Tuesday, April 12, 2011

रुद्राष्टक का हिन्दी अनुवाद: रामनवमी विशेष Rudrashtak Translated In Hindi Ram Navmi Special

आप सभी पाठकों को राम  नवमी की शुभकामनायें। आज  राम नवमी है तो मैंने सोचा कि क्यों न आज के इस पावन दिवस पर रूद्र की आरती रुद्राष्टकम का हिन्दी अनुवाद प्रकाशित किया जाये। पहले भी मैंने कईं बार रुद्राष्टक के हिन्दी अनुवाद को इंटरनेट पर ढूँढा पर कामयाब नहीं हो पाया। तो इस बार मैंने रामचरितमानस से अक्षरश: प्रकाशित करने का सोचा।

मेरी समझ से जब तुलसीदास जी (1532-1623) रामचरितमानस गा रहे थे (क्योंकि रामचरितमानस  एक काव्य है) उस युग में कबीरदास (1440-1518) भी अपनी भक्ति के लिये विख्यात हुए। दोनों ही संत अपने काल के महान संत थे किन्तु दोनों की भक्ति अलग थी। तुलसीदास जी जहाँ साकार श्रीराम के भक्त थे तो वहीं कबीरदास जी निराकारस्वरूप ईश्वर की उपासना करते थे। साकार व निराकार का द्वंद्व इस पृथ्वी पर प्रारम्भ से ही रहा होगा। और आगे भी रहेगा। इसी द्वंद्व को ध्यान में रखते हुए तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में जगह जगह साकार व निराकार ईश्वर का ध्यान किया है।

रुद्राष्टक स्तोत्र रामचरितमानस के अंतिम काण्ड उत्तरकाण्ड में आता है। शिव की स्तुति करते हुए तुलसीदास जी ने ईश्वर का जो व्याख्यान किया है उससे साकार व निराकार का वो द्वंद्व समाप्त करने का प्रयास किया है व हम जैसे मूढ़ भी आसानी से उस परम पिता परमेश्वर का ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं।

तो प्रस्तुत है रुद्राष्टकमस्तोत्रम:

नमामीशमीशान निर्वाणरूपं विभुं व्यापकं ब्रह्मवेदस्वरूपम् |
निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं चिदाकाशमाकाशवासं भजेङहम् ||१||

अनुवाद:
हे मोक्षस्वरूप, विभु, ब्रह्म और वेदस्वरूप, ईशान दिशा के ईश्वर व सबके  स्वामी श्री शिव जी! मैं आपको नमस्कार करता हूँ। निजस्वरूप में स्थित (अर्थात माया आदि से रहित), गुणों से रहित, भेद रहित, इच्छा रहित, चेतन आकाशरूप एवं आकाश को ही वस्त्र रूप में धारण करने वाले दिगम्बर आपको भजता हूँ।

निराकारमोंकारमूलं तुरीयं गिराज्ञानगोतीतमीशं गिरीशम् |
करालं महाकालकालं कृपालं गुणागारसंसारपारं नतोङहम् ||२||

अनुवाद:
निराकार, ओंकार के मूल, तुरीय (तीनों गुणों से अतीत), वाणी, ज्ञान व इंद्रियों से परे, कैलासपति, विकराल, महाकाल के भी काल, कृपालु, गुणों के धाम, संसार के परे आप परमेश्वर को मैं नमस्कार करता हूँ।

तुषाराद्रिसंकाशगौरं गभीरं मनोभूतकोटि प्रभाश्रीशरीरम् |
स्फुरन्मौलिकल्लोलिनी चारुगंगा लसदभालबालेन्दुकण्ठे भुजंगा ||३||

अनुवाद:
जो हिमाचल समान गौरवर्ण व गम्भीर हैं, जिनके शरीर में करोड़ों कामदेवों की ज्योति एवं शोभा है,जिनके सर पर सुंदर नदी गंगा जी विराजमान हैं, जिनके ललाट पर द्वितीय का चंद्रमा और  गले में सर्प सुशोभित है।

चलत्कुण्डलं भ्रुसुनेत्रं विशालं प्रसन्नाननं नीलकण्ठं दयालम् |
मृगाधीशचर्माम्बरं मुण्डमालं प्रियं शंकरं सर्वनाथं भजामि ||४||

