शुक्रवार बीस जुलाई। स्थान गोपाल धाम, भापौरा-लोनी रोड, गाज़ियाबाद, उत्तर प्रदेश। मेरी कम्पनी Pitney Bowes के हम सत्रह लोग रहे होंगे। सुबह नौ बजे से हम लोग वहाँ पहुँचने शुरु हो गये थे। तीन लगातार शुक्रवार गोपाल धाम जाने के कार्यक्रम का यह दूसरा सप्ताह था। पिछले सप्ताह हमारी कम्पनी के अन्य साथी यहाँ बच्चों को चित्रकारी और कागज़ से विभिन्न प्रकार की कलाकारी सिखाने आये थे....। शुक्रवार हम लोग उनके साथ कहानी-कविता सुनने सुनाने, हँसने बोलने और खेलने के लिये गये और आने वाले शुक्रवार को होगा स्वास्थ्य सम्बन्धी कार्यक्रम व गीत-संगीत की मस्ती।
गोपालधाम सेवाभारती द्वारा संचालित एक संस्था है जो देश के विभिन्न स्थानों से आये बच्चों को पढ़ाने और आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी उठाती है। यहाँ कश्मीर, पूर्वोत्तर, उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, उड़ीसा आदि राज्यों से बच्चे आये हुए हैं। एक से लेकर दसवीं तक के बच्चों को सीबीएसई की शिक्षा दी जाती है। इन्हें साहिबाबाद के सरस्वती विद्या मन्दिर में पढ़ाया जाता है। इनमें से कुछ बच्चे अनाथ हैं, कुछ के माता पिता ने उग्रवाद, नक्सलवाद आदि कारणों से यहाँ भेजा हुआ है। सड़क से करीबन दो सौ मीटर की दूरी पर बने इस धाम में दो-तीन पार्क हैं, झूले हैं, पेड़ पौधे हैं और गौशाला भी है।
कक्षा
कमरे
प्रांगण
हम वहाँ अपने साथ कहानियों की कुछ पुस्तकें, स्टेशनरी का सामान इत्यादि ले कर पहुँचे। वहाँ पहुँचकर व यह जानकर हम दंग रह गये कि ये बच्चे सुबह चार बजे उठते हैं व रात दस बजे तक सोते हैं। इसबीच पढ़ाई, खेल, सोना आदि दिनचर्या का हिस्सा है। एक बड़े से हॉल में पहली से लेकर चौथी तक की कक्षायें हो रहीं थीं। हॉल की दीवार पर स्वामी विवेकानन्द जी का बड़ा सा बैनर लगा हुआ था व सरस्वती जी, भारत माता, ओ३म की तस्वीर थी। चौथी कक्षा में महाराणा प्रताप व शिवाजी की भी तस्वीरें थीं। चौथी कक्षा तक करीबन -३० - ३५ -विद्यार्थी हैं व इससे ऊपर की कक्षाओं में साठ के करीब विद्यार्थी पढ़ते हैं। हमने उन बच्चों के ग्रुप बनाये और उनके साथ कहानी-कवितायें सुनने व पढ़ने लगे। मुझे याद है सुमित और सोनू.. दो भाई हैं.. क्या शानदार तरीके से पढ़ी उन्होंने कहानी की वो किताब। सुमित तो लगातार हर पुस्तक पढ़ने को आतुर था। उन सभी ने कागज़ का "कैटरपिलर" बनाया हुआ था। एक बच्चे का नाम था रवि डी। पहले तो मुझे समझ नहीं आया फिर बच्चों ने ही समझाया कि स्कूल में चार रवि हैं....:-)
वहीं दलवीर सिंह भी मिला। उसे हारमोनियम व तबला बजाने का शौक था। उसने हमें वन्देमातरम बजा कर सुनाया। कुछ देर तक हॉल में वन्देमातरम गूँज उठा। वो ज़ाकिर हुसैन को नहीं जानता था। पर उसकी आँखों में कुछ वैसे ही ख्वाब दिख रहे थे। उसने और उसी के कुछ साथियों ने देशभक्ति से ओतप्रोत के गीत भी सुनाया। कुछ लोग चित्रकारी करने लगे तो कुछ हमारे एक साथी से डांस सीखने लगे। हमने खो-खो व हैंड बॉल के लिये टीमें बना दी और फिर क्या था.. हम भी बच्चों में बच्चे बन गये...
कभी कभी बच्चे हमें सिखा जाते हैं.. बिना कारण हँसना.. लगातार खेलते रहना.. क्या खूब खेले थे वे.. गजब की तेज़ी...एक घंटा और निकल गया था... और देखते ही देखते जाने का समय हो गया था। हमने तस्वीरें खिंचाईं, उन्हें Kinder Joy नामक चॉकलेट दीं और वापसी की तैयारी करने लगे। खेल कर पसीने आ रहे थे.. पर थकान बिल्कुल न थीं। उन बच्चों की आँखों में सपने थे.. सपने धौनी, सचिन बनने के.. सपने फ़ौज में जाने के...एक से बढ़कर एक कलाकार... हमारे देश में ऐसे ही अनगिनत बच्चे हैं जो सचिन-सहवाग-ए.आर रहमान बनने की चाह लिये अपनी ज़िन्दगी गुज़ार देते हैं...क्या इनके ख्वाबों के लिये आप और हम थोड़ा भी समय नहीं निकाल सकते?
अजय, हैप्पी, रवि डी, करछी, अंडा (दलबीर) ये कुछ ऐसे नाम हैं जिन्हें शायद मैं कभी न भूल पाऊँ... इनके साथ गुज़ारे हमारे तीन घंटे भी कम लगने लगे थे।
चलते चलते कुछ चित्र
कतार में बैठे बच्चे
पुस्तक पढ़ने में मस्त
"कैटरपिलर"
गीत सुनाता हुआ अजय
रवि डी, दलवीर, हैप्पी, अजय व साथी
डांस करते हुए बच्चे
हम सब
पार्क
छोटा सा मन्दिर
"हे वीर हृदयी युवकों, यह मन में विश्वास रखो कि अनेक महान कार्य के लिये तुम सबका जन्म हुआ है" - स्वामी विवेकानन्द
नोट: लेख लम्बे होने का खेद है किन्तु इससे छोटा करने की गुंजाईश नहीं थी। हम गाय की पूजा करते हैं, गंगा-यमुना-सरस्वती को पूजते हैं, हिमालय एवं गिरिराज जी को देवता मानते हैं, बादल एवं वर्षा पूजनीय हैं, नभ, सूर्य, चँद्रमा, तारे, मिट्टी, कलश, जल, वायु, धरती, पशु, पक्षी -ये सब हमारे पूजनीय हैं। किसी न किसी कारण से कभी हम गऊ माता को रोटी खिलाते हैं तो कभी पीपल के पेड़ में जल देते हैं, तुलसी जी की पूजा करते हैं तो व्रतों में चाँद व तारों को देखकर व्रत खोलते हैं, सूर्य नमस्कार करते हैं और बारिश के लिये इंद्र की पूजा करते हैं। यदि हम इन सभी बातों पर गौर करें तो हम प्रकृति की पूजा करते हैं। प्रकृति के हर उस हिस्से की जिसे हम अभी देख रहे हैं। व्यक्ति से लेकर पत्थर तक, पहाड़, नभ से लेकर धरती तक जिसे हम देख सकते हैं उसी की पूजा करते हैं।
प्रकृति की संरचना करने वाला परमात्मा है। कहते हैं कि जितना हम प्रकृति के नज़दीक जाते हैं उतना ही परमात्मा के करीब जाते हैं। असल में देखा जाये तो हम हैं ही नहीं। परमात्मा है तो सॄष्टि है और सृष्टि है इसलिये हम परमात्मा से मिल पाते हैं। इस संसार में यदि कोई है तो वो परमात्मा ही है। ब्रह्म है इसलिये ब्रह्मांड है। परमात्मा तो वो माला है जिसमें हम आत्माओं के फूल पिरोय गये हैं।
लेकिन आज बात परमात्मा की नहीं। बात है प्रकृति की। बात है सत्य के उस हिस्से की जिसे हम अनदेखा कर देते हैं। बात उस शक्ति की जो अर्धनारीश्वर रूप में शिव के साथ तो है पर शिव को मानने वाला यह समाज इस सच्चाई को स्वीकार नहीं कर पाता। यहाँ देवी के नवरात्रे मनाये जाते हैं, वैष्णौ देवी की कठिन यात्रा की जाती है, श्रीगंगा जी के घाट पर जाकर "पाप" धोये जाते हैं पर लड़की का होना अभिशाप से बदतर समझा जाता है या बना दिया जाता है।
कुछ बातें समझ से परे हो जाती हैं। लड़की के जन्म पर आज भी गाँव तो क्या शहर में भी अफ़सोस जताया जाता है। रीति-रिवाज़ ही कुछ ऐसे बन गये हैं। आदिवासी इलाकों में स्त्री की क्या हालत होती होगी यह सोच ही नहीं पाता हूँ। अफ़सोस इस बात का नहीं कि लड़की के होने पर दुखी क्यों होते हैं पर अफ़सोस इस बात का है कि समाज में यह बात गहराई तक अपनी पैठ बना चुकी है। ये समाज की जड़ों तक पहुँच कर समाज को नारी का शत्रु बना दिया है। पर यहाँ औरत ही औरत की शत्रु नज़र आती है। हालाँकि ये विचार उस पीढ़ी के विचार हैं जब लड़कियाँ घरों से बाहर नहीं निकलती थीं। पर फिर भी ..आखिरकार ऐसी नौबत आई ही क्यों? क्यों नहीं लड़का और लड़की एक समान माना जाता है? क्यों सरकारों को विज्ञापन जरिये यह नारे लगाने पड़ते हैं या फिर "लाडली" जैसी योजनायें शुरू करनी पड़ती हैं?
