Monday, March 24, 2008

एक शहर कईं चेहरे

अभी हाल ही में मुझे चेन्नई शहर में जाने का मौका मिला। हर बड़े शहर की तरह वहाँ भी कंक्रीट के बड़े बड़े पुल बन रहे थे। दिल्ली से काफी हद तक जुदा था। लोगों का रहन सहन, खान पान, भाषा, कार्यशैली सब विलग हैं। कैसे भिन्नता है इसके बारे में कभी आगे के लेखों में जिक्र करूँगा, आज कुछ और ही बताने जा रहा हूँ। ये मेरे अनुभव हैं जो वहाँ के लोगों से मिलकर, उनसे बातें कर के मैंने जाने|

आपके अपने आज के विचार बचपन से ही बनते जाते हैं। आप किस तरह से जीवन व्यतीत करते हैं, आपके परिवार का माहौल कैसा है, आपके घर के आसपास व शहर का राजनैतिक व समाजिक वातावरण भी आपकी सोच पर पूरा असर करता है।

शुरू करता हूँ उस घटना से जो हो सकता है आपको आशावादी बना दे। हुआ यूँ कि मैं और मेरा दोस्त समुद्र किनारे टहल रहे थे। चेन्नई शहर में आपको विदेशी लोग काफी नजर आ जायेंगे जो वहाँ काफी पहले से रह रहें हैं व वहाँ के लोगों के साथ जुड़े हुए हैं। किनारे पर जो विदेशी महिलायें सागर की ओर देख रहीं थीं मेरे दोस्त ने उन से पूछा कि आप रेत पर बैठीं हैं, क्या आपको वहाँ गंदगी फैली हुई नज़र नहीं आती? वहाँ से जवाब मिला, "हम सागर की खूबसूरती को देख रहें हैं फिर गंदगी कौन देखे?"। जीवन की सच्चाई है। हम हमेशा लोगों की गलतियाँ व बुराइयाँ देखते हैं, पर अच्छाइयाँ हमें नज़र नहीं आतीं।

दूसरी घटना तब घटी जब हम सड़क पर चल रहे थे कि तभी मेरे दोस्त की नज़र एक ऐसी लड़की पर पड़ी जो साइकिल के साथ किसी दुकान में जाने के लिये खड़ी थी। पता नहीं क्या हुआ कि वो उसके पास गया और किसी घटना का जिक्र करने लगा। दरअसल मेरे दोस्त ने एक बार उस लड़की को सड़क किनारे किसी बच्चे को खिलौना देते हुए देखा था। तो वो उससे बात करके पूछना चाहता था कि क्या वो वही थी? उस लड़की ने कहा कि वो वहाँ बहुत पहले से है और वहाँ के लोगों व बच्चों के साथ बहुत मिलजुल चुकी है। उससे पता चला कि वो फ़्रांस की निवासी थी।(देयर इज़ ए बॉंडिंग बिटवीन अस) उसका जवाब सुनकर मैं दंग रह गया कि एक वो है जो विदेशी होकर भी भारतीय लोगों को इतना प्यार बाँटती है और एक हम हैं जो आपस में लड़ते रहते हैं। कभी महाराष्ट्र, कभी पूर्वाँचल और कभी द्रविड़ प्रदेशों में हम मारपीट करते हैं। मुझे शर्म आ रही थी।

