Saturday, August 30, 2008

कोसी से कंधमाल तक...कहानी राजनीति की...

जम्मू की आगअभी बुझी भी नहीं थी कि कोसी की बाढ़ और कंधमाल के दंगों ने देश को झकझोर के रख दिया है। जम्मू में हम केंद्र और राज्य सरकार का आतंकवादियों के प्रति नर्म रूख और जम्मू के लिये लापरवाही को देख ही चुके हैं। अब पहले बात करते हैं कोसी की। ये नदी नेपाल में हिमालय से निकलती है और बिहार में भीम नगर के रास्ते से भारत में दाखिल होती है। इसके भौगोलिक स्वरूप को देखें तो पता चलेगा कि पिछले २५० वर्षों में १२० किमी का विस्तार कर चुकी है। हिमालय की ऊँची पहाड़ियों से तरह तरह से कंकड़ पत्थर अपने साथ लाती हुई ये नदी निरंतर अपने क्षेत्र फैलाती जा रही है। उत्तर प्रदेष और बिहार के मैदानी इलाकों को तरती ये नदी पूरा क्षेत्र उपजाऊ बनाती है। ये प्राकृतिक तौर पर ऐसा हो रहा है। इसके मूल व्यवहार से छेड़खानी अपनी मौत को बुलावा देने बराबर है। पर इंसान ने कभी प्राकृति को नहीं समझा है। नेपाल और भारत दोनों ही देशों में इस नदी पर बाँध बनाये जा रहे हैं। परन्तु पर्यावरणविदों की मानें तो ऐसा करना नुकसानदेह हो सकता है। चूँकि इस नदी का बहाव इतना तेज़ है और इसके साथा आते पत्थर बाँध को भी तोड़ सकते हैं इसलिये बाँध की अवधि पर संदेह होना लाज़मी हो जाता है। कुछ साल..बस। कोसी को बिहार का दु:ख क्यों कहा जाता है ये अब किसी से नहीं छुपा है। इस समय जो हालात बिहार में है वे निस्संदेह दुखदायी हैं। हमारी सरकार इस बाबत कोई कदम क्यों नहीं उठाती? क्यों हम प्रकृति से खिलवाड़ करते रहते हैं? नेपाल में बाढ़ आयेगी तो वो कोसी का पानी अपने देश में क्यों रखेगा? इसलिये नेपाल को दोष देने की बजाय हमें अपनी गलतियों को देखना जरूरी है।

हमने बहाँ बाँध बनवाये, और लोगों को लगने लगा कि कोसी अपना पुराना भयावह रूप अब कभी नहीं दिखायेगी। किन्तु ऐसा नहीं है। ये बात उन्हें पता नहीं थी और सरकार ने भी उन्हें आगाह नहीं किया, जिसके फलस्वरूप लोग वहाँ पक्के मकान बनाकर रहने लगे। और बाढ़ आई तो बेघर हो गये। रही सही कसर केंद्र की कांग्रेस सरकार ने तब पूरी कर दी थी जब उसने सरकार बनाते ही वाजपेयी सरकार के उस प्रोजेक्ट पर विराम लगा दिया था जो नदियों को जोड़ने का काम करता। कांग्रेस राजनीति खेल गई और इस प्रोजेक्ट को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। कोसी में बाढ़ आती रही है, और आती रहेगी ये बात समझ लेनी चाहिये और इसके लिये कोई ठोस कदम उठाने की जरूरत है। चाहें नदियों को जोड़ें या लोगों को पक्के घर बनाने से रोकें।


