Monday, December 29, 2008

जय हिन्द, जय हिन्दी, जय हिन्दयुग्म!!!

२८ दिसम्बर को हिन्दयुग्म ने अपना वार्षिकोत्सव मनाया। मैं भी इस आयोजन का साक्षी बना। हिन्दी भवन, दिल्ली में आयोजित इस समारोह में ’हंस’ सम्पादक राजेन्द्र यादव के अलावा अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त गणितज्ञ प्रो॰ भूदेव शर्मा, अंतर्राष्ट्रीय खेल कमेंटेटर प्रदीप शर्मा और कपार्ट, ग्रामीण विकास मंत्रालय के सदस्य डॉ॰ सुरेश कुमार सिंह अतिथि के तौर पर उपस्थित थे। डा. श्याम सखा ’श्याम’ ने मंच संचालन किया। दोपहर २.३० बजे से जो समा बँधा वो शाम ६.३० बजे तक चला। हिन्दयुग्म के कवियों ने काव्यपाठ किया और पाठकों को सम्मान मिला। हॉल पूरी तरह से खचाखच भरा हुआ था। १५० से ऊपर लोग वहाँ आये हुए थे। हिन्दयुग्म के नियंत्रक शैलेश भारतवासी (bharatwasi001@gmail.com) ने हिन्दी ब्लॉगिंग करना सिखाया। कार्यकर्ताओं की मेहनत रंग लाई और हर अतिथिगण हिन्दयुग्म की इस पहल और कार्यों का कायल हो गया। हर किसी ने युग्म की मदद करने का वायदा किया। राजेंद्र जी ने जब कहा कि वे खुद ब्लॉगिंग करना सीखना चाहते हैं तो इससे बढ़कर और बात क्या हो सकती थी? युग्म को आगे बढ़ाने में जितने भी कार्यकर्ता लगे हुए हैं, हर किसी के लिये हर्ष का दिन है। मैं भी आज खुश हूँ। १८ महीने पहले पिछले वर्ष अप्रेल में हिन्दयुग्म से जुड़ा था। आज मुझे गर्व महसूस हो रहा है कि वो भाषा जिसे मैं समझता था कि बाकि भाषाओं के मुकाबले पिछड़ रही है, आज उसी भाषा के लिये मैं काम कर रहा हूँ और हिन्दयुग्म लोगों को ये रास्ता दिखा रहा है।

अधिक जानकारी के लिये: http://kavita.hindyugm.com/2008/12/celebration-of-hind-yugm-annual.html
जय हिन्द, जय हिन्दी, जय हिन्दयुग्म!!!
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Saturday, December 20, 2008

हिन्द-युग्म: 28 दिसम्बर 2008 को हिन्द-युग्म मनाएगा वार्षिकोत्सव (मुख्य अतिथि- राजेन्द्र यादव)

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राजस्थान की गोलमा: लोकतंत्र का मजाक, विडम्बना या मजबूरी

कल राजस्थान में मंत्रियों ने शपथ ली। जिन्होंने शपथ ली उनमें एक राज्यमंत्री हैं गोलमा देवी। बात उनकी इसलिये करनी पर रही है क्योंकि पढ़ाई के मामले में पिछड़े राज्यों में से एक राजस्थान की यह राज्यमंत्री कभी स्कूल नहीं गई। ये पूर्ण रूप से अशिक्षित हैं। शपथ पढ़ नहीं पाई। हस्ताक्षर की जगह अंगूठा लगाया। ये शर्मनाक है। ये लोकतंत्र की विडम्बना है जो ऐसे अनपढ़ लोग हमारे मंत्री बने बैठे हैं। जरा थोड़ा पीछे जाते हैं। किरोड़ी लाल मीणा साहब इससे पहले भाजपा में थे। भाजपा ने उन्हें टिकट देने से इनकार कर दिया। जनाब बागी हो गये और अपने साथ अपनी पत्नी और दो अन्यों को निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़वा दिया। और कमाल की बात ये कि ये चारों ही चुनाव जीत गये। अब कांग्रेस को तो पूरे १०० विधायक मिले नहीं, तो उन्हें निर्दलियों का साथ लेना था। सो पेशकश की गई किरोड़ी लाल जी से। इन्होंने खुद तो मंत्री पद नहीं लिया पर अपनी पत्नी को जरूर दिलवा दिया। ये लोकतंत्र की मजबूरी है क्या? लोगों ने ऐसा क्या देखा गोलमा देवी में? क्या लोग अभी भी नहीं समझे कि हमें समझदार और शिक्षित व्यक्ति नेता के रूप में चाहिये? क्या उम्मीदवार और मंत्री बनने के लिये कितनी शिक्षा कम से कम होनी चाहिये,ऐसा कोई कानून नहीं बनाया जाना चाहिये? ये नेता लोग तो करेंगे नहीं। इनका अपना खुद का नुकसान जो होगा। कांग्रेस और गहलोत सरकार की यह कैसी मजबूरी? सरकार बनाना इतना जरूरी कि गोलमा देवी को मंत्री पद दे दिया? मुझे कांग्रेस सरकार से ज्यादा गुस्सा लोगों पर आ रहा है। क्या गहलोत सरकार के पास और कोई रास्ता नहीं बचा था? क्या लोगों को अपने क्षेत्र व प्रदेश की तरक्की नहीं चाहिये? हमें अब ये जागरूकता फैलानी चाहिये ऐसे लोग हमारे नेता न बनें। फ़ैसला हमें लेना है।
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Sunday, November 16, 2008

सच ही कहा था हरिवंश राय ने!!!

डा. हरिवंशराय बच्चन-हिंदी काव्य में एक ऐसे स्तम्भ जिसको हर कोई मानता है। उन्होंने एक कविता लिखी थी मधुशाला। ७५ साल हुए उन बातों को। और आज अचानक कहीं से आवाज़ उठी कि इस कविता की कुछ लाइनें एक धर्म के खिलाफ हैं। या यूँ कहें कि कट्टरपंथियों और धर्म के ठेकेदारों उसके खिलाफ बोल रहे हैं। पिछले शनिवार को अखबार में पढ़ा तो दंग रह गया। निम्न पंक्तियों पर बैन की बात उठी है।


सजें न मस्जिद और नमाज़ी कहता है अल्लाताला,
सजधजकर, पर, साकी आता, बन ठनकर, पीनेवाला,
शेख, कहाँ तुलना हो सकती मस्जिद की मदिरालय से
चिर विधवा है मस्जिद तेरी, सदा सुहागिन मधुशाला।।४८।

बजी नफ़ीरी और नमाज़ी भूल गया अल्लाताला,
गाज गिरी, पर ध्यान सुरा में मग्न रहा पीनेवाला,
शेख, बुरा मत मानो इसको, साफ़ कहूँ तो मस्जिद को
अभी युगों तक सिखलाएगी ध्यान लगाना मधुशाला!।४९।

मस्जिद को यहाँ कुछ लोगों ने शाब्दिक अर्थ में ले लिया और नाराज़ हो गये हैं। क्या बेतुकी बात है। क्या उन्हें ७५ सालों से कुछ दिखाई नहीं दे रहा था? या अब तक सोये हुए थे। ये लोग बच्चन की बात समझ ही नहीं पाये। अगर समझ जाते तो ऐसी बचकानी हरकतें नहीं करते। हरिवंश राय आगे लिखते हैं:

बैर कराते मंदिर मस्जिद, मेल कराती मधुशाला!!!!

क्या खूब लिखा था... और क्या सच बोला था। अगर उपर्युक्त पंक्ति को पढ़कर हिंदू भी भड़क जायें तो आप समझ सकते हैं कि क्या बवाल उठेगा। मुझे समझ में नहीं आता कि इतना उल्टा सोचने का समय कैसे मिल जाता है। बच्चन साहब ने सच लिखा था, मंदिर मस्जिद बैर ही करा रहे हैं। पर उनकी इस अद्भुत और अद्वितीय कलाकृति पर हि सवाल उठ जायेंगे यकीन मानिये मैंने तो नहीं सोचा था।

वैसे अभी हाल ही में एक शख्स ने आर्य समाज और दयानंद सरस्वती की पुस्तक सत्यार्थ प्रकाश पर बैन का प्रश्न उठाया। दिल्ली हाई कोर्ट ने इस अपील को खारिज कर दिया। १२५ बरसों से जिस ग्रंथ ने धार्मिक सद्भाव बिगड़ने नहीं दिया तो वो अचानक कैसे आग भड़का सकती है। ऐसी बेतुकी अपीलें इस देश में आये दिन उठती रहती हैं। कोई है जो इन सवालों के जवाब दे सके।

मुसलमान औ' हिन्दू है दो, एक, मगर, उनका प्याला,
एक, मगर, उनका मदिरालय, एक, मगर, उनकी हाला,
दोनों रहते एक न जब तक मस्जिद मन्दिर में जाते,
बैर बढ़ाते मस्जिद मन्दिर मेल कराती मधुशाला!।५०।


जय हिंद
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तस्लीमा नसरीन फिर देश के बाहर

सच कड़वा होता है। और इसका स्वाद तस्लीमा नसरीन चख रही है और भुगत भी रही है। तस्लीमा फिर देश के बाहर हैं। अभी अगस्त में ही तो वापस आई थी। मुस्लिम कट्टरपंथियों के खिलाफ और मुस्लिम समाज की कुरीतियों को लिखना बहुत महँगा पड़ रहा है। सरकार कट्टरपंथियों की गुलाम है। यूँ तो इस सरकार से देश के आंतरिक हालात सम्भल नहीं रहे हैं। राज ठाकरे जो असलियत में करता है उस पर बैन नहीं, पर फिल्म पर जरूर बैन लगता है। तस्लीमा को छह महीने की किसी गुप्त शर्त पर भारत में रखा गया। और अब जाने को बोल दिया गया है। आंतरिक सुरक्षा और धर्म निरपेक्षता का हवाला दे कर। इस देश में कलम भी सुरक्षित नहीं। लेखकों को इसके खिलाफ आवाज़ उठानी चाहिये। एक लेखिका को सच बोलने की सज़ा पहले उसके अपने देश बांग्लादेश में दी गई और अब हमारे देश हिंदुस्तान में। एक तरफ हम कहते हैं कि मेहमान भगवान है दुसरी तरफ हम इस तरह से निकाल देते हैं। क्या सरकार चंद लोगों की गुलाम बन चुकी है? उन्हीं के हाथों की कठपुतली बन चुकी है। कांग्रेस सरकार महज अपना वोट बैंक कायम रखना चाहती है। हर धर्म में कुरीतियाँ होती हैं और उन्हें दूर करने के लिये समय समय पर लोग आते रहे हैं। दयानंद सरस्वती ने आर्य समाज की स्थापना इसी उद्देश्य करी थी। गलत रीतियों के खिलाफ आवाज़ बुलंद करने पर यदि इस तरह बेइज़्ज़ती उठानी पड़ती है तो हर कोई सच बोलने से डरेगा। जो बांग्लादेशी भाग कर सीमा लाँघ कर गैर कानूनी तरह से भारत में घुस आते हैं उनको खिलाफ ये सरकार कुछ नहीं करती। उनके वोटर कार्ड बनाये जाते हैं। क्योंकि वे लोग सरकार और पार्टी को वोट देंगे। लेकिन जो बांग्लादेशी सच्चा है उसको देश से निकाला जाता है फिर उसी वोट की खातिर। ये सरकार बिक चुकी है। इसे केवल अपने वोटों से मतलब है। तस्लीमा को देश में ही सुरक्षा क्यों नहीं दी जाती इस पर सरकार को जवाब देना चाहिये। आप भी माँगिये!!!