इसके कुछ कारण मैं सोच पाता हूँ - पहला, लड़का कमाता है और लड़की नहीं। पर आज के समय में दोनों ही कमाते हैं। दूसरा, लड़की पराया धन होती है और किसी दूसरे के घर चली जायेगी। शादी में खर्चा होगा। इसका एक अहम कारण दहेज-प्रथा भी है जो शहरी-रईसों में भी उतनी ही चलन में है जितनी यूपी-बिहार के गाँवों में। तीसरा कारण वंश का आगे बढ़ना माना जा सकता है। और यदि हम यह मानें कि अनपढ़ लोगों में लड़का-लड़की को अलग दृष्टि से देखते हैं तो यह कहना भी गलत होगा। पंजाब एवं हरियाणा में लड़का-लड़की का अनुपात सबसे कम है और यह दोनों ही राज्य शिक्षा एवं धन दोनों ही तरह से सुदृढ़ राज्य हैं। या इतने पिछड़े भी नहीं हैं। तो क्या यह मान लें कि पुरुष प्रधान समाज में वंश का आगे बढ़ाना एक प्रमुख कारण हो सकता है कन्या-भ्रूण हत्या का? लड़की के होने पर दुखी होने का? क्यों हर कोई लड़का होने का ही आशीर्वाद देता है? क्या कोई इसका एक कारण बता सकता है? हालाँकि मेरा पूरा विश्वास है कि भविष्य में ये भेद दूर हो जायेगा।
संसार तीन चीज़ों से चल रहा है - धन, ताकत एवं ज्ञान। यानि लक्ष्मी, शक्ति व सरस्वती देवियाँ। इनकी तो हम दीवाली व नवरात्रि में पूजा करते हैं। यदि हम पत्थर के टुकड़े टुकड़े कर दें इतने बारीक की जब हम माइक्रोस्कोप में देखें तो हमें एटम यानि अणु दिखाई दें वहीं अणु जो हमारे अंदर हैं। इन्हीं से बनता है हमारा शरीर भी। इन्हें कहते हैं क्वार्क। एटम से भी छोटा पार्टिकल। इनमें भार होता है, इनमें शक्ति होती है। वही शक्ति जो हम सब में है, वही शक्ति जो वायु में भी है और पत्थर में भी। जो पर्वत में , चट्टान में, नदी-झरनों में है। वही शक्ति जो पशु-पक्षी में है। वही शक्ति जिसकी हम पूजा करते हैं। जब देवियों की पूजा हो सकती है, कंजकों को पूजा जाता है तो लड़की होने पर मातम क्यों मनाया जाता है? और फिर नारी ही तो पुरुष को जन्म देती है....
मनुस्मृति में कहा है:
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता:। अर्थात जहाँ नारियों की पूजा होता है वहाँ देवताओं का निवास होता है।
फिर इतनी सी बात समझने में इतनी देर क्यों लगा रहा है हमारा समाज?
भाग-२
इंतज़ार के वे पल सबसे लम्बे लग रहे थे.....हर माँ को मेरा प्रणाम
दिन दस दिसम्बर २०११, रात्रि नौ बजे। हम अस्पताल में थे। मेरी पत्नी वहाँ भर्ती थी। हमारी डॉक्टर शहर में नहीं थी। हालाँकि स्टाफ़ पूरा ध्यान रख रहा है। वो रात उसके प्रसव-पीड़ा का भयानक दर्द उठा। इतना भयानक कि मैं और मम्मी मेरी पत्नी के साथ लगातार खड़े रहे और उसका हौंसला बढ़ाते रहे। किन्हीं कारणों से रात को डिलीवरी नहीं हो पाई। हमें बताया गया कि हमारी डॉक्टर सुबह आयेगी। उन्होंने हमसे बात भी करी और यकीन दिलाया कि जैसे ही आवश्यकता पड़ेगी वे चली आयेंगी। पर वो रात काटनी कठिन होती जा रही थी। कभी कभी ऐसा होता है कि आप कोई जरूरी काम कर रहे होते हैं इसलिये नींद को टालते रहते हैं पर हमारी तो नींद ही उड़ चुकी थी। एक ओर पत्नी की चीखें और लगातार दिये जाने वाले इंजेक्शन व ग्लूकोज़ तो दूसरी ओर था इंतज़ार.... सुबह का इंतज़ार..
सुबह के पाँच बज चुके थे। पत्नी की स्थिति में कोई सुधार नहीं। उसे बहलाया कि सुबह हो गई है तो डॉक्टर भी आ जायेगी। इंतज़ार खत्म होता दिखाई दे रहा था। पर तभी हमें बताया गया कि सिज़ेरियन ऑप्रेशन किया जायेगा और डॉक्टर आठ-नौ बजे तक आयेंगी। इंजेक्शन व ग्लूकोज़ दोनों निरंतर जारी थे। बच्चे की हृदयगति कम हो रही थी। एक समय आँख से आँसू आते हुए रोकने पड़ गये। सांत्वना देते देते कब अपनी सांत्वना खोने लगे हमे पता ही नहीं लगा.... इतना दर्द, इतनी पीड़ा.. शायद ईश्वर ने मुझे इसलिये उस रात वहाँ रोका था कि मैं जान सकूँ कि इस धरती पर जिसके माध्यम से मैंने जन्म लिया उस जननी का स्थान स्वर्ग से भी ऊपर क्यों है!!
और तभी मैथिली शरण गुप्त ने भी कहा कि जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गदापि गरियसी।
बहरहाल समय गुजरता गया और हम वैसे ही उस कमरे में खड़े रहे। इंतज़ार के वे पल सबसे लम्बे लग रहे थे। एक एक पल बरस लग रहा था। पौने दस बजे हमारी डॉक्टर आईं और उन्होंने ऑप्रेशन की मोहर लगाई। मेरी पत्नी को ऑप्रेशन थियेटर ले जाया गया। हम लोग उसके साथ थे। पिछली रात जो दर्द उठा था वो अभी उसके साथ था। बीस मिनट का इंतज़ार और साढ़े दस बजते ही हमारे घर श्रीलक्ष्मी का आगमन हुआ। और हमारे चेहरे पर मुस्कान छा गई। फ़ोन घुमाये गये और खुशखबरी बाँटी गई।
एक लड़की जब माँ बनती है तो उसका दूसरा जन्म होता है। यह कहावत सुनी थी देखी नहीं थी। लड़की के जीवन में जो बदलाव आते हैं वे एक लड़के के जीवन में नहीं आ सकते। शारिरिक व मानसिक बदलावों से जूझती है एक भारतीय नारी। शादी के बाद अपना घर छोड़ना होता है और किसी और घर में जाकर बाकि की ज़िन्दगी बितानी होती है। मैं सोच भी नहीं पा रहा हूँ कि यदि मुझे ऐसा करने को कहा जाये तो क्या मैं रह पाऊँगा? क्या कोई लड़का ऐसा कर भी सकता है? इस पुरूष प्रधान समाज में स्त्री को ही यह भार उठाना पड़ता है। शायद ईश्वर ने बच्चे को जन्म देने के लिये इसलिये भी स्त्री को चुना क्योंकि वह पुरुष से अधिक संयमशील है। उसे यह ज्ञात था कि एक स्त्री ही इस चुनौती को निभा सकती है। नौ महीने तक की शारीरिक व मानसिक तकलीफ़ झेलना कोई हँसी खेल तो नहीं!!
पिछले दिनों एक बात की और जानकारी हासिल हुई। "श्री" कहते हैं लक्ष्मी को, सम्पूर्ण विश्व को.. इसका व्यापक अर्थ हो सकता यह तो मालूम था। पर हम पुरूष के नाम के आगे "श्री" और स्त्री के नाम के आगे "श्रीमति" क्यों लगाते हैं यह नहीं ज्ञात था। शब्दों के सफ़र से यह शंका भी दूर हो गई कि हम पुरूषों ने स्त्री से उनका "श्री" लेकर स्वयं अपने नाम के आगे लगाकर गर्व महसूस कर रहे हैं। हद है...
मुनव्वर राणा की कुछ पंक्तियाँ माँ को समर्पित हैं:
मैंने रोते हुए पोंछे थे किसी दिन आँसू मुद्दतों माँ ने नहीं धोया दुपट्टा अपना
लबों पे उसके कभी बद्दुआ नहीं होती बस एक माँ है जो मुझसे ख़फ़ा नहीं होती
किसी को घर मिला हिस्से में या दुकाँ आई
मैं घर में सबसे छोटा था मेरे हिस्से में माँ आई
इस तरह मेरे गुनाहों को वो धो देती है
माँ बहुत गुस्से में होती है तो रो देती
ये ऐसा कर्ज़ है जो मैं अदा कर ही नहीं सकता
मैं जब तक घर न लौटू मेरी माँ सजदे में रहती है
खाने की चीज़ें माँ ने जो भेजी थीं गाँव से
बासी भी हो गई हैं तो लज्जत वही रही
बरबाद कर दिया हमें परदेस ने मगर
माँ सबसे कह रही है बेटा मज़े में है
अंत में: भूखे बच्चों की तसल्ली के लिये,
माँ ने फिर पानी पकाया देर तक
हर माँ को मेरा सलाम... मातृत्व की परिभाषा मैं नहीं कर सकता.....
उसने पीने के लिये
माँगा था पानी,
ताकि रह सके ज़िन्दा..
बुझा सके प्यास..
पर उसे मिली मौत
महज ग्यारह बरस का
था वो..बच्चा...
जहाँ एक ओर
अकेले भारत में
बन जाती है
दस हजार करोड़ की
इंडस्ट्री..
मिनरल वॉटर के नाम पर
वहीं पीने के पानी
की एक बूँद
को तरस जाता है
आधे से ज्यादा देश...
जमीन के अंदर समाये हुए
पानी की एक एक बूँद
को हम..
निचोड़ लेना चाहते हैं..
गटक लेना चाहते हैं
पूरी की पूरी नदी...
ताकि सूख जाये वह
समन्दर तक पहुँचने से पहले ही...
वो जमाना और था
जब भरता था घड़ा
बूँद बूँद...
अब बिस्लेरी का जमाना है
और बिकती है प्यास...
महज पन्द्रह रूपये लीटर...
सेवा के वे "रामा प्याऊ"
कहीं खो गये हैं शायद...
गुमनामी के गटर में
जिसका पानी पीती है
वो दुनिया
जहाँ आज भी भरा जाता है घड़ा...
बूँद.. बूँद...
