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Sunday, September 18, 2011

दो खेल, दो कहानियाँ, दो वर्तमान...पर अंजाम केवल एक.. मौत... Death Of Cricket and hockey But different reasons

एक खेल जीना चाह रहा है पर हर पल मौत से जूझ रहा है और दूसरा अपने ऐश-ओ-आराम में इतना खो गया है कि जीना भूल गया है। एक खेल गरीबी की बीमारी से जूझ रहा है तो दूसरे खेल को वो हर सुविधा मुहैया कराई जा रही है जिसकी उसे आवश्यकता है। एक खेल में खिलाड़ियों की आत्मा बसती है तो दूसरे खेल में खिलाड़ी अपनी आत्मा का सौदा करते हैं। एक हमारा राष्ट्रीय खेल है तो दूसरा राष्ट्र का खेल है।

उपर्युक्त पंक्तियों में हॉकी का दर्द सुनाई दे जायेगा। यह खेल हमारा राष्ट्रीय खेल है जिसे मेजर ध्यानचंद जैसे खिलाड़ी ने अपने पसीने सींचा और परगट सिंह व धनराज पिल्लै ने इसका ध्यान रखा। वो मेजर ध्यानचंद जिसके हॉकी पर लोग शक करते थे कि कहीं उन्होंने अपनी स्टिक में कुछ लगा तो नहीं रखा? आखिर गेंद उनकी स्टिक से हटती क्यों नहीं? परन्तु यह खेल हर पल घुटता गया। इतना उपेक्षित हो गया कि खिलाड़ी खून के आँसू पीते चले गये और एक दिन ऐसा आया जब धनराज पिल्लै जैसा शख्स चीख पड़ता है और कराह कर कहता है कि-हॉकी ने मुझे इज़्ज़त दी, शोहरत दी पर पैसा नहीं दिया।

हॉकी के खिलाड़ी इस खेल को जी रहे हैं। इस खेल को ज़िन्दा रखने की कोशिश कर रहे हैं। किसी के पास प्रैक्टिस करने के जूते नहीं तो कोई एक ही जोड़ी जूतों से सारे गेम खेल रहा है और उन्हीं से प्रैक्टिस भी कर रहा है। ऐसी एकेडमी नहीं जहाँ अंतर्राष्ट्रीय स्तर की सुविधायें हों व कोच हो। काफ़ी प्रयासों व कठिन परिश्रम के पश्चात जब यही हॉकी टीम एशिया की सर्वश्रेष्ठ टीम बन कर भारत लौटती है तो इस टीम को महज पच्चीस हजार रूपये का "पुरस्कार(?)" दिया जाता है। खेल मंत्रालय इतने में ही खुश दिखाई देता और खिलाड़ियों की पीठ थपथपाता है। खिलाड़ियों में गुस्सा साफ़ दिखाई देता है जब वे इस पुरस्कार को लेने से ही मना कर देते हैं। मौका देखकर पंजाब सरकार पच्चीस लाख रूपये का ईनाम घोषित करती है तो अजय माकन जी को भारी दबाव के चलते उसी दिन पुरस्कार की राशि डेढ़-डेढ़ लाख रूपये प्रति खिलाड़ी कर देनी पड़ती है। अजय माकन जी हॉकी इंडिया और आईएचएफ़ का विवाद ही सुलझाने में ही लगे हुए हैं।

वैसे खेलों में सुधारों के लिये एक अच्छा बिल पेश किया था इन्होंने पर सत्ता और फ़ेडरेशनों के ठेकेदारों ने इसे सिरे से नकार दिया। विजय कुमार मल्होत्रा, अजय चौटाला जैसे नेता बिदके जो कईं वर्षों से अपने अपने फ़ेडरेशनों के मालिक बने बैठे हैं तो दूसरी ओर फ़ार्रूख अब्दुला को फ़ेडरेशन के अध्यक्ष की अधिकतम आयु सत्तर वर्ष करना रास नहीं आया। वे कहते हैं कि अभी तो वे "जवान" हैं इसलिये वे अध्यक्ष पद सम्भाल सकते हैं। उन्हें कौन समझाये कि एक आम इंसान भी साठ बरस में रिटायर होता है और पैसठ की उम्र में जज भी कुर्सी छोड़ देते हैं। पर नेता जी को कौन समझाये। और हमारे शरद पवार जी। वे तो चूहे की तरह "मैडम जी" की धमकी देने लग गये। भई वाह!