जय हिंद!!
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Sunday, November 2, 2008

लोकतंत्र की हार

सोचा था कि कविता लिखकर ही ब्लॉग पर पोस्ट करूँगा पर इस देश के हालातों ने मुझे फिर ये लेख लिखने पर मजबूर कर दिया। देश में बहुत ही अफरातफरी सा माहौल है। अंग्रेज़ी में कहते हैं : chaos| एक ओर मंदी मंदी का शोर है, दूसरी ओर बम धमाकों का, तीसरी कहानी ’राज’ की नीतियों पर चल रही है जिसे लोग क्षेत्रवाद कहते हैं, चौथी कहानी पुरानी है मुस्लिम तुष्टिकरण की और आखिरी नई नई कहानी है कथित "हिन्दू आतंकवाद" और मिलिट्री के लोगों की धमाकों में शामिल होने की। इतनी सारी कहानियाँ ... एक साथ.. आम आदमी का दिमाग खराब करने के लिये काफी है.. ऐसे में कविता लिखना, बहुत कठिन लगता है मुझे तो।

पहले बात करते हैं राज ठाकरे की। इस बात को ज्यादा नहीं छुऊँगा। दो हफ्ते पहले रेलवे की परीक्षा के दौरान जो हरकत मनसे के लोगों ने करी वो गलत थी। मुझे उनका विरोध का कारण जायज़ लगा पर विरोध का तरीका नहीं। आप कहेंगे कि मैं क्षेत्रवाद के पक्ष में कैसे? दरअसल लालू प्रसाद जब केवल यादवों की भर्ती के लिये परीक्षा करवायेंगे और यूपी अथवा हरियाणा के यादवों की नहीं बल्कि केवल बिहार के यादवों के लिये... तो विरोध लाज़मी है। मैं भी करता.. यहाँ लालू क्षेत्र और जातिवाद दोनों फैला रहे हैं... केंद्र मंत्री जो ठहरे...जो करेंगे किसी को पता नहीं चलेगा... मीडिया भी इसके लिये दोषी है को सही कारण लोगों तक नहीं पहुँच रहा है.. कर्नाटक और उड़ीसा से भी ९९ फीसदी जब बिहारी चुने जायेंगे तो मुझे नहीं लगता कि विरोध करने में कोई दोराय बचती है। और भी गुल खिलाये हुए हैं हमारे रेल मंत्री जी ने.. पर वो बात अभी नहीं एक और चिंता बाकि है...

देश में जब भाजपा यह कह रही थी कि हर मुसलमान आतंकी नहीं पर हर आतंकी मुसलमान। दूसरा यह कि केंद्र सरकार अफज़ल को अब तक बचाये हुए है केवल वोटों के लिये। तब अचानक ही साध्वी प्रज्ञा पकड़ी जाती हैं मालेगाँव के बम ब्लास्ट में। कहा जाता है कि उनका हिन्दू संगठनों से ताल्लुकात हैं। मुम्बई की पुलिस ने साध्वी को पकड़ते ही नार्को टेस्ट शुरु करवा दिया। जबकि यह टेस्ट तभी होता है जब पक्के सुबूत न हों। कांग्रेस को बहाना मिला और उसने हिन्दू संगठनों पर बैन की बात करी। दसियों धमाके करने वाली सिमी का समर्थन करने वाले मंत्री एक साध्वी के पकड़े जाने पर हिन्दू संगठनों का विरोध करने लगे। एक व्यक्ति के पकड़े जाने से यदि संगठन बुरा हो जाता है तो.....
साध्वी के साथ पकड़े गये हैं सेना के अफसर भी.. इसका मतलब तो यह हुआ कि सेना पर भी प्रतिबंध लगा दिया जाये!!!

यहाँ से दो बातें हो सकती हैं - एक ..साध्वी और अफ़सर बेकुसूर हैं.. मतलब साफ है महाराष्ट्र सरकार फँसा रही है..यानि राजनैतिक दल अनैतिकता के रास्ते पर धड़ल्ले से चलने लगे हैं और सरकारी तंत्र का गलत फायदा उठाने से बाज नहीं आते। ये हालात भारत में राजनैतिक भविष्य बयां कर रहे हैं...

दो.. साध्वी और सेना के अफसर कुसूरवार हैं, इसका अर्थ यह हुआ कि केंद्र की नीतियों से अब कथित "हिन्दू आतंकवाद" पैदा हो गया है जो अब तक कभी नहीं था। बम विस्फोट कभी नहीं करवाये गये। ये चिंता का विषय है जब हर धर्म के लोग हिंसा और बम ब्लास्ट करने पर उतर जायेंगे। ऐसा क्यों हो रहा है... इस मुद्दे पर मुझे नहीं लगता कि प्रधानमंत्री या केंद्र कुछ सोच रहा है वरना हिंदुस्तान के मंदिर कहे जाने वाले संसद पर हमले का आरोपी जिंदा नहीं होता। सेना में आक्रोश फैला हुआ है शायद इसलिय सेना के अफसर भी सरकार के विरूद्ध कार्य कर रहे हैं। यदि मिलिट्री भी बम विस्फोट में शामिल है और यदि ऐसा रहा तो वो दिन दूर नहीं जब हमारा देश भी पाकिस्तान बन जायेगा...

खैर...खरबूजा चाहें चाकू पर गिरे या चाकू खरबूजे पर.. कटना खरबूजे को ही होगा... चाहें साध्वी कसूरवार हो अथवा बेकसूर.. हार लोकतंत्र होगी..राजतंत्र की होगी..भारत सरकार की होगी...हमारी होगी..हिन्दुस्तान की होगी!!!

दुखी मन से (सुखी है "मनसे"..?? )
जय हिन्द!!
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Thursday, October 2, 2008

कविता से लेख तक का सफर

आज न तो किसी सामाजिक मुद्दे पर लिखने का मन है और न ही किसी राजनैतिक अथवा धार्मिक विषय पर। आज लिख रहा हूँ अपने ब्लॉग में पिछले एक साल के सफर के बारे में। मैंने जुलाई,२००७ से सक्रिय रूप से ब्लॉगिंग की दुनिया में कदम रखा। प्रति माह दो पोस्ट तो हो ही जाती हैं। व्यस्त कार्यक्रम में इतना काफी है। अगर आप मेरे इस ब्लॉग में पिछले वर्ष की पोस्ट को देखेंगे तो पायेंगे कि उनमें अधिकतर कवितायें रहीं। कवि मन बहुत सुंदर होता है। अपने आसपास के वातावरण को इतनी खूबसूरती से अपने शब्दों में पुरो लेता है कि आप मुग्ध हो जाते हैं। मैंने दहेज पर लिखा, आने वाले १५० वर्ष बाद के समय के बारे में लिखा, जो हिन्दयुग्म पर भी छपी थी। रक्षाबंधन, १५ अगस्त, कंजकें आदि त्योहारों पर लिखा। कवितायें लिख कर संतुष्टि सी होती थी। मैंने सीरियस और सामाजिक कवितायें जैसे मौत, क्यों दुनिया को जन्नत मनाते नहीं और किसान भी लिखी। इन कविताओं में दुख भी था, गुस्सा भी और निराशा भी। वर्ष का अंत आते आते समुद्र पर दो कवितायें लिखीं जो मेरी समझ में मेरी सबसे अच्छी कविताओं में से एक रहीं। क्षणिकायें लिखने का भी प्रयास किया।
मैं जो कुछ लिखता, संतुष्टि मिलती थी।


अब रूख करते हैं २००८ का। त्योहारों, प्रकृति की कविताओं से दूर मैं लिख रहा हूँ सामाजिक बीमारियों पर। समाज, धर्म और राजनीति-ऐसा लगने लगा कि इन तीनों को आप अलग कर ही नहीं सकते हैं। मैंने जब जब समाज पर लिखा, राजनीति उसमें जरूर रही। कभी धर्म पर लिखा...उसमें भी राजनीति। और राजनीति को आप जानते ही हैं...समाज को धर्म के नाम पर बाँटने का काम कर रही है। और ये किसी एक पार्टी या संगठन का काम नहीं है।

जब मैं भारतीयों को झूठे और मतलबपरस्त कहता हूँ तो उसमें हम सब आ जाते हैं। रियालिटी शो के द्वारा भारत के टूटे जाने के बारे में कहता हूँ तो यहाँ अपने आप उन चैनलों पर उंगली उठती है जो केवल पैसा कमाना चाहते हैं। लोगों के थूकने का भी जिक्र किया। ठाकरे और लालू की राजनीति भी मतलब परस्ती से भरी हुई है।
और रिजर्वेशन की राजनीति हमारे समाज का हिस्सा बन चुकी है। टीवी चैनलों में दिखाये जा रहे धारावाहिकों का बच्चों पर क्या असर होता है ये कहने की कोशिश की। चीन तिब्बत और भारत के विषय में कहा। मैंने अश्लील कौन में हमारी कमज़ोर मानसिकता पर भी सवाल उठाये।

ज़रा बाकि के लेखों पर नज़र दौड़ायें:

जहाँ बात बात पर कानून को जम कर जाता है तोड़ा
स्वार्थ व झूठ से भरे ४ वर्ष
माँ, तितली कैसी होती है?
मीडिया, अंधविश्वास और कलियुगी धर्म
क्यों जल रहा है जम्मू?
वंदेमातरम को राष्ट्र्गीत का दर्जा : कितना सही?
कोसी से कंधमाल तक...कहानी राजनीति की...
आतंक का है जोर, क्योंकि सरकार है कमजोर

एक दो जो कवितायें लिखीं वे स्वतंत्रता दिवस पर और सरकार के सरबजीत और अफजल से तुलना के बाद लिखी।

और भी लिख सकता था। लेख कोई भी रहे हों, केंद्र में बिंदु केवल एक रहा। मेरा भारत। भारत का, समाज का हर ओर से हनन हो रहा है। केवल आर्थिक पहलू पर हम ध्यान दे रहे हैं बाकि सब जाये भाड़ में। लेकिन बात ये नहीं। हाँ, मैं दुखी हूँ। मुझे लगता है कि ब्लॉग हमारी भड़ास निकालने का पर्याय बनता जा रहा है इसलिये मैं भी उसी ओर जा रहा हूँ। जितनी कवितायें पिछले वर्ष अंतिम ५ महीने में लिखी उतनी १० महीनों में अब तक नहीं लिखी गई हैं। लेख केवल भड़ास का माध्यम है।

गोपालदास "नीरज" के शब्दों में कविता:

आत्मा के सौन्दर्य का, शब्द रूप है काव्य
मानव होना भाग्य है, कवि होना सौभाग्य ।


समाज और राजनीति से अब मन खराब सा लगने लगा है। ऊपर के लेखों में आप पायेंगे कि निराशा है भारत से... भारतीय कहने वाले लोगों से...अपने आप से। एक लेख तो मैं १५ दिन पहले लिख चुका था पर ब्लॉग पर नहीं डाल पाया। वो मेरे पास ही है। धर्म, समाज और राजनीति में कौन सच्चा और कौन झूठा समझ नहीं आ रहा है। खिचड़ी सी पक चुकी है हमारे देश में!!!