कल महाशिवरात्रि है। भारत के अधिकांश हिस्से में यह कल मनाई जायेगी। किन्तु कुछ भक्त इसे आज के दिन भी मनाते हैं। कहते हैं इस दिन शिव जी की शादी हुई थी इसलिए रात्रि में शिवजी की बारात निकाली जाती है। ऐसा भी माना जाता है कि सृष्टि के प्रारंभ में इसी दिन मध्यरात्रि भगवान् शंकर का ब्रह्मा से रुद्र के रूप में अवतरण हुआ था।वास्तव में शिवरात्रि का परम पर्व स्वयं परमपिता परमात्मा के सृष्टि पर अवतरित होने की स्मृति दिलाता है। यहां रात्रि शब्द अज्ञान अन्धकार से होने वाले नैतिक पतन का द्योतक है। परमात्मा ही ज्ञानसागर है जो मानव मात्र को सत्यज्ञान द्वारा अन्धकार से प्रकाश की ओर अथवा असत्य से सत्य की ओर ले जाते हैं। चतुर्दशी तिथि के स्वामी शिव हैं। अत: ज्योतिष शास्त्रों में इसे परम शुभफलदायी कहा गया है। वैसे तो शिवरात्रि हर महीने में आती है। परंतु फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को ही महाशिवरात्रि कहा गया है।
कुछ सप्ताह पूर्व मुझे एक ऐसा गीत मिला जिसकी मुझे बरसों से तलाश थी। तलाश क्या थी.. भूल गये थे कि कभी ये गीत भी सुना करते थे.. .। मेरे दादाजी को यह गीत बहुत पसन्द था। वे सुनते तो हम भी सुनते। शायद हमारे सभी के घर में सुना जाता हो....
इस गीत के बोल इंटेरनेट पर कहीं भी नहीं मिले थे। तो इसलिये सोचा कि इंटेरनेट पर यह आसानी से उपलब्ध होना चाहिये। महाशिवरात्रि से अच्छा दिन कोई और नहीं हो सकता था...
यह मात्र एक गीत अथवा भजन नहीं है। इस गीत में एक अद्भुत कथा का वर्णन है.. इस कथा में ज्ञान है.. सीख है.. मन की चंचलता है.. मान है ..अभिमान है.. अपमान है.....शिव है.. परमात्मा है...
ये कथा इतनी सरल है कि स्वयं ही समझ आ जायेगी...
आइये शिव और पार्वती के इस सुन्दर किस्से को गायें और इससे मिलने वाली सीख को अपने जीवन में उतारने का प्रयास करें|
इसका ऑडियो भी इंटेरनेट पर मिल जायेगा।
डमरू वाले बाबा तेरी लीला है न्यारी.....जय जय भोले भंडारी
शिव शंकर महादेव त्रिलोचन कोई कहे त्रिपुरारी
डमरू वाले... डमरू वाले बाबा तेरी लीला है न्यारी.....
जय जय भोले भंडारी
शिव हो कर के ही तो तुमने इस जग का कल्याण किया अमृत के बदले में खुद ही तुमने तो विषपान किया
दूज का चंद्र बिठाया माथे गंगा की जटाओं में
पर्वत राज की पुत्री के संग विचरे सदा गुफ़ाओं में
सचमुच हो कैलाशपति नहीं कोई चार दीवारी
डमरू वाले...डमरू वाले बाबा तेरी लीला है न्यारी.....
जय जय भोले भंडारी
तेरे ही परिवार की उपमा भूमिजन ऐसे गाते हैं सिंह-बैल पशु होकर हमको प्रेम का पाठ पढ़ाते हैं
जहरीले सब साँप और बिच्छू अंग अंग लिपटाये हैं
जैसे अपने शत्रु भी सब तुमने गले लगाये हैं
घोर साँप बेबस हो देख क चूहें की सरदारी...
डमरू वाले... डमरू वाले बाबा तेरी लीला है न्यारी.....
जय जय भोले भंडारी
न कोई पद्वी का लालच मान और अपमान है क्या सुख दुख दोनों सदा बराबर घर भी क्या श्मशान भी क्या
खप्पर डमरू सिंहनाद त्रिशूल ही तेरे भूषण हैं
उनको तुमने गले लगाया जो इस जग के दूषण हैं
तुझको नाथ त्रिलोकी पूजें कह कर के त्रिपुरारी
डमरू वाले... डमरू वाले बाबा तेरी लीला है न्यारी.....
जय जय भोले भंडारी..
------------------------------------------------------------------------------------------------------ अजर अमर हैं पार्वती-शिव और कैलाश पे रहते हैं आओ उनके जीवन का हम सुंदर किस्सा कहते हैं
बैठे बैठे उमा ने एक दिन मन में निश्चय ठान लिया
शिव जी की आज्ञा लेकर लक्ष्मी के घर प्रस्थान किया
शंकर ने चाहा भी रोकना किन्तु मन में आया है
प्रभु इच्छा बिन हिले न पत्ता ये उन ही की माया है मन ही है बेकार में जो संकल्प-विकल्प बनाता है जिधर चाहता है मन उधर ये प्राणी दौड़ के जाता है मन सब को भटकाये जग में क्या नर और क्या नारी....
डमरू वाले... डमरू वाले बाबा तेरी लीला है न्यारी.....
पार्वती चल पड़ी वहाँ से मन में हर्ष हुआ भारी लक्ष्मी के महलों में मेरा स्वागत होगा सुखकारी
अकस्मात मिलते ही सूचना मुझे सामने पायेंगी
अपने आसन से उठ मुझ को दौड़ के गले लगायेंगी
हाथ पकड़ कर बर जोरी मुझे आसान पर बिठलायेंगी
धूप दीप नैवद्य से फिर मेरा सम्मान बढ़ायेंगी पर जो सोचा पार्वती ने हुआ उससे बिल्कुल उलटा लक्ष्मी ने घर आयी उमा से पानी तक भी न पूछा
उलटा अपना राजभवन उसको दिखलाती फिरती थी
नौकर चाकर धन वैभव पर वो इठलाती फिरती थी
अगर मिली भी रूखे मन से वो अभिमान की मारी..
डमरू वाले... डमरू वाले बाबा तेरी लीला है न्यारी.....
पार्वती से बोली वो जिसको त्रिपुरारी कहते हैं
कहाँ है तेरा पतिदेव सब जिसे भिखारी कहते हैं
चिता और त्रिशूल फ़ावड़ी फ़टी हुई मृगछाला है
ऐसी ही जायदाद को ले के कहाँ पे डेरा डाला है?
पार्वती ने सुना तो उसकी क्रोध ज्वाला भड़क उठी
होंठ धधकते थे दोनों और बीच में जिह्वा भड़क उठी बोली उमा कि तुमने चाहे मेरा न सम्मान किया बिन ही कारण मेरे पति का तुमने है अपमान किया उन्हें भिखारी कहते हुए कुछ तुमको आती लाज नहीं सच ये है कि तेरे पति को भीख बिना कोई काज नहीं
वही भिखारी बन के राजा शिवि के यहाँ गया होगा
या फिर बामन बन के राजा बलि के यहाँ गया होगा
जहाँ भी देखा उसने वहीं पर अपनी झोली टाँगी थी
ऋषि दधिचि से हड्डियों तक की उसने भिक्षा माँगी थी
शंकर को तो जग वाले कहते हैं भोले भंडारी....
डमरू वाले... डमरू वाले बाबा तेरी लीला है न्यारी.....
पार्वती ने लक्ष्मी को यूँ जली और कटी सुनाई थी
फिर भी वो बोझिल मन से कैलाश लौट के आई थी अन्तर्यामी ने पूछा क्यों चेहरा ये उदास हुआ सब बतलाया कैसे लक्ष्मी के घर उपहास हुआ
बोली आज से अन्न जल को बिल्कुल नहीं हाथ लगाऊँगी भूखी प्यासी रह कर के मैं अपने प्राण गवाऊँगी मेरा जीवन चाहते हैं फिर मेरा कहना भी कीजे
जैसा मैं चाहती हूँ वैसा महल मुझे बनवा दीजै
महल बनेगा गृह प्रवेश पर लक्ष्मी को बुलवाना है
मेरी अंतिम इच्छा है उसको नीचा दिखलाना है
उससे बदला लूँगी मैं देखेगी दुनिया सारी....
डमरू वाले... डमरू वाले बाबा तेरी लीला है न्यारी.....
शंकर बोले पार्वती से मन पर बोझ न लाओ तुम
भूल जाओ सब कड़वी बातें और मन शांत बनाओ तुम मान और अपमान है क्या बस यूँ ही समझा जाता है दुखी वही होता है जो ऊँचे से नीचे आता है उसे सदा ही डर रहता है जो ऊँचा चढ़ जायेगा जो बैठा है धरती पर उसे नीचे कौन बिठायेगा इसीलिये हमने धरती पर आसन सदा बिछाया है मान और अपमान से हट कर आनंद खूब उठाया है
मेरी मानो गुस्सा छोड़ो इस में है सुख भारी..
डमरू वाले... डमरू वाले बाबा तेरी लीला है न्यारी....
पार्वती ने ज़िद न छोड़ी, रोना धोना शुरु किया शंकर ने विश्वकर्मा को तब भेज संदेशा बुला लिया विश्वकर्मा से शम्भु बोले तुम इसका कष्ट मिटा दीजै जैसे भवन उमा चाहती हैं वैसा इसे बनवा दीजै
पार्वती तब खुश होकर विश्वकर्मा को समझाने लगीं
जो कुछ मन में सोच रखा था सब उनको बतलाने लगीं
बोली बीच समन्दर में एक नगर बसाना चाहती हूँ
चार हो जिसके दरवाज़े वो किला बनाना चाहती हूँ
गर्म और ठंडे ताल-तलैया सुंदर बाग-बगीचे हों
साफ़-सुहानी सड़कें हों और पक्के गली गलीचे हों
मेरे रंगमहल की तुम छत में भी सोना लगवा दो
सोने के हों घर दरवाजे बीच में हीरे जड़वा दो
झिलमिल फ़र्शों में हो रंगबिरंगी मीनाकारी...
डमरू वाले... डमरू वाले बाबा तेरी लीला है न्यारी....