अनुवाद:
जिनके कानों में कुण्डल हिल रहे हैं, सुंदर भृकुटि व विशाल नेत्र हैं, जो प्रसन्नमुख, नीलकंठ व दयालु हैं, सिंहचर्म धारण किये व मुंडमाल पहने हैं, उनके सबके प्यारे, उन सब के नाथ श्री शंकर को मैं भजता हूँ।

प्रचण्डं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं अखण्डं अजं भानुकोटिप्रकाशम् |
त्रयः शूलनिर्मूलनं शूलपाणिं भजेङहं भावानीपतिं भावगम्यम् ||५||

अनुवाद:
प्रचण्ड (रुद्र रूप), श्रेष्ठ, तेजस्वी, परमेश्वर, अखण्ड, अजन्मा, करोड़ों सूर्यों के समान प्रकाश वाले, तीनों प्रकार के शूलों (दु:खों) को निर्मूल करने वाले, हाथ में त्रिशूल धारण किये, प्रेम के द्वारा प्राप्त होने वाले भवानी के पति श्री शंकर को मैं भजता हूँ। 

कलातिकल्याण कल्पान्तकारी सदा सज्जनान्ददाता पुरारी |
चिदानंदसंदोह मोहापहारी प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारी ||६||

अनुवाद:
कलाओं से परे, कल्याणस्वरूप, कल्प का अंत(प्रलय)  करने वाले, सज्जनों को सदा आनन्द देने वाले, त्रिपुर के शत्रु  सच्चिनानंदमन, मोह को हरने वाले, प्रसन्न हों, प्रसन्न हों।

न यावद उमानाथपादारविन्दं भजन्तीह लोके परे वा नराणाम् |
न तावत्सुखं शान्ति संतापनाशं प्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवासम् ||७||

अनुवाद:
हे पार्वती के पति, जबतक मनुष्य आपके चरण कमलों को नहीं भजते, तब तक उन्हें न तो इसलोक में न परलोक में सुख शान्ति मिलती है और न ही तापों का नाश होता है। अत: हे समस्त जीवों के अंदर (हृदय में) निवास करने वाले प्रभो, प्रसन्न होइये।

न जानामि योगं जपं नैव पूजां नतोङहं सदा सर्वदा शम्भुतुभ्यम् |
जरजन्मदुःखौ घतातप्यमानं प्रभो पाहि आपन्नमामीश शम्भो ||८||

अनुवाद:
मैं न तो जप जानता हूँ, न तप और न ही पूजा। हे प्रभो, मैं तो सदा सर्वदा आपको ही नमन करता हूँ। हे प्रभो, बुढ़ापा व जन्म [मृत्यु] दु:खों से जलाये हुए मुझ दुखी की दुखों से रक्षा करें। हे ईश्वर, मैं आपको नमस्कार करता हूँ।

रुद्राष्टकमिदं प्रोक्तं विपेण हरतुष्टये |
ये पठन्ति नरा भक्त्या तेषां शम्भुः प्रसीदति ||

भगवान रुद्र का यह अष्टक उन शंकर जी की स्तुति के लिये है। जो मनुष्य इसे प्रेमस्वरूप पढ़ते हैं, श्रीशंकर उन से प्रसन्न होते हैं।

मेरा  धार्मिक/आध्यात्मिक  ज्ञान आप पाठकों से कम है इसलिये यदि त्रुटि हुई तो कृपया अवश्य बतायें।

12 comments:

अवनीश एस तिवारी said...

बहुत सुन्दर !

अवनीश तिवारी

Rajeeta said...

too good :)

maansingh deora said...

shresht

Unknown said...

Shrasti ki utptti kaise hui

Unknown said...

EXLLENT

Unknown said...

Inblivebal.......

barf main wo din said...

tisari line main himanchal ki jagah himalya hona chahiye


bahut bariya

thanks

jeewan joshi

Unknown said...

Jai Maa Om Namah SHIVAYE....
JMONS....
बहुत बहुत धन्यवाद..
Vinay Sharma

Unknown said...

शिव शिव

Unknown said...

कलातीकल्याण के जगह पर कलातीतकल्याण कर दें ।

Unknown said...

Bahu sunder

Unknown said...

अति उत्तम आदरणीय
जय श्री महाकाल 🙏