आनन्द मठ : बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय द्वारा रचित यही वह बांग्ला उपन्यास है जिसका एक गीत राष्ट्रगीत बन गया। लेकिन इसके राष्ट्रगीत बनने के बाद से अब तक यह विवादों से घिरा रहा है। वैसे हमारे देश में कोई भी ऐसी घटना या व्यक्ति नहीं जिस पर विवाद न हुआ हो। चाहें मोहनदास करमचंद गाँधी हों या "जन गण मन"। हमारा इतिहास ही ऐसा रहा है। आज भी बदस्तूर जारी है। वैसे आज बात करेंगे वंदेमातरम की। अगस्त में ही ये उपन्यास पढ़ना शुरू किया और जैसे जैसे पढ़ता गया वैसे वैसे सोचता रहा कि आखिर मुस्लिम समुदाय इससे नाराज़ क्यों है? जब सरकार इसको स्कूलों में गाने को कहती है तो चारों ओर से आवाज़ें क्यों उठती हैं? इंटेरनेट पर काफी खोजबीन की तो कुछ बातें पता चली। आगे हम आनन्दमठ के कुछ आंश भी पढ़ते रहेंगे।
आइये जानने की कोशिश करते हैं इसके कुछ शुरुआती अंशों से:
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समुद्र आलोड़ित हुआ, तब उत्तर मिला-तुमने बाजी क्या रखी है?
प्र्त्युत्तर मिला,मैंने ज़िन्दगी बाजी पर चढ़ाई है।
उत्तर मिला, जीवन तुच्छ है,सब कुछ होमना होगा।
और है ही क्या? और क्या दूँ?
तब उत्तर मिला, भक्ति।
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यह उपन्यास १८८२ में प्रकाशित हुआ, किन्तु वंदेमातरम १८७५ में लिखा जा चुका था। ये कहानी है संन्यासी विद्रोह की जो १७६५-७० के बीच प्रकाश में आया। आइये जानते हैं इसकी पृष्ठभूमि को। १७५७ में सिराजुद्दोला नाम का नवाब बंगाल पर राज करता था। यही वो समय भी था जब अंग्रेज़, ईस्ट इंडिया कम्पनी) के नाम से कलकत्ता के रास्ते भारत में घुसना चाहते थे। नवाब अंग्रेज़ को खिलाफ था और उनके खिलाफ लोगों को एकत्रित करता था। परन्तु किसी हिन्दू को ऊँचा दर्जा दिये जाने के विरोध में मीर जाफर नाम के एक दरबारी ने नवाब के खिलाफ बगावत कर दी। उसी साल पलासी का युद्ध हुआ। मीर जाफर अंग्रेज़ों से जा मिला और सिराज को बंगाल छोड़ना पड़ा। आगे कुछ सालों तक मीर जाफर और उसका जमाई मीर कासिम बंगाल में नवाब बन कर रहे। ये वो समय था जब नवाब अंग्रेज़ों की कठपुतलियाँ बन कर रहते थे। राज नवाब का, पैसा अंग्रेज़ों का। अंग्रेज़ ही लोगों से कर लिया करते थे। एक तरह से उन्हीं का ही कब्जा हो गया था। उसी का नतीजा था संन्यासी विद्रोह। कहते हैं कि १८५७ पहली क्रांति थी अंग्रेज़ों के खिलाफ पर लगता है कि उससे पहले भी कईं क्रांतियाँ संन्यासी विद्रोह के रूप में कलकत्ता ने देखी हैं।
संन्यासी समूह उन लोगों का समूह था जो इकट्ठे हुए थे अंग्रेज़ों के खिलाफ। सब कुछ छोड़ कर भारत माँ को आज़ाद कराने में जान की बाजी लगा रहे थे। १७६५ के आसपास ही बंगाल में सूखा पड़ा और वहाँ लाखों की तादाद में मौतें हुईं। जनता में आक्रोश फूट पड़ा था। और वो आक्रोश था नवाबों पर। ’नजाफी’ हुकूमत के खिलाफ।
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वन्दे मातरम्
सुजलां सुफलां मलयजशीतलाम्
शस्यश्यामलां मातरम् |
महेंद्र गीत सुनकर विस्मित हुए। उन्होंने पूछा- माता कौन?
