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Friday, December 24, 2010

ये चिंगु-चिंगु क्या है? हिमालय की गोद में "चिंगु" का धँधा या फिर गोरखधँधा? Chingu Business in Himalayas

हाल ही में पटनीटॉप जाना हुआ। वहाँ प्राकृतिक व मनमोहक पहाड़ियों के अलावा आपको कुछ नहीं मिलेगा। कोई खास बाज़ार या मालरोड भी नहीं है जो हर हिलस्टेशन पर आपको आमतौर पर मिल जाते हैं। पर हम बात करेंगे चिंगु की।

पटनीटॉप में दो-तीन पार्क हैं और एक मंदिर है। बाबा नाग मंदिर। हजारों साल पहले कोई ब्रह्मचारी बाबा हुए हैं। उन्हीं का यह मंदिर है। टैक्सी वाले यहाँ जरूर आपको ले कर आते हैं। मंदिर के लिये 20-25 सीढ़ियाँ उतरनी थीं। और वहाँ पर थीं करीबन आठ से दस दुकानें। हमें देखते ही सबने चिल्लाना और आवाज़ लगाना शुरु कर दिया। "सर, हमारे यहाँ आइये, चिंगु देखिये".... "चिंगु  देखने के लिये यहाँ आयें.."। एक ने तो हमसे वादा ले लिया कि हम मंदिर दर्शन के बाद उसके यहाँ आयें। तब तक हमारे मन में चिंगु को देखने और उससे मिलने की जिज्ञासा उत्पन्न हो चुकी  थी। हमने सोच लिया था कि चाहें दुकान से कुछ खरीदें या नहीं खरीदें, चिंगु से जरूर मिलेंगे।

दर्शन के पश्चात उसी दुकान पर हम पहुँच गये। हम अंदर घुसे उसके कुछ सेकेंड बाद उस दुकानदार ने दुकान पर पर्दा डाल दिया। तब तक भी चिंगु  से हम अनभिज्ञ थे। अब शुरु होती है चिंगु की कहानी। उसने कुछ इस तरह से बताना शुरू किया कि हम बस सुनते चले गये। उसने एक शॉल दिखाया। उसी को उसने चिंगु का नाम दिया। चिंगु एकतरह का शॉल होता है जो बहुत ही गर्म होता है और विशेष प्रकार की भेड़ से बनता है। उसने बताया कि पहले उस भेड़ को मारा जाता था पर अब उसको मारते नहीं हैं। उसके बच्चे के बाल उतार कर इस शॉल को बनाया जाता है। ये एक स्पेशल शॉल है जो सर्दियों में गर्म करता है और गर्मियों में बिस्तर पर चादर का काम कर सकता है। उसके ऊपर कुछ पानी के  छीँटे मारो और पंखा खोल दो। बस। कहानी मजेदार रूप ले चुकी थी और हम वहीं बैठे थे।

दुकानदारी एक कला है। आपको बेकार से बेकार चीज़ भी ऐसे बतानी है कि ग्राहक को लगे कि बस उसी के लिये ही यह चीज़ बनी है और उसके बिना ग्राहक का जीवन अधूरा है अब आगे की कहानी सुनें- चिंगु हमें छह हजार में मिलने वाला  था। पर उसके साथ मिलने वाले थे चादर-तकिये के दो सेट। उसके साथ मिल रहा था एक मखमली कम्बल। उसके साथ थी एक लोई (एक तरह की शॉल)। ये चार-पाँच चीज़े एक "फ़ैमिली-पैक" बनाती है। छह हजार में इतना कुछ। और उसने एक सेमी-पश्मीना शॉल भी देने का वादा किया जो अंगूठी में से भी निकल जाती है। ये उसने हमें करके दिखाया। आँखें फ़टी की फ़टी रह गईं।