पिछले वर्ष इन दिनों मैंने तीन कवितायें प्रकाशित करी थी और आज एक लेख। कारण अब स्पष्ट होने लगा होगा। तुकबंदी कोई भी कर सकता है पर कवि बनना बहुत कठिन है।

वापस कविता का रूख करने में प्रयासरत...
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Saturday, September 13, 2008

आतंक का है जोर, क्योंकि सरकार है कमजोर

आज लिखने के लिये कुछ और ही सोचा था। पर ये बिल्कुल न सोचा था कि रात होते होते ये लिखना होगा। दिल्ली में शनिवार शाम को बम धमाके हुए। हर जगह हाई-अलर्ट घोषित कर दिया गया। ये सब आम लगने लगा है। बैंगलुरू, जयपुर, अहमदाबाद, सूरत और अब दिल्ली। हमें आदत हो गई है इन सब की। अब कुछ अजीब नहीं लगता है। सवाल ये नहीं कि क्या संवेदनशीलता समाप्त हो रही है पर सवाल ये है कि आतंकी बार बार ऐसा करते हैं। क्या उन्हें अब किसी का डर नहीं है? होगा भी क्यों? जब उन्हें पता है कि उन्हें पकड़ा तो जायेगा पर केस चलेगा...फाँसी की सज़ा भी होगी पर सरकार खामोश बैठेगी रहेगी..सरकार को आतंकवादियों को पकड़ना ही नहीं है.. सिमी पर प्रतिबंध लगाया गया पर सरकार ने कोई ठोस सबूत नहीं दिये.. नतीजा.. सिमी से प्रतिबंध हटने तक की नौबत आ गई.. पोटा हटाया गया... आतंकविरोधी कोई कानून है ही नहीं.. सरकार में शामिल रामविलास पासवान और बाहर की यूनिवर्सिटी में लेक्चर देने वाले रेलमंत्री लालू प्रसाद तो सिमी के समर्थन में उतर आये हैं। क्या केवल इसलिये क्योंकि अल्पसंख्यकों का गुट है? यही सिमी अब इंडियन मुजाहिद्दीन बना हुआ है और देश में देशद्रोहियों का काम कर रहा है। ये कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि सबसे बड़े देशद्रोही और आतंकवादी तो ये नेता ही हैं जो समर्थन कर रहे हैं। अफज़ल, जिसे देश का मंदिर कहे जाने वाले संसद पर हमला करने के जुर्म में वाजपेयी सरकार ने पकड़ा था वो अब भी फाँसी नहीं चढ़ा है। गुजरात में आतंविरोधी कानून बनाया गया जो गवर्नर ने भी पास कर दिया पर केंद्र सरकार इस बार भी चुप है। कांग्रेसी सरकार चाहती ही नहीं कि मोदी सरकार कुछ काम करे। केंद्र का कहना है कि ये कानून पोटा के समान है। न खुद कुछ करो और न ही कुछ करने दो। मोदी ने १० दिन पहले चेताया भी था कि दिल्ली निशाने पर है...पर सरकार...
ये सब बातें साबित करती हैं कांग्रेस सरकार आतंकियों की गुलाम है। इस कमजोर सरकार ने एक भी कदम आतंकवादियों के खिलाफ नहीं लिया। ऐसे चुप रह कर काम नहीं चलेगा। मेरी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से अपील है कि कुछ कदम आतंक रोकने के लिये भी उठायें तो बेहतर होगा। लोगों को उस डील का लोभ दिखाकर वोट न माँगियेगा जिस डील के नियमों को आप लोगों से छुपा रहे हैं। लोग आपसे कुछ और भी चाहते हैं। कोई कानून तो हो जिससे आतंकवादियों के मन में डर बैठे। कुछ तो करिये कि लोग कमजोर कहना छोड़ें।
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Saturday, August 30, 2008

कोसी से कंधमाल तक...कहानी राजनीति की...

जम्मू की आगअभी बुझी भी नहीं थी कि कोसी की बाढ़ और कंधमाल के दंगों ने देश को झकझोर के रख दिया है। जम्मू में हम केंद्र और राज्य सरकार का आतंकवादियों के प्रति नर्म रूख और जम्मू के लिये लापरवाही को देख ही चुके हैं। अब पहले बात करते हैं कोसी की। ये नदी नेपाल में हिमालय से निकलती है और बिहार में भीम नगर के रास्ते से भारत में दाखिल होती है। इसके भौगोलिक स्वरूप को देखें तो पता चलेगा कि पिछले २५० वर्षों में १२० किमी का विस्तार कर चुकी है। हिमालय की ऊँची पहाड़ियों से तरह तरह से कंकड़ पत्थर अपने साथ लाती हुई ये नदी निरंतर अपने क्षेत्र फैलाती जा रही है। उत्तर प्रदेष और बिहार के मैदानी इलाकों को तरती ये नदी पूरा क्षेत्र उपजाऊ बनाती है। ये प्राकृतिक तौर पर ऐसा हो रहा है। इसके मूल व्यवहार से छेड़खानी अपनी मौत को बुलावा देने बराबर है। पर इंसान ने कभी प्राकृति को नहीं समझा है। नेपाल और भारत दोनों ही देशों में इस नदी पर बाँध बनाये जा रहे हैं। परन्तु पर्यावरणविदों की मानें तो ऐसा करना नुकसानदेह हो सकता है। चूँकि इस नदी का बहाव इतना तेज़ है और इसके साथा आते पत्थर बाँध को भी तोड़ सकते हैं इसलिये बाँध की अवधि पर संदेह होना लाज़मी हो जाता है। कुछ साल..बस। कोसी को बिहार का दु:ख क्यों कहा जाता है ये अब किसी से नहीं छुपा है। इस समय जो हालात बिहार में है वे निस्संदेह दुखदायी हैं। हमारी सरकार इस बाबत कोई कदम क्यों नहीं उठाती? क्यों हम प्रकृति से खिलवाड़ करते रहते हैं? नेपाल में बाढ़ आयेगी तो वो कोसी का पानी अपने देश में क्यों रखेगा? इसलिये नेपाल को दोष देने की बजाय हमें अपनी गलतियों को देखना जरूरी है।

हमने बहाँ बाँध बनवाये, और लोगों को लगने लगा कि कोसी अपना पुराना भयावह रूप अब कभी नहीं दिखायेगी। किन्तु ऐसा नहीं है। ये बात उन्हें पता नहीं थी और सरकार ने भी उन्हें आगाह नहीं किया, जिसके फलस्वरूप लोग वहाँ पक्के मकान बनाकर रहने लगे। और बाढ़ आई तो बेघर हो गये। रही सही कसर केंद्र की कांग्रेस सरकार ने तब पूरी कर दी थी जब उसने सरकार बनाते ही वाजपेयी सरकार के उस प्रोजेक्ट पर विराम लगा दिया था जो नदियों को जोड़ने का काम करता। कांग्रेस राजनीति खेल गई और इस प्रोजेक्ट को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। कोसी में बाढ़ आती रही है, और आती रहेगी ये बात समझ लेनी चाहिये और इसके लिये कोई ठोस कदम उठाने की जरूरत है। चाहें नदियों को जोड़ें या लोगों को पक्के घर बनाने से रोकें।


अब चलते हैं उड़ीसा के कंधमाल। यहाँ पानी की नदी नहीं, खून की नदी बह रही है। जैसा कि जम्मू में हो रहा है। राजनीति यहाँ भी खूब खेल खेल रही है। १९९९, ग्राहम स्टेंस की हत्या। राज्य में थी गिरिधर गमांग की कांग्रेसी सरकार। जो मामला नहीं संभाल सकी। इल्जाम लगाया गया केंद्र में बैठी वाजपेयी सरकार पर। गमांग साहब ने तो मुख्यमंत्री पद पर रहते हुए संसद में जाकर वाजपेयी सरकार को गिराने में अहम भूमिका निभाई। ये सभी जानते हैं कि ईसाई मिश्नरियों का एक ही मकसद है। किसी भी तरह से धर्म परिवर्तन करवा कर ईसाई धर्म अपनाने पर मजबूर करना। ये सदियों से ऐसा होता आया है, जब अंग्रेज़ आये थे, तब से। लक्ष्मणानंद नाम का एक विहिप कार्यकर्त्ता जो लोगों को ऐसा करने से रोकता था। कहा जाता है कि नक्सलियों ने मार डाला। आतंकवाद कोई धर्म नहीं देखता। कहीं इस्लामी आतंकवाद है तो कहीं नक्सल, कहीं बोडो, कहीं लिट्टे। हर किसी में अलग अलग धर्म। कंधमाल में नक्सल आतंकवादियों में ९९ फीसदी ईसाई। अब आगे कुछ कहने को नहीं रह जाता। लक्ष्मणानंद की हत्या हुई। हिन्दू कट्टरपंथियों को ये रास नहीं आया। हिंसा भड़क उठी। राज्य सरकार ने केंद्र से फोर्स माँगी, केंद्र ने मना कर दिया। जब स्थिति बदतर हुई तब केंद्र सरकार जागी। तब पोप भी जागे। ईसाई कांवेंट स्कूल बंद करवाये गये। कांग्रेस सरकार कहती है कि राज्य सरकार से स्थिति नहीं सम्भाली जा रही है। उड़ीसा में धर्म परिवर्तन के खिलाफ कानून है। यही कानून मध्य प्रदेश में भी है। राजस्थान में बन जाता यदि कांग्रेस सामर्थित उस समय की गवर्नर प्रतिभा पाटिल ने दस्तखत कर दिये होते। कांग्रेस सबसे पुरानी राजनैतिक पार्टी है, इसलिये राजनीति के खेल में माहिर है।


कुछ नहीं बदलेगा...न कंधमाल..न जम्मू..न श्रीनगर...इन विवादों का कोई अंत नहीं है...
धर्म समाप्त हो जाये, ऐसा मुमकिन नहीं...राजनीति चाणक्य काल के भी पहले से है (महाभारत से पहले से), वो भी समाप्त नहीं होगी..धर्म से राजनीति...वो भी नहीं...
खत्म होगा तो ये देश...खत्म होंगे तो हम..



नोट: कंधमाल की उपरोक्त जानकारी निम्न लिंक से प्राप्त हुई है।
http://indiagatenews.com/india-news/bjp-could-not-digest-naxalite-theory-of-murder.php/
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Sunday, August 17, 2008

वंदेमातरम को राष्ट्र्गीत का दर्जा : कितना सही?