उत्तर दिये बिना भवानंद गाते रहे:
शुभ्र ज्योत्स्ना पुलकित यामिनीम्
फुल्ल कुसुमित द्रुमदलशोभिनीम्,
सुहासिनीं सुमधुर भाषिणीम्
सुखदां वरदां मातरम् ||
महेंद्र बोले-ये तो देश है, माँ नहीं।
भवानंद ने कहा, हम लोग दूसरे किसी माँ को नहीं मानते, जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी। हम कहते हैं, जन्मभूमि ही हमारी माता है। हमारी न कोई माँ है, न बाप, न भाई, न बन्धु, न पत्नी, न पुत्र, न घर, न द्वार- हमारे लिये केवल सुजलां सुफलां मलयजशीतलाम् शस्यश्यामलां ....
महेंद्र ने पूछा-तुम लोग कौन हो?
भवानन्द ने कहा-हम संतान हैं।
किसकी संतान।
भवानन्द बोले-माँ की संतान।
.....
.....
.....
देखो, जो साँप होता है, रेंगकर चलता है, उससे नीच जीव मुझे कोई नहीं दिखाई पड़ता। पर उसके भी कंधे पर पैर रख दो तो वह भी फ्न उठाकर खड़ा हो जाता है। देखो, जितने देश हैं, मगध, मिथिला,काशी, कांची, दिल्ली, कश्मीर किस शहर में ऐसी दुर्दशा है कि मनुष्य भूखों मर रहा है और घास खा रहा है, जंगली काँटे खा रहा है. दीमक की मिट्टी खा रहा है, जंगली लतायें खा रहा है! किस देश में आदमी सियार, कुत्ते और मुर्दा खाते हैं?.... बहू-बेटियों की खैरियत नहीं है...राजा के साथ सम्बंध तो यह है कि रक्षा करे, पर हमारे मुसलमान राजा रक्षा कहाँ कर रहे हैं? इन नशेबाज़ मुसट्टों को निकाल बाहर न किया जाये तो हिन्दू की हिन्दुआई नहीं रह सकती।
महेंद्र ने पूछा, बाहर कैसे करोगे?
-मारकर
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शायद यह वाक्य हमारे मुस्लिम समुदाय को अच्छे नहीं लगे। हो सकता है। किन्तु ये वाक्य कब और किस परिस्थिति में कहे गये ये जानने की जरूरत भी तो है। इस बारे में मैं कुछ नहीं कहूँगा। आगे के कुछ पन्नों में भारत माँ को देवी का दर्जा दिया गया है। इस्लाम में मूर्ति पूजा की खिलाफत है। और इस्लाम में केवल खुदा ही पूजा जाता है। इसी उपन्यास में मुसलमानों के घर जलाने की बात भी कही गई है। शायद यह बात भी वंदेमातरम के खिलाफ जा रही है।
अब जानते हैं कि संतान दल में किस प्रकार से प्रतिज्ञा ली जाती है-
तुम दीक्षित होना चाह्ते हो?
हाँ, हम पर कृपा कीजिये।
तुम लोग ईश्वर के समक्ष प्रतिज्ञा करो। क्या सन्तान धर्म के नियमों का पालन करोगे?
हाँ।
भाई-बहन?
परित्याग करूँगा।
पत्नी और पुत्र?
परित्याग करूँगा।
रिश्तेदार, दास-दासी त्याग करोगे?
सब कुछ त्याग करूँगा।
धन, सम्पत्ति, भोग, सब त्याग दोगे?
त्याग करूँगा।
जितेंद्रिये बनोगे और कभी स्त्रियों के साथ आसन पर नहीं बैठोगे?
नहीं बैठूँगा, जितेंद्रिये बनूँगा।
रिश्तेदारों के लिये धन नहीं कमाऒगे, उसे वैष्ण्वों के धनागार में दे दोगे?