छह हजार में छह तरह के कपड़े इस महँगाई में सही सौदा है। पर कहानी अभी बाकी थी। इसका आभास हमें नहीं लग पाया। उसने और आगे बताना शुरू किया। उसने एक रजिस्टर निकाला जिस पर जम्मू-कश्मीर सरकार का कोई डिपार्टमेंट का नाम था। शायद जम्मू-कश्मीर का केवल नाम था, मैं पूरा पढ़ नहीं पाया। उस रजिस्टर में सैकड़ों लोगों की लिस्ट थी और उनके नाम-पते व फ़ोन नम्बर दर्ज थे। दरअसल असली बात तो आगे आनी थी। चिंगु को हमने 21 महीनें से लेकर पाँच साल तक के बीच में इस्तेमाल करना था जिसके बाद उस डिपार्टमेंट का ही एक आदमी हमारे घर आयेगा और हमसे यह शॉल ले जायेगा। वो ये देखने भी घर आयेगा कि हम इस शॉल का सही इस्तेमाल कर भी रहें हैं या नहीं। हम हैरान थे... शॉल वापस ले जायेगा!!! उसके साथ वापस होंगे 75% रूपये जो हमने शॉल को खरीदने में लगाये। यानि कुल 1500 रूपये में हमें पाँच आईटम मिलने वाले थे। और 21 महीने बाद हमें मिलेगा एक और कम्बल!!

कुछ समझ नहीं आ रहा था..बार बार उस रजिस्टर में नाम और जगह पढ़ीं। गुजरात, दिल्ली, चेन्नई, राजस्थान, यूके कोई ऐसी जगह नहीं जो नहीं लिखी हुई। हमने पूछा कि हम दिल्ली कैसे लेकर जायेंगे। जवाब मिला पार्सल हो जाता है। उसके 300 रूपये अलग से लगेंगे। और 600 रू उनके विभाग का रजिस्ट्रेशन चार्ज। उसने हमें बताया कि उनके ऑफ़िस सभी जगह पर हैं, उसने हमें लिस्ट दिखाई। हमें उस लिस्ट में कनॉट प्लेस दिखाई दिया पर उसमें पूरा पता नदारद था!!

इतनी आकर्षक स्कीम। कभी नहीं सुनी। लेकिन चिंगु वापस लेकर इन्हें क्या फ़ायदा होगा? यहीं हमने उससे पूछा। जवाब मिला कि चिंगु शॉल का कपड़ा 21 महीने के इस्तेमाल के बाद और निखर जाता है। उस शॉल से फिर एक कपड़ा बनेगा जिससे तीन शॉलें और बनेंगी और हर शॉल की कीमत होगी एक लाख रू से भी ज्यादा। कहानी ने चकरा दिया था। हमने यहाँ तक कहा कि हम घर में पूछ कर ही इतना बड़ा फ़ैसला करेंगे। तब वो दुकानदार हमें अपने फ़ोन से बात कराने को राजी हो गया, पर हमें दुकान से वापस नहीं जाने दे रहा था। कोई हमें अपना फ़ोन देने और एस.टी.डी कराने तक को राजी कैसे हो सकता है?

हम जैसे-तैसे वापस हॉटल आ गये। समझ नहीं पा रहे थे कि ये कैसा धँधा है? या फिर एक बहुत बड़ा गोरख धँधा। मैंने अपने फ़ोन पर ही इंटेरनेट पर चिंगु के बारे में जानना चाहा तो मुझे दो-तीन साईट और मिली जिन पर इस "खेल" का जिक्र था। वहाँ से पता चला कि यह "खेल" मनाली, शिमला में भी फ़ैला हुआ है। कुछ शिकायतें मिलीं जिन्हें चिंगु का फ़ैमिली-पैक पार्सल नहीं हो पाया। यही चिंगु हमें कटरा शहर में भी एक दुकान पर देखने को मिला। दुकानदार की रेट लिस्ट के मुताबिक चिंगु आपको छह हजार से साठ हजार या लाखों तक में भी मिल जायेगा। मुझे नहीं लगता कि ये क्वालिटी पर निर्भर करता है बल्कि इस पर कि ग्राहक कितना मालदार है।

हमने चिंगु नहीं खरीदा। हो सकता है कि आप भी कभी न कभी इस तरह की स्कीम से रू-ब-रू हुए हों। नहीं हुए तो हिमालय की इन हसीन वादियों का एक चक्कर काट आईये। कहीं न कहीं ये "चिंगु" आपको मिल ही जायेगा। क्या आप ये "चिंगु" अपने घर ले जाना चाहेंगे? यदि हाँ तो इसके बारे में अन्य लोगों को बतायें क्योंकि तीन ग्राहक बनाने पर आपको और भी बहुत कुछ मिलने की "गारंटी" मिलेगी। और यदि नहीं खरीदें तो मेरी तरह लोगों तक इस "आकर्षक" व सम्मोहित कर देने वाली स्कीम के बारे में जरूर बतायें। वैसे चिंगु खरीदना हो या नहीं, हिमाचल और जम्मू-कश्मीर आप एक बार जरूर होकर आयें।