अगली घटना बहुत दुःखदाई थी। मैं चेन्नई में एक महीने से ऊपर रहा और कभी भी मैंने ये नहीं देखा कि उत्तर भारतीयों के साथ कोई बुरा सुलूक किया हो। किया भी हो तो मुझे इसका आभास कभी नहीं हुआ। पर मेरे दिल्ली आने से ठीक एक रात पहले जब मैं अपने दोस्त के साथ रेस्तरां में भोजन कर रहा था कि तभी हमारी टेबल के पीछे कुछ तमिल बोलने वाले लोग आकर बैठे। मेरी पीठ उनकी तरफ थी पर मेरा दोस्त उन्हें ठीक से देख पा रहा था। वे चार लोग थे। रात के करीबन साढ़े दस बज रहे होंगे, ज्यादा लोग रेस्तरां में नहीं बचे थे। वेटर भी खाना खा रहे थे। हम खाना खा रहे थे और आपस में बात कर रहे थे। क्योंकि हम दोनों ही दिल्ली की तरफ के थे तो हिन्दी में ही बातें कर रहे थे। तभी मुझे पीछे से आवाज़ें सुनाई देने लगी। "ऐ, नो हिन्दी, नो हिन्दी"....."हिन्दी पीपल, खच खच खच", ये वाक्य एक आदमी ने हाथ से चाकू की तरह काटने का इशारा करते हुए कहा। मेरा दोस्त ये सब देख रहा था। मेरी पीछे मुड़के देखने की हिम्मत नहीं हुई हालाँकि एक दफा कोशिश जरूर करी थी। पर मेरे दोस्त ने पीछे देखने से मना किया। हम लोग तब खाना खत्म ही करने वाले थे। वेटर ने बाद में माफी भी माँगी। पर तब तक मैं चेन्नई का एक और रूप देख चुका था। शायद ये वहाँ का राजनैतिक रूप था। क्या यही वहाँ की सच्चाई है? क्या मिलता है नेताओं को ऐसी बातों से? ये सवाल मेरे मन में आज भी गूँज रहे हैं।

अगले ही दिन मेरी वापसी थी। हवाई जहाज में मेरी सीट रास्ते के बगल वाली थी। खिड़की की तरफ एक १५-१६ साल की लड़की बैठी थी व बीच में मुझसे करीबन ७-८ वर्ष बड़ी उस लड़की की बहन थी। लड़की की बहन की शादी हो चुकी थी और वे एक शादी के समारोह में शामिल होने दिल्ली आ रहीं थीं। मैं अपनी डायरी के पन्नों में कुछ लिख रहा था तो उन्होंने मुझसे पूछा कि मैं दिल्ली क्यों जा रहा हूँ। बस वहीं से हमारी बातें शुरू हुईं। मैंने उन्हें बताया कि मैं करीबन ३५ दिन चेन्नई में रहके अब वापस दिल्ली जा रहा हूँ। वे मूलतः हैदराबाद के पास की किसी जगह से थीं व चेन्नई में उनका विवाह हुआ था। उनकी हिन्दी में मुझे कोई गलती नहीं दिखी। बहुत साफ बोलतीं थी वे। बातों ही बातों में मैंने उन दीदी को अपनी पिछली रात वाली घटना बताई। उन्होंने कहा कि पहले ये काफी होता था पर अब लोगों को हिन्दी आती है और वे बोलते भी हैं। और जो लोग ऐसा करते भी हैं तो वे राजनैतिक लोगों की वजह से। उनकी बातों से लगा कि जो पढ़ा लिखा बुद्धिजीवी वर्ग है शायद उसको फर्क न पड़ता हो परन्तु वो तबका जो बेरोजगार है व एक किस्म की मानसिक बीमारी से ग्रस्त है व जो पिछले कईं सालों से आँख मूँदे राजनेताओं की जी हुजूरी करते जी रहा है केवल वो ही ऐसी हरकतें कर रहा है।

ये चार वे घटनायें जो एक ही शहर के उन लोगों के विचार दर्शाती हैं। आप किस शहर को, किस व्यक्ति को, किस घटना को किस नज़र से देखते हैं ये सब आप पर निर्भर करता है। चेन्नई की हर एक घटना ने मेरी सोच को व मेरे जीवन को प्रभावित किया है। इसीलिये मैंने ये सब आपके समक्ष रखीं हैं। आगे अभी और भी ऐसी ही घटनायें आपके सामने रखूँगा जैसे ही मुझे याद आयेंगी। तब तक के लिये चेन्नई की मेरी यात्रा से इतना ही।
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Tuesday, March 11, 2008

बैसाखियों के सहारे भारत

मान लीजिये किसी के पैर में चोट लग गई है तो आप सबसे पहले क्या करेंगे? जाहिर सी बात है कि चोट ठीक करने का प्रयास करेंगे। पर यदि कोई चिकित्सक उसको बैसाखियाँ पकड़ा दे और चोट का इलाज न करे तो आप उसको पागल ही कहेंगे। ठीक है? अब "ब्रेकिंग न्यूज़" ये है कि आजकल ऐसे चिकित्सक भारत में आम हो गये हैं। और कमाल की बात ये है कि रोगी भी इलाज की बजाय बैसाखी पसंद कर रहे हैं। आखिर क्यों?