सोने की दीवार-फ़र्श और आँगन भी हों सोने के मंच-पलंग के साथ साथ सब बरतन भी हों सोने के मतलब ये के आज तलक न बना किसी का घर होवे उसको जब लक्ष्मी देखे झुक गया उसी का सर होवे
विश्वकर्मा ने अपने अस्त्र ब्रह्म लोक से मँगवाये
भवन कला का सब सामान वो साथ साथ ही ले आये
आदिकाल से विश्वकर्मा एक ऐसे भवन निर्माता थे
चित्र मूर्ति भवन बाग, वो सभी कला के वो ज्ञाता थे
आँखें मूँद के अपने मन में जो संकल्प उठाते थे
आँखें खोल के देखते थे बस वहीं भवन बन जाते थे
ऐसा ही एक चमत्कार विश्वकर्मा ने दिखलाया था
बीच समन्दर उन्होंने एक अनूठा भवन बनवाया था
ठाठ-बाठ और धर्मपान सब उसके थे मनुहारी
डमरू वाले... डमरू वाले बाबा तेरी लीला है न्यारी....
मन में पार्वती ने जो सोचा था उससे बढ़कर था मतलब ये की लक्ष्मी के महलों से लगता था सुंदर था उमा बोली अब चलिये प्रभु उसमें एक यज्ञ रचाना है सब देवों के साथ साथ लक्ष्मी को भी बुलवाना है
दोनों आये नगर में आज उमा को हर्ष अपार हुआ
स्वर्ण महल दिखलाकर बोली मेरा सपन साकार हुआ
बोली इसका गृहप्रवेश भी करना है त्रिपुरारी...
डमरू वाले... डमरू वाले बाबा तेरी लीला है न्यारी....
शंकर सोचें खेल प्रभु का नहीं समझ में आता है जो जितना खुश होता है उतने ही आँसू बहाता है फिर भी उन्होंने पार्वती का बिल्कुल दिल नहीं तोड़ा था जो कुछ वो कहती जातीं थीं हाँ में हाँ ही जोड़ा था
दे स्तुति देवताओं को निमंत्रण भिजवाया था
विशर्वा पंडित जी को पूजा के लिये बुलाया था
विष्णु-लक्ष्मी ब्रह्म इंद्र सभी देवता आये थे
बीच समन्दर स्वर्ण महल देख सभी हर्षाये थे
हाथ पकड़ कर लक्ष्मी का तब पार्वती ले जाती हैं
सोने की ईंटों से बना वो महल उसे दिखलाती हैं
और कहती हैं देख रही हो चमत्कार त्रिपुरारी का
भिक्षु तुमने कहा जिसे यह महल है उसी भिखारी का
देखने आई है ये देखो देखो ये दुनिया सारी..
डमरू वाले... डमरू वाले बाबा तेरी लीला है न्यारी....
रोशनदान खिड़की दरवाज़े, फ़र्श तलक है सोने का तेरा महल अब नहीं बराबर मेरे महल के कोने का शंकर बोले पार्वती मन में अज्ञान नहीं भरते समझबूझ वाले व्यक्ति झूठा अभिमान नहीं करते
इतने में पूजा का मंडप सज-धज कर तैयार हुआ
शंकर उमा ने हवन कियाऔर नभ में जयजय कार हुआ
ऋषि विशर्वा विधि विधान से मंत्र पढ़ते जाते थे
बारीकि से पूजन की वे क्रिया समझाते थे
पूर्ण आहुति पड़ी तो सब देवों ने फूल बरसाये थे
साधु देवता ब्राह्मण सब भोजन के लिये बिठाये थे
फिर सब को दे दे के दक्षिणा सब का ही सम्मान किया
खुशी खुशी सब देवताओं ने माँगी विदा प्रस्थान किया
जय जय से नभ गूँज उठा सब हर्षित थे नर नारी..
डमरू वाले... डमरू वाले बाबा तेरी लीला है न्यारी....
अंत में शिवजी ने आचार्य को अपने पास बुलाया था
ऋषि विशर्वा ने आकर तब चरणों में शीश झुकाया था... शंकर बोले आप के आने से हम सचमुच धन्य हुए माँगो जो भी माँगना चाहो हम हैं बहुत प्रसन्न हुए पंडित बोला क्या सचमुच ही मेरी झोली भर देंगे अभी अभी जो कहा आपने वचन वो पूरा कर देंगे शंकर बोले हाँ हाँ तेरे मन में कोई शंका है मेरा वचन सत्य होता है ये तीन लोक में डंका है
तूने हमें प्रसन्न किया और अब है तेरी बारी...
डमरू वाले... डमरू वाले बाबा तेरी लीला है न्यारी....
शीश नवा कर बोला वो प्रभु अपना वचन सत्य कर दीजै हे भोले भंडारी मैं माँगूँगा वो वर दीजै सिद्ध बीच ये सोने का जो आपने भवन बनाया है यही मुझे दे दीजिये मेरा मन इस ही पे आया है जिसने भी ये शब्द सुने तो सुन के बड़ा आघात हुआ उमा के मन पर तो सचमुच जैसे था वज्रपात हुआ
बोली उमा ऐ ब्राह्मण तुमने सोई कला जगाई है
मेरी अरमानों की बस्ती में एक आग लगाई है
मेरा है ये श्राप कि आखिर इक दिन वो भी आयेगा
हरी भरी तेरी दुनिया का नाम तलक मिट जायेगा ऐसे काल के चक्कर में ये बस्ती भी खो जायेगी उस दिन तेरी सोने की नगरी भी राख हो जायेगी तेरा दीया बुझेगा एक दिन होगी रात अंधियारी...
डमरू वाले... डमरू वाले बाबा तेरी लीला है न्यारी....
सुना आपने जग वालों भयंकर उमा का श्राप था जो पंडित और नहीं था कोई रावण का ही बाप था वो
बीच समन्दर बसी हुई वो सोने ही की लंका थी
जो कुछ कहा उमा ने वो सच होने में क्या शंका थी
पार्वती के शाप ने फिर एक दिन वो रंग दिखलाया था
पवनपुत्र ने एक दिन सोने की लंका को राख बनाया था
राम और रावण के बीच भड़क उठी थी रण ज्वाला
रहा न उसके कुल में कोई पानी तक देने वाला
"सोमनाथ" जो औरों को जितना भी दुख पहुँचाता है ऐसे ही द्ख सागर में वो डूब एक दिन जाता है
शंकरपार्वती की जय जय सब बोलें नर नारी..
डमरू वाले... डमरू वाले बाबा तेरी लीला है न्यारी....
डमरू वाले... डमरू वाले बाबा तेरी लीला है न्यारी..... जय जय भोले भंडारी
हर हर महादेव: हर जन, हर व्यक्ति में महादेव का वास है, बस देखने व समझने की दृष्टि चाहिये।
जब बादल
धरती की प्यास बुझाता है
तो नहीं पूछता
कि क्या दोगी बदले में..
न कर पाता है
धरती का आलिंगन
न ही छू पाता है उसको
बस प्रेम की एक बरसात
भिगो देती है धरती
और कर देती है तर बतर.....
लहलहा उठते है खेत
और मदमस्त हो जाते
पशु-पक्षी-मानव
धरती की गोद में...
हर सुबह
सूरज लेता है
अँगड़ाई,
जगाता है धरती को
और कर देता है रोशन
चारों ओर
बिना यह सोचे कि
क्या मिलेगा उसे
धरती को जिंदा रख कर!!
सागर की
ऊँची उठती लहरें
जब स्पर्श करना चाहती हैं,
चूमना चाहती हैं
चाँद को
तब चाँद भी मुस्कुराता हुआ
बस बिखेर देता है चाँदनी
और रात के अँधेरे में
निखर उठता है सागर भी...
चाँद के प्रेम में..
लहरों का वेग बढ़ता चला जाता है
चाँद को पाने की चाह में...
घॄणा-ईर्ष्या-द्वेष के
इस दौर में,
इंसान ने चुना है एक दिन
प्रेम करने के लिये
प्रेम भी
चढ़ा दिया गया है भेंट
बाज़ारवाद की
खो गये हैं मायने प्रेम करने के
प्रेमी-प्रेमिका के लिये भी...
अब किताब में
सूखा हुआ गुलाब का फूल नहीं मिलता..
और न ही कोई बनाता है "पेन फ़ेंड"
फ़ास्ट पीढ़ी ने बदल दिया चलन
और बदलते हैं प्रेमी
हर बरस, हर महीने
हर दिन, हर पल..
कपड़ों के
फ़ैशन और स्टेटस के अनुसार...
प्रेम आलिंगन में नहीं..
प्रेम चुम्बन में नहीं...
प्रेम रूह का रूह से है..
प्रेम इंसानियत में है...
प्रेम आँखों के पानी में है..
सहलाते हुए हाथों में है...
प्रेम मौन में है..
प्रेम ईश्वर है...
प्रेम कन्हैया का राधा से है...
कृष्ण का सुदामा से है
प्रेम शबरी का राम से है,
और मीरा का श्याम से है...
प्रेम में कोई शर्त नहीं
प्रेम में कोई नहीं है बँधन ...
प्रेम केवल है समर्पण..
प्रेम कल भी था और है आज भी..
प्रेम एक दिन का मोहताज नहीं...!!
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हमने देखी है इन आँखों की महकती खुशबू..
हाथ से छू कर इसे रिश्तों का इल्जाम न दो...
सिर्फ़ अहसास है ये रूह से महसूस करो..
प्यार को प्यार ही रहने दो कोई नाम ने दो...
मित्रों,
आज से ठीक पाँच वर्ष पूर्व जनवरी 2007 में मैंने ब्लॉगिंग के क्षेत्र में कदम रखा। तभी इस ब्लॉग का नामकरण हो गया था - धूप-छाँव। और मेरा पहला पोस्ट था
कौन है सबसे कामयाब निर्देशक?? ईश्वर है सबसे बड़ा निर्देशक...ईश्वर ही हम सब के जीवन की कहानियाँ खुद ही लिख रहा है, निर्देशन कर रहा है..कमाल की बात है..इतने बड़े नाटक को अकेले ही निर्देशित कर रहा है !!और कमाल् तो इस बात का है..हम किरदार हैं और हम ही नहीं समझ पा रहे हैं के हमारे साथ क्या करवाया जाने वाला है..पर निर्देशक गुणी है..हमारा बुरा नहीं होने देगा...इस बात का पूर्ण विश्वास है..पर कम से कम ये तो बता देता के कौन सा किरदार कितनी देर तक् स्टेज पर रहेगा!!!