आनन्द मठ : बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय द्वारा रचित यही वह बांग्ला उपन्यास है जिसका एक गीत राष्ट्रगीत बन गया। लेकिन इसके राष्ट्रगीत बनने के बाद से अब तक यह विवादों से घिरा रहा है। वैसे हमारे देश में कोई भी ऐसी घटना या व्यक्ति नहीं जिस पर विवाद न हुआ हो। चाहें मोहनदास करमचंद गाँधी हों या "जन गण मन"। हमारा इतिहास ही ऐसा रहा है। आज भी बदस्तूर जारी है। वैसे आज बात करेंगे वंदेमातरम की। अगस्त में ही ये उपन्यास पढ़ना शुरू किया और जैसे जैसे पढ़ता गया वैसे वैसे सोचता रहा कि आखिर मुस्लिम समुदाय इससे नाराज़ क्यों है? जब सरकार इसको स्कूलों में गाने को कहती है तो चारों ओर से आवाज़ें क्यों उठती हैं? इंटेरनेट पर काफी खोजबीन की तो कुछ बातें पता चली। आगे हम आनन्दमठ के कुछ आंश भी पढ़ते रहेंगे।

आइये जानने की कोशिश करते हैं इसके कुछ शुरुआती अंशों से:

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समुद्र आलोड़ित हुआ, तब उत्तर मिला-तुमने बाजी क्या रखी है?
प्र्त्युत्तर मिला,मैंने ज़िन्दगी बाजी पर चढ़ाई है।
उत्तर मिला, जीवन तुच्छ है,सब कुछ होमना होगा।
और है ही क्या? और क्या दूँ?
तब उत्तर मिला, भक्ति।

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यह उपन्यास १८८२ में प्रकाशित हुआ, किन्तु वंदेमातरम १८७५ में लिखा जा चुका था। ये कहानी है संन्यासी विद्रोह की जो १७६५-७० के बीच प्रकाश में आया। आइये जानते हैं इसकी पृष्ठभूमि को। १७५७ में सिराजुद्दोला नाम का नवाब बंगाल पर राज करता था। यही वो समय भी था जब अंग्रेज़, ईस्ट इंडिया कम्पनी) के नाम से कलकत्ता के रास्ते भारत में घुसना चाहते थे। नवाब अंग्रेज़ को खिलाफ था और उनके खिलाफ लोगों को एकत्रित करता था। परन्तु किसी हिन्दू को ऊँचा दर्जा दिये जाने के विरोध में मीर जाफर नाम के एक दरबारी ने नवाब के खिलाफ बगावत कर दी। उसी साल पलासी का युद्ध हुआ। मीर जाफर अंग्रेज़ों से जा मिला और सिराज को बंगाल छोड़ना पड़ा। आगे कुछ सालों तक मीर जाफर और उसका जमाई मीर कासिम बंगाल में नवाब बन कर रहे। ये वो समय था जब नवाब अंग्रेज़ों की कठपुतलियाँ बन कर रहते थे। राज नवाब का, पैसा अंग्रेज़ों का। अंग्रेज़ ही लोगों से कर लिया करते थे। एक तरह से उन्हीं का ही कब्जा हो गया था। उसी का नतीजा था संन्यासी विद्रोह। कहते हैं कि १८५७ पहली क्रांति थी अंग्रेज़ों के खिलाफ पर लगता है कि उससे पहले भी कईं क्रांतियाँ संन्यासी विद्रोह के रूप में कलकत्ता ने देखी हैं।

संन्यासी समूह उन लोगों का समूह था जो इकट्ठे हुए थे अंग्रेज़ों के खिलाफ। सब कुछ छोड़ कर भारत माँ को आज़ाद कराने में जान की बाजी लगा रहे थे। १७६५ के आसपास ही बंगाल में सूखा पड़ा और वहाँ लाखों की तादाद में मौतें हुईं। जनता में आक्रोश फूट पड़ा था। और वो आक्रोश था नवाबों पर। ’नजाफी’ हुकूमत के खिलाफ।

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वन्दे मातरम्
सुजलां सुफलां मलयजशीतलाम्
शस्यश्यामलां मातरम् |

महेंद्र गीत सुनकर विस्मित हुए। उन्होंने पूछा- माता कौन?

उत्तर दिये बिना भवानंद गाते रहे:

शुभ्र ज्योत्स्ना पुलकित यामिनीम्
फुल्ल कुसुमित द्रुमदलशोभिनीम्,
सुहासिनीं सुमधुर भाषिणीम्
सुखदां वरदां मातरम् ||

महेंद्र बोले-ये तो देश है, माँ नहीं।
भवानंद ने कहा, हम लोग दूसरे किसी माँ को नहीं मानते, जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी। हम कहते हैं, जन्मभूमि ही हमारी माता है। हमारी न कोई माँ है, न बाप, न भाई, न बन्धु, न पत्नी, न पुत्र, न घर, न द्वार- हमारे लिये केवल सुजलां सुफलां मलयजशीतलाम् शस्यश्यामलां ....

महेंद्र ने पूछा-तुम लोग कौन हो?
भवानन्द ने कहा-हम संतान हैं।
किसकी संतान।
भवानन्द बोले-माँ की संतान।
.....
.....
.....
देखो, जो साँप होता है, रेंगकर चलता है, उससे नीच जीव मुझे कोई नहीं दिखाई पड़ता। पर उसके भी कंधे पर पैर रख दो तो वह भी फ्न उठाकर खड़ा हो जाता है। देखो, जितने देश हैं, मगध, मिथिला,काशी, कांची, दिल्ली, कश्मीर किस शहर में ऐसी दुर्दशा है कि मनुष्य भूखों मर रहा है और घास खा रहा है, जंगली काँटे खा रहा है. दीमक की मिट्टी खा रहा है, जंगली लतायें खा रहा है! किस देश में आदमी सियार, कुत्ते और मुर्दा खाते हैं?.... बहू-बेटियों की खैरियत नहीं है...राजा के साथ सम्बंध तो यह है कि रक्षा करे, पर हमारे मुसलमान राजा रक्षा कहाँ कर रहे हैं? इन नशेबाज़ मुसट्टों को निकाल बाहर न किया जाये तो हिन्दू की हिन्दुआई नहीं रह सकती।

महेंद्र ने पूछा, बाहर कैसे करोगे?
-मारकर

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शायद यह वाक्य हमारे मुस्लिम समुदाय को अच्छे नहीं लगे। हो सकता है। किन्तु ये वाक्य कब और किस परिस्थिति में कहे गये ये जानने की जरूरत भी तो है। इस बारे में मैं कुछ नहीं कहूँगा। आगे के कुछ पन्नों में भारत माँ को देवी का दर्जा दिया गया है। इस्लाम में मूर्ति पूजा की खिलाफत है। और इस्लाम में केवल खुदा ही पूजा जाता है। इसी उपन्यास में मुसलमानों के घर जलाने की बात भी कही गई है। शायद यह बात भी वंदेमातरम के खिलाफ जा रही है।

अब जानते हैं कि संतान दल में किस प्रकार से प्रतिज्ञा ली जाती है-

तुम दीक्षित होना चाह्ते हो?
हाँ, हम पर कृपा कीजिये।
तुम लोग ईश्वर के समक्ष प्रतिज्ञा करो। क्या सन्तान धर्म के नियमों का पालन करोगे?
हाँ।
भाई-बहन?
परित्याग करूँगा।
पत्नी और पुत्र?
परित्याग करूँगा।
रिश्तेदार, दास-दासी त्याग करोगे?
सब कुछ त्याग करूँगा।
धन, सम्पत्ति, भोग, सब त्याग दोगे?
त्याग करूँगा।
जितेंद्रिये बनोगे और कभी स्त्रियों के साथ आसन पर नहीं बैठोगे?
नहीं बैठूँगा, जितेंद्रिये बनूँगा।
रिश्तेदारों के लिये धन नहीं कमाऒगे, उसे वैष्ण्वों के धनागार में दे दोगे?
दे दूँगा।
कभी युद्ध में पीठ नहीं दिखाऒगे?
नहीं।
यदि प्रतिज्ञा भंग हुई तो?
तो जलती चिता में प्रवेश करके या कहर खा कर प्राण दे दूँगा।
तुम लोग जात-पात छोड़ सकोगे? सब समान जाति के हैं, इस महाव्रत में ब्राह्मण-शूद्र में कोई फर्क नहीं।
हम जात-पात नहीं मानेंगे। हम सब एक ही माँ के संतान हैं।
तब सत्यानंद ने कहा, तथास्तु, अब तुम वंदेमातरम गाओ।


इसमें संन्यासी/संतान व्रत की कर्त्तव्यनिष्ठा और समर्पण का पता चलता है कि किस प्रकार जन्मभूमि पर ये वीर सेना अपने प्राणन्योछावर करने को तत्पर थी।
बंकिमचंद्र के इस उपन्यास में कुछ हद तक मुसलमानों (नजाफी हुकूमत) और काफी हद तक अंग्रेज़ों दोनों के खिलाफ कहा गया है। उन्होंने ये सब १८वीं सदी की घटनाओं को ध्यान में रख कर किया, किन्तु चाह केवल इतनी कि मातृभूमि को कोई आँच न आये।

यही गीत आगे चल कर एक क्रांतिकारी गीत बन गया। जब १८९५ में पहली बार इसका संगीत दिया गया तब बंकिमचंद्र (१८३८-१८९४) इस दुनिया में नहीं थे। हर तरफ वंदेमातरम की ही गूँज सुनाई दी जाने लगी। अंग्रेज़ों ने इस उपन्यास पर प्रतिबंध तक लगा दिया। १९३७ में टैगोर ने इस गीत का विरोध भी किया क्योंकि उनका मानना था कि मुसलमान "१० हाथ वाली देवियों" की पूजा नहीं करेंगे। १९५० में राजेंद्र प्रसाद ने इसे राष्ट्रगीत का दर्जा दिया। इस गीत के केवल पहले दो छंद ही गाये जाने की बात कही जाने लगी क्योंकि आगे की पंक्तियों में भारत को ’दुर्गा’ तुल्य माना गया। हालाँकि मुस्लिम बिरादरी में इस गीत को कुछ लोगों ने अपनाया भी है। और सिख व ईसाइ समुदाय भी इसको मान रहा है। इस उपन्यास की क्रांतिकारी विचारधारा ने सामाजिक व राजनीतिक चेतना को जागृत करने का काम किया।

मैंने अपनी तरफ से पूरी कोशिश करी है कि मैं वंदेमातरम पर हो रहे विवाद और आनन्दमठ (संन्यासी विद्रोह) की कहानी को आप तक पहुँचा पाऊँ। अब मैं पाठकों पर छोड़ता हूँ कि वे (१८वी सदी के घटनाक्रम को ध्यान में रखकर) सच्ची देशभक्ति व समर्पण अथवा त्याग के प्रतीक इस गीत को राष्ट्रगीत मानें या नहीं।

सुजलां सुफलां मलयजशीतलाम
शस्यश्यामलां मातरम्......।
शुभ्र ज्योत्सना-पुलकित यामिनीम्
फुल्लकुसुमित द्रुमदलशोभिनीम्
सुहासिनीं सुमधुरभाषिणीम्
सुखदां, वरदां मातरम्।।
वन्दे मातरम्.....
सप्तकोटिकण्ठ-कलकल निनादकराले,
द्विसप्तकोटि भुजैधर्ृत खरकरवाले,
अबला केनो मां तुमि एतो बले!
बहुबलधारिणीम् नमामि तारिणीम्
रिपुदलवारिणीम् मातरम्॥ वन्दे....
तुमी विद्या, तुमी धर्म,
तुमी हरि, तुमी कर्म,
त्वं हि प्राण : शरीरे।
बाहुते तुमी मां शक्ति,
हृदये तुमी मां भक्ति,
तोमारई प्रतिमा गड़ी मन्दिरे-मन्दिरे।
त्वं हि दुर्गा दशप्रहरण धारिणीं,
कमला कमल-दल-विहारिणीं,
वाणी विद्यादायिनीं नमामि त्वं
नमामि कमलां, अमलां, अतुलाम,
सुजलां, सुफलां, मातरम्
वन्दे मातरम्॥
श्यामलां, सरलां, सुस्मितां, भूषिताम्
धरणी, भरणी मातरम्॥
वन्दे मातरम्..

जय हिन्द।

यहाँ भी देखें:
http://en.wikipedia.org/wiki/Vande_Maataram
http://en.wikipedia.org/wiki/Anandamatha
http://en.wikipedia.org/wiki/Sannyasi_Rebellion
http://en.wikipedia.org/wiki/Nawab_of_Bengal
http://en.wikipedia.org/wiki/Bankimchandra_Chattopadhyay
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Wednesday, August 13, 2008

स्वतंत्रता दिवस पर उठते सवाल

देश में हड़तालें हैं,
चक्का जाम हैं,
सड़कें बंद हैं,
रेल बंद है,
बसें फूँकी जाती हैं..
टायर जलायें जाते हैं
पुतले फूँके जाते हैं
सबसे बड़ा लोकतंत्र है...
ये देश स्वतंत्र है..

स्कूल में गोली चलती है
बच्चे आत्महत्या करते हैं
एम.एम.एस बनते हैं,
ये देश के भविष्य हैं(?)
स्कूल कालेज की
दुकान लगती है,
सरेआम विद्या बिकती है
सबसे बड़ा लोकतंत्र है...
ये देश स्वतंत्र है...