पिछले कुछ वर्षों में छात्रों में आत्महत्या जैसी घटनायें बढ़ गईं हैं। सरकार व सी.बी.एस.ई ने इस बाबत कदम उठाये हैं। कोशिश रहती है कि परीक्षाओं से ठीक पहले मनोचिकित्सक से बात करवाई जाये जिससे परीक्षा का भय कम हो सके। पर इस तरह "क्रैश कोर्स" करेंगे तो कैसे चलेगा? पूरे साल की मेहनत है भई। सी.बी.एस.ई भी हर साल अलग अलग बदलाव करके कोशिश करती है कि परीक्षायें सरल हो जायें, बच्चे पास हो जायें। एक वर्ग तो इन्हें समाप्त करवा देना चाहता है। कमाल है!मुझे ये समझ नहीं आ रहा है कि आत्महत्याएं अभी क्यों बढ़ रहीं हैं? सरल से सरल पेपर होने पर भी छात्र ऐसे कदम उठा रहे हैं। आज से १०-१५ साल पहले तक तो ऐसा नहीं था। जबकि कहा जाता है कि पेपर तब ज्यादा कठिन हुआ करते थे।
दरअसल हम समस्या की जड़ तक पहुँचने की बजाय उसका जल्द समाधान करने के चक्कर में एलोपैथी खा रहे हैं और होम्योपैथी से दूर भाग रहे हैं। हम ये नहीं समझ रहे कि बच्चों को गाइडेंस चाहिये जो उसको अभिभावकों से मिले। पर आज के समय में किसी के पास बच्चों के लिये समय नहीं है और उनके मन में भय आ जाता है। ऊपर से माता-पिता का जोर की ९० प्रतिशत अंक ही आने चाहियें। आप सभी ने "तारे जमीं पर" तो देखी ही होगी। उम्मीद है कि कुछ सीखा ही होगा। इन सब दबावों में बच्चा अपने आप को अकेला समझने लगता है और इसी उधेड़बुन में गलत कदम उठा लेता है। और हम कहते हैं कि परिक्षा कठिन थी। अगर ये बात है तो १०-१२ वर्ष पहले इससे ज्यादा आत्महत्या के किस्से होने चाहियें थे। पर ऐसा नहीं है। परीक्षायें समाप्त करना ही हल नहीं है। बच्चों को समझाया जाये कि ये तो बहुत छोटी परीक्षा है आगे ज़िन्दगी में इससे बड़ी परीक्षायें देनी हैं। इनहीं छोटी छोटी परीक्षाओं से ही सीखा जाता है। ये सब बताने की जगह उन्हें ग्रेडिंग प्रणाली की बैसाखी थमा देना मेरी नज़र में एक बचपने वाला कदम है।
ऐसा ही एक कदम हम ६० वर्ष पहले उठा चुके हैं जब आरक्षण का बीज हमने बोया था। फसल कितनी खराब उगी है इसका पता आज के समाज को देख कर लगाया जा सकता है। हर भारतीय बैसाखियों के सहारे चलने पर आतुर है। शायद हमें इनकी आदत हो गई है।
मुझे आज से अगले ३० बरस बाद की अपंग भारत की तस्वीर नज़र आने लगी है। क्या आप भी वही देख रहे हैं?
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Friday, March 7, 2008

अनेकता में Unएकता

भारत एक ऐसा देश है जिसमें २९ राज्य हैं। हर राज्य व केंद्र शासित प्रदेश की अपनी अलग ही खूबी है, अलग पहचान है। ये पहचान बनती है वहाँ के खानपान से, रहन सहन से, भाषा से, कपड़ों से व और भी कईं कारणों से। सन् १९४७ में जब हिन्दुस्तान का विभाजन हुआ व पाकिस्तान बना तब कहते हैं कि राजनेताओं ने अलग अलग राज्यों के राजा महाराजा व वहाँ के स्थानीय नेताओं से मिलकर एक ही देश में शामिल होने के लिये मनाया था। और इस तरह अलग अलग प्रदेश एक देश बने थे और हर जगह गूँजने लगा था एक ही नारा। अनेकता में एकता।