यह दो-चार पंक्तियाँ हीं थीं मेरा पहला पोस्ट। हैरानी होती है मुझे भी। पर बच्चा तो शुरु में छोटे कदम ही रखता है।
धूप-छाँव पर इन पाँच वर्षों में बहुत कुछ बदला है। समय भी बदला है, मैं भी और मेरे लेखों में भी बदलाव आया है। इंटेरनेट जगत में ब्लॉगिंग भड़ास निकालने का एक माध्यम बनता जा रहा है। तो इसी भड़ास-क्षेत्र में मैंने राजनैतिक व सामाजिक विषयों से लेखन प्रारम्भ किया। धूप-छाँव पर आप काफ़ी राजनैतिक और सामाजिक लेख पढ़ सकते हैं। धीरे धीरे राजनैतिक लेखों से ऊब सी होने लगी और यही सोच कर ध्यान वैज्ञानिक, शिक्षाप्रद व ज्ञानवर्धक लेखों पर गया। नवम्बर 2010 से मैंने "क्या आप जानते हैं", "गुस्ताखियाँ हाजिर हैं" व "तस्वीरों में देखिये" नामक तीन नये स्तम्भ शुरु किये। इनमें रोचक जानकारी भी है और "गुस्ताखियाँ..." जैसे स्तम्भ में राजनैतिक/सामाजिक कटाक्ष भी शामिल है। हाल ही में "भूले बिसरे गीत" व "अतुल्य भारत" जैसे स्तम्भ भी आये हैं जिनमें हम उन गीतों को देखते-सुनते हैं जो सदाबहार हैं। कुछ रेडियो चैनलों ने बाप के जमाने के गाने सुनाने शुरु किये तो लगा कि उन्हें दादा के जमाने के गानों से अवगत कराया जाये। "अतुल्य भारत" वो स्तम्भ है जिसमें भारत के वो दर्शनीय स्थल हैं जिन पर हर भारतीय को गर्व होना चाहिये व उसके बार में पता होना चाहिये। प्रयास बस इतना कि भारत की धरोहर कहीं खो न जाये।
नवम्बर २०१० में ही धूप-छाँव को नया रंग-रूप दिया। ईमेल के माध्यम से हर पोस्ट पाठक तक पहुँचाने की व्यवस्था की। तकनीक का फ़ायदा उठाया। फ़ेसबुक व ट्विटर भी ब्लॉग से जुड़ गये। २००९-२०१० के दौरान मेरे लेखों की तादाद में गिरावट आई क्योंकि मैं हिन्दयुग्म की वेबसाईट से जुड़ चुका था। हिन्दयुग्म का साथ छूटा तो वापस अपने ब्लॉग पर आया। इस बार tapansharma.blogspot.com को अप्रेल २०११ में dhoopchhaon.com बनाया। आँकड़ों पर नजर डालेंगे तो पायेंगे वर्ष २००७ में चौबीस, २००८ में 33, 2009 में महज तीन, 2010 में 18 लेख पोस्ट किये गये। वहीं २०११ में इनकी संख्या 86 हो गई। यानि एक साल में करीबन नब्बे लेख। यही वह दौर था जब राजनीति व सामाजिक लेखों/कविताओं से निकलकर मैंने ज्ञानवर्धक, गीत-संगीत व अतुल्य भारत जैसी श्रृंख्लाओं की ओर रुख किया। इन लेखों के कारण न केवल मेरे अपने ज्ञान मेंबढोतरी हुई अपितु मैं पाठकों तक अच्छी सामग्री पहुँचाने में भी कामयाब रहा। Alexa Ranking में ब्लॉग की रैंक पचास लाख से बढ़कर साढ़े पाँच लाख तक पहुँच गई। यह सब मित्रों व प्रशंसकों के कारण ही संभव हो पाया जो एक छोटा सा हिन्दी ब्लॉग एक बार तो भारत की पहली पचास हजार वेबसाईटों में शुमार हो गया था। और वो भी तब जब इसको केवल मैं अकेला ही चला रहा था। महीने में जहाँ चार पोस्ट हुआ करतीं थीं वहीं २०११ में इनकी संख्या महीने में आठ तक हो गईं।
हाल ही में वैदिक गणित भी प्रारम्भ किया गया। इस उम्मीद से कि वेदों के इस अथाह सागर में डुबकी लगाई जाये। और फिर कबीर का दोहा।
2010 नवम्बर में 650 लोगों ने पढ़ा तो जनवरी 2012 आते आते तीन हजार लोगों ने इस ब्लॉग को एक महीने में पढ़ा। यानि एक दिन में सौ हिट। छोटे से ब्लॉगर के लिये इससे बड़ी बात क्या हो सकती है।
मित्रों, आप लोगों के सहयोग के कारण ही मैं थोड़ा बहुत लिख पाता हूँ। फ़ेसबुक व ब्लॉग पर आप लोगों के कमेंट्स (टिप्पणीयाँ) मेरा उत्साहवर्धन करती आईं हैं। और इसी कारण मैं निरंतर लिखता रहा हूँ। पर फ़िलहाल मैंने ब्लॉगिंग से अल्प विराम लेने का विचार किया है। इसका अर्थ यह कतई नहीं है कि मैं ब्लॉगिंग छोड़ रहा हूँ। पर केवल अल्प विराम लेने का निश्च्य किया है। हालाँकि पूरी तरह से ब्लॉगिंग नहीं छूटेगी, पर काफ़ी हद तक अनियमित अवश्य हो जायेगी। मसलन महीने में एक या दो या फिर वो भी नहीं.... माइक्रोपोस्ट भी हो सकती है.. फ़िलहाल कुछ नहीं पता.. पर इतना पक्का है कि महीने में पाँच-छह लेखों की नियमितता नहीं रहेगी। जब भी मौका मिलेगा लेख लिखूँगा। अल्पविराम के दौरान फ़ेसबुक व ट्विटर जारी र्रहेंगे।
चित्रों में आप देख सकते हैं कि पाठकों की संख्या का ग्राफ़ लगातार ऊपर गया है। हर श्रृंख्ला के लिये लगातार लिखते रहने का जोश भी अलग ही रहा। लगातार बढ़ती लोकप्रियता के मध्य में इस तरह का विराम लेना बहुत कठिन निर्णय रहा पर हर श्रृंख्ला के लिये दिमाग में हर वक्त कुछ न कुछ चलता ही रहता था और तैयारी भी काफ़ी करनी पड़ती थी। ऑफ़िस व पारिवारिक व्यस्तताओं के कारण मेरे लिये समय निकालना कठिन हो रहा है। ब्लॉगिंग से ब्रेक लेने का निर्णय सरल नहीं था पर इस दौरान स्वयं को भी समय देना कठिन हो रहा था। यह समय मैं अपने स्वयं के साथ बिताने व समझने में और मेरे भीतर जो अज्ञानता का अँधेरा है उसे मिटाने में लगाना चाहता हूँ। बीच बीच में लेख लिखता रहूँगा पर अल्पविराम के बाद एवं नई शक्ति व स्फ़ूर्ति के संचार के साथ और अधिक सशक्त लेख के साथ वापसी होगी, ऐसा विश्वास है।
आप सभी मित्रों, प्रशंसकॊं एवं आलोचकों का धन्यवाद जिन्होंने मेरे ब्लॉग को अब तक सराहा। आपका स्नेह एवं आशीर्वाद निरंतर बना रहे यही कामना है...
मंजिल पर चल पड़े हैं पाँव, कभी है धूप.. कभी है छाँव...
जय हिन्द वन्देमातरम जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरियसी
क्या आपको "मिले सुर मेरा तुम्हारा" का वीडियो याद है? कैसे भूल सकते हैं हम वो गीत। ऐसा गीत जिसने पूरे भारत को एक सुर में बाँध दिया था। ऐसा गीत जिसमें कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी और गुजरात से लेकर उत्तर-पूर्व की अनुपम सुंदरता, सभी का समागम था। जिसमें न कोई मजहब था, न ही कोई जाति। बस एक ही उद्देश्य और एक ही भाषा - राष्ट्रप्रेम की भाषा। उसमें भारत में बोले जाने वाली सभी भाषाओं की पंक्तियाँ तो थीं पर सुर था केवल प्रेम का।
1988 के स्वतंत्रता दिवस के मौके पर प्रथम बार इसे दूरदर्शन पर प्रसारित किया गया। लोक सेवा संचार परिषद ने दूरदर्शन और संचार मंत्रालय के सहयोग से इस गीत का निर्माण किया। इसे लिखा था पीयूष पांडेय ने और इसके निर्माता थे आरती गुप्ता, कैलाश सुरेंद्रनाथ व लोक सेवा संचार परिषद। इस गीत को संगीतबद्ध किया था अशोक पाटकी और Louis Banks ने। एक ही पंक्ति को चौदह भाषाओं में गाया गया था। वे भाषायें थीं- हिन्दी, कश्मीरी, उर्दू, पंजाबी, सिन्धी, तमिल, कन्नड़, मलयालम, बंगाली, असमी, उडिया, गुजराती व मराठी। गीत में शामिल थे अभिनेता कमल हसन, अमिताभ बच्चन, मिथुन, जीतेंद्र, हेमा मालिनी, शर्मिला टैगोर, ओम पुरी, दीना पाठक, मीनाक्षी शेषाद्री, गायिका लता मंगेशकर, कार्टूनिस्ट मारियो मिरांडा, खिलाड़ी प्रकाश पादुकोण, नरेंद्र हिरवानी, वेंकतराघवन, अरूण लाल, सैयद किरमानी, नर्तिका मल्लिका साराभाई व अन्य।
एक समय ऐसा भी आ गया था जब इसे राष्ट्रगान के बराबर दर्जा दिया जाने लगा था। मुझे याद है कि बोल समझ आते नहीं थे पर हम गुनगुनाते अवश्य थे।
राष्ट्रप्रेम और अनेकता में एकता का प्रतीक यह गीत क्या आज भी सामयिक है? जहाँ कभी केरल व तमिलनाडु लड़ते हैं, कभी तेलंगाना की आग लगती है, कभी महाराष्ट्र और बिहार में युद्ध छिड़ता है तो कभी एक समाज और कभी दूसरा समाज किसी न किसी कारण से सड़कों पर दिखाई देता है। इस विषय कुछ कहा नहीं जा सकता।
गणतंत्र दिवस राष्ट्र का गौरव है। इस वर्ष हम 63वाँ गणतंत्र दिवस मना रहे हैं। तो क्यों उन दागों को याद करें जो हमारे इतिहास का हिस्सा हैं? क्या हम सभी बैर नहीं भुला सकते? क्या जो भूत में बीत गया उसे याद रखना आवश्यक है? क्या हम फिर से एक ही सुर में सुर मिला सकते हैं? क्या दोबारा वही गीत गुनगुना सकते हैं। हाँ, हम ऐसा कर सकते हैं... मन में विश्वास हो तो यह मुमकिन है। प्रेम और करूणा का भाव हो तो हम भारत के इस दौर को स्वर्णिम इतिहास बना सकते हैं। भविष्य हमें आशा भरी निगाहों से देख रहा है। वर्तमान को सुधारें, भविष्य को सँवारें।
मिले सुर मेरा तुम्हारा
विकीपीडिया से लिये गये बोल
[hi] milē sur merā tumhārā, tō sur banē hamārā
sur kī nadiyān̐ har diśā sē, bahte sāgar men̐ milē
bādalōn̐ kā rūp lēkar, barse halkē halkē
milē sur merā tumhārā, tō sur banē hamārā
milē sur merā tumhārā
[ks] Chaain taraz tai myain taraz, ik watt baniye saayen taraz
[pa] tērā sur milē mērē sur dē nāl, milkē baṇē ikk navān̐ sur tāl
[hi] sur kī nadiyān̐ har diśā sē, bahte sāgar men̐ milē
bādalōn̐ kā rūp lēkar, barse halkē halkē
milē sur merā tumhārā, tō sur banē hamārā
बीस साल बाद २६ जनवरी २०१० को Zoom TV द्वारा इसी गीत को दोबारा रिकॉर्ड किया गया और नाम रखा गया : "फिर मिले सुर मेरा तुम्हारा"। परन्तु यह गीत उतना सम्मान व प्रसिद्धि नहीं पा सका जितना पसंद पहले वाला गीत किया गया। अब का गीत 16 मिनट से अधिक का है जबकि पिछला गीत छह मिनट का था। इस गीत को भी Louis Banks ने संगीत दिया।
पिछले एक वर्ष में भारत बदला है। गणतंत्र दिवस आने वाला है। पर आखिर क्या हैं गणतंत्र दिवस के सही मायने? क्या आज का भारत गणतंत्र है? क्या यह वही भारत है जिसे ध्यान में रखकर संविधान लिखा गया होगा?
