (वाणी प्रकाशन के स्टॉल के ठीक सामने, एन बी टी के स्टॉल के बगल में)
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