Tuesday, March 11, 2008

बैसाखियों के सहारे भारत

मान लीजिये किसी के पैर में चोट लग गई है तो आप सबसे पहले क्या करेंगे? जाहिर सी बात है कि चोट ठीक करने का प्रयास करेंगे। पर यदि कोई चिकित्सक उसको बैसाखियाँ पकड़ा दे और चोट का इलाज न करे तो आप उसको पागल ही कहेंगे। ठीक है? अब "ब्रेकिंग न्यूज़" ये है कि आजकल ऐसे चिकित्सक भारत में आम हो गये हैं। और कमाल की बात ये है कि रोगी भी इलाज की बजाय बैसाखी पसंद कर रहे हैं। आखिर क्यों?

पिछले कुछ वर्षों में छात्रों में आत्महत्या जैसी घटनायें बढ़ गईं हैं। सरकार व सी.बी.एस.ई ने इस बाबत कदम उठाये हैं। कोशिश रहती है कि परीक्षाओं से ठीक पहले मनोचिकित्सक से बात करवाई जाये जिससे परीक्षा का भय कम हो सके। पर इस तरह "क्रैश कोर्स" करेंगे तो कैसे चलेगा? पूरे साल की मेहनत है भई। सी.बी.एस.ई भी हर साल अलग अलग बदलाव करके कोशिश करती है कि परीक्षायें सरल हो जायें, बच्चे पास हो जायें। एक वर्ग तो इन्हें समाप्त करवा देना चाहता है। कमाल है!मुझे ये समझ नहीं आ रहा है कि आत्महत्याएं अभी क्यों बढ़ रहीं हैं? सरल से सरल पेपर होने पर भी छात्र ऐसे कदम उठा रहे हैं। आज से १०-१५ साल पहले तक तो ऐसा नहीं था। जबकि कहा जाता है कि पेपर तब ज्यादा कठिन हुआ करते थे।
दरअसल हम समस्या की जड़ तक पहुँचने की बजाय उसका जल्द समाधान करने के चक्कर में एलोपैथी खा रहे हैं और होम्योपैथी से दूर भाग रहे हैं। हम ये नहीं समझ रहे कि बच्चों को गाइडेंस चाहिये जो उसको अभिभावकों से मिले। पर आज के समय में किसी के पास बच्चों के लिये समय नहीं है और उनके मन में भय आ जाता है। ऊपर से माता-पिता का जोर की ९० प्रतिशत अंक ही आने चाहियें। आप सभी ने "तारे जमीं पर" तो देखी ही होगी। उम्मीद है कि कुछ सीखा ही होगा। इन सब दबावों में बच्चा अपने आप को अकेला समझने लगता है और इसी उधेड़बुन में गलत कदम उठा लेता है। और हम कहते हैं कि परिक्षा कठिन थी। अगर ये बात है तो १०-१२ वर्ष पहले इससे ज्यादा आत्महत्या के किस्से होने चाहियें थे। पर ऐसा नहीं है। परीक्षायें समाप्त करना ही हल नहीं है। बच्चों को समझाया जाये कि ये तो बहुत छोटी परीक्षा है आगे ज़िन्दगी में इससे बड़ी परीक्षायें देनी हैं। इनहीं छोटी छोटी परीक्षाओं से ही सीखा जाता है। ये सब बताने की जगह उन्हें ग्रेडिंग प्रणाली की बैसाखी थमा देना मेरी नज़र में एक बचपने वाला कदम है।
ऐसा ही एक कदम हम ६० वर्ष पहले उठा चुके हैं जब आरक्षण का बीज हमने बोया था। फसल कितनी खराब उगी है इसका पता आज के समाज को देख कर लगाया जा सकता है। हर भारतीय बैसाखियों के सहारे चलने पर आतुर है। शायद हमें इनकी आदत हो गई है।
मुझे आज से अगले ३० बरस बाद की अपंग भारत की तस्वीर नज़र आने लगी है। क्या आप भी वही देख रहे हैं?

2 comments:

Anonymous said...

Ultimate … what a deep sense …
It’s not just an article; it is the nasty truth of so called ‘Indian standard education’. Each and every sentence is worth to read. It’s really appealing.

At the other hand, truth is not just the ignorance of parents for their children’s; we are ignoring and keep ignoring those who are our own.

In a family, each person is ignoring to another, just because he is busy in his daily routine. No one from us have any time for our own who loved us. But the question is … is there any solution of this problem? If yes, is it feasible to compete the professional world also? Would it be the balanced solution for all of our own?

I don’t know the answer, Do you?

Unknown said...

That's a very accurate analysis that you have done!!!

I too feel the same, that ending the examinations to reduce the so called 'examination stress' is not the solution. However right the argument that you can't judge a child's year long hard work based on how he/she performed in those 3 hours may be, the truth is that you don't have much alternatives either.

If in place of the current system, you place a system of a series of gradual examinations, then won't the same problem come there too?? This is a vicious circle according to me. This is the combined responsibility of the teachers and the parents to make children take the examinations in the right spirit without getting stressed out....

Your mention of the reservation issue is a case in point. Despite the original intent of it to be there for only 10 years, it has only been extended by each successive government, purely for votebank purposes and hardly with any genuine intention of helping the needy. What this has done is that the capable person is not getting the opportunity and the backward people are still backward. So the solution does not appear to solve the problem, it was designed for...

The present solutions seem to be an attempt to overkill the problem... There is real need to do an in depth analysis to find out the root cause.....

Sorry for not typing in Hindi...