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Saturday, December 31, 2011

नव वर्ष २०१२ का आगमन - अलविदा २०११ New Year Poetry Welcome 2012 -- New Year Special

कुछ खड़े कर के सवाल
कुछ यादों को समेट
देते हुए थोड़े संदेश
जा रहा है बीता वर्ष

कहीं है आँसू,
कहीं है हर्ष

याद आयेंगे हमें
पटौदी के नवाब,
हज़ारिका लाजवाब
शम्मी कपूर "राजकुमार"
देव आनन्द सदाबहार...
ग़ज़ल जीत, 
जगजीत...
भीमसेन की मधुर तान
याद रखेगा हिन्दुस्तान

साल भर विश्व ने
देखी कईं क्रांतियाँ..
अमरीका में बजा
विरोध का बिगुल
मिस्र-लीबिया-पाकिस्तान
जनता ने ढहाये किले
खत्म हुए कईं हुक्मुरान...

एक क्रान्ति ऐसी ही
भारत में भी छाई है
अन्ना की आँधी ने
दिल में आस जगाई है..
उम्मीद की किरण धूमिल
है जरूर
पर जनचेतना हो ऐसी
कि टूटे नेताओं का गुरूर
भ्रष्टाचार और काले धन पर
अन्ना और रामदेव ने
नेताओं को है घेरा...
मंत्रियों ने ढँका हुआ है
मुखौटे से अपना चेहरा...


रोडरेज के किस्से भी
हो रहें आम हैं..
ऐसा लगता है मानों
झगड़ना ही हमारा काम है
गुस्से को क्यों हम लोग
चलते हैं नाक पर रख कर
"कर्त्तव्यों" पर ध्यान नहीं..
वो रहता है केवल "हक़" पर..

वर्तमान से सीख कल को बुनें
आओ समाज एक नया चुनें
जहाँ परोपकार की आशा हो
प्रेम की बोलें भाषा हो..
न द्वेष हो न ईर्ष्या
और न ही अहंकार
न बदले की भावना से
मचा हुआ हो हाहाकार...
रोजाना
एक शुभ काम करें,
किसी दुखी के चेहरे पर
खिलखिलाती मुस्कान भरें....
लोकपाल का बिल सदन में,
चाहें न पास हो...
एक लोकपाल का हर दिल में
होता फिर भी वास हो...

ये युग हमारा है,
ये समाज हमारा है
वो कल हमारा था
ये आज हमारा है...
समाज के उत्थान से ही
व्यक्ति का उत्थान है
हम बनाते आज है
हम बनाते समाज हैं

आओ फिर एक समाज बुनें
वर्तमान से सीख कल को बुनें
आओ समाज एक नया चुनें


आइये आप और मैं एक प्रण करें। किसी रोते हुए बच्चे को हँसायें.. किसी बुजुर्ग का सहारा बनें...तभी स्वस्थ समाज की स्थापना हो पायेगी और फिर किसी लोकपाल की आवश्यकता नहीं पड़ेगी।
बचपन में किताबों के आरम्भ में "गाँधी जी का जन्तर" आता था। हम कोई भी कार्य करें तो बस यही सोचें कि क्या किसी के चेहरे पर इससे मुस्कान आयेगी? क्या यह कार्य उस व्यक्ति के लिये लाभदायक होगा जो तुमने अब तक का सबसे दुखी चेहरा देखा हो?


********************************************************************
थोड़ा हँस लें...

कुछ घटनाओं पर यदि गाने बजाये जायें तो क्या होंगे..मसलन...

कांग्रेस-भाजपा के रिश्तों पर: 
--कल भी, आज भी, आज भी, कल भी.. कुछ रिश्तें नहीं हैं बदलते कभी...

सोनिया जी जैसे ही कांग्रेस की मीटिंग में आती हैं सभी खड़े हो जाते हैं : 
--"तुम्हीं हो माता, पिता तुम्हीं हो.. तुम्हीं हो...."

साल 2011 और अन्ना:
--"बन्दे में था दम.. वन्देमातरम.."

आडवाणी जी "कुर्सी" के बारे में सोचते हुए:
--"तेरा पीछा न.. मैं छोड़ूँगा सोणिये..भेज दे चाहें...."

राहुल बाबा सुबह सुबह घर से निकलते हुए:
--"नन्हा मुन्ना राही हूँ.. देश का सिपाही हूँ..."

ममता दीदी को प्रणब दादा कैसे मनाते होंगे?:
--"कोई हसीना जब रूठ जाती है तो....और भी..."