दे दूँगा।
कभी युद्ध में पीठ नहीं दिखाऒगे?
नहीं।
यदि प्रतिज्ञा भंग हुई तो?
तो जलती चिता में प्रवेश करके या कहर खा कर प्राण दे दूँगा।
तुम लोग जात-पात छोड़ सकोगे? सब समान जाति के हैं, इस महाव्रत में ब्राह्मण-शूद्र में कोई फर्क नहीं।
हम जात-पात नहीं मानेंगे। हम सब एक ही माँ के संतान हैं।
तब सत्यानंद ने कहा, तथास्तु, अब तुम वंदेमातरम गाओ।
इसमें संन्यासी/संतान व्रत की कर्त्तव्यनिष्ठा और समर्पण का पता चलता है कि किस प्रकार जन्मभूमि पर ये वीर सेना अपने प्राणन्योछावर करने को तत्पर थी।
बंकिमचंद्र के इस उपन्यास में कुछ हद तक मुसलमानों (नजाफी हुकूमत) और काफी हद तक अंग्रेज़ों दोनों के खिलाफ कहा गया है। उन्होंने ये सब १८वीं सदी की घटनाओं को ध्यान में रख कर किया, किन्तु चाह केवल इतनी कि मातृभूमि को कोई आँच न आये।
यही गीत आगे चल कर एक क्रांतिकारी गीत बन गया। जब १८९५ में पहली बार इसका संगीत दिया गया तब बंकिमचंद्र (१८३८-१८९४) इस दुनिया में नहीं थे। हर तरफ वंदेमातरम की ही गूँज सुनाई दी जाने लगी। अंग्रेज़ों ने इस उपन्यास पर प्रतिबंध तक लगा दिया। १९३७ में टैगोर ने इस गीत का विरोध भी किया क्योंकि उनका मानना था कि मुसलमान "१० हाथ वाली देवियों" की पूजा नहीं करेंगे। १९५० में राजेंद्र प्रसाद ने इसे राष्ट्रगीत का दर्जा दिया। इस गीत के केवल पहले दो छंद ही गाये जाने की बात कही जाने लगी क्योंकि आगे की पंक्तियों में भारत को ’दुर्गा’ तुल्य माना गया। हालाँकि मुस्लिम बिरादरी में इस गीत को कुछ लोगों ने अपनाया भी है। और सिख व ईसाइ समुदाय भी इसको मान रहा है। इस उपन्यास की क्रांतिकारी विचारधारा ने सामाजिक व राजनीतिक चेतना को जागृत करने का काम किया।
मैंने अपनी तरफ से पूरी कोशिश करी है कि मैं वंदेमातरम पर हो रहे विवाद और आनन्दमठ (संन्यासी विद्रोह) की कहानी को आप तक पहुँचा पाऊँ। अब मैं पाठकों पर छोड़ता हूँ कि वे (१८वी सदी के घटनाक्रम को ध्यान में रखकर) सच्ची देशभक्ति व समर्पण अथवा त्याग के प्रतीक इस गीत को राष्ट्रगीत मानें या नहीं।
सुजलां सुफलां मलयजशीतलाम
शस्यश्यामलां मातरम्......।
शुभ्र ज्योत्सना-पुलकित यामिनीम्
फुल्लकुसुमित द्रुमदलशोभिनीम्
सुहासिनीं सुमधुरभाषिणीम्
सुखदां, वरदां मातरम्।।
वन्दे मातरम्.....
सप्तकोटिकण्ठ-कलकल निनादकराले,
द्विसप्तकोटि भुजैधर्ृत खरकरवाले,
अबला केनो मां तुमि एतो बले!
बहुबलधारिणीम् नमामि तारिणीम्
रिपुदलवारिणीम् मातरम्॥ वन्दे....