अब चलते हैं उड़ीसा के कंधमाल। यहाँ पानी की नदी नहीं, खून की नदी बह रही है। जैसा कि जम्मू में हो रहा है। राजनीति यहाँ भी खूब खेल खेल रही है। १९९९, ग्राहम स्टेंस की हत्या। राज्य में थी गिरिधर गमांग की कांग्रेसी सरकार। जो मामला नहीं संभाल सकी। इल्जाम लगाया गया केंद्र में बैठी वाजपेयी सरकार पर। गमांग साहब ने तो मुख्यमंत्री पद पर रहते हुए संसद में जाकर वाजपेयी सरकार को गिराने में अहम भूमिका निभाई। ये सभी जानते हैं कि ईसाई मिश्नरियों का एक ही मकसद है। किसी भी तरह से धर्म परिवर्तन करवा कर ईसाई धर्म अपनाने पर मजबूर करना। ये सदियों से ऐसा होता आया है, जब अंग्रेज़ आये थे, तब से। लक्ष्मणानंद नाम का एक विहिप कार्यकर्त्ता जो लोगों को ऐसा करने से रोकता था। कहा जाता है कि नक्सलियों ने मार डाला। आतंकवाद कोई धर्म नहीं देखता। कहीं इस्लामी आतंकवाद है तो कहीं नक्सल, कहीं बोडो, कहीं लिट्टे। हर किसी में अलग अलग धर्म। कंधमाल में नक्सल आतंकवादियों में ९९ फीसदी ईसाई। अब आगे कुछ कहने को नहीं रह जाता। लक्ष्मणानंद की हत्या हुई। हिन्दू कट्टरपंथियों को ये रास नहीं आया। हिंसा भड़क उठी। राज्य सरकार ने केंद्र से फोर्स माँगी, केंद्र ने मना कर दिया। जब स्थिति बदतर हुई तब केंद्र सरकार जागी। तब पोप भी जागे। ईसाई कांवेंट स्कूल बंद करवाये गये। कांग्रेस सरकार कहती है कि राज्य सरकार से स्थिति नहीं सम्भाली जा रही है। उड़ीसा में धर्म परिवर्तन के खिलाफ कानून है। यही कानून मध्य प्रदेश में भी है। राजस्थान में बन जाता यदि कांग्रेस सामर्थित उस समय की गवर्नर प्रतिभा पाटिल ने दस्तखत कर दिये होते। कांग्रेस सबसे पुरानी राजनैतिक पार्टी है, इसलिये राजनीति के खेल में माहिर है।


कुछ नहीं बदलेगा...न कंधमाल..न जम्मू..न श्रीनगर...इन विवादों का कोई अंत नहीं है...
धर्म समाप्त हो जाये, ऐसा मुमकिन नहीं...राजनीति चाणक्य काल के भी पहले से है (महाभारत से पहले से), वो भी समाप्त नहीं होगी..धर्म से राजनीति...वो भी नहीं...
खत्म होगा तो ये देश...खत्म होंगे तो हम..



नोट: कंधमाल की उपरोक्त जानकारी निम्न लिंक से प्राप्त हुई है।
http://indiagatenews.com/india-news/bjp-could-not-digest-naxalite-theory-of-murder.php/
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Sunday, August 17, 2008

वंदेमातरम को राष्ट्र्गीत का दर्जा : कितना सही?

आनन्द मठ : बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय द्वारा रचित यही वह बांग्ला उपन्यास है जिसका एक गीत राष्ट्रगीत बन गया। लेकिन इसके राष्ट्रगीत बनने के बाद से अब तक यह विवादों से घिरा रहा है। वैसे हमारे देश में कोई भी ऐसी घटना या व्यक्ति नहीं जिस पर विवाद न हुआ हो। चाहें मोहनदास करमचंद गाँधी हों या "जन गण मन"। हमारा इतिहास ही ऐसा रहा है। आज भी बदस्तूर जारी है। वैसे आज बात करेंगे वंदेमातरम की। अगस्त में ही ये उपन्यास पढ़ना शुरू किया और जैसे जैसे पढ़ता गया वैसे वैसे सोचता रहा कि आखिर मुस्लिम समुदाय इससे नाराज़ क्यों है? जब सरकार इसको स्कूलों में गाने को कहती है तो चारों ओर से आवाज़ें क्यों उठती हैं? इंटेरनेट पर काफी खोजबीन की तो कुछ बातें पता चली। आगे हम आनन्दमठ के कुछ आंश भी पढ़ते रहेंगे।

आइये जानने की कोशिश करते हैं इसके कुछ शुरुआती अंशों से:

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समुद्र आलोड़ित हुआ, तब उत्तर मिला-तुमने बाजी क्या रखी है?
प्र्त्युत्तर मिला,मैंने ज़िन्दगी बाजी पर चढ़ाई है।
उत्तर मिला, जीवन तुच्छ है,सब कुछ होमना होगा।
और है ही क्या? और क्या दूँ?
तब उत्तर मिला, भक्ति।

