प्रश्न ये उत्पन्न हो रहा है कि जिस देश में सभी के नाम के साथ ही जाति जुड़ जाती हो उस देश में यदि इन शहीदों व महापुरुषों की जातियों का उल्लेख हुआ भी हो तो लोगों को क्यों परेशानी होती है? "पंडित जवाहरलाल नेहरू इस देश के प्रथम प्रधानमंत्री थे"। ये "ब्रह्म"वाक्य बच्चे के दिल और दिमाग पर तब छा जाता है जब उसको ठीक से लिखना भी नहीं आता। तो नेहरू एक कश्मीरी पंडित थे। इस वाक्य में परोक्ष रूप से उनकी जाति छिपी है। कोई इन मीडिया वालों को समझाओ भई। अम्बेडकर के जन्मदिवस पर देश छुट्टी मनाता है, नेता दलितों की कॉलोनियों में जाते हैं। क्या फिर भी कोई ये कहेगा कि अम्बेडकर की जाति नहीं पता!! सोचने वाली बात यह है कि यदि अम्बेडकर दलित न होते तो भी क्या स्कूलों व दफ़्तरों में अवकाश होता?
ये सब छोड़िये। जहाँ लोग गाड़ियों के पीछे "जाट का छोरा" व "गुज्जर मेल" जैसे शब्द लिख कर अपनी जाति स्वयं बताते हों और गर्व महसूस करते हों तो उस देश में यदि शहीदों की जाति को किसी पुस्तक व साईट पर लिख भी दिया तो क्या गुनाह किया? जब लोग खुद को अनुसूचित जाति व जनजाति में शामिल करवाने के लिये रेल की पटरियों पर सो जाते हैं, वाहनों में आग लगा देते हैं, रास्ते बंद कर देते हैं तो फिर अम्बेडकर, भगत सिंह की जाति पता चल जाने पर कौन सा पहाड़ टूट जायेगा?
हाँ, एक बात जो कॉंग्रेस के मुख पत्र "संदेश" में कही गई कि सुखदेव सॉंडर्स की "हत्या" में शामिल थे। ये बात थोड़ी खटकती है। ऐसा लगता है कि इस पार्टी के मुताबिक केवल "गाँधीवादी" ही देशभक्त व शहीद थे। अन्य स्वतंत्रता सेनानी महज हत्यारे व क़ातिल थे। इस बात को मुद्दा बनाया जा सकता था। खैर इस देश में मुद्दों की कमी नहीं है। हर रोज़ हर पल नया मुद्दा। मीडिया वालों को चौबीसों घंटे काम जो चाहिये। तो ये एक और मुद्दा उठाकर क्या लाभ!
जाते जाते - जाति इस देश से कभी नहीं जायेगी ये एक सत्य है। जाति हमारी पहचान है। आप इंजीनियरिंग की प्रवेश परीक्षा में दाखिले का पर्चा भरेंगे तो उसमें भी आपको अपनी "केटेगरी" बतानी पड़ेगी। अनुसूचित जाति/जनजाति के हैं तो बल्ले बल्ले। पास हों या फ़ेल, बाबू के बेटे हों व चाहें आप को आरक्षण की जरूरत हो या न हो, आपका दाखिला पक्का। जहाँ घर्म के आधार पर कॉलेजों में दाखिला होता हो वहाँ जाति तो छोटी रह जाती है। किसी ने सच ही कहा है- जाति कभी नहीं जाती। गाँठ बाँध लें, यही जाति आपके काम आने वाली है।
।वंदेमातरम।
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