कानून तोड़े जाते हैं
दुकानें जलाई जाती हैं
दंगे-फसाद आम हैं
आतंकवाद है,
हर राज्य में वाद-विवाद है
६१ सालों का आरक्षण खास है
सब निकालते भडास हैं
सबसे बड़ा लोकतंत्र है...
ये देश स्वतंत्र है...

इज्जत पर परमाणु करार है
नोटों पर बनती सरकार है
आतंकवादियों पर रूख नरम है
देश तोड़ना भाषा का करम है
राज ठाकरे का ’राज’ है
ये नेताओं के हाल हैं
ये कैसा तंत्र है (?)
’नोट’ या ’वोट’ तंत्र है
सबसे बड़ा लोकतंत्र है...
ये देश स्वतंत्र है...

३० प्रतिशत अशिक्षित हैं
खाना खिलाने वाला किसान
मजबूर है
बिना छत के मजदूर हैं
पीने को पानी नहीं
नदियों के पानी पर लडाई है
एकता की होती बड़ाई है
६१ सालों में बुराइयाँ
जस की तस हैं
ढीठ देश आज भी
बेबस है,
कमजोर है
जाने देश किस ओर है
सबसे बड़ा लोकतंत्र है!!!
ये देश स्वतंत्र है???
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Saturday, August 9, 2008

क्यों जल रहा है जम्मू?

जम्मू जल रहा है। वहाँ बंद है, आगजनी है, कर्फ्यू तोड़े जा रहे हैं।




हालात बेकाबू हैं। लोग कहते हैं कि ४० दिनों से जम्मू में हालात खराब हैं। पर ये कहानी ४० दिनों की नहीं है। इसके लिये हमें ६० वर्षों के इतिहास को खंगालना होगा।
वो हर घटना की चिंगारी पर गौर करना होगा जो परिणाम स्वरूप ज्वाला बन कर उभरी है। वो हर जख्म का कारण ढूँढना होगा। आइये समझने की कोशिश करें जम्मू की इस जलन को।



जम्मू और कश्मीर शुरू से ही दो अलग मजहबों का एक राज्य रहा है। ये एक ऐसा राज्य है जहाँ मुस्लिम हिंदुओं से ज्यादा तादाद में हैं। अगर जम्मू की बात करें तो यहाँ ६७% हिंदू हैं और कश्मीर में ९५ फीसदी मुस्लिम। ये जगजाहिर है कि कश्मीर घाटी में हमेशा से ही पाकिस्तान समर्थक और भारत विरोधी नारे लगते रहे हैं व गतिविधियाँ होती रही हैं। यहाँ पाकिस्तान के झंडे भी लहराये जाते हैं। लेकिन कभी इन पर रोक नहीं लगी। बीते ६० सालों से किसी भी सरकार ने इसे समझने की कोशिश नहीं करी। हर किसी के लिये ये चुनाव का मुद्दा रहा। हर कोई अपनी रोटियाँ सेंकता रहा। पर जम्मू की दिक्कत फिलहाल ये नहीं, ये तो देश की सरकार को देखना है कि किस तरह से देशद्रोहियों से निपटा जाये। घाटी में जो देशद्रोह फैला हुआ है उसका मूल कारण क्या है...

ये गौरतलब है कि माता वैष्णों देवी श्राइन बोर्ड की ओर से करोड़ों रूपया सरकार के खाते में जाता है। बोर्ड जब भी कहीं जमीन लेता है तो उसका किराया सरकार को जमा करवाता है। बोर्ड ने तीर्थ यात्रियों की सुविधाऒं के लिये अनेकानेक कार्य करे हैं। ये सब सुविधायें तभी हो पाईं जब बोर्ड का गठन हुआ। ये भी बात है कि जम्मू के लोग घाटी के लोगों से ज्यादा कर अदा करते हैं। केंद्र और राज्य सरकार वहीं से ज्यादा पैसा खाती हैं। इतना ही नहीं नौकरी के एक ही पद के लिये श्रीनगर के लोगों को ज्यादा वेतन दिया जाता है और सरकारी नौकरियाँ भी ज्यादा होती हैं। घाटी के किसान को ज्यादा सब्सिडी मिलती है और जम्मू के किसान को कम। यही भेदभाव प्राकृतिक आपदाओं में मुआवज़ा देते हुए भी किया जाता रहा है। आज के समय के युवा नेताओं पर नजर डाली जाये तो फारूख अब्दुल्ला के बेटे उमर अब्दुल्ला व महबूबा मुफ्ती के अलावा आपको वहाँ और कोई याद नहीं आयेगा। क्या ये केवल इत्तफाक है कि ये दोनों श्रीनगर का प्रतिनिधित्व करते हैं? आपमें से बहुत कम लोग जम्मू के किसी प्रसिद्ध नेता का नाम जानते होंगे। इसका कारण क्या है? हम कश्मीर की समस्या को सुलझाते रहे हैं पर कभी जम्मू की समस्या पर हमारा ध्यान नहीं गया। क्या ये सालों पुराना राजनेताओं के द्वारा किया गया भेदभाव है या ये अंजाने में हो रहा है?

अब रूख़ करते हैं उस घटना का जिसने वर्षों के इस शीत-युद्ध को सतह पर लाने का काम किया। २६ मई २००८ को केंद्र व राज्य सरकारें ये निर्णय लेती हैं कि अमरनाथ श्राइन बोर्ड को १०० एकड़ की जमीन दी जाये। इस जमीन पर हिंदू तीर्थ यात्रियों के लिये अस्थाई तौर पर रहने की व अन्य सुविधायें दिये जाने की बात होने लगी। मुस्लिम बहुल व कश्मीर घाटी के इलाकों में इस निर्णय के बाद हिंसा फ़ैल गई व उन्होंने खुले तौर पर इसका विरोध किया। इस विरोध में वहाँ के युवा नेताओं ने भी पूरा साथ दिया। ये सरकार को अच्छी तरह से मालूम था कि चुनाव में यही इलाका इनकी मदद करेगा। तब घाटी के मुस्लिम नेताओं के दबाव में आकर सरकार ने अपना फैसला वापस ले लिया। ये वो कदम था जिसने आज की परिस्थिति को जन्म दिया।




जम्मू के लोग जो ज्यादातर हिंदू हैं ये बात पचा नहीं पाये। जो जमीन उनकी सुविधा के लिये थी उसे मना कैसे कर दिया। फिर चाहें हिन्दू हों अथवा वहाँ का प्रतिनिधित्व करने वाले मुसलमान दोनों ही की तरफ़ से सरकार के जमीन वापसी के फ़ैसले का विरोध होना शुरू हुआ। ये अब से ४० दिन पहले की बात है। लेकिन मीडिया में इसका जिक्र अभी ८-१० दिन पहले ही आना शुरू हुआ। क्योंकि इससे पहले केंद्र सरकार खुद को बचाने में लगी हुई थी कि इसकी तरफ़ किसी का ध्यान ही नहीं गया। देश २०२० तक ६% बिजली देने वाले परमाणु करार और सरकार में ही उलझा रह गया और वहाँ स्थिति बद से बदतर होती चली गई। जिक्र तब आना शुरू हुआ जब हुर्रियत कांफ़्रेंस के नेता यासिन मलिक भूख हड्ताल पर जाते हैं....वो बंदा जो पाकिस्तान समर्थक है उसका इंटर्व्यू चैनलों पर दिखाया जाता है। जो नहीं जानते उनके लिये बताना चाहूँगा कि हुर्रियत का मतलब है "आज़ादी"। और ये पार्टी पाकिस्तान की २६ पार्टियों के समर्थन से घाटी में काम करती है। जिक्र तब शुरू हुआ जब श्रीनगर को खाना-पीना, पेट्रोल, डीज़ल मिलना जम्मू की ओर से बंद हो गया। हाइवे बंद कर दिये गये और ट्रकों को वहीं पर रोक दिया गया। उससे पहले स्थिति का जायज़ा नहीं लिया गया। प्रधानमंत्री जी महज औपचारिकता के नाते इतने समय के बाद सभी पार्टियों की मीटिंग बुलाते हैं पर अभी तक कोई फैसला इस मुद्दे पर नहीं लिया गया है।

क्या कारण है कि घाटी इस जमीन का विरोध कर रही है? क्या वे नहीं चाहते कि वैष्णों देवी श्राइन बोर्ड की तरह ही अमरनाथ श्राइन बोर्ड तरक्की के लिये काम करे? क्या कारण रहा कि जो फैसला राज्य की कांग्रेस सरकार व केंद्र की कांग्रेस सरकार ने मिल कर किया वे उसी पर कायम न रह पाये? क्या कारण है कि जो माँगे घाटी के लोगों की सरलता से मानी जाती हैं वो जम्मू के क्षेत्र की नहीं सुनी जाती? देखना ये है कि केंद्र जो "नोटों" के सहारे टिका हुआ है अपने वोटबैंक यानि कश्मीर घाटी का साथ देता है या नहीं? क्या इस बार जम्मू को उसका हक़ मिलेगा या फिर वोटों की भेंट चढ़ जायेगा? जम्मू की पुरानी कुंठा इस कदर फूटेगी शायद ये सरकारों को अंदाज़ा नहीं था... पर शायद ये जरूरी था..(??)

--९ अगस्त
सर्वदलीय दल जो रवाना हुआ है जमीन विवाद सुलझाने के लिये उसमें सैफुद्दीन सोज़, फारूख अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती शामिल हैं। तीनों श्रीनगर से हैं... जम्मू से कौन शामिल हुआ है? मेरा सवाल है केंद्र से कि जम्मू का एक भी प्रतिनिधि बैठक में ले जाने की जहमत क्यों नहीं उठाई गई? कौन बतायेगा जम्मू का नजरिया?
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Monday, July 28, 2008

'आवाज़' से रचता ब्लोगिंग में इतिहास

पिछले वर्ष हिन्दयुग्म ने संगीत के क्षेत्र में एक शुरूआत की, जिसका नाम रखा गया-आवाज़। वो आवाज़ जिसके माध्यम से नये संगीतकारों, गीतकारों व गायकों को एक मंच मिल सके जिससे ये सभी प्रतिभावान चेहरे लोगों के सामने आ सकें व अपनी कला प्रदर्शित कर सकें।

पहले इस ब्लाग का मकसद था कविताओं व कहानियों का पोडकास्ट। ऐसा प्रयोग शायद ही कभी किसी ब्लाग या किसी साइट ने किया हो। उसके पश्चात इसका दायरा बढ़ने लगा। सुबोध साठे व ऋषि जैसे गायक व संगीतकार आगे आये। दिसम्बर २००७ में शुरू हुए आवाज़ के मंच पर हर सप्ताह नये चेहरों की प्रतिभा सामने आने लगी। फरवरी २००८ में हिन्दयुग्म ने अपना पहला एल्बम पहला सुर प्रगति मैदान में लांच किया। ये भी ब्लागिंग के इतिहास में पहली मर्तबा हुआ होगा कि कोई ब्लाग संगीत एल्बम रिलीज़ कर रहा हो। इस एल्बम के गीतों की खास बात यह रही कि ये गीत इंटेरनेट पर ही बनाये गये हैं। कोई व्यक्ति उत्तर भारत का होता तो कोई दक्षिण का तो कोई विदेश से काम करता। इस तरह का विचार और प्रयोग भी अपने आप में अनूठा है।
ये गीत इतने पसंद आये कि ये DU-FMअमरीका के डैलास में भी सुने गये। दिल्ली में १०२.६ FM पर भी इसके गीतों का प्रसारण हुआ वो हिन्दयुग्म के सदस्यों का इंटरव्यू भी आया।

पहला सुर की कामयाबी के बाद आजकल आवाज़ पर नयी श्रृंख्ला का आरम्भ हुआ है। इसमें पहले वाले गीतकार व संगीतकार तो हैं ही बल्कि नये संगीतकार भी जुड़े हैं। ये पहले से बड़ा कदम है व लोगों द्वारा लगातार सराहा जा रहा है। इसका अंदाज़ा लगातार बढ़ती टिप्पणियों से लगाया जा सकता है। 'आवाज़' पर १६ साल के संगीतकार भी हैं व संजय पटेल जैसे सलाहकार भी।

अभी रविवार को ही इंटेरनेट पर कवि सम्मेलन हुआ। ये भी अपने आप में अलग व अनूठा प्रयास कहा जा सकता है। इसकी शुरआत रविवार को ही हुई। और अब खबर ये है की पहला सुर के गीतों को वोडाफोन ने अपनी कालर ट्यून की लिस्ट में भी जगह दे दी है। क्या ये 'आवाज़' की सफलता का प्रंमाण नहीं!!