"धरती पर यदि स्वर्ग है तो यहीं है यहीं है यहीं है"

॥जय हिन्द॥




धूप-छाँव में पढ़िये दो नियमित स्तम्भ:
गुस्ताखियाँ हाजिर हैं
क्या आप जानते हैं?
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Tuesday, December 21, 2010

क्या आप जानते हैं? क्या है सीमा सड़क संगठन और ड्राईवरों को कैसे बना रहा है अपने शब्दों से जागरूक Border Roads Organization Slogans

संविधान के अनुसार सड़क निर्माण की जिम्मेदारी किसी भी राज्य की सरकार की होती है। हम सभी जानते हैं कि सीमा की सुरक्षा सर्वोपरि है और हमारी सेना इस कार्य में दिन-रात लगी रहती है। सीमा की सड़कों को देश की अन्य सड़कों से जल्दी से जल्दी जोड़ा जाये जिससे यातायात में सुविधायें बढ़ सकें एवं सीमावर्ती क्षेत्रों के मार्गों को सुगम बनाया जाये इसी के मद्देनजर सीमा सड़क संगठन या Border Roads Organization की स्थापना की गई।
सीमा सड़क संगठन (BRO) का लोगो

7 मई 1960 में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने इसकी स्थापना की व इसके प्रथम चेयरमैन बने। आज इसके निदेशक, लेफ़्टिनेंट जनरल एम.सी बधानी हैं। यह संगठन उत्तर व उत्तर-पूर्वी राज्यों में तत्पर्ता से कार्य कर रहा है। इसे हिमालय की ठंड व राजस्थान की रेत और तपतपाती गर्मी से जूझना पड़ता है और पहाड़ी राज्यों के कठिन रास्तों से भी गुजरना होता है।

सीमा सड़क संगठन की वेबसाईट पर जारी ये संदेश पढ़िये:


"हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि विषम क्षेत्रों में सड़कों का निर्माण केवल कंक्रीट और सीमेन्ट से नहीं हुआ है बल्कि इसमे भारत के सीमा सड़क संगठन के वीर जवानों का खून भी शामिल है । कई वीरों ने कार्य करते हुए ड्यूटी के दौरान अपनी जान गवांई है । इन वीरो के लिए , जो सदा खतरों से खेलते हैं और मौत पर हंसते हैं, उनके  लिए ड्यूटी हमेशा पहले रही है । ये सभी वीर भारत के विभिन्न भागों से आते हैं और अपने देश की सुरक्षा के लिए न केवल हमेशा तत्पर रहते हैं बल्कि पड़ोसियों को खुशहाल बनाने में भी भरपूर योगदान दिया है ।"

हम सभी जानते हैं कि दिल्ली व अन्य किसी भी बड़े शहर में हर व्यक्ति अपनी जान हथेली पर लेकर सुबह घर से बाहर कदम रखता है। अपने आप को पायलट समझते कुछ ड्राईवर सड़कों पर घूम रहे होते हैं जिनसे बच पाना एक वीरता पुरस्कार से कम नहीं होता। सड़क किनारे आपको इस तरह के वाक्य अमूमन मिल जायेंगे जो आपको आगाह करते रहेंगे कि आप गाड़ी धीमे चलायें।

अभी अपनी जम्मू यात्रा के दौरान कुछ ऐसे ही वाक्य BRO की तरफ़ से लिखे हुए देखे। कुछ अलग लगे इसलिये आप के साथ साझा करने चाहे:

  • Keep Your Nerves On The Sharp Curves
  • This is the Highway, Don't Think it a Runway
  • Licence to Drive not to Fly
  • इतनी जल्दी क्या है प्यारे, रुक कर देख प्रकृति के नजारे
  • If Married, Divorce Speed
और ये सबसे अच्छा लगा:
  • रफ़्तार का शौक है तो पी.टी.ऊषा बनो!!!

॥जय जवान, जय हिन्द॥

"क्या आप जानते हैं"  के छोटे से स्तम्भ में लम्बा-चौड़ा लेख नहीं अपितु आप के लिये होगी रोचक एवं ज्ञानवर्धक जानकारी। चाहें इतिहास हो, विज्ञान, भूगोल, घर्म या अन्य कोई भी और विषय हो। यदि आप भी इन विषयों के बारे में कोई जानकारी बाँटना चाहें तो कमेंट अथवा ईमेल के जरिये जरूर सम्पर्क करें।
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Saturday, August 9, 2008

क्यों जल रहा है जम्मू?

