मुझे नहीं पता कि मैं अपने इस लेख की शुरुआत किस तरह से करूँ? दरअसल अभी पिछ्ले दिनों कम्पनी के कुछ लोगों से पता चला कि ४-५ लोग मिलकर बच्चों को खाना खिलाने के लिये अँध महविद्यालय जा रहे हैं। मैंने भी उन लोगों के साथ जाने का मन बना लिया था। दिल में एक अजीब सी जिज्ञासा थी उस दुनिया को देखने की जहाँ कहा जाता है कि लोग मन की आँखों से देखा करते हैं।
मैं निकल पडा़ शनिवार की उस सुबह को जिस का मैं इंतज़ार कर रहा था। अभी सब लोग पहुँचे नहीं थे, हम दो लोग थे ही थे वहाँ पर। इसीलिये सोचा कि बच्चों से मिला जाये, अंदर जा कर देखा जाये कि वे कैसे रहते हैं।
अंदर घुसे तो दो बच्चे मिले जो चहाँ पर दो सहायक कर्मचारियों के साथ खेल रहे थे। हमने उनके नाम पूछे और वहाँ काम करने वालों से ये भी पूछा कि बच्चे कहाँ कहाँ से आते हैं। हमें पता चला कि उस स्कूल में पढ़्ने के लिये बिहार, यूपी, म.प्र. व आसपास के राज्यों से बच्चे आते हैं।
वो जो बच्चे साथ में थे उन्होंने अपने नाम स्वयं ही बता दिये थे-
विशाल
व रंजीत।
विशाल गाजियाबाद से और रंजीत आजाद्पुर, दिल्ली से ही था। दोनों की खूब पटती है। अच्छे दोस्त हैं दोनों। उनकी शरारतों से ही पता चल रहा था कि खूब मस्ती करते होंगे। जब मैं वहाँ जा रहा था तो मेरे मन में उनके लिये बेबस और लाचार जैसी छवि थी, लेकिन यकीन मानिये किस तरह से उन दोनों ने हमारा दिल जीत लिया ये बताना मेरे लिये बहुत कठिन है।
आँख से बिना देखे ही उन्होंने हमें अपने सारे कमरे, कक्षायें दिखाईं। वे उस पूरे इलाके में बहुत तेज़ी से घूम रहे थे, दौड़ लगा रहे थे। किस प्रकार वे हर कमरे, दालान व अन्य चीज़ों की आकृति को समझ लेते हैं वो अपने आप में अद्भुत है। वहाँ के चप्पे चप्पे से वाकिफ़ थे।
अपने आप ही नल से पानी भरते हैं।
सभी कुछ पढा़ करते हैं वे भी-हिन्दी, अंग्रेज़ी, गणित आदि। हमारी ही तरह- बस तरीका विलग है।
ब्रेल लिपी-जी हाँ, यही स्लेट का प्रयोग करते हैं ये जुझारू, जिन्दादिल बच्चे।
यहाँ रखे खाँचों में जिस तरह से इन टुकड़ों को फँसाया जाता है उस पर अंक निर्भर करता है। टुकड़ों कई दिशा, उनका झुकाव ये सब अंक को निर्धारित करता है।
आम बिस्तर...
कमरा, अपनी कहानी खुद कह रहा है...
यहाँ घुसते ही गाना सुनाई दिया- ज़िन्दगी के सफ़र में गुज़र जाते हैं जो मुकाम, वे फिर नहीं आते....
टीवी....
उनके लिये जो हलका देख पाते हों या फिर इसका प्रयोग सुनने के लिये किया जाता है।
अपना गम लेके कहीं और न जाया जाये,
घर में बिखरी हुई चीज़ों को सजाया जाये।
इस बच्चे के मुँह से जब गज़ल के ये बोल सुने तो लगा कि हम लोग कितने कमज़ोर हैं. ज़िन्दगी को जीना हम सीख ही नहीं पा रहे हैं।
थोड़ी देर के बाद ही हमारे बाकि दो साथी भी वहाँ पहुँच गये, और हम लोगों ने खाना शुरू करवाया।
रोटियों की हालत बहुत खराब थी। वे चम्मच से नहीं, हाथ से दाल खाते हैं-मुँह तक पहुँचने से पहले ही दाल गिर सकती है।
भोजन समाप्त हुआ हम फिर नीचे आये। वहाँ वही दो शैतान जिनका जिक्र मैंने शुरू में किया था-विशाल और रंजीत...
