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Thursday, September 2, 2010

गाँव एक गाली के सिवा आज कुछ भी नहीं

१९५७ का वह दौर था जब आज की पीढ़ी पैदा भी नहीं हुई थी। न ही आज के नये फ़िल्मी सितारे और न ही अधिकतर निर्माता निर्देशक। उस दौर में एक फ़िल्म आई जिसका नाम था ’नया दौर’। दिलिप कुमार-वैजयन्ती माला अभिनीत इस फ़िल्म में वो गाँव दिखाया गया जहाँ फ़ैक्ट्री लगाई जा रही है और ’विकास’ किया जा रहा है। उस तांगेवाले के संघर्ष की कहानी है जो इस कथित विकास और आधुनिकीकरण के खिलाफ़ लड़ता है।

१८५७ का वह दौर नया दौर कहलाया गया। जब हर दौर के आगे एक नया दौर आता है तब उस दौर को समझ लेना चाहिये कि यही उसके अंत की शुरुआत है। ’नया दौर’ हिन्दी फ़िल्म सिनेमा की बेहतरीन फ़िल्मों में से एक कही जाती है जिसने गाँव की हकीकत और उसके हालात से वाकिफ़ कराया। आज का दौर बदला है। आज गाँव की पृष्ठभूमि पर फ़िल्में कम ही बनती हैं। हाल ही में आई थी पीपली लाइव। खैर उस पर काफ़ी लोगों ने बहुत कुछ कहा है। आज हम जानेंगे कि ’पीपली लाइव’ ने हमारे नये दौर के लिये क्या छुपा रखा है।

आज के दौर में निर्देशक चाहता है कि जो दिखाया जा रहा है वो एकदम सच लगे। उसी सच्चाई को दिखाने के लिये एक नया हथियार ढूँढा गया है और वो है गाली। जो आमतौर पर आप को गली में, बाज़ार में, बस में, सड़क पर चलते हुए, रेल में, शहर में, गाँव में कहीं भी सुनाई दे जायेगी। वही गाली अब फ़िल्म को सफ़ल बनाने का तुरुप बनती जा रही है। इसका इस्तेमाल विशाल भारद्वाज, अनुराग कश्यप जैसे निर्देशक अपनी फ़िल्मों में अमूमन करते रहे हैं। ओमकारा में सैफ़ अली खान तो इश्किया में विद्या बालन और हाल ही में पीपली लाइव। गाली पहले भी दी जाती थी। धर्मेंद्र अपनी हर फ़िल्मों में कुत्ते, कमीने कहते नजर आते रहे हैं। ’बसन्ती इन कुत्तों के सामने मत नाचना’, ’कुत्ते मैं तेरा खून पी जाऊँगा’ आदि डायलॉग बहुत मशहूर हुए। पर अब बात कुछ और है। अब इन गालियों का ’स्टेंडर्ड’ बदल गया है। या कहें कि बढ़ गया है।

ऐसी फ़िल्में अधिकतर गाँव से जुड़ी हुई दिखाई गई हैं, जिससे ऐसा लगता है कि गाँव के लोग ही अधिकतर गाली का इस्तेमाल करते हैं। क्या गाँव की बात सुनाने के लिये गाली ही एक तरीका रह गई है? निर्देशिका अनुषा रिज़्वी क्या बिना अभद्र भाषा के फ़िल्म नहीं बना सकती थीं? क्या गाली देना और सुनवाना इतना जरूरी है? और क्या अब वही एक सच्चाई रह गई है? या फिर गाँ व के लोग अब गाली देना सीखें हैं या शहरी इतने शरीफ़ हैं कि उनके मुँह से ऐसी भाषा निकलती ही नहीं? क्या ’नया दौर’ में जब गाँव की कहानी बताई गई तब निर्देशक ने ’यह सच्चाई’ छुपा दी थी? बिना अभद्र भाषा के जब १९५७ की फ़िल्म सफ़ल हो सकती है तो आज की ’पीपली’ क्यों नहीं?

किसान की आत्महत्या का मुद्दा ऐसा है को आज हर एक बच्चे को भी बताना व समझाना जरूरी है। ये एक ऐसा मुद्दा है जो इस देश के हर इंसान से जुड़ा है चाहें वो छोटा हो या बड़ा। पीपली लाइव को ’ए’ रेटिंग दे कर इसको वयस्कों का बना दिया गया। क्या १५ साल के बच्चों को आज किसान की हक़ीकत से रूबरू नहीं होना चाहिये? जब दसवीं के बच्चे को भूगोल और विज्ञान में मिट्टी, देश, हवा पानी के बारे में बताया जा सकता है तो इससे जुड़े हुए उस किसान के बारे में क्यों नहीं जो हमारा पेट भरता है और खुद भूखा रहता है? क्या उसको यह जानने का हक़ नहीं है कि यदि किसान मरेंगे तो एक दिन ये समाज भी मरेगा? पर शायद समाज पहले ही मर चुका है। ’नया दौर’ आज भी नया ही है। आज भी आधुनिकीकरण और विकास के नाम पर किसान को दबाया जाता है। आज भी नेता और बड़े-बड़े उद्योगपति मिलकर किसान की ही जमीन खा रहे हैं। किसान सड़कों पर उतर आये हैं। इस मुद्दे का राजनीतिकरण हो चुका है।

आज गाँव में किसान खेती छोड़ रहे हैं। अपनी जमीन ’विकास’ के नाम समर्पित कर रहे हैं। और हम शहरी खुश हो रहे हैं क्योंकि मॉल खुलेगा तो अगली ’पीपली लाइव’ देखने हम उसी नये थियेटर में जायेंगे। किसान की जमीन पर बने उस मल्टीप्लेक्स में बड़ी स्क्रीन पर किसान की ही फ़िल्म देखी जायेगी। फ़िल्में और समाज दोनों ही आधुनिक हो गये हैं। जहाँ एक और फ़िल्में समाज की भाषा समाज को ही दिखा रही है वहीं समाज एक नये दौर में नये सपने बुनने में व्यस्त है।
गाँव के किसान शहर आते हैं और शहर का विकास करते हैं। शहर उस इंडिया का हिस्सा है जो ’शाईन’ कर रहा है।

विदेशों में कामयाबी के झंडे गाड़ रहा है। और गाँव उस भारत का हिस्सा है जहाँ इस देश की सत्तर प्रतिशत आबादी रहती है और शहर की चकाचौंध को आशाओं की नजरों से देखती है। "जय जवान जय किसान" का नारा आज बेमानी हो गया है। शहरी उद्योगपतियों और फ़िल्मकारों और हमारे समाज की मानें तो गाँव एक गाली के सिवा आज कुछ भी नहीं!!!
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