भारत में न जाने कितने ही तरह के लोग रहते हैं। करीबन २० भाषायें हैं और बोलियाँ कितनी हैं इसके बारे में मुझे नहीं पता। सबसे ज्यादा बोले जाने वाली भाषा हिन्दी है। भारत मुख्यतया ४-५ हिस्सों बाँटा जा सकता है।
एक सबसे ऊपर उत्तर में कश्मीर। जिसका ४७ से अब तक कोई हिसाब किताब नहीं है। पाकिस्तान उसे अपना कहता है, हिन्दुस्तान अपना कहता है और वहाँ रहने वाले लोग न पाकिस्तान में जाना चाहते है और न ही भारत में। अजीब विडम्बना है। ऐसे राज्य को अपना कहें भी तो कैसे जब वहाँ के लोग ही विरूद्ध हैं। क्या यही राजनीति है? मुझे जवाब नहीं पता।

दूसरे आते हैं हिन्दी भाषी राज्य जिसमें हिमाचल, पंजाब (इस पर सवाल उठाना चाहें तो उठा सकते हैं पर मैं पंजाबी को हिन्दी के बहुत नज़दीक मानता हूँ), दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, बिहार/झारखण्ड, मध्य प्रदेश/छत्तीसगढ़ व कुछ हद तक गुजरात शामिल हैं। ये वो राज्य हैं जहाँ की खबरें हम लोग ज्यादातर सुनते हैं। हिन्दी या उससे मिलती जुलती भाषायें अथवा बोलियाँ यहाँ बोली जाती हैं। यहाँ आपस में मतभेद अलग ही कारणों से है। यहाँ सदियों पहले बनाई गई जाति प्रथा हावी है। कुछ जातियाँ पिछड़ी हुई मानी जाती हैं पर उनका विकास उन राजनेताओं के भरोसे है जो उनका इस्तेमाल राजनैतिक रोटियाँ सेंकने में करते हैं। आरक्षण उसकी जीती जागती मिसाल है। प्राथमिक शिक्षा न दे कर उच्च शिक्षा में आरक्षण देना उन बच्चों के लिये बैसाखी थमाने लायक है, जिसके वे आदी हो चुके हैं। कहने को सबका धर्म एक ही है पर कोई मीणा है, कोई जाट है, कोई गुर्जर है, कोई राजपूत है। इसी के चलते कभी "आजा नच ले" पर विवाद होता है तो कभी "जोधा अकबर" का। समझ में ये नहीं आता कि जब ये फिल्में बन रहीं होती हैं तब विवाद नहीं होता अपितु बनने के बाद होता है। क्या ये भी राजनीतिक चालें तो नहीं?

आइये आगे चलते हैं महाराष्ट्र की तरफ जहाँ मराठी लोग रहते हैं। यहाँ के बारे में आज के बारे में क्या बोलूँ कुछ समझ नहीं आ रहा है। पर एक बात मैं ठाकरे परिवार से कहना चाहूँगा कि जितने भी मराठी विदेशों में जा कर बसे हुए हैं उन सब को वापस बुला लें क्योंकि वे लोग भी विदेशी लोगों के लिये "बिहारी" ही हैं। जैसे बिहार के लोग विभिन्न राज्यों में जा कर मेहनत करते हैं व अपना पेट पालते हैं, ठीक वैसे ही हम भी पैसा कमाने के लिये विदेश का रूख करते हैं। आगे से आपके परिवार के लिये गुजारिश है कि पासपोर्ट व वीसा आपके पास होना चाहिये यदि आप महाराष्ट्र से बाहर जाते हैं तो। अभी हाल ही में मैं चेन्नई गया था, तो वहाँ चाट वाला मिला जो बिहार से ही था। उसने कहा कि ऐसा क्यों है कि सबसे ज्यादा साक्षर राज्य यानि केरल से ज्यादा आई.ए.एस अधिकारी बिहार जैसे पिछड़े राज्य से बनते हैं। जवाब आसान है- क्योंकि वहाँ के लोग मेहनती हैं।