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यह उपन्यास १८८२ में प्रकाशित हुआ, किन्तु वंदेमातरम १८७५ में लिखा जा चुका था। ये कहानी है संन्यासी विद्रोह की जो १७६५-७० के बीच प्रकाश में आया। आइये जानते हैं इसकी पृष्ठभूमि को। १७५७ में सिराजुद्दोला नाम का नवाब बंगाल पर राज करता था। यही वो समय भी था जब अंग्रेज़, ईस्ट इंडिया कम्पनी) के नाम से कलकत्ता के रास्ते भारत में घुसना चाहते थे। नवाब अंग्रेज़ को खिलाफ था और उनके खिलाफ लोगों को एकत्रित करता था। परन्तु किसी हिन्दू को ऊँचा दर्जा दिये जाने के विरोध में मीर जाफर नाम के एक दरबारी ने नवाब के खिलाफ बगावत कर दी। उसी साल पलासी का युद्ध हुआ। मीर जाफर अंग्रेज़ों से जा मिला और सिराज को बंगाल छोड़ना पड़ा। आगे कुछ सालों तक मीर जाफर और उसका जमाई मीर कासिम बंगाल में नवाब बन कर रहे। ये वो समय था जब नवाब अंग्रेज़ों की कठपुतलियाँ बन कर रहते थे। राज नवाब का, पैसा अंग्रेज़ों का। अंग्रेज़ ही लोगों से कर लिया करते थे। एक तरह से उन्हीं का ही कब्जा हो गया था। उसी का नतीजा था संन्यासी विद्रोह। कहते हैं कि १८५७ पहली क्रांति थी अंग्रेज़ों के खिलाफ पर लगता है कि उससे पहले भी कईं क्रांतियाँ संन्यासी विद्रोह के रूप में कलकत्ता ने देखी हैं।

संन्यासी समूह उन लोगों का समूह था जो इकट्ठे हुए थे अंग्रेज़ों के खिलाफ। सब कुछ छोड़ कर भारत माँ को आज़ाद कराने में जान की बाजी लगा रहे थे। १७६५ के आसपास ही बंगाल में सूखा पड़ा और वहाँ लाखों की तादाद में मौतें हुईं। जनता में आक्रोश फूट पड़ा था। और वो आक्रोश था नवाबों पर। ’नजाफी’ हुकूमत के खिलाफ।

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वन्दे मातरम्
सुजलां सुफलां मलयजशीतलाम्
शस्यश्यामलां मातरम् |

महेंद्र गीत सुनकर विस्मित हुए। उन्होंने पूछा- माता कौन?

उत्तर दिये बिना भवानंद गाते रहे:

शुभ्र ज्योत्स्ना पुलकित यामिनीम्
फुल्ल कुसुमित द्रुमदलशोभिनीम्,
सुहासिनीं सुमधुर भाषिणीम्
सुखदां वरदां मातरम् ||

महेंद्र बोले-ये तो देश है, माँ नहीं।
भवानंद ने कहा, हम लोग दूसरे किसी माँ को नहीं मानते, जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी। हम कहते हैं, जन्मभूमि ही हमारी माता है। हमारी न कोई माँ है, न बाप, न भाई, न बन्धु, न पत्नी, न पुत्र, न घर, न द्वार- हमारे लिये केवल सुजलां सुफलां मलयजशीतलाम् शस्यश्यामलां ....

महेंद्र ने पूछा-तुम लोग कौन हो?
भवानन्द ने कहा-हम संतान हैं।
किसकी संतान।
भवानन्द बोले-माँ की संतान।
.....
.....
.....
देखो, जो साँप होता है, रेंगकर चलता है, उससे नीच जीव मुझे कोई नहीं दिखाई पड़ता। पर उसके भी कंधे पर पैर रख दो तो वह भी फ्न उठाकर खड़ा हो जाता है। देखो, जितने देश हैं, मगध, मिथिला,काशी, कांची, दिल्ली, कश्मीर किस शहर में ऐसी दुर्दशा है कि मनुष्य भूखों मर रहा है और घास खा रहा है, जंगली काँटे खा रहा है. दीमक की मिट्टी खा रहा है, जंगली लतायें खा रहा है! किस देश में आदमी सियार, कुत्ते और मुर्दा खाते हैं?.... बहू-बेटियों की खैरियत नहीं है...राजा के साथ सम्बंध तो यह है कि रक्षा करे, पर हमारे मुसलमान राजा रक्षा कहाँ कर रहे हैं? इन नशेबाज़ मुसट्टों को निकाल बाहर न किया जाये तो हिन्दू की हिन्दुआई नहीं रह सकती।