जिस तरह की कामयाबी हिन्दयुग्म की आवाज़ को प्रथम वर्ष में ही मिल गई है उससे इसके भविष्य का अंदाज़ा लगया जा सकता है जो निःसंदेह उज्ज्वल होगा। इंटेरनेट पर हिन्दी ब्लागिंग में हिन्दयुग्म ने अपने पाठकगण व कविता/कहानियों के दम पर पहले ही तहलका मचाया हुआ है और अब संगीत के क्षेत्र में 'आवाज़' भी धूम मचा रही है। अब इसमें कोई दो राय नहीं है कि ये 'आवाज़' ब्लागिंग के क्षेत्र में हर पल नया इतिहास रच रही है।
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Sunday, July 20, 2008

मीडिया, अंधविश्वास और कलियुगी धर्म

अनुरोध : किसी को ठेस पहुँचाना मेरा मकसद नहीं। ये लेख निष्पक्ष हो कर पढें।
धर्म पर मैं पहले भी काफी बार लिख चुका हूँ। कभी धर्म का मतलब जानना चाहा (http://tapansharma.blogspot.com/2007/01/blog-post_4643.html) तो कभी धर्म व क्षेत्रवाद से भारत को टूटने से बचाने पर जोर दिया (http://tapansharma.blogspot.com/2008/03/un.html)। इस बार थोड़ा और आगे बढ़ेंगे।

हम २१वीं सदी में जीते हैं। आज मीडिया पर भी कहूँगा और धर्म को व्यवसाय बनाने वाले लोगों के बारे में भी कहना चाहूँगा। पिछले कुछ समय से टीवी पर साई बाबा की खबरें खूब जोर शोर से दिखाई जा रही हैं। कभी कुछ चमत्कार दिखाया जाता है, कभी कुछ। कभी उनकी आकाश में तस्वीर बनती दिखाई जाती है, तो कभी उनकी एक आँख खुली हुई होती है(http://www.orkut.co.in/CommMsgs.aspx?cmm=141335&tid=5224298292176437798)। ऐसे ही अनगिनत करिश्में रोजाना हम इंडिया टीवी, आजतक और IBN जैसे हिन्दी चैनलों पर देख सकते हैं। मेरा कहना है कि ऐसा पहले क्यों नहीं हुआ? अब ही क्यों हर दिन नये नये खेल हो रहे हैं? हर रोज साईं बाबा का ही जिक्र क्यों? क्या चाहते हैं उनके अनुयायी? मीडिया का इस्तेमाल कर क्या बेच रहे हैं उस महान संत को?मेरी शिकायत है धन के लालची व टी आर पी के चक्कर में फँसे चैनलों से व बाबा के उन समर्थकों से जिन्होंने धर्म को बेच दिया। उस संत महात्मा को तो पता भी न होगा कि उसके नाम का कैसा दुरुपयोग हो रहा है!!!ये २१वीं सदी है(?)

ये तो बात हुई मीडिया की धर्म बेचने वालों से साठ-गाँठ की। आजकल रात को ११ बजे के बाद न्यूज़ के चैनलों पर एक ही खबर होती है। कहीं पर खौफ होता है तो कहीं काल, कपाल, महाकाल के चर्चे, कहीं कब्रिस्तान दिखाया जाता है तो कहीं श्मशान पर तप करते अघोरी। अगर हम २१वीं सदी में हैं तो खबरिया चैनलों को चाहिये कि ऐसे अंधविश्वासों को बढ़ावा न दे। परन्तु होता इसके उलट ही है। इन चैनलों को पता है कि लोग यही सब देखना पसंद करते हैं, अगर ये सच दिखायेंगे तो इन्हें डर है कि कहीं टी.आर.पी न गिर जाये। इन्हें "भूतों" को बेचना है, चुडैलों से लोगों को डराना है। इंडिया टीवी ने कुछ साल पहले नकली बाबाओं को पकड़ा था, लेकिन लगता है कि भूतों ने अब इनके स्टूडियो में डेरा जमा लिया है। इन चैनलों ने अपनी सारी सीमायें तोड़ दी हैं।

डेरा की बात चली है तो बात करते हैं बाबा राम रहीम के डेरे की भी। मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि आत्मिक ज्ञान देने वाले संतों के शिष्य इतने लड़ाके कैसे हो सकते हैं? हैरानी की बात ये है कि ये बाबा भी अपने शिष्यों को शांत नहीं कराते हैं। क्या ये ज्ञान फर्जी बाँटा जाता है? क्या ये संतों का ड्रामा भर है? क्या ये पंजाब हरियाणा में फैल रहे दंगे फ्सादों को बंद नहीं करवाना चाहते? क्या चाहते हैं बाबा? लोगों को प्रेम का ज्ञान बाँटने वाले ये बाबा हिंसक कैसे हो जाते हैं? क्या लोग ही नहीं सुनते उनकी? सारा ज्ञान बेकार? डेरा से निकल कर अहमदाबाद पहुँचें तो पायेंगे कि एक और बाबा के भक्तों का बडा वर्ग गुस्से में बैठा है। यहाँ आग भड़की है आसाराम बापू के आश्रम में हुई २ बच्चों की मौतों के बाद। लोग आक्रोश में हैं और उनसे भिड़ रहे हैं बापू के शिष्य। उस पर इस संत का बयान ये कि "गुरु पर हमला होगा तो शिष्य चुप क्यों बैठेंगे?" । यानि सीधा सीधा आज्ञा दे दी है कि जो करना है करो। तोडफोड करनी है करो। मीडिया ने कुछ समय पहले ६-७ बाबा लोगों का पर्दाफाश भी किया था, किन्तु उन बाबाओं के (अंधे) भक्तों ने ये सब मानने से इंकार किया। हम २१वी सदी में हैं!!

एक दोहा पढ़ा था कभी, "गुरू गोविंद दोऊ खडे काके लागू पाये, बलिहारी गुरू आपने गोविंद दियो बताये"। गुरु को ईश्वर का दर्जा दिया गया है। ईश्वर प्रेम सिखाता है। किन्तु क्या ईश्वर इतना निर्दयी हो गया है कि अब दंगे फसाद करवाने लगा है। ये धर्म है जो हत्यारा है मासूमों का, ये धर्मगुरू हैं कातिल ईश्वर के!!!इन्होंने धोखा दिया है करोडों लोगों के विश्वासों को। ये खूनी हैं उस आत्मा के जो मिलना चाहती है परम-आत्मा से...ये २१वीं सदी भी है, यहाँ झूठा मीडिया भी है जो कभी अँधविश्वास से दूर रहने का ढोंग करता है तो कभी उसी अँधविश्वास की थाली लोगों को परोसता है। यहाँ करोडों (अँध) विश्वासी लोग भी हैं जिन्हें पता ही नहीं चल पाता है कि उनके साथ कैसा विश्वासघात हो रहा है। और यहाँ ऐसे (सद?)गुरू भी हैं जो फायदा उठाते हैं ऐसे लोगों का... ये कलियुग है..ये कलियुगी धर्म है...यहाँ कलियुगी धर्मात्मा हैं..ये २१वीं सदी है..(???)!!!
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Saturday, June 28, 2008

जहाँ बात बात पर कानून को जम कर जाता है तोड़ा

आगे की लाइन कहते हुए शर्म आती है पर सच कड़ुआ होता है। गुज़रे जमाने की सिकंदर-ए-आजम फिल्म से रफी साहब का गाया हुआ एक गीत है जिसकी तर्ज पर इस लेख का शीर्षक चुना गया है। वो भारत देश है मेरा।
इस देश में असत्य है, हिंसा है और अधर्म भी है। शायद इसीलिये आज के गीतकार ऐसे गीत नहीं लिख पा रहे हैं। बात गीत की नहीं, बात आज हिंसा की होगी। बात बात पर कानून के उल्लंघन की होगी। जो हम सब करते हैं। जाने अनजाने करते हैं। क्योंकि हम सब इस "गैरकानूनी" समाज का एक हिस्सा हैं।

सोच तो काफी दिनों से रहा था इस विषय पर सवाल उठाने की पर आज मौका मिला। मुद्दे पर आते हैं। भूमिका इतनी है कि इस देश में जो कानून तोड़ता है उसको सर पर बैठाया जाता है। और ये कानून बार बार तोड़ा जाता है। खेल में कहावत है कि रिकार्ड टूटने के लिये बनते हैं पर राजनीति के इस सामाजिक अखाड़े में कानून टूटने के लिये बनते हैं। बजट के महीने में पहुँचें तो पायेंगे कि हमारी केंद्र सरकार ने किसानों के कर माफ़ कर दिये। जिन किसानों ने टैक्स नहीं भरा था उनका सारा कर माफ कर दिया गया। करीबन ७१ हजार करोड़ रूपये का। किसान गरीब होते हैं। माना। पर तकलीफ हाथों में हो और इलाज पैरों का हो तो क्या होगा? उनके पास पैसे नहीं हैं। खेती के नवीनतम साधन नहीं हैं। जो अनाज वो बेचते हैं उनको उसके उचित दाम नहीं मिलते। समस्या जस की तस है। न चाहते हुए भी कानून की नजर से देखें तो किसान गुनाहगार हैं। लेकिन उन्हें गुनाहगार बनाने वाली सरकारें किसानों को और दलदल में फँसा रहीं हैं।

रूख करते हैं राजधानी दिल्ली का। सुप्रीम कोर्ट ने यहाँ अवैध निर्माणों को तोड़ने का आदेश दिया था। कईं मकान ऐसे थे जो जरूरत से ज्यादा ऊँचे थे। किसी की दुकान आगे थी। काफी कारण रहे। पर इन सबको नज़रअंदाज़ कर सरकार नित नये कानून बना रही है। जो कालोनियाँ गलत तरीके से बसाई गईं थीं उन्हें कानूनी जामा पहनाया जा रहा है। मतलब चाहें आपने जितने भी अवैध मकान या दुकान बनाये हों पर जब तक आपके पास वोट की ताकत है आप निश्चित रहें। जम कर कानून तोड़ें। नेता आपका सदैव साथ देंगे। यहाँ हमारी ही गलती है। पर खुद पर इल्जाम लगाने में तकलीफ होती है। कैसे कहें कि यहाँ जनता सरासर गलत है। चलिये ये तो मुनष्य की प्रकृति है, अपनी गलती देख पाना हमेशा ही मुश्किल रहा है।