यह कैसी बेचारगी है? किसी भी देश के राष्ट्रीय खेल की ऐसी बुरी हालत शायद ही होगी। क्यों नहीं इसके पुनरुत्थान के लिये प्रयास किये जाते? क्यों नहीं कोई कॉर्पोरेट जगत से आगे आता है? हॉकी को पुनर्जीवित करने का समय आ गया है। आईपीएल की तर्ज पर क्यों नहीं हॉकी में भी कोई टूर्नामेंट शुरू किया जाता? कुछ वर्ष पूर्व ऐसा टूर्नामेंट ईएस्पीएन की तरफ़ से शुरू किया गया था पर लोगों की जागरूकता व सरकार की उदासीनता के कारण बंद कर दिया गय। स्कूलों से ही इस खेल में बच्चों का ध्यान लगाने की आवश्यकता है। इस समय हॉकी ऐसे मरीज की तरह है जो "कोमा" में है परन्तु अपनी इच्छा शक्ति के बल पर वापिस जीना चाह रहा हो। 

दूसरी ओर एक ऐसा खेल है जिसमें हर खिलाड़ी को औसतन तीस लाख रूपये सालाना दिया जाता है। प्रति मैच उन्हें एक से दो लाख के बीच अलग से मिलता है। इस खेल के खिलाड़ियों के पास सुविधाओं की कमी नहीं है।एड जगत इन्हें सर-माथे बिठाता है। पर ये खिलाड़ी देश से पहले अपने क्लब के बारे में सोचते हैं। ये "बिगड़ैल" खिलाड़ी हैं जिन्हें खेलों से अधिक पार्टियाँ  प्यारी हैं। और हालत ये हो गई है कि विश्व चैम्पियन टीम रैंकिंग में पाँचवें नम्बर की टीम है। पर फिर भी इस टीम के खिलाड़ियों को डेढ़ लाख से ज्यादा मिलता है। किसी की टाँग टूटी है, किसी का हाथ, किसी आँख, किसी का कान, किसी की उंगली तो किसी की कमर। वैसे अंतर्राष्ट्रीय मैच यह नहीं खेलेंगे परन्तु जहाँ पैसा होगा वहाँ ये ज़रुर जायेंगे। क्रिकेट भी बदहाल हो चुकी है। यहाँ केवल पैसा रह गया है पर खेल खत्म हो चुका है। इस पर मैं विस्तार से कुछ नहीं कहूँगा।

दो विभिन्न शैली के खेल हैं, दोनों की कहानी अलग, दोनों का इतिहास अलग, दोनों के प्रति नेताओं व कॉर्पोरेट व फ़िल्म जगत के करोड़पतियों-अरबपतियों व्यवहार अलग, दोनों का "आज" अलग। लेकिन यकीन मानिये यदि दोनों ही खेलों पर ध्यान नहीं दिया तो दोनों का ही आने वाला "कल" एक ही होगा। एक खेल गुमनामी के अँधेरों में धकेल दिया जायेगा तो दूसरा खेल सब कुछ  होते हुए भी बेमौत मार दिया जायेगा।


जय हिन्द
वन्देमातरम


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Friday, March 4, 2011

कर्नाटक क्रिकेट में कुम्बले और श्रीनाथ को राजनेताओं ने फ़ेंकी बाऊंसर और गुगली..Karnataka Cricket Ticket Distribution - Kumble Srinath Attacked By Politicians