महेंद्र ने पूछा, बाहर कैसे करोगे?
-मारकर

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शायद यह वाक्य हमारे मुस्लिम समुदाय को अच्छे नहीं लगे। हो सकता है। किन्तु ये वाक्य कब और किस परिस्थिति में कहे गये ये जानने की जरूरत भी तो है। इस बारे में मैं कुछ नहीं कहूँगा। आगे के कुछ पन्नों में भारत माँ को देवी का दर्जा दिया गया है। इस्लाम में मूर्ति पूजा की खिलाफत है। और इस्लाम में केवल खुदा ही पूजा जाता है। इसी उपन्यास में मुसलमानों के घर जलाने की बात भी कही गई है। शायद यह बात भी वंदेमातरम के खिलाफ जा रही है।

अब जानते हैं कि संतान दल में किस प्रकार से प्रतिज्ञा ली जाती है-

तुम दीक्षित होना चाह्ते हो?
हाँ, हम पर कृपा कीजिये।
तुम लोग ईश्वर के समक्ष प्रतिज्ञा करो। क्या सन्तान धर्म के नियमों का पालन करोगे?
हाँ।
भाई-बहन?
परित्याग करूँगा।
पत्नी और पुत्र?
परित्याग करूँगा।
रिश्तेदार, दास-दासी त्याग करोगे?
सब कुछ त्याग करूँगा।
धन, सम्पत्ति, भोग, सब त्याग दोगे?
त्याग करूँगा।
जितेंद्रिये बनोगे और कभी स्त्रियों के साथ आसन पर नहीं बैठोगे?
नहीं बैठूँगा, जितेंद्रिये बनूँगा।
रिश्तेदारों के लिये धन नहीं कमाऒगे, उसे वैष्ण्वों के धनागार में दे दोगे?
दे दूँगा।
कभी युद्ध में पीठ नहीं दिखाऒगे?
नहीं।
यदि प्रतिज्ञा भंग हुई तो?
तो जलती चिता में प्रवेश करके या कहर खा कर प्राण दे दूँगा।
तुम लोग जात-पात छोड़ सकोगे? सब समान जाति के हैं, इस महाव्रत में ब्राह्मण-शूद्र में कोई फर्क नहीं।
हम जात-पात नहीं मानेंगे। हम सब एक ही माँ के संतान हैं।
तब सत्यानंद ने कहा, तथास्तु, अब तुम वंदेमातरम गाओ।


इसमें संन्यासी/संतान व्रत की कर्त्तव्यनिष्ठा और समर्पण का पता चलता है कि किस प्रकार जन्मभूमि पर ये वीर सेना अपने प्राणन्योछावर करने को तत्पर थी।
बंकिमचंद्र के इस उपन्यास में कुछ हद तक मुसलमानों (नजाफी हुकूमत) और काफी हद तक अंग्रेज़ों दोनों के खिलाफ कहा गया है। उन्होंने ये सब १८वीं सदी की घटनाओं को ध्यान में रख कर किया, किन्तु चाह केवल इतनी कि मातृभूमि को कोई आँच न आये।

यही गीत आगे चल कर एक क्रांतिकारी गीत बन गया। जब १८९५ में पहली बार इसका संगीत दिया गया तब बंकिमचंद्र (१८३८-१८९४) इस दुनिया में नहीं थे। हर तरफ वंदेमातरम की ही गूँज सुनाई दी जाने लगी। अंग्रेज़ों ने इस उपन्यास पर प्रतिबंध तक लगा दिया। १९३७ में टैगोर ने इस गीत का विरोध भी किया क्योंकि उनका मानना था कि मुसलमान "१० हाथ वाली देवियों" की पूजा नहीं करेंगे। १९५० में राजेंद्र प्रसाद ने इसे राष्ट्रगीत का दर्जा दिया। इस गीत के केवल पहले दो छंद ही गाये जाने की बात कही जाने लगी क्योंकि आगे की पंक्तियों में भारत को ’दुर्गा’ तुल्य माना गया। हालाँकि मुस्लिम बिरादरी में इस गीत को कुछ लोगों ने अपनाया भी है। और सिख व ईसाइ समुदाय भी इसको मान रहा है। इस उपन्यास की क्रांतिकारी विचारधारा ने सामाजिक व राजनीतिक चेतना को जागृत करने का काम किया।

