Friday, October 19, 2007

सात क्षणिकायें : क्षणिकाओं में मेरा पहला प्रयास

हिंद-युग्म (www.hindyugm.com) पर आज कल क्षणिकाओं का दौर है। क्षणिका विधा ने मुझे बहुत प्रभावित किया है।
अगर आप बड़ी कवितायें नहीं पढ़ सकते तो ये छोटी छोटी पंक्तियाँ आपका ध्यान आकर्षित करती हैं
देखें मैं इसमें कितना सफल हो पाया हूँ। आपकी टिप्पणियाँ मुझे बतायेंगी कि मुझे आगे किस तरह से लिखना होगा।

१)
कीचड़ के खेल में,
इतना सन चुका हूँ मैं,
कि अब इसमें,
मजा आने लगा है।

२)
एक कुत्ता दूसरे से बोलाः
आदमी का झूठा न खाया कर,
वरना एक दिन
जानवर बन जायेगा!!

३)

ज़िन्दगी से इतना
सीख चुका हूँ मैं,
कि इंसान की परिभाषा
भूल चुका हूँ मैं!!

४)
ये कविता भी,
न जाने कहाँ से आई है,
जब ये नहीं थी,
कितना सुखी था मैं!!

५)
दोस्त चले गये,
मेरे दुश्मन
तू तो न जा,
मैं तन्हा हो जाऊँगा।

६)
माँ,
छोटे से शब्द में
स्नेह का
अथाह सागर!!

७)
पिता,
वात्सल्य की अग्नि
से जलती
चूल्हे की ताप!!

धन्यवाद|
आगे पढ़ें >>

Monday, October 15, 2007

कदम दर कदम

कदम दर कदम चलते ही चले,
फ़ासले दरमियाँ बढ़ते ही चले...

हम रुके उस मोड़ पर, सोचा के साथ ले चलें,
आप ही तो दूर से, सलाम कर चले.....

वक्त ने भी कैसी करवटें हैं खाईं,
जो कल तलक तो संग थे, बैर हो चले....

मालूम है कि रुख हवा का किस तरफ को है,
न जाने कयूँ हम तेरा इंतज़ार कर चले...

अपनी किस्मत थी जो कुछ पल का साथ रहा,
आप भी क्या खूब थे, सपने भी साथ ले चले...

कदम दर कदम चलते ही चले,
फ़ासले दरमियाँ बढ़ते ही चले...
आगे पढ़ें >>

Sunday, October 14, 2007

हिंद-युग्म पर अगस्त माह में प्रकाशित:दहेज़ का चलन

यूँ तो ये कविता हिंद युग्म पर पहले ही प्रकाशित हो चुकी है, और हो सकता है आप में से कुछ ने पहले पढ़ी हुई हो।परन्तु फिर भी मैं यहाँ भी इसे पोस्ट कर रहा हूँ ताकि मेरे द्वारा रचित कवितायें एक ही जगह मिल जायें।

http://merekavimitra.blogspot.com/2007/08/blog-post_20.html

जी, हमारा लड़का आई.ए.एस है,
2 साल बाहर भी रहकर आया है
इतना खर्चा हुआ,
पढ़ाया-लिखाया
इस काबिल बनाया...
अब आप ही बतायें
पैंतालीस तो, बनते ही हैं न..

लड़की के पिता ने कुछ सोचा, फ़िर बोला
आपने बात तो बिलकुल सही कही है
पर इतना पैसा लगाने की
हमारी औकात नहीं है
लड़की तो हमारी भी इंजीनियर है
पर हम पैंतीस तक ही लगा सकते हैं

लड़के के पिता अपनी बात पर कायम,
कहा,
नहीं नहीं, पैंतालीस से कम
में ये रिश्ता नहीं होगा

लड़की के पिता गिड़गिड़ाये
आखिर में चालीस पर बात मना पाये
मैं भी वहाँ खड़ा था
मिठाई बँटी,
मैंने भी खाई..
पर मन में कुछ और ही चल रहा था...

लड़के को बिकते देखने का
मेरा पहला तजुर्बा जो था...

लड़की के पिता की
आखिर ऐसी क्या मजबूरी है
जो दहेज के लालची लोगों से
रिश्ता कर रहे हैं

बात पता चली,
पड़ोस में पिछले दिनों
एक लड़की की शादी,
एन.आर.आई. खानदान में जो हुई थी

बस,
सारा माजरा समझते देर न लगी
लड़के और लड़की में रिश्ते की
ये तो बस औपचारिकता है
असली रिश्ता तो लालच और घमंड में
कब का हो चुका है...

धन्य है ये समाज,
मेरा समाज हमारा समाज
बुद्धिजीवियों के इस समाज में
पढ़े लिखे दूल्हों का बाज़ार लगता है
हर शख्स बिकता है...हर रिश्ता बिकता है
आगे पढ़ें >>