अब रूख करते हैं द्रविड़ प्रदेशों का। यहाँ भी हालात कुछ ज्यादा अच्छे नहीं हैं। यहाँ पर स्थानीय नेताओं व पार्टियों का दबदबा ज्यादा है। मीडिया में भी कम कवरेज मिलता है। क्या आपको पता चला कि रामेश्वरम में १६ गायों की असामयिक मृत्यु हो गई। पता कैसे चलेगा जब मीडिया वहाव ध्यान ही नहीं देता। मैंने ये बात अपने पिछले लेखों में भी बताई है। और वहाँ के कुछ लोगों में भी हिन्दी भाषियों के लिये बैर ही है।

यदि बंगाल व पूर्वोत्तर राज्यों की तरफ जायें तो हालात बद से बदतर होते जायेंगे। उस तरफ कोई राजनेता ध्यान नहीं देता है। आतंकवाद वहाँ है, भूख वहाँ है, अशिक्षा वहाँ है, बेरोजगारी, रोटी, कपड़ा, मकान की समस्या वहाँ है। इन सबके बावजूद टीवी पर उन राज्यों की खबर तभी आती है जब वहाँ कोई हादसा हो जाता है। बहुत शर्म की बात है। और मुझे लगता है कि यही हाल रहा तो वहाँ को लोग कब अलग देश की माँग करें पता नहीं।

इतने सारे राज्यों में घूमें ये तो पता चल गया कि भारत में अनेकता है। पर अगर आज को देखूँ तो मैं बहुत निराशावादी हो जाता हूँ और मुझे नहीं लगता कि इस समय कोई एकता बची है। लोगों के मन में द्वेष का भाव भरा हुआ है और हर कोई केवल अपने राज्य की सोच रहा है, पूरे देश की नहीं।

ये तो अभी हम लोगों ने लेख में धर्म या मजहब नाम के राक्षसों को तो छुआ ही नहीं है। धर्म पर मैं अपने विचार पहले ही यहाँ (http://tapansharma.blogspot.com/2007/01/blog-post_4643.html) जाहिर कर चुका हूँ।
मुझे डर है कि कहीं एक पुराने गाने की तर्ज पर कुछ ही सालों में हमें एक नया गाना सुनने को न मिल जाये-
इस भारत के टुकड़े हजार हुए,
मेरे भारत के टुकड़े हजार हुए,
कोई यहाँ गिरा, कोई वहाँ गिरा,
कोई यहाँ गिरा, कोई वहाँ गिरा।
क्या मैं गलत हूँ जो अगर मैं कहूँ कि आज के दौर में अनेकता में Unएकता छुपी हुई है?
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Sunday, March 2, 2008

वो सवा घंटा

आज सोचा था कि कुछ मालामाल क्रिकेट पर लिखा जाये, शायद पैसा हम पर भी मेहरबान हो जाये। पर अपनी ऐसी किस्मत कहाँ? आज नोएडा और दिल्ली के बीच जब सफर किया तो पता नहीं क्यों इसी पर लिखने का मन कर रहा है। हालाँकि काफी बार मैं इस रूट पर सफर कर चुका हूँ। पिछले २.५ साल से कर रहा हूँ पर बस से सफर का जो आनन्द है वो कैब में कहाँ? :-) मुझे पूरी उम्मीद है कि इसे पढ़ने के बाद जो दिल्ली वाले पाठक हैं उन्हे खुद पर बीते हुए कुछ वाकये याद आ जायेंगे। और जो दिल्ली के बाहर हैं उन्हें घर बैठे दिल्ली के सफर का मजा मिलेगा।

चलिये शुरू करते हैं कश्मीरी गेट से नोएडा का सफर व्हाइट लाइन बस में। ये वो बस होती है जिसका किराया एक ही होता है। इसमें कोई स्लैब्स नहीं होते। फिक्स्ड रेट १० रू। मैट्रो स्टेशन से बाहर आते ही मुझे ये बस खड़ी मिली और मैं उसमें चढ़ गया। नज़रें घुमाईं और मुझे एक सीट मिल गई। खिड़की की सीट थी तो मैं खुश था। सोने को भी मिल जायेगा और भीड़ से भी बचा जा सकेगा। फिर धूप की किसे फिक्र हो।