जम्मू जल रहा है। वहाँ बंद है, आगजनी है, कर्फ्यू तोड़े जा रहे हैं।




हालात बेकाबू हैं। लोग कहते हैं कि ४० दिनों से जम्मू में हालात खराब हैं। पर ये कहानी ४० दिनों की नहीं है। इसके लिये हमें ६० वर्षों के इतिहास को खंगालना होगा।
वो हर घटना की चिंगारी पर गौर करना होगा जो परिणाम स्वरूप ज्वाला बन कर उभरी है। वो हर जख्म का कारण ढूँढना होगा। आइये समझने की कोशिश करें जम्मू की इस जलन को।



जम्मू और कश्मीर शुरू से ही दो अलग मजहबों का एक राज्य रहा है। ये एक ऐसा राज्य है जहाँ मुस्लिम हिंदुओं से ज्यादा तादाद में हैं। अगर जम्मू की बात करें तो यहाँ ६७% हिंदू हैं और कश्मीर में ९५ फीसदी मुस्लिम। ये जगजाहिर है कि कश्मीर घाटी में हमेशा से ही पाकिस्तान समर्थक और भारत विरोधी नारे लगते रहे हैं व गतिविधियाँ होती रही हैं। यहाँ पाकिस्तान के झंडे भी लहराये जाते हैं। लेकिन कभी इन पर रोक नहीं लगी। बीते ६० सालों से किसी भी सरकार ने इसे समझने की कोशिश नहीं करी। हर किसी के लिये ये चुनाव का मुद्दा रहा। हर कोई अपनी रोटियाँ सेंकता रहा। पर जम्मू की दिक्कत फिलहाल ये नहीं, ये तो देश की सरकार को देखना है कि किस तरह से देशद्रोहियों से निपटा जाये। घाटी में जो देशद्रोह फैला हुआ है उसका मूल कारण क्या है...

ये गौरतलब है कि माता वैष्णों देवी श्राइन बोर्ड की ओर से करोड़ों रूपया सरकार के खाते में जाता है। बोर्ड जब भी कहीं जमीन लेता है तो उसका किराया सरकार को जमा करवाता है। बोर्ड ने तीर्थ यात्रियों की सुविधाऒं के लिये अनेकानेक कार्य करे हैं। ये सब सुविधायें तभी हो पाईं जब बोर्ड का गठन हुआ। ये भी बात है कि जम्मू के लोग घाटी के लोगों से ज्यादा कर अदा करते हैं। केंद्र और राज्य सरकार वहीं से ज्यादा पैसा खाती हैं। इतना ही नहीं नौकरी के एक ही पद के लिये श्रीनगर के लोगों को ज्यादा वेतन दिया जाता है और सरकारी नौकरियाँ भी ज्यादा होती हैं। घाटी के किसान को ज्यादा सब्सिडी मिलती है और जम्मू के किसान को कम। यही भेदभाव प्राकृतिक आपदाओं में मुआवज़ा देते हुए भी किया जाता रहा है। आज के समय के युवा नेताओं पर नजर डाली जाये तो फारूख अब्दुल्ला के बेटे उमर अब्दुल्ला व महबूबा मुफ्ती के अलावा आपको वहाँ और कोई याद नहीं आयेगा। क्या ये केवल इत्तफाक है कि ये दोनों श्रीनगर का प्रतिनिधित्व करते हैं? आपमें से बहुत कम लोग जम्मू के किसी प्रसिद्ध नेता का नाम जानते होंगे। इसका कारण क्या है? हम कश्मीर की समस्या को सुलझाते रहे हैं पर कभी जम्मू की समस्या पर हमारा ध्यान नहीं गया। क्या ये सालों पुराना राजनेताओं के द्वारा किया गया भेदभाव है या ये अंजाने में हो रहा है?