बैंसला साहब की करतूतों के बिना इस लेख का अंत मुमकिन नहीं है। वे कहते रहे कि अहिंसक आंदोलन कर रहे हैं। रेल की पटरियों को तोड़ना उनके लिये हिंसा नहीं है। बसें जलाई जानी भी उनके लिये हिंसा नहीं। मुझे समझ में नहीं आता है कि एक तरफ हम सरकार को कोसते हैं कि जनता की सुविधाओं के अनुसार बसें नहीं चलाईं जाती दुसरी ओर जनता स्वयं के काम आने वाली चीज़ को खुद ही आग लगाती हैं। दुकानें तोड़ी जाती हैं। अजीब विरोधाभास है। कारण क्या है? क्यों गुस्से की आग से जल रहा है भारत? खैर अंत में बैंसला साहब की बातें मान ली गईं। इन्हीं की तरह हाल ही में सिखों ने दंगा फसाद खड़ा किया। कभी शिवसेना, पवार की एन.सी.पी, राज ठाकरे की महाराष्ट्र नव निर्माण सेना कभी अलग अलग घर्मों के संगठन आदि रोज नये कारनामों को अंजाम देती हैं। लेकिन होता क्या है? कानून को बनाने वाले कानून को तोड़ते हैं और उसकी धज्जियाँ उड़ाई जाती है। अब तो हमें भी इस सबकी आदत हो गई है।

ऐसे अनगिनत ही वाकये हैं जब नियमों को ताक पर रखा गया है। अभी ट्रैफिक के नियमों की बात तो करी ही नहीं। जनता ही कानून का उल्लंघन करने में सबसे आगे होती है और पुलिस, नेताओं को हम दोषी करार देते हैं क्योंकि हम अपने आप में झाँकने से डरते हैं। बात फिल्मों से शुरू की थी, खत्म भी उसी से करना चाहूँगा। मनोज कुमार ने एक फिल्म बनाई थी-"पूरब और पश्चिम"। अब तक ज्यादातर फिल्में जो देशभक्ति की बनीं हैं वे किसी न किसी युद्ध पर अथवा आतंकवादी हमले पर आधारित रहीं हैं। परन्तु ये अपने आप में अलग फिल्म थी। इसमें कोई आतंकवादी नहीं था। इसी में एक गाना था- है प्रीत जहाँ की रीत सदा। अब न तो ऐसी फिल्में बनती हैं और न ही ऐसे गाने। क्योंकि कहते हैं कि फिल्में समाज का आइना होती हैं। जब समाज वैसा नहीं रहा तो गाने कैसे बनेंगे?
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Sunday, June 15, 2008

स्वार्थ व झूठ से भरे ४ वर्ष

आप सोच रहे होंगे कि ४ साल किस बात के? दरअसल कल यानि १४ जून २००८ को इस कार्पोरेट जगत के चार साल पूरे हुए। कहने को तो जनवरी २००४ से काम करना शुरू किया था परन्तु चूँकि डिग्री जून में मिली थी इसलिये पहले ६ महीने गिनती में नहीं आ सकते। खैर मुद्दा ये नहीं है। आप लोगों ने एक फिल्म देखी होगी कारपोरेट| मैंने नहीं देखी, अभी देखनी है। कहते हैं उसमें इस जगत की कईं परतें खोली हुई हैं। मुझे भी इस धंधे में चार बरस पूरे हुए। लेकिन मेरा दायरा आईटी की बहुराष्ट्रीय कम्पनियों तक ही सीमित होगा। उम्मीद है अब तक आप आगे की भूमिका समझ चुके होंगे।

चलिये शुरू करते हैं मेरी पहली कम्पनी से। काम अच्छा, बहुत अच्छा। लोग अच्छे। बहुत बढ़िया तरीके से सब कुछ चल रहा था। आज की तारीख में मुफ्त में लस्सी और शीतल पेय (कोल्ड ड्रिंक) कौन सी कम्पनी पिलाती है? हर शुक्रवार को हिन्दी फिल्म दिखाई जाती थी। लेकिन एक दिन अचानक अफवाह उड़ती है कि १०० लोगों को निकाल दिया गया है। रोंगटे खड़े हो जाते हैं। यकायक सब खत्म। जो नये छात्र कालेजों से अरमान लेकर आते हैं कि बड़ी कम्पनी में काम करेंगे उन इंजीनियरों को मना कर दिया जाता है। उस समय कुछ समझ नहीं आ रहा था। ऊपर वालों ने कहा कि प्रोजेक्ट नहीं चल रहे थे। लेकिन यदि ऐसा था तो लोगों को कम्पनी में आने का न्योता ही क्यों दिया? क्या ये कम्पनी की दूरदर्शिता की कमी थी या कुछ और? क्योंकि ये सिलसिला बदस्तूर जारी रहा। क्या मंशा रही थी कम्पनी की? ये भी अफवाह थी कि कम्पनी भूमि में निवेश करना चाहती है इसीलिये साफ्टवेयर में ध्यान नहीं दे रही। पता नहीं क्या सच है क्या झूठ? कहते हैं कि अगर व्यापार करना है तो मालिक को भावुकता का त्याग करना पड़ता है। शायद ऐसा ही तब हुआ होगा। लेकिन लोगों के भविष्य को अँधकार में घकेल कर!! आज की तारीख में ये हाल काफी कम्पनियों में सुनने को मिल रहा है। शायद भावनायें व संवेदनायें कहीं खो गईं हैं स्वार्थ के सागर में?

लेकिन अभी तो स्वार्थ का एक सिरा ही देखने को मिला है। अब जानते हैं इंजीनियरों की राय। जहाँ ज्यादा पैसा देखा वहाँ कूद पड़े। फलानी कम्पनी यदि अमरीका भेजती है तो अपनी नौकरी छोड़ने में मिनट नहीं लगती है। पैसा किसे बुरा लगता है? फिर नमकहलाली व वफादारी जैसे शब्द अब कहानियों में ही सुनने को मिलते हैं। ये खेल इमोशंस से नहीं खेला जाता है, इन चार वर्षों ने ये बात तो घूँट घूँट कर पिलाई है मुझे। वो दौर गया जब लोग एक ही कम्पनी के होकर रह जाते थे और अपनी सारी उम्र उसी में लगाते थे। आज की तारीख में ऐसे आदमी को मूर्ख कह कर पुकारा जाता है। यदि आकड़ों की मानें तो एक इंजीनियर औसतन हर ७ महीने में कम्पनी बदलता है। कारण जो भी रहें। क्या है इस बेरूखी का राज़? क्यों नहीं हो पाते लोग संतुष्ट अपनी नौकरी से? क्या पैसा सचमुच बड़ा हो गया है? या लोगों की इच्छायें भानुमति का पिटारा बनती जा रहीं हैं? लेकिन ये भी कहा जाता है कि कम्पनी नहीं छोड़ी जाती बल्कि मैनेजर छोड़ा जाता है। लोगों की अपने मैनेजर से नहीं बनती है? क्या रवैया होता है काम करवाने का? क्या माहौल होता है काम का? किस तरह की चिंताओं से गुजरना होता है? काम का बोझ? कारण बहुत हो सकते हैं पर लगता है शाहरूख खान ने इन्हीं आकड़ों से प्रेरित होकर "विश" का एड बनाया है। थोड़ा और 'विश' करो।

चलिये स्वार्थसागर से बाहर आते हैं। ये बात आईटी के लोगों को पता होगी शायद। चूँकि ज्यादातर काम विदेश से आता है। तो जिस तरह का काम आता है उन्हें वैसे ही बंदे चाहिये होते हैं। लेकिन यदि न हों तो? कोई चिंता नहीं। एक नकली रिज़्यूम बनाओ और भेज दो। नकली काम दिखाया जाता है। नकली अनुभव होता है। सब कुछ दिखावा। जब काम आयेगा तब की तब देखी जायेगी। मैं इस तरह का शिकार हो चुका हूँ। जो काम मैंने कभी किया नहीं था उसमें ८ महीने बताये गये!!! इसी झूठ पर टिकी होती है कम्पनी की आय!!

ये मेरा अनुभव था ४ सालों का। कहाँ कहाँ सिफारिश चलती है वो नहीं बताऊँगा। क्योंकि वो तो पुरानी रीत चली आई है। हमारी नस नस में समाई है और आगे भी रहेगी। आई टी की कमोबेश हर कम्पनी में यही हाल हैं। ये हो सकता है कि कुछ लोग मेरी बातों पर आपत्ति करें परन्तु ये मेरी व्यक्तिगत राय थी। जो मैंने देखा मैंने सबके सामने रखा। अभी तो चार ही साल पूरे करें हैं आगे क्या क्या देखने को मिलेगा ये वक्त ही बतायेगा।
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Wednesday, June 4, 2008

माँ, तितली कैसी होती है?



रविवार को NDTV पर एक प्रोग्राम देख रहा था जिसका प्रसारण डल झील से हो रहा था। बहस हो रही थी कि क्या विकास पर्यावरण को नुकसान पहुँचा रहा है। उसी बहस के कुछ मुद्दों का जिक्र आगे के लेख में करूँगा। बहस की शुरूआत में डल झील के आसपास हो रहे निर्माण कार्य के बारे में बताया गया, जो शायद वहाँ के विकास के लिये हो रहा था। किन्तु उससे झील को काफी नुकसान पहुँच रहा है। आसपास के पेड़ कट रहे हैं। शायद मनुष्य के रहने के लिये। अजीब विडम्बना है। रहने के लिये पेड़ को काटना पड़ता है, जिससे मानव जिंदा रहता है। विडम्बना से ज्यादा मुझे मनुष्य के इस कार्य में विरोधाभास झलकता है।

खैर, बात ये भी उठी कि क्या ऐसा हो सकता है कि विकास भी होता रहे और पर्यावरण भी बचा रहे। किसी ने कहा कि हाँ, ये सम्भव है बशर्ते हम विकास के तरीके को बदले। यहाँ किसी ने ये भी कहा कि क्यों न डल झील की देखरेख किसी प्राईवेट संस्था को दे दी जाये। इस बात पर उमर अब्दुल्ला बिगड़ गये। राजनेता हैं भई। उन्होंने पलटवार किया और कहा कि सरकार अगर इस काम को प्राइवेट लोगों के हाथ में सौंप दे तो क्या जनता उसका फालतू खर्च उठाने को तैयार है? क्योंकि जो कम्पनी इस काम को अपने हाथों में लेगी वो बाद में पैसा भी जनता से ही निकालेगी। इस बात का उन सज्जन के पास जवाब नहीं था। अब जब अपनी जेब पर बन आई तो आवाज़ उठेगी क्यों? फिर चाहें पर्यावरण जाये भाड़ में।

अभी बीच में ही एक और सज्जन ने विकास पर ही सवाल उठा दिया। क्या जो हम निर्माण कर रहें हैं, उसको विकास कहा जा सकता है? ये विकास कहा जाये या फिर कुछ और... उनके कहने का आशय स्पष्ट था कि क्या पहाड़ों, पेड़ों को काट काट कर बड़ी-बड़ी इमारतें बनाना ही विकास कहलाता है? मुझे उनकी बात सही लगी। आज दिल्ली में जो ऊँची ऊँची इमारते हैं, गाज़ियाबाद, गुड़गाँव में सोसायेटियाँ बन रही हैं, वे सभी बनाते हुए पेड़ों के लिये जगह नहीं छोड़ रहीं हैं। आप देखेंगे जो सोसाइटी ९०-२००० के दशक में बनी हो और जो आज की तारीख में बन रही हो उसमें जमीन और आसमान का फर्क है। जगह कम हो गई है। न पार्किंग की जगह है और पेड़ अथवा पार्क को भूल ही जायें। कीमतें बढ़ गईं हैं। कमाल है!! जिन जगहों पर पहले बच्चों के खेलने के लिये पार्क होते थे, आज उन्हीं जगहों पर बच्चों को पढ़ाया जाता है। मेरा मतलब है कि स्कूल खोल दिया गया है। अब बच्चे किताबों में 'प' से पार्क पढ़ा करेंगे और देखने के लिये कम्प्यूटर तो है ही।

क्या वाकईं इसको विकास कहते हैं?