मैं बैठा और थोड़ी ही देर में मैंने अपने बैग से एक उपन्यास निकाल लिया। आदत से मजबूर हूँ, लम्बा सफर हो तो एक ही सहारा होता है। आसपास वाले हैरान हुए कि ये हिन्दी में क्या पढ़ रहा है? खैर बहुत जल्द लालकिले पर पहुँच गये। बस में लगातार लोग चढ़ रहे थे। कंडक्टर के लिये तो जगह खत्म होने को ही नहीं आ रही थी। देखते ही देखते दरियागंज आ गया और बस खचाखच भर गई। अगर बस की सीटिंग ४० लोगों की हो तो दिल्ली की बसों में खड़े होकर ८० लोग आ जाते होंगे्। कुल मिलाकर १०० से कम तो नहीं हो सकते। शतक तो ठोका ही जायेगा।
ओ भाई, कितनी बोरियाँ हैं तेरे पास? कंडक्टर ने एक आदमी से जब पूछा तो उसने डरते हुए जवाब दिया, "तीन"।
"तीन बोरियों के हिसाब से ३० रूपये निकाल ले फटाफट"
"२० ही तो लगेंगे"
उस आदमी के जवाब पर कंडक्टर भाई साहब बिफर गये और ये हाथ हवा में लहराया।
"देने हों तो दे, वरना सामान लेकर यहीं उतर जा, पीछे बड़ी सवारियाँ आ रहीं हैं"
आदमी सहम गया। क्या करता, ३० रू निकाल कर उसके हाथ में थमा दिये। दिल्ली सरकार के हिसाब से १०वीं पास ही कंडक्टर बन सकता है|पर इस तरह से किसी से बातें करना तो गँवारों की तरह लगता है।

"रे ताऊ, तैने समझ न आई के, भीतर ने हो ले बाकी सवारी भी आयेंगी अभी"। एक और दसवीं पास की आवाज़ (?)। दरअसल हर बस में एक सहायक भी होता है। जो आगे की सीट पर बैठा हुआ, टूटी हुई खिड़की से बाहर झाँकता है और अपने हाथों से बस के बाहर का हिस्सा पीटता रहता है। वो बताता है कि ड्राइवर को बस कितनी तेज़ चलानी है, और कहाँ रूकना है। कोई भी स्टॉप आयेगा तो आगे आने वाले १० जगहों के बारे में होटल के बैरे के मीनू बताने से भी तेज़ बोलता रहेगा। अब हुआ यूँ था कि किसी बुजुर्ग का बैग अड़ रहा था और वे बस में अंदर घुस नहीं पा रहे थे। घुसते भी कैसे, जहाँ खड़े होने के लिये २ लाइनें होनी चाहियें, वहाँ तीन और कहीं कहीं पर चार लाइनें थीं। अब आप अपना दिमाग चलाइये और हिसाब लगाइये कि २ की जगह ४ लाइनें हों तो निकलने की कितनी जगह मिलेगी।
पर दिल्ली की बसों में यही जुगाड़ तो चलता है।

ये तो शुक्र था कि आज उसी रूट पर चलने वाली कोई और बस उसी समय नहीं चल रही थी, वरना तो फर्मूला वन होते देर नहीं लगनी थी। वैसे भी ग्रेटर नोएडा में ही ट्रैक बनाने की योजना है। बस की आधी खिड़कियाँ टूटी हुईं थीं। गनीमत है कि सर्दियों के खत्म होने पर मैं उस बस से सफर कर रहा था, वरना कुल्फी जमते देर नहीं लगनी थी। मुझसे २ सीट आगे की खिड़की ऐसी थी मानो किसी ने उलटी कर रखी हो। हो भी सकता है। कुम्भ के मेले में तबीयत तो खरीब हो ही सकती है। खड़े हुए लोगों को देख कर मुझे अपनी किस्मत अच्छी लगने लगी थी।

उपन्यास के १५ पन्ने पढ़ने के बाद मुझे नींद आने लगी थी और मैं सो गया। जब नींद टूटी तो पता चला कि अगला स्टॉप मेरा ही था।

