उपर्युक्त पंक्तियों में हॉकी का दर्द सुनाई दे जायेगा। यह खेल हमारा राष्ट्रीय खेल है जिसे मेजर ध्यानचंद जैसे खिलाड़ी ने अपने पसीने सींचा और परगट सिंह व धनराज पिल्लै ने इसका ध्यान रखा। वो मेजर ध्यानचंद जिसके हॉकी पर लोग शक करते थे कि कहीं उन्होंने अपनी स्टिक में कुछ लगा तो नहीं रखा? आखिर गेंद उनकी स्टिक से हटती क्यों नहीं? परन्तु यह खेल हर पल घुटता गया। इतना उपेक्षित हो गया कि खिलाड़ी खून के आँसू पीते चले गये और एक दिन ऐसा आया जब धनराज पिल्लै जैसा शख्स चीख पड़ता है और कराह कर कहता है कि-हॉकी ने मुझे इज़्ज़त दी, शोहरत दी पर पैसा नहीं दिया।
हॉकी के खिलाड़ी इस खेल को जी रहे हैं। इस खेल को ज़िन्दा रखने की कोशिश कर रहे हैं। किसी के पास प्रैक्टिस करने के जूते नहीं तो कोई एक ही जोड़ी जूतों से सारे गेम खेल रहा है और उन्हीं से प्रैक्टिस भी कर रहा है। ऐसी एकेडमी नहीं जहाँ अंतर्राष्ट्रीय स्तर की सुविधायें हों व कोच हो। काफ़ी प्रयासों व कठिन परिश्रम के पश्चात जब यही हॉकी टीम एशिया की सर्वश्रेष्ठ टीम बन कर भारत लौटती है तो इस टीम को महज पच्चीस हजार रूपये का "पुरस्कार(?)" दिया जाता है। खेल मंत्रालय इतने में ही खुश दिखाई देता और खिलाड़ियों की पीठ थपथपाता है। खिलाड़ियों में गुस्सा साफ़ दिखाई देता है जब वे इस पुरस्कार को लेने से ही मना कर देते हैं। मौका देखकर पंजाब सरकार पच्चीस लाख रूपये का ईनाम घोषित करती है तो अजय माकन जी को भारी दबाव के चलते उसी दिन पुरस्कार की राशि डेढ़-डेढ़ लाख रूपये प्रति खिलाड़ी कर देनी पड़ती है। अजय माकन जी हॉकी इंडिया और आईएचएफ़ का विवाद ही सुलझाने में ही लगे हुए हैं।
वैसे खेलों में सुधारों के लिये एक अच्छा बिल पेश किया था इन्होंने पर सत्ता और फ़ेडरेशनों के ठेकेदारों ने इसे सिरे से नकार दिया। विजय कुमार मल्होत्रा, अजय चौटाला जैसे नेता बिदके जो कईं वर्षों से अपने अपने फ़ेडरेशनों के मालिक बने बैठे हैं तो दूसरी ओर फ़ार्रूख अब्दुला को फ़ेडरेशन के अध्यक्ष की अधिकतम आयु सत्तर वर्ष करना रास नहीं आया। वे कहते हैं कि अभी तो वे "जवान" हैं इसलिये वे अध्यक्ष पद सम्भाल सकते हैं। उन्हें कौन समझाये कि एक आम इंसान भी साठ बरस में रिटायर होता है और पैसठ की उम्र में जज भी कुर्सी छोड़ देते हैं। पर नेता जी को कौन समझाये। और हमारे शरद पवार जी। वे तो चूहे की तरह "मैडम जी" की धमकी देने लग गये। भई वाह!
यह कैसी बेचारगी है? किसी भी देश के राष्ट्रीय खेल की ऐसी बुरी हालत शायद ही होगी। क्यों नहीं इसके पुनरुत्थान के लिये प्रयास किये जाते? क्यों नहीं कोई कॉर्पोरेट जगत से आगे आता है? हॉकी को पुनर्जीवित करने का समय आ गया है। आईपीएल की तर्ज पर क्यों नहीं हॉकी में भी कोई टूर्नामेंट शुरू किया जाता? कुछ वर्ष पूर्व ऐसा टूर्नामेंट ईएस्पीएन की तरफ़ से शुरू किया गया था पर लोगों की जागरूकता व सरकार की उदासीनता के कारण बंद कर दिया गय। स्कूलों से ही इस खेल में बच्चों का ध्यान लगाने की आवश्यकता है। इस समय हॉकी ऐसे मरीज की तरह है जो "कोमा" में है परन्तु अपनी इच्छा शक्ति के बल पर वापिस जीना चाह रहा हो।
दूसरी ओर एक ऐसा खेल है जिसमें हर खिलाड़ी को औसतन तीस लाख रूपये सालाना दिया जाता है। प्रति मैच उन्हें एक से दो लाख के बीच अलग से मिलता है। इस खेल के खिलाड़ियों के पास सुविधाओं की कमी नहीं है।एड जगत इन्हें सर-माथे बिठाता है। पर ये खिलाड़ी देश से पहले अपने क्लब के बारे में सोचते हैं। ये "बिगड़ैल" खिलाड़ी हैं जिन्हें खेलों से अधिक पार्टियाँ प्यारी हैं। और हालत ये हो गई है कि विश्व चैम्पियन टीम रैंकिंग में पाँचवें नम्बर की टीम है। पर फिर भी इस टीम के खिलाड़ियों को डेढ़ लाख से ज्यादा मिलता है। किसी की टाँग टूटी है, किसी का हाथ, किसी आँख, किसी का कान, किसी की उंगली तो किसी की कमर। वैसे अंतर्राष्ट्रीय मैच यह नहीं खेलेंगे परन्तु जहाँ पैसा होगा वहाँ ये ज़रुर जायेंगे। क्रिकेट भी बदहाल हो चुकी है। यहाँ केवल पैसा रह गया है पर खेल खत्म हो चुका है। इस पर मैं विस्तार से कुछ नहीं कहूँगा।
दो विभिन्न शैली के खेल हैं, दोनों की कहानी अलग, दोनों का इतिहास अलग, दोनों के प्रति नेताओं व कॉर्पोरेट व फ़िल्म जगत के करोड़पतियों-अरबपतियों व्यवहार अलग, दोनों का "आज" अलग। लेकिन यकीन मानिये यदि दोनों ही खेलों पर ध्यान नहीं दिया तो दोनों का ही आने वाला "कल" एक ही होगा। एक खेल गुमनामी के अँधेरों में धकेल दिया जायेगा तो दूसरा खेल सब कुछ होते हुए भी बेमौत मार दिया जायेगा।
जय हिन्द
वन्देमातरम
1 comment:
SAHI KAHA HAI LIKIN NAKKAAR KHANE MEN TOOTI KI AWAZ KAON SUNTA HAI.
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