मैंने अपनी तरफ से पूरी कोशिश करी है कि मैं वंदेमातरम पर हो रहे विवाद और आनन्दमठ (संन्यासी विद्रोह) की कहानी को आप तक पहुँचा पाऊँ। अब मैं पाठकों पर छोड़ता हूँ कि वे (१८वी सदी के घटनाक्रम को ध्यान में रखकर) सच्ची देशभक्ति व समर्पण अथवा त्याग के प्रतीक इस गीत को राष्ट्रगीत मानें या नहीं।

सुजलां सुफलां मलयजशीतलाम
शस्यश्यामलां मातरम्......।
शुभ्र ज्योत्सना-पुलकित यामिनीम्
फुल्लकुसुमित द्रुमदलशोभिनीम्
सुहासिनीं सुमधुरभाषिणीम्
सुखदां, वरदां मातरम्।।
वन्दे मातरम्.....
सप्तकोटिकण्ठ-कलकल निनादकराले,
द्विसप्तकोटि भुजैधर्ृत खरकरवाले,
अबला केनो मां तुमि एतो बले!
बहुबलधारिणीम् नमामि तारिणीम्
रिपुदलवारिणीम् मातरम्॥ वन्दे....
तुमी विद्या, तुमी धर्म,
तुमी हरि, तुमी कर्म,
त्वं हि प्राण : शरीरे।
बाहुते तुमी मां शक्ति,
हृदये तुमी मां भक्ति,
तोमारई प्रतिमा गड़ी मन्दिरे-मन्दिरे।
त्वं हि दुर्गा दशप्रहरण धारिणीं,
कमला कमल-दल-विहारिणीं,
वाणी विद्यादायिनीं नमामि त्वं
नमामि कमलां, अमलां, अतुलाम,
सुजलां, सुफलां, मातरम्
वन्दे मातरम्॥
श्यामलां, सरलां, सुस्मितां, भूषिताम्
धरणी, भरणी मातरम्॥
वन्दे मातरम्..

जय हिन्द।

यहाँ भी देखें:
http://en.wikipedia.org/wiki/Vande_Maataram
http://en.wikipedia.org/wiki/Anandamatha
http://en.wikipedia.org/wiki/Sannyasi_Rebellion
http://en.wikipedia.org/wiki/Nawab_of_Bengal
http://en.wikipedia.org/wiki/Bankimchandra_Chattopadhyay
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Wednesday, August 13, 2008

स्वतंत्रता दिवस पर उठते सवाल

देश में हड़तालें हैं,
चक्का जाम हैं,
सड़कें बंद हैं,
रेल बंद है,
बसें फूँकी जाती हैं..
टायर जलायें जाते हैं
पुतले फूँके जाते हैं
सबसे बड़ा लोकतंत्र है...
ये देश स्वतंत्र है..

स्कूल में गोली चलती है
बच्चे आत्महत्या करते हैं
एम.एम.एस बनते हैं,
ये देश के भविष्य हैं(?)
स्कूल कालेज की
दुकान लगती है,
सरेआम विद्या बिकती है
सबसे बड़ा लोकतंत्र है...
ये देश स्वतंत्र है...

कानून तोड़े जाते हैं
दुकानें जलाई जाती हैं
दंगे-फसाद आम हैं
आतंकवाद है,
हर राज्य में वाद-विवाद है
६१ सालों का आरक्षण खास है
सब निकालते भडास हैं
सबसे बड़ा लोकतंत्र है...
ये देश स्वतंत्र है...

इज्जत पर परमाणु करार है
नोटों पर बनती सरकार है
आतंकवादियों पर रूख नरम है
देश तोड़ना भाषा का करम है
राज ठाकरे का ’राज’ है
ये नेताओं के हाल हैं
ये कैसा तंत्र है (?)
’नोट’ या ’वोट’ तंत्र है
सबसे बड़ा लोकतंत्र है...
ये देश स्वतंत्र है...

३० प्रतिशत अशिक्षित हैं
खाना खिलाने वाला किसान
मजबूर है
बिना छत के मजदूर हैं
पीने को पानी नहीं
नदियों के पानी पर लडाई है
एकता की होती बड़ाई है
६१ सालों में बुराइयाँ
जस की तस हैं
ढीठ देश आज भी
बेबस है,
कमजोर है
जाने देश किस ओर है
सबसे बड़ा लोकतंत्र है!!!
ये देश स्वतंत्र है???
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Saturday, August 9, 2008

क्यों जल रहा है जम्मू?