अब रूख़ करते हैं उस घटना का जिसने वर्षों के इस शीत-युद्ध को सतह पर लाने का काम किया। २६ मई २००८ को केंद्र व राज्य सरकारें ये निर्णय लेती हैं कि अमरनाथ श्राइन बोर्ड को १०० एकड़ की जमीन दी जाये। इस जमीन पर हिंदू तीर्थ यात्रियों के लिये अस्थाई तौर पर रहने की व अन्य सुविधायें दिये जाने की बात होने लगी। मुस्लिम बहुल व कश्मीर घाटी के इलाकों में इस निर्णय के बाद हिंसा फ़ैल गई व उन्होंने खुले तौर पर इसका विरोध किया। इस विरोध में वहाँ के युवा नेताओं ने भी पूरा साथ दिया। ये सरकार को अच्छी तरह से मालूम था कि चुनाव में यही इलाका इनकी मदद करेगा। तब घाटी के मुस्लिम नेताओं के दबाव में आकर सरकार ने अपना फैसला वापस ले लिया। ये वो कदम था जिसने आज की परिस्थिति को जन्म दिया।




जम्मू के लोग जो ज्यादातर हिंदू हैं ये बात पचा नहीं पाये। जो जमीन उनकी सुविधा के लिये थी उसे मना कैसे कर दिया। फिर चाहें हिन्दू हों अथवा वहाँ का प्रतिनिधित्व करने वाले मुसलमान दोनों ही की तरफ़ से सरकार के जमीन वापसी के फ़ैसले का विरोध होना शुरू हुआ। ये अब से ४० दिन पहले की बात है। लेकिन मीडिया में इसका जिक्र अभी ८-१० दिन पहले ही आना शुरू हुआ। क्योंकि इससे पहले केंद्र सरकार खुद को बचाने में लगी हुई थी कि इसकी तरफ़ किसी का ध्यान ही नहीं गया। देश २०२० तक ६% बिजली देने वाले परमाणु करार और सरकार में ही उलझा रह गया और वहाँ स्थिति बद से बदतर होती चली गई। जिक्र तब आना शुरू हुआ जब हुर्रियत कांफ़्रेंस के नेता यासिन मलिक भूख हड्ताल पर जाते हैं....वो बंदा जो पाकिस्तान समर्थक है उसका इंटर्व्यू चैनलों पर दिखाया जाता है। जो नहीं जानते उनके लिये बताना चाहूँगा कि हुर्रियत का मतलब है "आज़ादी"। और ये पार्टी पाकिस्तान की २६ पार्टियों के समर्थन से घाटी में काम करती है। जिक्र तब शुरू हुआ जब श्रीनगर को खाना-पीना, पेट्रोल, डीज़ल मिलना जम्मू की ओर से बंद हो गया। हाइवे बंद कर दिये गये और ट्रकों को वहीं पर रोक दिया गया। उससे पहले स्थिति का जायज़ा नहीं लिया गया। प्रधानमंत्री जी महज औपचारिकता के नाते इतने समय के बाद सभी पार्टियों की मीटिंग बुलाते हैं पर अभी तक कोई फैसला इस मुद्दे पर नहीं लिया गया है।

क्या कारण है कि घाटी इस जमीन का विरोध कर रही है? क्या वे नहीं चाहते कि वैष्णों देवी श्राइन बोर्ड की तरह ही अमरनाथ श्राइन बोर्ड तरक्की के लिये काम करे? क्या कारण रहा कि जो फैसला राज्य की कांग्रेस सरकार व केंद्र की कांग्रेस सरकार ने मिल कर किया वे उसी पर कायम न रह पाये? क्या कारण है कि जो माँगे घाटी के लोगों की सरलता से मानी जाती हैं वो जम्मू के क्षेत्र की नहीं सुनी जाती? देखना ये है कि केंद्र जो "नोटों" के सहारे टिका हुआ है अपने वोटबैंक यानि कश्मीर घाटी का साथ देता है या नहीं? क्या इस बार जम्मू को उसका हक़ मिलेगा या फिर वोटों की भेंट चढ़ जायेगा? जम्मू की पुरानी कुंठा इस कदर फूटेगी शायद ये सरकारों को अंदाज़ा नहीं था... पर शायद ये जरूरी था..(??)

--९ अगस्त
सर्वदलीय दल जो रवाना हुआ है जमीन विवाद सुलझाने के लिये उसमें सैफुद्दीन सोज़, फारूख अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती शामिल हैं। तीनों श्रीनगर से हैं... जम्मू से कौन शामिल हुआ है? मेरा सवाल है केंद्र से कि जम्मू का एक भी प्रतिनिधि बैठक में ले जाने की जहमत क्यों नहीं उठाई गई? कौन बतायेगा जम्मू का नजरिया?
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