जनता के थूकने, रोडरेज, भ्रष्टाचार, दुराचार आदि के आचरण पर.. यानि हम पर:
--"हम तो भई जैसे हैं, वैसे रहेंगे...."


नववर्ष 2012 आपके एवं आपके समस्त परिवार के लिये शुभकारी हो।
सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे संतु निरामया:


जय हिन्द
वन्देमातरम


आज से तीन वर्ष पूर्व मैंने यह लिखा था 
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Sunday, December 25, 2011

अटल बिहारी वाजपेयी जी की पाँच बेहतरीन कवितायें...आओ मन की गाँठें खोलें....Atal Bihari Vajpayee Birthday

पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी का आज जन्मदिन है। आज उनकी कवितायें पढ़ने का मन किया...।
उनकी कविताओं में उनका अनुभव झलकता है। राजनीति से कभी बेचैन दिखाई पड़ते हैं तो कभी आज के हालात पर दुखी। जीवन और मृत्यु का संघर्ष दिखाई देता है तो मौत से ठन जाने की बातें करते हैं। अदम्य साहस... ऊँचाई एकाकी होती है....

"आओ मन की गाँठें खोलें" से वे प्रेम से रहने और मन मुटाव दूर करने की सीख दे जाते हैं..शायद इसीलिये वे राजनीति में भी अपने प्रतिद्वंदियों के चहेते बने रहे...

1. आओ फिर से दिया जलाएँ

आओ फिर से दिया जलाएँ
भरी दुपहरी में अंधियारा
सूरज परछाई से हारा
अंतरतम का नेह निचोड़ें-
बुझी हुई बाती सुलगाएँ।
आओ फिर से दिया जलाएँ

हम पड़ाव को समझे मंज़िल
लक्ष्य हुआ आंखों से ओझल
वतर्मान के मोहजाल में-
आने वाला कल न भुलाएँ।
आओ फिर से दिया जलाएँ।

आहुति बाकी यज्ञ अधूरा
अपनों के विघ्नों ने घेरा
अंतिम जय का वज़्र बनाने-
नव दधीचि हड्डियां गलाएँ।
आओ फिर से दिया जलाएँ


2. ऊँचाई

 ऊँचे पहाड़ पर,
पेड़ नहीं लगते,

पौधे नहीं उगते,
न घास ही जमती है।

जमती है सिर्फ बर्फ,
जो, कफ़न की तरह सफ़ेद और,
मौत की तरह ठंडी होती है।
खेलती, खिलखिलाती नदी,
जिसका रूप धारण कर,
अपने भाग्य पर बूंद-बूंद रोती है।

ऐसी ऊँचाई,
जिसका परस
पानी को पत्थर कर दे,
ऐसी ऊँचाई
जिसका दरस हीन भाव भर दे,
अभिनंदन की अधिकारी है,
आरोहियों के लिये आमंत्रण है,
उस पर झंडे गाड़े जा सकते हैं,


किन्तु कोई गौरैया,
वहाँ नीड़ नहीं बना सकती,
ना कोई थका-मांदा बटोही,
उसकी छाँव में पलभर पलक ही झपका सकता है।

सच्चाई यह है कि
केवल ऊँचाई ही काफ़ी नहीं होती,
सबसे अलग-थलग,
परिवेश से पृथक,
अपनों से कटा-बँटा,
शून्य में अकेला खड़ा होना,
पहाड़ की महानता नहीं,
मजबूरी है।
ऊँचाई और गहराई में
आकाश-पाताल की दूरी है।

जो जितना ऊँचा,
उतना एकाकी होता है,
हर भार को स्वयं ढोता है,
चेहरे पर मुस्कानें चिपका,
मन ही मन रोता है।

ज़रूरी यह है कि
ऊँचाई के साथ विस्तार भी हो,
जिससे मनुष्य,
ठूँठ सा खड़ा न रहे,
औरों से घुले-मिले,
किसी को साथ ले,
किसी के संग चले।

भीड़ में खो जाना,
यादों में डूब जाना,
स्वयं को भूल जाना,
अस्तित्व को अर्थ,
जीवन को सुगंध देता है।

धरती को बौनों की नहीं,
ऊँचे कद के इंसानों की जरूरत है।
इतने ऊँचे कि आसमान छू लें,
नये नक्षत्रों में प्रतिभा की बीज बो लें,

किन्तु इतने ऊँचे भी नहीं,
कि पाँव तले दूब ही न जमे,
कोई काँटा न चुभे,
कोई कली न खिले।