जम्मू जल रहा है। वहाँ बंद है, आगजनी है, कर्फ्यू तोड़े जा रहे हैं।




हालात बेकाबू हैं। लोग कहते हैं कि ४० दिनों से जम्मू में हालात खराब हैं। पर ये कहानी ४० दिनों की नहीं है। इसके लिये हमें ६० वर्षों के इतिहास को खंगालना होगा।
वो हर घटना की चिंगारी पर गौर करना होगा जो परिणाम स्वरूप ज्वाला बन कर उभरी है। वो हर जख्म का कारण ढूँढना होगा। आइये समझने की कोशिश करें जम्मू की इस जलन को।



जम्मू और कश्मीर शुरू से ही दो अलग मजहबों का एक राज्य रहा है। ये एक ऐसा राज्य है जहाँ मुस्लिम हिंदुओं से ज्यादा तादाद में हैं। अगर जम्मू की बात करें तो यहाँ ६७% हिंदू हैं और कश्मीर में ९५ फीसदी मुस्लिम। ये जगजाहिर है कि कश्मीर घाटी में हमेशा से ही पाकिस्तान समर्थक और भारत विरोधी नारे लगते रहे हैं व गतिविधियाँ होती रही हैं। यहाँ पाकिस्तान के झंडे भी लहराये जाते हैं। लेकिन कभी इन पर रोक नहीं लगी। बीते ६० सालों से किसी भी सरकार ने इसे समझने की कोशिश नहीं करी। हर किसी के लिये ये चुनाव का मुद्दा रहा। हर कोई अपनी रोटियाँ सेंकता रहा। पर जम्मू की दिक्कत फिलहाल ये नहीं, ये तो देश की सरकार को देखना है कि किस तरह से देशद्रोहियों से निपटा जाये। घाटी में जो देशद्रोह फैला हुआ है उसका मूल कारण क्या है...

ये गौरतलब है कि माता वैष्णों देवी श्राइन बोर्ड की ओर से करोड़ों रूपया सरकार के खाते में जाता है। बोर्ड जब भी कहीं जमीन लेता है तो उसका किराया सरकार को जमा करवाता है। बोर्ड ने तीर्थ यात्रियों की सुविधाऒं के लिये अनेकानेक कार्य करे हैं। ये सब सुविधायें तभी हो पाईं जब बोर्ड का गठन हुआ। ये भी बात है कि जम्मू के लोग घाटी के लोगों से ज्यादा कर अदा करते हैं। केंद्र और राज्य सरकार वहीं से ज्यादा पैसा खाती हैं। इतना ही नहीं नौकरी के एक ही पद के लिये श्रीनगर के लोगों को ज्यादा वेतन दिया जाता है और सरकारी नौकरियाँ भी ज्यादा होती हैं। घाटी के किसान को ज्यादा सब्सिडी मिलती है और जम्मू के किसान को कम। यही भेदभाव प्राकृतिक आपदाओं में मुआवज़ा देते हुए भी किया जाता रहा है। आज के समय के युवा नेताओं पर नजर डाली जाये तो फारूख अब्दुल्ला के बेटे उमर अब्दुल्ला व महबूबा मुफ्ती के अलावा आपको वहाँ और कोई याद नहीं आयेगा। क्या ये केवल इत्तफाक है कि ये दोनों श्रीनगर का प्रतिनिधित्व करते हैं? आपमें से बहुत कम लोग जम्मू के किसी प्रसिद्ध नेता का नाम जानते होंगे। इसका कारण क्या है? हम कश्मीर की समस्या को सुलझाते रहे हैं पर कभी जम्मू की समस्या पर हमारा ध्यान नहीं गया। क्या ये सालों पुराना राजनेताओं के द्वारा किया गया भेदभाव है या ये अंजाने में हो रहा है?