और तब सुनाया विशाल ने पूरा गाना- "हट जा ताऊ पाछे ने"..इतना सुरीला मुझे ये कभी नहीं लगा, न ही कभी पूरा सुना था....हम हैरान थे कि उसे पूरा गाना कैसे याद है?
विशाल सोमवार को घर जा रहा है...हमसे पूछ्ता है कि गाज़ियाबाद में उसके बारे में कोई पूछता है क्या?...हमें कोई जवाब नहीं मिल पाता है।
रंजीत १५ मई को जायेगा। मैं सोचता हूँ कि ये छोटे बच्चे दिन/रात की पहचान कैसे कर पाते हैं?
जाने का समय हो रहा था। दोनों हमें दरवाज़े तक छोड़ने आये। उन्हें इससे कोई सारोकार नहीं था कि हम कौन हैं, कहाँ से आये हैं। हम उनके साथ रहे...उनको अच्छा लगा.. हमें और कुछ नहीं चाहिये था।
सोचा था कि सांत्वना देंगे...पर हमें क्या पता था कि उन्हीं से बहुत कुछ सीखने को मिल जायेगा...
वहीं पर ये भी पता चला कि हम जिस महाविद्यालय में गये थे, वो प्राइवेट संस्था चला रही है। बगल में ही सरकारी स्कूल भी है।
तो हमारे कदम उस ओर हो लिये। बहुत ही खराब रास्तों से होते हुए हम पहुँच गये उस स्कूल में...
हालत कुछ इस तरह से थी..
बाकि फ़ोटो मैं खीच नहीं पाया, लेकिन इतना समझ लीजिये कि हालत कुछ अच्छी नहीं कही जा सकती।
दफ़्तर में पंखे लगे हुए थे, कूलर नहीं था। दोनों महाविद्यालयों में बहुत अंतर देखा जा सकता था। हमने उनसे कार्ड माँगा तो प्राइवेट वालों ने अपनी पूरी एक मेगज़ीन ही थमा दी।
सरकारी दफ़्तर से पता चला कि वहाँ कूलर और फ्रिज की जरूरत है...
इस सब के बाद हम वापसी के लिये चल दिये। लेकिन अभी ये निर्णय लेना बाकि था कि बचे हुए पैसों का क्या करना है? रूम कूलर लेते हैं तो वो सरकारी दफ़्तर की शोभा बढा़येगा, फ्रिज लेने जितने न तो पैसे थे और न ही ये यकीन की ये उन ज़रूरतमंद बच्चों तक पहुँच भी पायेगा या नहीं। शायद पानी का कूलर खरीदें, जिससे उनकी ज़रूरत पूरी हो सके... या कुछ और...
जो गज़ल की पंक्तियाँ पहले बच्चे ने गाईं थीं, उस के आगे एक शेर ये भी आता है...
घर से मस्जिद है बहुत दूर चलों यूं कर लें
किसी रोते हुए बच्चे को हँसाया जाये..
शायद हम उसमें कुछ कामयाब हुए...
और हम अपने अपने रास्तों पर वापस चल दिये...
उस अँधेरी दुनिया की एक हलकी सी झलक देखने के बाद, देखने के बाद? जिसे हम महसूस नहीं करते..
वो अँधेरी दुनिया. जिसे उस दुनिया के निवासी नहीं देख सकते...लेकिन हमारी दुनिया को महसूस कर सकते हैं..
अब ये समझ में नहीं आ रहा है कि कमज़ोर हम हैं या वे??
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