Saturday, December 22, 2007

समुन्द्र पर सवाल-जवाब

१)
मीलों दूर तक
फैले हुए समुन्द्र की
अनगिनत विशाल लहरें,
आपस में टकराती हुई,
लड़ती, झगड़ती हुई,
किनारे की ओर
तड़पती हुई आती हैं,
फिर टकराकर चली जाती हैं,
कुछ वहीं दम तोड़ देती हैं
कुछ फिर इकट्ठे होकर
पुराने वेग से दौड़ कर आती हैं
फिर वही तेजी, फिर वही शोर,
जाने कहाँ से ये लहरें
इतनी ताकत लेकर आती हैं?

२)
ये लहरों की तड़प,
ये टकराव,
ये तो बस है
चन्द्रमा का आकर्षण
जो खीच लेता है
लहरों को अपनी ओर,
और ऊँची,
और ऊँची उठती हैं,
चाँद का आलिंगन करने को,
नई जान आ जाती है
विशाल सागर में,
ऊँचा उठता है छू लेने को आकाश,
फिर भी पूछते हो
कि ये ताकत कहाँ से लाता है!!
ये प्रेम ही तो है...
ये प्रेम ही तो है...
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Friday, December 7, 2007

ये यादें

कभी हलकी सी मुस्कान होठों पर,
कभी आँखें नम कर जाती हैं
कभी सपने दिखलाती हैं दिन में,
कभी मन भारी कर जाती हैं..
आह ये यादें, क्या क्या कर जाती हैं!

जब आँखों के सामने ही
सब होता हुआ सा दिखता है,
जब रात के सन्नाटे में,
कुछ सुना हुआ सा लगता है,
गाल पर खारा पानी
टपटपा जाती हैं,
आह ये यादें, क्या क्या कर जाती हैं!

जब भरी महफिल में भी
कुछ सूना सूना सा लगने लगे,
जब अपनों के बीच में भी,
अजनबी सा लगने लगे,
तब शायद बे-प्रीत होने लगती हैं,
आह ये यादें, क्या क्या कर जाती हैं!

सालों का साथ जब
पल भर ही रह जाता है,
कितने दूर कितने पास,
ये सवाल मुश्किल हो जाता है,
वो हर पल भारी कर जाती हैं,
आह ये यादें, क्या क्या कर जाती हैं!

जब रोने का बहाना नहीं मिलता,
जब हँसने का मन नहीं करता,
तब अपने आप से खुद को
दूर कर जाती हैं,
आह ये यादें, क्या क्या कर जाती हैं!

क्यों दिलों का मिलना होता है?
क्यों ये बिछड़ना होता है?
क्यों ये विरह के पल,
मन को खाने लगते हैं?
क्यों ये खूबसूरत आकाश,
काटने को दौड़ता है?
ऐसे ही अनगिनत यक्ष प्रश्न,
अब हर वक्त मेरे सामने
खड़े कर जाती हैं
आह ये यादें, क्या क्या कर जाती हैं!
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Monday, December 3, 2007

क्यों दुनिया को जन्नत बनाते नहीं?

मेरी इस रचना को ग़ज़ल कहें या कविता, ये मुझे नहीं पता। जो भी हो, मुझे आपकी टिप्पणी की उम्मीद रहेगी।
और इस रचना के माध्यम से उठाये गये सवालों को आप कितना सही मानते हैं अवश्य बताइयेगा|


दिवाली और ईद दोनों में लोग, एक दूसरे को गले लगाते हैं,
तो मुसलमान मनाते दिवाली नहीं, क्यों हिंदू ईद मनाते नहीं?

गर इंसां को है ये पता, कि सबका मालिक एक है,
क्यों मंदिर में मुसलमां, क्यों मस्जिद में हिंदू जाते नहीं?

गर धर्म सिखाये कत्ले-आम, मजहब सिखाये आतंक फैलाना,
क्यों नहीं मारते मजहब को पत्थर, क्यों धर्म को तुम जलाते नहीं?

जिसने बनाया इंसां को, उस खुदा की है ये दुनिया सारी।
तो मंदिर - मस्जिद छोड़ कर, क्यों औरों का घर बसाते नहीं?

जब धर्म अधर्म सिखाता है, और मजहब आग लगाता है,
क्यों मानते हो उस धर्म को, क्यों मजहबी आग बुझाते नहीं?

तोड़ डालो ये मंदिर मस्जिद, मालिक ने तो ये न चाहे थे,
पूरी कायनात में वो ही समाया है, क्यों दुनिया को जन्नत बनाते नहीं?
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