इस समय स्कूलों में दाखिले की होड़ लगी हुई है। किराने की दुकान पर एक महाशय फ़ोन पर बात कर रहे थे और अपने बच्चे का स्कूल में दाखिला हो जाये इसके लिये ढाई लाख रूपये देने को तैयार थे परन्तु स्कूल चार लाख माँग रहा था। आज की तारीख में यह साफ़ नजर आ रहा है कि स्कूल पैसे लेने को तैयार बैठे हैं और अभिभावक देने को। ये वही अभिभावक हैं जो रामदेव या अन्ना के साथ खड़े दिखाई देते हैं क्योंकि बाबू लोग और नेता अपनी जेब गर्म कर रहे हैं। किन्तु फिर यही अभिभावक अपने बच्चे के दाखिले के लिये ढाई लाख रूपये देते हैं। पर स्कूल का क्या? पढ़ाई जैसे बुनियादी अधिकार को पैसे खरीदते बेचते यह लोग ज्ञान की देवी को "सुविधाओं" के हाथों बेच देते हैं। यह किस प्रकार की व्यवस्था है? इस व्यवस्था में मध्यम वर्ग की व्यथा है। मध्यम वर्ग व्यवस्था को दोष देता है। उसे पता है कि स्कूल में पढ़वाना और बच्चे का भविष्य बनाना है। किन्तु यह कैसा भविष्य है जिसकी नींव ही भ्रष्टाचार के तंत्र में लिप्त है? यह व्यवस्था आखिर बन कैसे गई? क्या शिक्षा के तौर तरीके का बदलाव इसे ठीक कर सकता है? क्या सिलेबस कम या ज्यादा करने से सुधार होगा? क्या लोकपाल इसमें सुधार कर सकता है? क्या स्कूल इसी तरह से पैसे माँगते रहेंगे? और क्या लोग भी पैसा देने को राजी होते रहेंगे? क्या रिश्वत देना और लेना दोनों ही जुर्म नहीं होते? क्या ऐसा नहीं है कि स्कूल इसलिये लेता है क्योंकि अभिभावक पैसा देने को तैयार बैठा है? स्कूल को यह ज्ञात है कि एक नहीं तो दूसरा सही, दूसरा नहीं तो तीसरा सही। इस पर सरकार या टीम अन्ना किस तरह से रोक लगा सकती है यह विचारनीय है।
आपके और मेरे और सभी के ही ऑफ़िस में मेडिकल के बिल दिये जाते हैं। वर्ष में १५००० रूपये के बिल देकर हमें कर में कर (टैक्स) में छूट मिल जाती है। इसके लिये कैमिस्ट से हमें बिल "बनवाने" पड़ते हैं। नकली बिल। कैमिस्ट भी दो प्रतिशत की दर से जितने का बिल आप बनवाना चाहो, बनवा सकते हो। यहाँ हम किसे दोष दे सकते हैं? एक मुश्त सैलरी पाने वाले उस कर्मचारी को जो एक एक रूपया बचाना जाता है ताकि इस महँगाई में जीविका चलाई जा सके? या आप दोष देंगे उस कर प्रणाली (Tax System) जो हमें ऐसा कदम उठाने पर मजबूर कर देती है। यह अलग किस्म का भ्रष्टाचार है। हमारे छोटे से छोटे कार्य में भी भ्रष्टाचार का तंत्र इस कदर हावी है कि हमें "गलत" व "सही" का एहसास ही नहीं हो पाता चाहें यह "सिस्टम" के कारण हो अथवा हमारे निजी स्वार्थ के कारण। यह भ्रष्टाचार रग रग में बस चुका है। क्योंकि सारा सिस्टम ही ऐसा है। क्या लोकपाल इस बीमारी का इलाज कर सकता है?
और भी कईं वाकये हमारी ज़िन्दगी में होते हैं - ट्रफ़िक पुलिस वाले को सौ की जगह पचास "खिलाने" की बात आये या फिर रेल में टिकट पक्की करने के लिये टिकट चैकर को "खिलाने" की बात हो। कहीं भी लोकपाल काम नहीं आ सकता। क्योंकि अधिकतर जगहों पर "देने" वाले तैयार बैठे हैं। पैसे न सही तो चोरी पकड़े जाने पर "ऊपर" के लोगों की जानपहचान निकालना गर्व की बात समझी जाने लगी है।
भ्रष्टाचार की जड़े इतनी गहरी हैं कि लोकपाल का छिड़काव ऊपर की पत्तियों तक तो पहुँच जायेगा किन्तु इसकी जड़ों तक नहीं पहुँच सकता। और जब तक यह जड़ रहेगी तब तक पौधा पनपता रहेगा।लोकपाल उस एलोपैथी की दवाई की तरह है जो बीमारी को केवल ऊपर से ठीक करती है, जड़ से समाप्त नहीं। ऐसा नहीं कि अन्ना के लोकपाल से सुधार नहीं होगा। होगा.. पर वो केवल दिखावटी सुधार होगा। डर कर सुधार होगा। मन व आत्मा से नहीं। वहाँ तो अशुद्धि की परत जमी रह जायेगी।
भारत को गणतंत्र हुए ६२ साल हो गये हैं। इन ६२ सालों में हमने जो सोचा, जिस सोच से आगे बढ़े थे वो सोच पीछे रह गई है। गणतंत्र का अर्थ होता है हमारा संविधान - हमारी सरकार- हमारे कर्त्तव्य - हमारा अधिकार। हमारा संविधान हमें बोलने का व अपने विचार रखने का अधिकार देता है। सरकार इसका विरोध करती है। फ़ेसबुक, ट्विटर आदि सोशल साईट इसका उदाहरण हैं। यह कैसी स्वतंत्रता? यह कैसा गणतंत्र? यह साईटें सीधे जनता की आवाज़ है। यह मीडिया "बिकाऊ" नहीं है। इन पर रोक लगाना तानाशाही के बराबर है। मनमोहन सिंह को सोनिया जी की गोद में बिठाकर तस्वीर बनाने को जायज़ क्यों नहीं ठहराया जा सकता? जहाँ तक मेरा ज्ञान है राष्ट्रपति और राष्ट्रपिता को छोड़ कर किसी का भी कार्टून बनाया जा सकता है। क्या सरकार तभी कुछ कदम उठाती है जब उस पर अथवा किसी वर्ग पर उंगली उठे। और वो भी तब जब चुनाव हों। क्या सलमान रुश्दी व तस्लीमा नसरीन स्वतंत्र नहीं? यह कैसा गणतंत्र?
क्या हमें अपने विधेयक बनवाने अधिकार नहीं? जनलोकपाल और बाबा रामदेव के आंदोलन को बर्बरतापूर्वक समाप्त करना विचारों के अधिकारों का हनन नहीं? संविधान के कानूनों के दाँवपेंच में सरकार जनता का उल्लू सीधा करने में कामयाब रहती है। किन्तु मामला एक तरफ़ा नहीं है। हम अपने वोट के अधिकार को अनदेखा कर देते हैं। हमें अपने कर्त्तव्य याद रखने चाहियें। हमें अधिकार याद रहते हैं किन्तु कर्त्तव्य भूल जाते हैं। हर नागरिक को जागरुक होना पड़ेगा। हर अधिकारी अपना कर्त्तव्य निभाये और जनता के अधिकारों को पूरा करे। इसी तरह जनता यदि अपने कर्त्तव्यों को पहचाने तो ही कुछ हो सकता है। आज अजब सा विरोधाभास है। गणतंत्र दिवस उस संविधान के लिये है जिसके तहत जनता और सरकार दोनों में विश्वास पैदा होता है पर पिछले एक वर्ष में इतना सब हुआ कि जनता का सरकार व राजनैतिक दलों के ऊपर से विश्वास उठ गया है। यह चिन्ता का विषय है। पर इसमें अच्छाई यह भी कि शायद नेता व दल इन कुछ समझेंगे। और क्या हम भी समझेंगे? हमारे अधिकार समझाने के लिये चुनाव आयोग 25 जनवरी को "National Voters Day" का आयोजन कर रहा है। अब भी नहीं समझे तो कब समझेंगे?