तुमी विद्या, तुमी धर्म,
तुमी हरि, तुमी कर्म,
त्वं हि प्राण : शरीरे।
बाहुते तुमी मां शक्ति,
हृदये तुमी मां भक्ति,
तोमारई प्रतिमा गड़ी मन्दिरे-मन्दिरे।
त्वं हि दुर्गा दशप्रहरण धारिणीं,
कमला कमल-दल-विहारिणीं,
वाणी विद्यादायिनीं नमामि त्वं
नमामि कमलां, अमलां, अतुलाम,
सुजलां, सुफलां, मातरम्
वन्दे मातरम्॥
श्यामलां, सरलां, सुस्मितां, भूषिताम्
धरणी, भरणी मातरम्॥
वन्दे मातरम्..
जय हिन्द।
यहाँ भी देखें:
http://en.wikipedia.org/wiki/Vande_Maataram
http://en.wikipedia.org/wiki/Anandamatha
http://en.wikipedia.org/wiki/Sannyasi_Rebellion
http://en.wikipedia.org/wiki/Nawab_of_Bengal
http://en.wikipedia.org/wiki/Bankimchandra_Chattopadhyay
13 comments:
मां तुझे सलाम ! वन्दे मातरम !!
वंदे मातरम
अब लोगो का क्या कहें? लोगो को तो बाल की खाल निकलने और सीधी बात का बतंगड़ बनाने में हे आनंद आता है.........माना उपन्यास में यह कहा गया हो की "मुस्लिमो को खदेड़ बाहर करो" (यह उस समय के संधर्भ में सही भी था, जब उपन्यास लिखा गया था. भारत मुगलों और नवाबो के हाथो बिका हुआ था).......परन्तु फ़िर भी, इस बात का 'वन्दे मातरम' गान में तो कहीं पर भी ज़िक्र नही है?? तो क्या सिर्फ़ उसी उपन्यास में यह गान लिखे जाने के कारन यह गान भी अपवित्र हो गया??
तर्क दिया जाता है की बुतपरस्ती मना है.....मना तो काफी कुछ है, सब कुछ माना जाता है क्या? लोग वक्त और समय के हिसाब से ख़ुद को बदल लेते है.......और सिर्फ़ गाने में सांकेतिक रूप से ज़िक्र करने पर ही बुत परस्ती हो जाती है क्या?? ऐसा तो नही है की किसी को ज़बरदस्ती पकड़ कर किसी भगवान के बुत के सामने खड़ा कर दिया जाता है, और कहा जाता है की अपनी मर्ज़ी के विरुद्ध तूम इसकी पूजा करो?? सिर्फ़ एक गाना गा लेने मात्र से धर्म भ्रष्ट हो जाता है क्या?? कई पार्श्वगायक एक दूसरे के धर्मो के महिमा और इश्वर/खुदा पर गाने गाते है, क्या उन सबका धर्म भ्रष्ट हो गया??
जो लोग समझदार होते है, वो ऐसे छोटी छोटी बेकार के बातों में दिमाग नही लगाते है, पर कुछ विद्वान अवश्य होते है, जिन्हें बाल की खाल निकालने और विवाद खड़ा करने में बड़ा मज़ा आता है.......भले ही देश की आस्था पर सवालिया निशान उठा लो, पर हम तो करेंगे ही जो हमारे कुंद मस्तिष्क में सूझता है!
वंदे मातरम!!
वन्दे मातरम ...
वन्दे मातरम ...
वन्दे मातरम ...
मेरा किसी की भावनाओं को आहात करने का कोई आशय नही है, पर पता नही मुझे कभी ऐसा क्यों लगता है की हम भारतीय हर बात को विवाद में क्यों बदल देते है. क्या इतना महत्वपूर्ण है, वन्देमातरम को राष्ट्रीय गीत का दर्जा दिलाना? क्यों हम 'सिम्बोलिक' चीज़ों पे बहस करते रहते है? चाहे वोः 'राम मन्दिर' हो या फ़िर 'राष्ट्र गीत'. क्या शान्ति से रहना या फ़िर सारे विवाद भूलकर सांप्रदायिक सदभाव मे रहना ज्यादा जरूरी नही. क्या जरूरी है की लाखों लोग मारे जाए. क्या जरूरी है करोडो की सम्पति बर्बाद की जाए. विवाद करने के लिए हमारे पास 'विकास' या फ़िर अच्छे विषयों की कमी है? क्या इस गरीब देश के पास क्या वैसे ही परेशानियों की कमी है?
