हिंद-युग्म (www.hindyugm.com) पर आज कल क्षणिकाओं का दौर है। क्षणिका विधा ने मुझे बहुत प्रभावित किया है।
अगर आप बड़ी कवितायें नहीं पढ़ सकते तो ये छोटी छोटी पंक्तियाँ आपका ध्यान आकर्षित करती हैं
देखें मैं इसमें कितना सफल हो पाया हूँ। आपकी टिप्पणियाँ मुझे बतायेंगी कि मुझे आगे किस तरह से लिखना होगा।
१)
कीचड़ के खेल में,
इतना सन चुका हूँ मैं,
कि अब इसमें,
मजा आने लगा है।
२)
एक कुत्ता दूसरे से बोलाः
आदमी का झूठा न खाया कर,
वरना एक दिन
जानवर बन जायेगा!!
३)
ज़िन्दगी से इतना
सीख चुका हूँ मैं,
कि इंसान की परिभाषा
भूल चुका हूँ मैं!!
४)
ये कविता भी,
न जाने कहाँ से आई है,
जब ये नहीं थी,
कितना सुखी था मैं!!
५)
दोस्त चले गये,
मेरे दुश्मन
तू तो न जा,
मैं तन्हा हो जाऊँगा।
६)
माँ,
छोटे से शब्द में
स्नेह का
अथाह सागर!!
७)
पिता,
वात्सल्य की अग्नि
से जलती
चूल्हे की ताप!!
धन्यवाद|
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अगर आप बड़ी कवितायें नहीं पढ़ सकते तो ये छोटी छोटी पंक्तियाँ आपका ध्यान आकर्षित करती हैं
देखें मैं इसमें कितना सफल हो पाया हूँ। आपकी टिप्पणियाँ मुझे बतायेंगी कि मुझे आगे किस तरह से लिखना होगा।
१)
कीचड़ के खेल में,
इतना सन चुका हूँ मैं,
कि अब इसमें,
मजा आने लगा है।
२)
एक कुत्ता दूसरे से बोलाः
आदमी का झूठा न खाया कर,
वरना एक दिन
जानवर बन जायेगा!!
३)
ज़िन्दगी से इतना
सीख चुका हूँ मैं,
कि इंसान की परिभाषा
भूल चुका हूँ मैं!!
४)
ये कविता भी,
न जाने कहाँ से आई है,
जब ये नहीं थी,
कितना सुखी था मैं!!
५)
दोस्त चले गये,
मेरे दुश्मन
तू तो न जा,
मैं तन्हा हो जाऊँगा।
६)
माँ,
छोटे से शब्द में
स्नेह का
अथाह सागर!!
७)
पिता,
वात्सल्य की अग्नि
से जलती
चूल्हे की ताप!!
धन्यवाद|