व्यवस्था की अनदेखी भी नहीं की जा सकती है। व्यवस्था में लगातार सुधार की गुंजाईशा है। एक आंदोलन की आवश्यकता है। जागरुकता की आवश्यकता है। मजहब व जाति से ऊपर उठकर देशधर्म अपनाने की आवश्यकता है। प्रेम की आवश्यकता है। यह देश असल में गणतंत्र तभी हो पायेगा जब हर नागरिक अपना कर्त्तव्य निभायेगा और दूसरे के अधिकारों की पूर्ति होगा। और तभी हम सर उठाकर स्वयं को गणतंत्र घोषित कर सकेंगे।
वैदिक गणित के पहले दो अंकों में हमने जाना कि कितनी सरलता से हम बड़े अंकों का गुणा (Multiply) कर सकते हैं। हमने उन Theorems की लिस्ट भी देखी जिनकी सहायता से हम बड़ी से बड़ी कैलकुलेशन भी सेकंड में कर सकेंगे। वेद ज्ञान का सागर है और इसी सागर की एक बूँद है वैदिक गणित। वैदिक गणित के सोलह सूत्रों को जानने की कोशिश जारी रहेगी।
आज इस अथाह सागर की एक बूँद से लेकर आये हैं Multiplication के ही कुछ Shortcuts. इसमें निखिलंसूत्र और ऊर्ध्वतिर्यग्भाम की सहायता से हम Shortcuts को समझेंगे।
निखिलंसूत्रं के कुछ टिप्स :
मान लीजिये आपने 7 का square निकालना है:
चूँकि 7 के लिये 10 को Base माना जायेगा अत: 10 में से 7 जितना कम होगा उसे 7 से उतना ही घटायेंगे.. उदाहरण से समझ आ जायेगा।
इन सभी उदाहरणों में क्योंकि 10 को base माना गया है इसलिये "/" के दाईं और एक ही अंक आयेगा और दाईं संख्या में जो अंक दहाई का होगा यानि 10th place का होगा उसको बाईं संख्या में जोड़ दिया जाता है।
आगे जानते हैं एकादिकेन पूर्वेण की सहायता से 5 पर समाप्त होने वाली किसी भी संख्या का Square कैसे निकाला जाता है:
करना केवल इतना है कि "/" के बाद के अंक हमेशा 25 रहेंगे और इसके पहले के अंक के लिये 5 से पहले जो संख्या है उसमें एक जोड़ कर उसी संख्या से Multiply करना होगा।
15 के लिये 1 को 2 से और 65 के लिये 6 को 7 से।
10th place के दोनों अंकों को गुणा करें, (Top-Left * Right-Bottom) + (Bottom-Left * Top-Right) और दोनों संख्याओं के आखिरी अंकों को गुणा करें एवं कुछ इस प्रकार लिखें:
9 : 9 + 21 : 21 = 9 : 30 : 21
यहाँ हमें बीच चाली संख्या का 10th place का अंक सबसे पहली वाली संख्या में जोड़ना है और इसी तरह सबसे दाईं ओर वाली संख्या का अंक बीच वाले में जोड़ना है।
9 : 30 : 21 = 9 + 3 : 0 + 2 : 1 = 1221
अगलें अंक में हम जानेंगे कि बड़े बड़े rectangle (चतुर्भुज) का क्षेत्रफ़ल (Area) कैसे निकालें। Sq. ft and Sq. inches will be calculated without calculator :-) और हम जानेंगे निखिलं सूत्रं के द्वारा किस तरह Division किया जा सकता है।
क्या आप जानते हैं कि गणतंत्र दिवस पर कौन से वर्ष से मुख्य अतिथि को बुलाया जा रहा है और राजपथ पर परेड की शुरूआत कब हुई?
विजय चौक (राजपथ, दिल्ली, भारत)
हमारा देश 26 जनवरी 1950 को गणतंत्र घोषित किया गया। "घोषित" शब्द का प्रयोग इसलिये कर रहा हूँ क्योंकि संविधान लिखा तो गया पर उसके साथ कितना खिलवाड़ हुआ यह हम अच्छी तरह से जानते हैं। बहरहाल, हम बात करते हैं मुख्य अतिथियों की। साल 1950 से ही विदेशी प्रधानमंत्रियों, राष्ट्रपति व राजाओं को बुलाने का रिवाज़ रहा है। आपको जानकर हैरानी होगी कि 1950 से 1954 के बीच गणतंत्र दिवस का समारोह कभी इर्विन स्टेडियम, किंग्सवे, लाल किला तो कभी रामलीला मैदान में हुआ था न कि राजपथ पर। 1955 से ही राजपथ पर परेड की शुरूआत हुई। प्रति वर्ष विदेशी रणनीति के तहत विभिन्न देशों से सम्बन्ध बनाने हेतु अलग लग गणमाननीय प्रतिनिधियों को मुख्य अतिथि के तौर पर बुलाया जाने लगा। वर्ष 1950 से 1970 के दौरान Non-Aligned Movement और Eastern Bloc के सदस्य देशों के प्रतिनिधियों की मेजबानी करी गई तो शीत-युद्ध के पश्चात पश्चिम देशों को न्यौता दिया गया।
ये गौर करने की बात है कि पाकिस्तान और चीन से युद्ध से पहले इन दोनों देशों के प्रतिनिधि गणतंत्र दिवस परेड में शामिल हो चुके हैं। पाकिस्तान के कृषि मंत्री तो 1965 में अतिथि बने थे और उसके कुछ समय पश्च्चात ही पाकिस्तान से हमारा युद्ध हुआ। हर बार धोखा ही मिला है पाकिस्तान और चीन से। एक से अधिक बार बुलाये जाने वाले देशों में पड़ोसी राज्य भूटान, श्रीलंका और मोरिशियस के अलावा रूस, फ़्रांस व ब्रिटेन रहे हैं। ब्राज़ील और NAM सदस्य जैसे नाईजीरिया, इंडोनेशिया और यूगोस्लाविया भी एक से ज्यादा बार परेड का हिस्सा बन चुके हैं।
फ़्रांस से सबसे अधिक चार बार अतिथि भारत आये हैं। भूटान, मौरिशियस व रूस के के प्रतिनिधि तीन बार परेड में अतिथि बने हैं।
नीचे कुछ अतिथियों के नाम और देश के नाम हैं:
वर्ष अतिथि का नाम देश 1950राष्ट्रपति सुकर्णोइंडोनेशिया (प्रथम अतिथि)
1951-
1952-
1953-
1954राजा जिग्मे डोरजीभूटान 1955गवर्नर जनरल गुलाम मुहम्मद पाकिस्तानराजपथ पर परेड के पहले अतिथि
1956-
1957-
1958मार्शल ये यिआनयिंगचीन
1959-
1960राष्ट्रपति किल्मेंट वोरोशिलोवसोवियत संघ (रूस) 1961रानी एलिज़ाबेथ IIब्रिटेन
1962-
1963राजा नोरोडोम सिहानाउक कम्बोडिया
1964- 1965कृषि मंत्री राणा अब्दुल हमिदपाकिस्तान
1966-
1967-
1968प्रधानमंत्री एलेक्ज़ेई कोसिजिन सोवियत संघ राष्ट्रपति टीटो यूगोस्लाविया
1969प्रधानमंत्री तोदोर ज़िवकोव बुल्गारिया
1970-
1971राष्ट्रपति जूलियस तन्ज़ानिया
1972सीवोसगूर रामगुलममोरिशियस
1973मोबुतु सेसे सेको ज़ायरे 1974राष्ट्रपति टीटो यूगोस्लाविया रत्वत्ते बंदरनायकेश्रीलंका
कबीर का जन्म करीबन छह सौ वर्ष पूर्व 1398 में हुआ। कुछ विद्वान मानते हैं कि वे 120 वर्ष तक जीवित रहे व 1518 में उन्होंने देह त्यागा। हालाँकि कुछ स्थानों पर उनका जन्म 1440 में भी बताया गया है। सही जन्म तिथि के बारे में किसी को नहीं पता है। ये वो समय था जिसे देश में भक्ति काल से भी जाना जाता है। पेशे से जुलाहे कबीर की गिनती विश्व में महान कवि व संत के रूप में होती है। इनके दोहे बच्चे बच्चे की जुबान पर होते हैं। भारत में धर्म की बात हो और कबीर का नाम न आये ऐसा हो नहीं सकता।
पवित्र गुरू ग्रंथ साहिब में कबीर के पाँच सौ से ऊपर दोहे हैं। कबीर के दोहों की खासियत यह है कि इनके शब्द सरल होते हैं। हमारे आसपास की वस्तुओं व घटनाओं को ध्यान में रखकर वे दोहे लिखा करते थे। शब्द सरल हैं पर अर्थ जटिल परन्तु इतने शुद्ध कि अगर हम सब अपने जीवन में उन्हें उतार लें तो ये धरती स्वर्ग बन जाये।
उनके जीवन के बारे में अनेक कथायें हैं। कहते हैं कि एक बार संत रामानन्द गंगा के किनारे स्नान करने हेतु गये थे। सीढियाँ उतर ही रहे थे कि तभी उनका ध्यान कबीर पर गया और कहते हैं कि सही गुरू मिले तो जीवन साकार हो जाता है। विवेकानन्द को रामकृष्ण परमहंस मिले थे कबीर को रामानन्द मिले।
वर्ष 2012 का आगमन हो चुका है। पिछले माह दिसम्बर से वैदिक गणित की श्रृंख्ला आरम्भ करी थी। हमारी संस्कृति, धर्म व जीवन के मूल्यों का ज्ञान हमें जीवन जीना व आध्यात्म की सीख देता है। आने वाले कुछ दिनों में सूक्तियाँ एवं अनमोल वचन भी आप धूप-छाँव पर पढ़ सकेंगे।
चूँकि मैं भी कबीर के दोहों से अनजान हूँ व हिन्दी में थोड़ा कच्चा हूँ इसलिये यदि किसी को इन दोहों व इनके शब्दार्थ/भावार्थ में त्रुटि दिखाई दे तो कृपया अवश्य बतायें।
आज का दोहा है:
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलया कोये।
जो मन खोजा आपना, तो मुझसे बुरा न कोये॥
कहते हैं मानव की सबसे बड़ी गलतफ़हमी है कि हर किसी को लगता है कि वो गलत नहीं है। यह दोहा हमारा व्यवहार हमें बता रहा है। जब भी हम दुखी होते हैं तो हमें लगता है कि हम फ़लाने व्यक्ति के कारण दुखी हैं.. उसने ऐसा कैसे कर दिया.. या ऐसा क्यों नहीं किया... या उसको वो करना चाहिये था। या परिस्थितियों को रोते हैं.. काश ऐसा हो जाता.. काश वैसा हो जाता.. वगैरह वगैरह। यह अमूमन हम सब करते हैं। यह मानवीय व्यवहार है। अपने दुख का दोषी किसी व्यक्ति अथवा परिस्थिति को ठहराना। कभी क्रोध आ जाये तो हम उसका दोष भी किसी दूसरे को देते हैं। और हमें हमेशा लगता है कि हम सही हैं। हमसे कभी भूल नहीं हो सकती। ये हमारा अहं ही है जो हमे इस तरह सोचने पर मजबूर कर देता है। अपनी गलतियों का कारण हम दूसरों में खोजते हैं। नतीजा, हम किसी दूसरे की आलोचना करते हैं और उसे ही भला बुरा कहने लगते हैं।
कबीर कहते हैं कि क्यों व्यर्थ में हम किसी दूसरे में दोष ढूँढने लगते हैं? वे कहते हैं कि हमें अपने अंदर झाँक कर देखना चाहिये। यदि कहीं कोई कमी है तो वो "मुझमें" है। मैं किसी दूसरे व्यक्ति में गलतियाँ क्यों ढूँढू? यदि मैं किसी के साथ निभा नहीं पा रहा हूँ तो बदलाव मुझे करना है।
हाँ मैं यह जानता हूँ कि हर व्यक्ति चाहें वो हमेशा अच्छा लगे या बुरा, उसका प्रभाव हमारे व्यक्तित्व पर पड़ता है। जिस व्यक्ति की आपसे नहीं निभती वही आपका व्यवहार की परीक्षा होती है कि आप उससे किस प्रकार बर्ताव करते हैं। किन्तु सब आपके हाथ में ही है। आपको अपने जीवन को किस ओर ले कर जाना यह कोई दूसरा निर्धारित नहीं करता। गाड़ी आपकी है, ड्राईवर आप हैं, मंजिल आपने चुननी हैं, रास्ता आपने बनाना है।
कोई भी व्यक्ति अच्छा या बुरा नहीं होता। बस मतभेद होते हैं।
अंग्रेजी में एक कहावत है : "Blaming others is excusing ourselves.".