अब रूख़ करते हैं उस घटना का जिसने वर्षों के इस शीत-युद्ध को सतह पर लाने का काम किया। २६ मई २००८ को केंद्र व राज्य सरकारें ये निर्णय लेती हैं कि अमरनाथ श्राइन बोर्ड को १०० एकड़ की जमीन दी जाये। इस जमीन पर हिंदू तीर्थ यात्रियों के लिये अस्थाई तौर पर रहने की व अन्य सुविधायें दिये जाने की बात होने लगी। मुस्लिम बहुल व कश्मीर घाटी के इलाकों में इस निर्णय के बाद हिंसा फ़ैल गई व उन्होंने खुले तौर पर इसका विरोध किया। इस विरोध में वहाँ के युवा नेताओं ने भी पूरा साथ दिया। ये सरकार को अच्छी तरह से मालूम था कि चुनाव में यही इलाका इनकी मदद करेगा। तब घाटी के मुस्लिम नेताओं के दबाव में आकर सरकार ने अपना फैसला वापस ले लिया। ये वो कदम था जिसने आज की परिस्थिति को जन्म दिया।




जम्मू के लोग जो ज्यादातर हिंदू हैं ये बात पचा नहीं पाये। जो जमीन उनकी सुविधा के लिये थी उसे मना कैसे कर दिया। फिर चाहें हिन्दू हों अथवा वहाँ का प्रतिनिधित्व करने वाले मुसलमान दोनों ही की तरफ़ से सरकार के जमीन वापसी के फ़ैसले का विरोध होना शुरू हुआ। ये अब से ४० दिन पहले की बात है। लेकिन मीडिया में इसका जिक्र अभी ८-१० दिन पहले ही आना शुरू हुआ। क्योंकि इससे पहले केंद्र सरकार खुद को बचाने में लगी हुई थी कि इसकी तरफ़ किसी का ध्यान ही नहीं गया। देश २०२० तक ६% बिजली देने वाले परमाणु करार और सरकार में ही उलझा रह गया और वहाँ स्थिति बद से बदतर होती चली गई। जिक्र तब आना शुरू हुआ जब हुर्रियत कांफ़्रेंस के नेता यासिन मलिक भूख हड्ताल पर जाते हैं....वो बंदा जो पाकिस्तान समर्थक है उसका इंटर्व्यू चैनलों पर दिखाया जाता है। जो नहीं जानते उनके लिये बताना चाहूँगा कि हुर्रियत का मतलब है "आज़ादी"। और ये पार्टी पाकिस्तान की २६ पार्टियों के समर्थन से घाटी में काम करती है। जिक्र तब शुरू हुआ जब श्रीनगर को खाना-पीना, पेट्रोल, डीज़ल मिलना जम्मू की ओर से बंद हो गया। हाइवे बंद कर दिये गये और ट्रकों को वहीं पर रोक दिया गया। उससे पहले स्थिति का जायज़ा नहीं लिया गया। प्रधानमंत्री जी महज औपचारिकता के नाते इतने समय के बाद सभी पार्टियों की मीटिंग बुलाते हैं पर अभी तक कोई फैसला इस मुद्दे पर नहीं लिया गया है।

क्या कारण है कि घाटी इस जमीन का विरोध कर रही है? क्या वे नहीं चाहते कि वैष्णों देवी श्राइन बोर्ड की तरह ही अमरनाथ श्राइन बोर्ड तरक्की के लिये काम करे? क्या कारण रहा कि जो फैसला राज्य की कांग्रेस सरकार व केंद्र की कांग्रेस सरकार ने मिल कर किया वे उसी पर कायम न रह पाये? क्या कारण है कि जो माँगे घाटी के लोगों की सरलता से मानी जाती हैं वो जम्मू के क्षेत्र की नहीं सुनी जाती? देखना ये है कि केंद्र जो "नोटों" के सहारे टिका हुआ है अपने वोटबैंक यानि कश्मीर घाटी का साथ देता है या नहीं? क्या इस बार जम्मू को उसका हक़ मिलेगा या फिर वोटों की भेंट चढ़ जायेगा? जम्मू की पुरानी कुंठा इस कदर फूटेगी शायद ये सरकारों को अंदाज़ा नहीं था... पर शायद ये जरूरी था..(??)

--९ अगस्त
सर्वदलीय दल जो रवाना हुआ है जमीन विवाद सुलझाने के लिये उसमें सैफुद्दीन सोज़, फारूख अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती शामिल हैं। तीनों श्रीनगर से हैं... जम्मू से कौन शामिल हुआ है? मेरा सवाल है केंद्र से कि जम्मू का एक भी प्रतिनिधि बैठक में ले जाने की जहमत क्यों नहीं उठाई गई? कौन बतायेगा जम्मू का नजरिया?
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