पिछले कुछ समय से राजनेता किसी न किसी गलत कारणों से खबरों का हिस्सा बन रहे हैं। कॉमनवेल्थ, 2जी, एस-बैंड घोटाला तो कभी सीवीसी की नियुक्ति पर सवाल। कभी महाराष्ट्र से घोटालों की बू आती है तो कभी कर्नाटक। आंध्रप्रदेश में तेलंगाना जल कर धू-धू सुलग रहा है और राजनेता तसल्ली से रोटी सेंक रहे हैं। जगन मोहन रेड्डी बगावती तेवर अपनाये हुए हैं तो इसलिये कांग्रेस ने चिरंजीवी का हाथ थामा। "हाथ" तो करूणानिधि भी थाम रहे हैं। उन्हें शायद यह लग रहा है कि "हाथ" के सहारे वे आम आदमी का साथ पा लेंगे। केरल में लॉटरी घोटाले में कांग्रेस और लेफ़्ट गुत्त्थम-गुत्था हो रहे हैं। चुनाव आने वाले हैं तो हर तरफ़ सियासती रस्साकशी का माहौल है।

ऐसा बहुत कम होता है जब कांग्रेस और भाजपा जिन्हें देश की सबसे बड़ी राजनैतिक पार्टियाँ माना जाता है, दोनों के सुर एक हों। ऐसा भी कम ही दिखाई पड़ता है जब राजनेताओं ने खेल संस्थाओं में गद्दी न हड़प रखी हो। अरूण जेटली डीडीसीए में, नरेंद्र मोदी गुजरात क्रिकेट में काबिज हैं तो राजीव शुक्ला बरसों से क्रिकेट बोर्ड में "कमाई" कर रहे हैं। और अपने शरद पवार को कैसे कोई भुला सकता है। लेकिन हाल ही में कुछ अलग देखने को मिला जब कुम्बले और श्रीनाथ कर्नाटक क्रिकेट एसोसिएशन में अध्यक्ष व उपाध्यक्ष नियुक्त हुए तो भला नेता कैसे चुप बैठेंगे। उन्हें तो काटो मानो खून नहीं।

पिछले दिनों क्रिकेट खेल प्रेमियों पर टिकटों की बिक्री के समय बेंग्लुरु में लाठीचार्ज हुआ। इस मौके पर भाजपा और कांग्रेस ने विधानसभा में हंगामा किया। जी हाँ दोनों पार्टियाँ एक साथ..सही पढ़ा आपने। दोनों पक्ष के कुछ नेताओं ने कुम्बले और श्रीनाथ पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाये। भारतीय क्रिकेट इतिहास के सबसे शिष्ट खिलाड़ियों में इन दोनों की गिनती की जाते तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। दरअसल कर्नाटक में इस बार एक व्यक्ति को केवल एक पास दिया जाना था। भाजपा के एक विधायक ने कहा कि उन्हें विधायक के तौर पर केवल एक पास मिला है इसलिये वे अपने परिवार को साथ नहीं ले जा पा रहे। इन्हें कौन समझाये कि यदि आपको इतना ही शौक है तो आप टिकट क्यों नहीं खरीदते। ऊपर से उनका कहना यह भी है कि वे "आम आदमी" नहीं हैं। इन शब्दों से आपको इन नेताओं के आगे हम लोगों की औकात पता चल गई होगी। कॉंग्रेस विधायक कहते हैं कि कुम्बले और श्रीनाथ के रिश्तेदार उनसे पास के बदले में 5000 रूपये की माँग कर रहे हैं।

हाल ही में एक अखबार में छोटी सी कहानी पढ़ी थी। एक मंत्री जी थे जो ईमानदारी से काम करते थे। एक पैसा भी हेर-फ़ेर नहीं करते। एक दिन उनको कुछ हजार रूपये की जरूरत पड़ी। उनकी पत्नी ने कहा कि पार्टी फ़ंड से रूपये उधार ले लो और तीन दिन में लौटा देना। उन्होंने कहा कि पहले तुम ये लिख कर दे दो कि इन तीन दिनों में मुझे मृत्यु नहीं आयेगी उस सूरत में मैं उधार ले लूँगा। आज के राजनेता ऐसे नहीं हैं। शायद किसी की कलम से गलत कहानी लिखी गई।

खैर, आप ही बतायें कुर्सी के लालची ये सियासी दल इन दोनों खिलाड़ियों को कैसे जीने देंगे?
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Tuesday, January 11, 2011