बैग में फटाफट किताब डाली। और मोबाइल फोन भी। पर्स चैक किया, वो पहले से ही बैग में था। आप सोच रहे होंगे कि किताब तो समझ आती है, पर फोन और पर्स क्यों डाला बैग में। २ बार पर्स और १ बार फोन जेब कतरों के हवाले कर चुका हूँ मैं। इसलिये बचाव के लिये ऐसा कदम मैं हमेशा उठाता हूँ। कोशिश रहती है कि पर्स बैग में ही रहे, और ज़रूरत के हिसाब से खुले पैसे जेब में।

पर अब मेरे सामने १० कदम का पहाड़ जैसा रास्ता था जो मुझे अगले एक मिनट में पूरा करना था।
ओह! जैसे ही पैर सीट के बाहर रखा बगल में खड़े एक आदमी ने मुझे घूरा। मेरा पैर उसके पैर पर जो पड़ गया था।
आगे एक सज्जन ने अपना एक बैग भी बस के फर्श पर रखा हुआ था। जहाँ पैर रखने की जगह नहीं वहाँ बैग!!
"अरे हटो भाई, आगे जाने दो" मैं ये शब्द दोहराता हुआ, भीड़ को चीरता हुआ, चला जा रहा था। सुबह जो खाकर निकला था, वो सारा अब हजम हो रहा था। मैं सोच रहा था कि पेट को पाचन क्रिया करने की ज़रूरत ही क्या है? बस में चढ़ो और भीड़ के धक्कों में झूलो। कुछ ऐसा ही उस वक्त मुझे महसूस हो रहा था।५ कदम चल चुका था और आगे का रस्ता संकीर्ण होता जा रहा था। पहाड़ो पर बर्फ गिरती है तो ज़मीन पर पैर नहीं पड़ते। ठीक वैसा ही मेरे साथ हो रहा था। ५-६ कदम चलने के बाद भी पैर फर्श तक नहीं पहुँच पा रहे थे। ३ कतारों को काट के आगे बढ़ रहा था तो मुझे लगने लगा कि बस में सफर करने वाले हर आदमी को बहादुरी पुरस्कार मिलना ही चाहिये। बैग को कंधे से मैं कब का उतार चुका था और वो मेरे दाहिने हाथ में ऊपर लटक रहा था। उसी दाहिने हाथ से मैंने छत पर लगा हुआ डंडा पकड़ा हुआ था। मेरे हाथ पैर अब तेज़ी से आगे की तरफ बढ़ रहे थे और मुझे अपनी मंज़िल नज़र आने लगी थी। वाह, आगे गेट है। पर दरवाज़े की ३ सीढियों पर ४ लोग पहले से ही खडे़ थे और कमाल की बात ये थी कि उनमें से किसी को भी वहाँ नहीं उतरना था। शुक्र है कि बस खडी थी वरना कईं बार तो लोगों को बस से गिरते हुए भी देखा है, जब चालक जानबूझ कर जल्दबाजी के चक्कर में बस रोकता ही नहीं है।

पर आखिरकार, मेहनत रंग लाई और मैं झूले खाता हुआ उतरा व खुली हवा में फिर से साँस लेने लगा।

ये वो सफर है जिसका चश्मदीद दिल्ली में रहने वाला हर वो शख्स है जो इन बसों में सफर करता है। दिल्ली सरकार इन बस मालिकों का कुछ क्यों नहीं करती जो लोगों की जान जोखिम में डाल कर ज़रुरत से ज्यादा लोग भर लेते हैं। सरकार उन सहायकों व चालकों का कुछ क्यों नहीं करती जो यात्रियों से बुरी तरह पेश आते हैं। लगता ही नहीं कि ये दिल्ली के स्कूलों से पास हुए १०वीं व १२वीं के छात्र हैं। सवाल बहुत हैं पर जवाब किसी अफसर के पास नहीं है। क्योंकि यही बस मालिक इनका पेट भरते हैं। चलिये मेरा ये सफर यहीं समाप्त होता है। अरे हाँ, एक बात बतानी तो मैं भूल ही गया। वापसी में ऐसी ही एक बस में मैं ३० मिनट खड़े होकर गया। सोच रहें हैं कि मेरा क्या हुआ होगा। शायद इसीलिये मैंने आप सब के साथ अपना दुःख बाँटने के लिये ये लिखा है।
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