आपको यह प्रयास कैसा लगा टिप्पणी अवश्य करें। दोहे तुलसी के हों, अथवा कबीर के, अथवा मनु-स्मृति या चाणक्य एवं विदुर नीति - धार्मिक, सामाजिक एवं आध्यात्मिक ज्ञान सभी में है और इस ज्ञान के बिना जीवन अधूरा है।
हाल ही में अमरीका के विदेश विभाग की एक वेबसाईट में पाकिस्तान-अधिकृत कश्मीर को पाकिस्तान का हिस्सा दिखाया गया। इस मुद्दे पर भारत ने तुरंत अपनी नाराज़गी व्यक्त की और अमरीका को माफ़ी माँगनी पड़ी व नक्शा ठीक करना पड़ा। अधिक जानकारी यहाँ से लें:
पर क्या आपको नहीं लगता कि विश्व को हम यह समझाने में नाकाम रहे हैं कि पाकिस्तान-अधिकृक कश्मीर "हमारा" है। पर बात यह भी कि क्या सचमुच वो हमारा है या फिर हम केवल नक्शे में उस हिस्से को अपना समझकर निहारते रहते हैं। कश्मीर के इतिहास में मैं नहीं जाना चाहता। पर वर्तमान में पीओके में हमारा राज नहीं है, यह एक कड़वी सच्चाई है। जो आज़ादी से पहले भारत का हिस्सा था वहाँ हमारी विधानसभा, लोकसभा की कोई सीट नहीं है यह भी सच है। आज की तारीख में वही पाकिस्तान और भारत का बॉर्डर है। पीओके में लश्कर आदि आतंकवादी संगठनों के कैम्प लगे हुए हैं जिन्हें हम छू भी नहीं सकते क्योंकि वहाँ पाकिस्तान का कब्जा है।
यदि ऊपर की सभी बातें सही हैं और वर्तमान की सच्चाई है तो फिर हम किस हक़ से पीओके को अपना कहते हैं? क्या ऐसा नहीं हो सकता कि पाकिस्तान पीओके रखे और हम अपना कश्मीर। इस मसले का हल आखिर है क्या? कभी वार्त्ता, कभी युद्ध तो कभी पीठ पीछे आतंकवादी हमला। सत्य कटु होता है और सत्य यही है कि हम अपना पड़ोसी तो नहीं बदल सकते। वह ढोंग करता रहेगा और हम सहते रहेंगे।
हर बार कोई न कोई साईट नक्शा "गलत" बनाती है तो कभी कोई संगठन या पुस्तक और फिर उसके पश्चात हम हटवाते रहते हैं और यह भी चाहते हैं कि साईट/संगठन या प्रकाशक हमसे माफ़ी माँगे। आखिर वे नक्शा गलत बनाते ही क्यों हैं? दरअसल विश्व वही स्थिति देख रहा है जो वर्तमान की है। या तो हम इतनी हिम्मत कर सकें कि छाती ठोंक कर बोलें पीओके हमारा है और लशकर के कैम्पों को नष्ट कर दें। पाकिस्तान की पूरे विश्व में पोल खोलें। चीन और पाकिस्तान दोनों के खिलाफ़ बोलने का साहस कर सकें। पर यदि यह सब नहीं कर सकते तो शांति पूर्वक पीओके पाकिस्तान को दे देना चाहिये। अरूणाचल व सिक्किम में भी चीन ने हमारी जमीन हड़प ली है और हम हाथ पर हाथ धरे बैंठे हैं।
कुछ वर्ष पश्चात फिर हम चीन और पाकिस्तान से वार्त्ता कर रहे होंगे। कभी अरूणाचल के नक्शे की तो कभी सिक्किम की तो कभी राजस्थान व कश्मीर बॉर्डर की।
चलते चलते यह नक्शा भी देख जाईये.. यह www.blogger.com द्वारा प्रकाशित नक्शा है जिसमें पीओके को पाकिस्तान में दिखाया गया।
यह गौरतलब है कि ब्लॉगर.कॉम गूगल की वेबसाईट है। किस किस को बोलेगी सरकार? जब अपनी ही विदेश नीति व इच्छा शक्ति में खोट है तो विदेशियों को कहने -सुनाने का हमारा कोई अधिकार नहीं बनता। मैं अपने ब्लॉग के माध्यम से सरकार को अपील करना चाहूँगा कि वह गूगल से कहलवाकर इस नक्शे को भी बदलवायें।
भूले बिसरे गीत में आज फ़िल्म तीसरी क़सम के मेरी पसन्द के दो गीत। हालाँकि फ़िल्म के अन्य गीतों में "चलत मुसाफ़िर मोह लियो रे" और "सजनवा बैरी हो गये हमार" गीत भी बेहतरीन हैं पर आज यही दो गीत..
ये गीत मुझे इसलिये भी पसन्द हैं क्योंकि इनके शब्दों में सच्चाई है, सफ़ाई है, शुद्धता है। ज़िन्दगी का व समाज का आईना है। बिना बात की अकड़ लिये हम किसी न किसी बात पर अहंकार ले आते हैं। खास तौर पर "सजन रे झूठ मत बोलो" तो दिल के बेहद करीब है....
चाहें राजा हो या प्यादा खेल समाप्त होने पर सभी को एक ही डब्बे में जाना होता है।
सजन रे झूठ मत बोलो, खुदा के पास जाना है
फ़िल्म - तीसरी क़सम (1966)
संगीतकार: शंकर जयकिशन
गीतकार: शैलेंद्र
गायक: मुकेश
सजन रे झूठ मत बोलो, खुदा के पास जाना हैन हाथी है ना घोड़ा है, वहाँ पैदल ही जाना है
तुम्हारे महल चौबारे, यहीं रह जाएंगे सारे
अकड़ किस बात कि प्यारे
अकड़ किस बात कि प्यारे, ये सर फिर भी झुकाना है
सजन रे झूठ मत बोलो, खुदा के पास जाना है ...
भला कीजै भला होगा, बुरा कीजै बुरा होगा
बही लिख लिख के क्या होगा
बही लिख लिख के क्या होगा, यहीं सब कुछ चुकाना है
सजन रे झूठ मत बोलो, खुदा के पास जाना है ...
लड़कपन खेल में खोया, जवानी नींद भर सोया
बुढ़ापा देख कर रोया
बुढ़ापा देख कर रोया, वही किस्सा पुराना है
सजन रे झूठ मत बोलो, खुदा के पास जाना है
न हाथी है ना घोड़ा है, वहाँ पैदल ही जाना है
सजन रे झूठ मत बोलो, खुदा के पास जाना है ...
दुनिया बनाने वाले, क्या तेरे मन में समाई
फ़िल्म - तीसरी क़सम (1966)
संगीतकार: शंकर जयकिशन
गीतकार: शैलेंद्र
गायक: मुकेश
दुनिया बनाने वाले, क्या तेरे मन में समाई
काहेको दुनिया बनाई, तूने काहेको दुनिया बनाई
काहे बनाए तूने माटी के पुतले,
धरती ये प्यारी प्यारी मुखड़े ये उजले
काहे बनाया तूने दुनिया का खेला
जिसमें लगाया जवानी का मेला
गुप-चुप तमाशा देखे, वाह रे तेरी खुदाई
काहेको दुनिया बनाई, तूने काहेको दुनिया बनाई ...
तू भी तो तड़पा होगा मन को बनाकर,
तूफ़ां ये प्यार का मन में छुपाकर
कोई छवि तो होगी आँखों में तेरी
आँसू भी छलके होंगे पलकों से तेरी
बोल क्या सूझी तुझको, काहेको प्रीत जगाई
काहेको दुनिया बनाई, तूने काहेको दुनिया बनाई ...
प्रीत बनाके तूने जीना सिखाया, हंसना सिखाया,
रोना सिखाया
जीवन के पथ पर मीत मिलाए
मीत मिलाके तूने सपने जगाए
सपने जगाके तूने, काहे को दे दी जुदाई
काहेको दुनिया बनाई, तूने काहेको दुनिया बनाई ...