आईपीएल की अजब कहानी, क्रिकेटरों पर बरसा सोने का पानी- दादा के नाम छोटी सी पोस्ट Dada cricketing career over after IPL auction? A Micro-post

भारतीय हॉकी के महान खिलाड़ी धनराज पिल्ले ने एक बार कहा था कि उन्हें हॉकी ने इज्जत, मान दिया पर पैसा नहीं दिया। ये कहते हुए उनकी आँखें छलक आईं थीं लेकिन हॉकी के लिये उनका समर्पण व प्यार बरकरार रहा। आज आईपीएल में जब युवा क्रिकेटरों के ऊपर पैसे की बरसात होते देखा तो सोच रहा हूँ कि कहीं हमारे युवाओं में "लालच" न बढ़ जाये और हॉकी को जो थोड़े बहुत सितारे मिल रहे हैं वे खत्म न हो जायें। लेकिन एशियन गेम्स और कॉमेनवेल्थ की कामयाबी मुझे झुठला भी सकती है।

नीलामी में उगते सूरज को सलाम किया और जम कर धन वर्षा की गई। ब्लैक मनी को व्हाईट किये जाने की इस प्रथा को शुरु किये जाने वाले "जनक" के ऊपर केस चल रहा है और उसकी टीमें राजस्थान और पंजाब अब आईपीएल में दोबारा अपनी किस्मत आजमाने के लिये जम कर मैदान में कूद चुकी हैं। कमोबेश यही हाल भारतीय टीम को टीम इंडिया बनाने वाले "दादा" का रहा। गौरतलब है कि सौरव गांगुली एक प्रिंटिंग प्रेस के मालिक हैं और उनकी गिनती कोलकाता के सबसे अमीर खानदानों में होती है। जिस खेल को उन्होंने अपनाया और पैसे के लिये नहीं बल्कि "पैशन" के लिये खेला उसी खेल में बाज़ार के "खिलाड़ियों" ने उन पर बोली भी नहीं लगाई। भारत को विश्वकप के फ़ाइनल तक पहुँचाने वाले कप्तान की किस्मत शायद उनके लिये ग़मों और मुश्किलों का "कप" भर रही है। एक भी खरीददार न मिलने का ग़म ज्यादा है या फिर चैपल प्रकरण के बाद टीम से दुखदाई विदाई का ये उनसे बेहतर कोई नहीं जानता।

लोग कहते हैं कि गाँगुली  में अहंकार है और उनमें "एटीट्यूड प्रॉब्लम" है। जानकारी के लिये बता दें कि इसी आईपीएल में सौरव गाँगुली की टीम में जगह बनाने वाला विश्व के दस सबसे अहंकारी खिलाडियों में जिसका नाम शामिल है वो युवा युवराज भी खेल रहा है। पिछले सीजन में सबसे ज्यादा रन बनाने वाले खिलाड़ियों में से एक सौरव गाँगुली के साथ किस्मत ने कितना ही बड़ा खिलवाड़ क्यों न किया हो लेकिन उनके चेहरे पर निराशा के बादल नहीं आते। कहते हैं इज़्ज़त और मान खरीदा नहीं जा सकता। भारत की "दीवार" जिसे ऑफ़साईड का भगवान कहती थी और भारतीय क्रिकेट को ऊँचाइयों और बुलंदियों तक पहुँचाने वाले इस महान खिलाड़ी को पैसे से नहीं अपने खेल से इज़्ज़त मिलती है।

चलते चलते गीतों भरी गुस्ताखियाँ

सौरव गाँगुली: हम से क्या भूल हुई, जो ये सजा हमको मिली....
शाहरूख खान: अब तेरे बिन जी लेंगे हम...
जवान खून(आईपीएल के लिये): दिल चीज़ क्या है..आप मेरी जान लीजिये....
टीमों के मालिक: आईपीएल है एक जुआ, कभी जीत भी कभी हार भी....
बीसीसीआई: पैसा, ये पैसा.... न बाप बड़ा न मैया... सबसे बड़ा रुपैया...


धूप-छाँव के नियमित स्तम्भ


गुस्ताखियाँ हाजिर हैं




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