जब हम एक घर में रहते है क्या हमारे भाई लोग गलती नहीं करते? क्या हमारे माता पिता ने कभी गलतियां नही की, लेकिन इसका मतलब ये तो नही की घर मे उन विषयों पे विवाद किया जाए जो काफ़ी पहले हो चुकी है, या भविष्य देखा जाए अपने घर का? शान्ति और सोहार्द में रहा जाए.
जो भारतियों का हमेशा से प्रतीक रहा है 'वसुधैव कुटुम्बकम' उसे हम भूल गए है. कोई बाहर का नही है. हमारी संस्कृति हर एक को समाहित कर लेती है. क्या बाहिरी है क्या भीतरी? सबसे जरूरी है की वर्तनाम मे जिया जाए. भूतकाल को भुला दिया जाए अगर हम चाहते है हमारा देश प्रगति करे.
आज एक १०० हेक्टेयर की जमीन के लिए जो कश्मीर मे हो गया है.. हमने अपनी कई सालों की मेहनत बर्बाद कर दी है. हमारे हजारों सैनिकों की शहादत बेकार जा चुकी है. अभी तक सिर्फ़ कश्मीरी उग्रवादी हमारे खिलाफ थे, पर अब पुरी कश्मीरी जनता सडको पे आ चुकी है हमारे खिलाफ. क्या इतना जरूरी था इस मुद्दे को उठाना और पुरे देश में इसके लिए आन्दोलन करना. क्या हम इसे बात-चीत से हल नही कर सकते थे?
हिन्दी ब्लॉगों की बढती संख्याँ और उसके गुणात्मक विस्तार को देखकर बड़ी खुशी होती है. बड़ी महत्वपूर्ण जानकारियाँ सहज ही उपलब्ध हो जाती हैं. लोगों से जुड़ने का इससे बढिया जरिया और क्या सम्भव है. हिन्दीवालों को एक दूसरे के बारे में कमेंट्स देने में रुचि दिखानी चाहिये. इससे औरों को आपस में जुड़े रहने का अहसास बढेगा. और रही बात 'ऐसे' प्रश्नों का तो सचमुच लगता है कि तमाम कोशिशों के उलझने और बढ रही हैं. समय के साथ साम्प्रदायिक चश्में का रंग और गाढा होता जान पड़ता है. ज्ञानवर्धक लेख के लिये शुक्रिया(पता नहीं, धन्यवाद कहने से आप कहीं अधिक प्रसन्न हों!).
हिन्दी ब्लॉगों की बढती संख्याँ और उसके गुणात्मक विस्तार को देखकर बड़ी खुशी होती है. बड़ी महत्वपूर्ण जानकारियाँ सहज ही उपलब्ध हो जाती हैं. लोगों से जुड़ने का इससे बढिया जरिया और क्या सम्भव है. हिन्दीवालों को एक दूसरे के बारे में कमेंट्स देने में रुचि दिखानी चाहिये. इससे औरों को आपस में जुड़े रहने का अहसास बढेगा. और रही बात 'ऐसे' प्रश्नों का तो सचमुच लगता है कि तमाम कोशिशों के उलझने और बढ रही हैं. समय के साथ साम्प्रदायिक चश्में का रंग और गाढा होता जान पड़ता है. ज्ञानवर्धक लेख के लिये शुक्रिया(पता नहीं, धन्यवाद कहने से आप कहीं अधिक प्रसन्न हों!).
aaela .. kya research mari hai yaar.. good bhai ... thoda bahut padha.. fast fast.. per accha laga... koi to soch raha hai .... sochna bahut badi baat hoti hai
hmmm... agree with charu.. kyoun phaltu mai hum log vivad kerte rahte hain.... kya pharak padega agar hum Miljul ker koi naya geet bana lain.. jisme kisi ko koi pareshani na ho ....
sub log milker usko gayen... sab khus rahain....
we should avoid the problemetic things....