न वसंत हो, न पतझड़,
हो सिर्फ ऊँचाई का अंधड़,
मात्र अकेलेपन का सन्नाटा।


मेरे प्रभु!
मुझे इतनी ऊँचाई कभी मत देना,
ग़ैरों को गले न लगा सकूँ,
इतनी रुखाई कभी मत देना।


3. कौरव कौन, कौन पांडव


कौरव कौन
कौन पांडव,
टेढ़ा सवाल है|
दोनों ओर शकुनि
का फैला
कूटजाल है|
धर्मराज ने छोड़ी नहीं
जुए की लत है|
हर पंचायत में
पांचाली
अपमानित है|
बिना कृष्ण के
आज
महाभारत होना है,
कोई राजा बने,
रंक को तो रोना है|



4. मौत से ठन गई।

ठन गई!
मौत से ठन गई!

जूझने का मेरा इरादा न था,
मोड़ पर मिलेंगे इसका वादा न था,

रास्ता रोक कर वह खड़ी हो गई,
यों लगा ज़िन्दगी से बड़ी हो गई।

मौत की उमर क्या है? दो पल भी नहीं,
ज़िन्दगी सिलसिला, आज कल की नहीं।


मैं जी भर जिया, मैं मन से मरूँ,
लौटकर आऊँगा, कूच से क्यों डरूँ?

तू दबे पाँव, चोरी-छिपे से न आ,
सामने वार कर फिर मुझे आज़मा।

मौत से बेख़बर, ज़िन्दगी का सफ़र,
शाम हर सुरमई, रात बंसी का स्वर।

बात ऐसी नहीं कि कोई ग़म ही नहीं,
दर्द अपने-पराए कुछ कम भी नहीं।

प्यार इतना परायों से मुझको मिला,
न अपनों से बाक़ी हैं कोई गिला।

हर चुनौती से दो हाथ मैंने किये,
आंधियों में जलाए हैं बुझते दिए।

आज झकझोरता तेज़ तूफ़ान है,
नाव भँवरों की बाँहों में मेहमान है।

पार पाने का क़ायम मगर हौसला,
देख तेवर तूफ़ाँ का, तेवरी तन गई।

मौत से ठन गई।

5. आओ मन की गाँठें खोलें.

यमुना तट, टीले रेतीले, घास फूस का घर डंडे पर,
गोबर से लीपे आँगन में, तुलसी का बिरवा, घंटी स्वर.
माँ के मुँह से रामायण के दोहे चौपाई रस घोलें,
आओ मन की गाँठें खोलें.
बाबा की बैठक में बिछी चटाई बाहर रखे खड़ाऊँ,
मिलने वालों के मन में असमंजस, जाऊं या ना जाऊं,
माथे तिलक, आंख पर ऐनक, पोथी खुली स्वंय से बोलें,
 
आओ मन की गाँठें खोलें.
सरस्वती की देख साधना, लक्ष्मी ने संबंध ना जोड़ा,
मिट्टी ने माथे के चंदन बनने का संकल्प ना तोड़ा,
नये वर्ष की अगवानी में, टुक रुक लें, कुछ ताजा हो लें,
आओ मन की गाँठें खोलें.

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Tuesday, December 6, 2011

अहम ब्रह्मास्मि ! Aham Brahmasmi

आत्मा
परमात्मा
आदि अनन्त
साधु व संत
सप्तरंगी छँटा
वादियों में घटा
खग विहग
वर्षा सावन
वन उपवन
पवित्र पावन

मरूभूमि की रेत
सरसों के खेत
खेत में फ़सल
वायु व जल
गीत संगीत
पूनम का चाँद
अमावस की रात

सुख दुख
आज कल
काल चक्र
अच्छा बुरा
अच्छा क्या?
बुरा क्या ?

तेरा मेरा
अपना पराया
तुझमें समाया
खुशी गम
माया व भ्रम...

धूप छाँव
राह  मंज़िल
समंद्र व साहिल
मस्जिद मंदिर
पंडित काज़ी
एक ही जहाज
एक ही माझी

कंस रावण
दुर्योधन दुशासन
कृष्ण या राम
एक ही नाम
ॐकार निराकार

पुरुष प्रकृति
साकार आकृति

रे सर्वज्ञ !
रे सर्वेश्वर !
अर्धनारीश्वर..
क्यूँ है मौन
मैं हूँ कौन ?
मृत्यु जीवन
सत्य अटल
एक सत्य
सत्य असत्य
अग्नि नभ
तुझमें सब
अंतरिक्ष नक्षत्र
ब्रह्म सर्वत्र
तुझमें संसार
मुझमें संसार
तू मैं
मैं तू

अहम ब्रह्मास्मि !

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