मेरी इस रचना को ग़ज़ल कहें या कविता, ये मुझे नहीं पता। जो भी हो, मुझे आपकी टिप्पणी की उम्मीद रहेगी।
और इस रचना के माध्यम से उठाये गये सवालों को आप कितना सही मानते हैं अवश्य बताइयेगा|
दिवाली और ईद दोनों में लोग, एक दूसरे को गले लगाते हैं,
तो मुसलमान मनाते दिवाली नहीं, क्यों हिंदू ईद मनाते नहीं?
गर इंसां को है ये पता, कि सबका मालिक एक है,
क्यों मंदिर में मुसलमां, क्यों मस्जिद में हिंदू जाते नहीं?
गर धर्म सिखाये कत्ले-आम, मजहब सिखाये आतंक फैलाना,
क्यों नहीं मारते मजहब को पत्थर, क्यों धर्म को तुम जलाते नहीं?
जिसने बनाया इंसां को, उस खुदा की है ये दुनिया सारी।
तो मंदिर - मस्जिद छोड़ कर, क्यों औरों का घर बसाते नहीं?
जब धर्म अधर्म सिखाता है, और मजहब आग लगाता है,
क्यों मानते हो उस धर्म को, क्यों मजहबी आग बुझाते नहीं?
तोड़ डालो ये मंदिर मस्जिद, मालिक ने तो ये न चाहे थे,
पूरी कायनात में वो ही समाया है, क्यों दुनिया को जन्नत बनाते नहीं?
1 comment:
sahi likha hai. poori tarah sahmat hoon
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