वैसे तो मैं किसी एक जगह दुबारा टिपण्णी करना पसंद नही करता, परन्तु फ़िर भी इस जगह दुबारा आना पड़ रहा है......मुझे कुछ लोगो के 'शांतिवादी' टिप्पणियों पे एतराज़ है......मैं कोई हिंसा समर्थक नही हूँ, लेकिन मुझे लगता है लोग अंहिंसा और कायरता की बीच में अन्तर को भूलते जा रहे है......
मैं भी सभी चीजे बात चीत से सुलझाने के समर्थन में हूँ. लडाई झगडे में कुछ नही रखा है......परन्तु लोगो को यह भी समझना चाहिए, की जहाँ पर देश की संप्रुभता का सवाल हो, वहा पर zero tolerance का attitude होना चाहिए.........देश सबसे ऊपर होता है, क्षेत्र, जाति और धर्म से भी ऊपर.........दूसरो के दबाव में देश के सम्मान के साथ खिलवाड़ करना 'शान्ति' नही, 'कायरता' है.........विवाद राष्ट्र गीत बन ने के बाद शुरू हुआ है, पहले नही........तो इसका बोहत अच्छा समाधान यह है की गाना बदल दिया जाए......क्या रखा है फालतू के विवाद में?? कल को भारत का नाम भी पसंद नही आए, तो नाम भी बदल देंगे, क्या रखा है विवाद में?? अभी तो कुछ लोगो को भारत का झंडा भी पसंद नही आ रहा है, और उन लोगो ने भारत के झंडे को १५ अगस्त के दिन ही खुले आम चौराहे पे बदल दिया.........यह मनगढ़ंत बात नही है, कृपया प्रमाण के लिए लिंक देखें......
http://timesofindia.indiatimes.com/JK_Tricolour_at_8am_separatist_flags_at_4pm/articleshow/3369371.cms#
क्या रखा है विवादों में पड़ कर? एक कपड़े झंडा ही तो है??!
सुनने में कटु लगेगा, पर आप जिस सुरक्षित वातावरण में बैठ कर 'शान्ति' के उपदेश देते है, वह शान्ति मुफ्त में नही आती........वह शान्ति तब आती है, जब एक २२ साल का सिपाही, रात-दिन, ठण्ड, धुप, बरसात की परवाह किए बिना सीमा पर चौकसी करता है.......गोलियों और तोपों की गोला बारी २४ घंटे सुनता है, ताकि आप शान्ति से शास्त्रीय संगीत का आनंद उठा सके, महीनो घर से दूर रहता है, ताकि आप शान्ति से राखी का त्यौहार मना सकें......२३ वा जन्मदिन देखने के पहले, देश के लिए शहीद हो जाता है, ताकि आप अपने घरो में चैन की नींद सो सके...........ज़रा उस सिपाही के परिवार से पूछिए, की शान्ति की असली परिभाषा क्या होती है??
वन्दे मातरम!!
धन्यवाद नीतेश,
आपने बहुत सरलता से बात कह दी..
सच में शांति और कायरता में अंतर होता है...
"जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गदपी गरीयसी" हमारी मातृभूमि, कोई मिट्टी का ढेर नहीं, वह जड़ या अचेतन नहीं,इस भूमि को हम माता के रूप में देखते हैं, अत: 'वन्दे मातरम्' कहने में हमें गर्व का अनुभव होता है।'वन्दे-मातरम्' मातृभूमि की वन्दना है और माँ की वन्दना किसी भी धर्म में अपराध नहीं है। हमारे पुरखे जब आजादी के लिये संघर्ष कर रहे थे तो 'वन्दे-मातरम्' ही उनका नारा था। हमें गर्व है - कई मुसलमानों ने इसे गाया और मेरे देश को आजादी दिलायी। यह गीत हमें हमेशा इन शहीदों की याद दिलाता है। मुझे गर्व है 'वन्दे-मातरम्' पर और हम इसका सहर्ष गायन करेंगे।
वन्दे मातरम ...!
वन्दे मातरम ...!!
वन्दे मातरम ...!!!
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