जहाँ पहले खेत हुआ करते थे, वहाँ की जमीन के लिये पैसे वाले घराने लड़ रहे हैं। वहाँ खाने के लिये कुछ नहीं पर गाडी के लिये कारखाने बनाने की योजना हो रही है। जिन लोगों को खाने और रहने के लिये लोन लेना पड़ता है, उन्हीं लोगों को गाडी के सपने दिखाये जा रहे हैं। अपना घर न सही, अपनी गाड़ी का सपना तो पूरा हो। जिस देश के लोग सड़क पर जरा सी टक्कर होते ही आपस में भिड़ जाते हों वहाँ के लोगों को अब और सावधान हो जाना चाहिये क्योंकि अब लड़ाई में बहुत सारी गाडियाँ और कूदने वाली हैं।

कार्यक्रम के अंत में एंकर एक ऐसा सवाल पीछे छोड़ जाता है जो सोचने पर मजबूर कर देता है। कुछ वर्ष बाद जब आने वाली पीढी हमसे पूछेगी कि तितली कैसी होती है? तब शायद हमारे पास पछताने और मुँह छिपाने के अलावा कुछ नहीं बचेगा। अभी भी शहरों में तितली लुप्त प्रजातियों में शामिल हो रही है। मैं आप पर छोड़ता हूँ कि क्या अँधाधुँध हो रहे निर्माण को विकास कहा जाये जहाँ पर्यावरण की धज्जियाँ उड़ रही हैं?? ये भविष्य हमारा है। या हम लोग चाहें तो मिल कर विकास की नईं परिभाषा गढ़ें। सदाचार, भाइचारे का विकास...लोगों के आचरण का विकास...शिष्टाचार का विकास...आदि..जवाब हमें ही ढूँढने है...

दो बातें कहनी रह गईं...पहली..वन्य जीवों को नुकसान.. बाघों की निरंतर कमी जग जाहिर है..राष्ट्रीय पशु ही न रहेगा तो?
दूसरा... GNP(Gross Net Production) में बढोतरी हो रही है परन्तु GNH (Gross Net Happiness) में कमी हो रही है... इसको विकास का नाम दिया जाता है... ये भी उसी बहस का ही एक हिस्सा थीं..

जाते जाते एक बात और-आज विश्व पर्यावरण दिवस है
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Saturday, May 24, 2008

सरबजीत अफ़जल एक समान!!

मित्रों,
हाल हीं में हमारे देश के गृहमंत्री साहब ने जब अफजल और सरबजीत की समानता करी तो रहा नहीं गया। एक देश की खातिर जान की बाजी लगा रहा है तो दूसरा देश द्रोह कर जान ले रहा है। फिर भी दोनों में समानता देखी जा रही है। मुझसे रहा नहीं गया और मैंने कुछ पंक्तियाँ लिख डाली।
आपसे विनती है कि एक बार इसे अवश्य पढ़ें। आपको लगे कि सही कहा है तो कृपया मेरा समर्थन करें। और लगे कि गलत कहा तो भी आपकी टिप्पणी की प्रतीक्षा रहेगी।

राजीव की मृत्यु पर ये मनाते हैं
आतंकवाद विरोधी दिवस,
वादे करे जाते हैं कि आतंक का सामना करेंगे
उग्रवादियों से डटकर मुकाबला करेंगे ,

हम नहीं होने देंगे कोई आतंकी हमला
दाग नहीं आने देंगे देश की अस्मिता पर,
गौरव बना रहेगा दुनिया में हमारा,
हिमालय का ताज रहेगा सर पर

पर ये लोग नहीं बने हैं इस मिट्टी के
तभी तो भूल जाते हैं
भगत सिंह का शहीदी दिवस
उनके हर नेता की बनी है
राजधानी में समाधी
नहीं ख्याल रखा 'आजाद', बिस्मिल की कुरबानियों का
शायद लगता होगा
कि वे सब भी तो थे आतंकवादी!!

आतंकवाद के विरोध पर ये करते हैं
अफजल का बचाव, करते हैं उसका सम्मान
जिसने हमला करवाया था संसद पर
आखिर 'भगत' का ही तो काम दोहराया था (न)!!

जब सरबजीत की तुलना होती है
संसद के हत्यारे से
तब जोरदार आवाज़ उठनी चाहिये विरोध की
देश के हर नुक्कड़, कूचे, गलियारे से

कैसे हिम्मत कर लेता है ये कहने की
इस देश का गृहमंत्री
क्यों बोला नहीं जा रहा
चुप्पी साधे बैठा है प्रधानमंत्री?

जबकि जनता के चुनाव में
दिल्ली, लातूर से हारे हुए हैं दोनों,
नहीं दिया ये हक़ इन्हें
ये बाते करें पाकिस्तान से यारी की
सरबजीत को कहा अफजल
तो देश से गद्दारी की

ये भूल गये कि अफजल
पाकिस्तानी नहीं, हिन्दुस्तानी है
देशद्रोही को फाँसी से नीचे सजा देना
हमको लगता बेमानी है

ये मौका परस्त 'विदेशियों', चापलूसों का दल है
इनके राज में देशद्रोह का गहरा दलदल है
ये देशद्रोही हैं, गद्दार हैं ये,
आतंकवादियों के सरदार हैं ये!!!
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Saturday, May 10, 2008

काश

सुबह ज्यों ही
सूरज को
खुले आकाश में उठते
अपनी किरणों को चारों ओर
फैलाते हुए
देखता हूँ तो यकीन होता है
कि हम भी सर उठा कर
चलने लगे हैं,
हम हैं विश्व का सबसे
बड़ा बाज़ार,
डंका बजता है हमारा
पूरी दुनिया में,
अंतरिक्ष में अब भेजते हैं हम
दूसरे देशों के उपग्रह,
हर साल बढ़ते हैं हमारे
देश में खरबपति,
सूचना प्रौद्योगिकी में विश्व
देखता है हमारी ओर,
हमारा है सबसे बड़ा लोकतंत्र
और हमारा सर ऊँचा होता है
गर्व से कि हम चलाते हैं
अमरीका को,
पर भूल जाता हूँ सब कुछ
जब ये गुरूर
चकनाचूर होता है
हर शाम जब
सूरज को ढलते हुए देखता हूँ
टूट जाता है उसका दंभ,
कहते हैं कि वो उस समय रोता है
होता है वो लहूलुहान,
मेरे सामने तब आ जाते हैं
रात के अँधेरे में होने वाले
हर वो गुनाह जो
सुबह अखबारों में समाचार
परोसे जाने का कारण बनते हैं,
सिग्नलों पर भीख माँगते
वो बच्चे
जो कार के अंदर
से कुछ मिल जाने की
उम्मीद में अपने पैर जलाते हैं
पूरे दिन,
चिराग तले अँधेरे का मतलब
समझाती हैं किसानों की
आत्महत्यायें,
मेहमान को भगवान
बनाने वाले देश में
राज करते हैं हैवान,
खून से सराबोर होते हैं
जब खेली जाती है यहाँ होली
जाति व धर्म की,
उसी रंग में नहा जाता है
रोता हुआ वो सूरज
काश नहीं होता ये
सूर्योदय और सूर्यास्त
और नहीं हो पाती
इनमें कोई तुलना
या काश मुझे बना दिया होता
ईश्वर ने अँधा
कि नहीं देख पाता मैं
सूर्योदय और सूर्यास्त!!
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Sunday, May 4, 2008

एक अलग दुनिया की झलक

मुझे नहीं पता कि मैं अपने इस लेख की शुरुआत किस तरह से करूँ? दरअसल अभी पिछ्ले दिनों कम्पनी के कुछ लोगों से पता चला कि ४-५ लोग मिलकर बच्चों को खाना खिलाने के लिये अँध महविद्यालय जा रहे हैं। मैंने भी उन लोगों के साथ जाने का मन बना लिया था। दिल में एक अजीब सी जिज्ञासा थी उस दुनिया को देखने की जहाँ कहा जाता है कि लोग मन की आँखों से देखा करते हैं।


मैं निकल पडा़ शनिवार की उस सुबह को जिस का मैं इंतज़ार कर रहा था। अभी सब लोग पहुँचे नहीं थे, हम दो लोग थे ही थे वहाँ पर। इसीलिये सोचा कि बच्चों से मिला जाये, अंदर जा कर देखा जाये कि वे कैसे रहते हैं।




अंदर घुसे तो दो बच्चे मिले जो चहाँ पर दो सहायक कर्मचारियों के साथ खेल रहे थे। हमने उनके नाम पूछे और वहाँ काम करने वालों से ये भी पूछा कि बच्चे कहाँ कहाँ से आते हैं। हमें पता चला कि उस स्कूल में पढ़्ने के लिये बिहार, यूपी, म.प्र. व आसपास के राज्यों से बच्चे आते हैं।




वो जो बच्चे साथ में थे उन्होंने अपने नाम स्वयं ही बता दिये थे-


विशाल



व रंजीत।


विशाल गाजियाबाद से और रंजीत आजाद्पुर, दिल्ली से ही था। दोनों की खूब पटती है। अच्छे दोस्त हैं दोनों। उनकी शरारतों से ही पता चल रहा था कि खूब मस्ती करते होंगे। जब मैं वहाँ जा रहा था तो मेरे मन में उनके लिये बेबस और लाचार जैसी छवि थी, लेकिन यकीन मानिये किस तरह से उन दोनों ने हमारा दिल जीत लिया ये बताना मेरे लिये बहुत कठिन है।

आँख से बिना देखे ही उन्होंने हमें अपने सारे कमरे, कक्षायें दिखाईं। वे उस पूरे इलाके में बहुत तेज़ी से घूम रहे थे, दौड़ लगा रहे थे। किस प्रकार वे हर कमरे, दालान व अन्य चीज़ों की आकृति को समझ लेते हैं वो अपने आप में अद्भुत है। वहाँ के चप्पे चप्पे से वाकिफ़ थे।



अपने आप ही नल से पानी भरते हैं।

सभी कुछ पढा़ करते हैं वे भी-हिन्दी, अंग्रेज़ी, गणित आदि। हमारी ही तरह- बस तरीका विलग है।



ब्रेल लिपी-जी हाँ, यही स्लेट का प्रयोग करते हैं ये जुझारू, जिन्दादिल बच्चे।




यहाँ रखे खाँचों में जिस तरह से इन टुकड़ों को फँसाया जाता है उस पर अंक निर्भर करता है। टुकड़ों कई दिशा, उनका झुकाव ये सब अंक को निर्धारित करता है।

आम बिस्तर...



कमरा, अपनी कहानी खुद कह रहा है...



यहाँ घुसते ही गाना सुनाई दिया- ज़िन्दगी के सफ़र में गुज़र जाते हैं जो मुकाम, वे फिर नहीं आते....

टीवी....


उनके लिये जो हलका देख पाते हों या फिर इसका प्रयोग सुनने के लिये किया जाता है।

अपना गम लेके कहीं और न जाया जाये,
घर में बिखरी हुई चीज़ों को सजाया जाये।




इस बच्चे के मुँह से जब गज़ल के ये बोल सुने तो लगा कि हम लोग कितने कमज़ोर हैं. ज़िन्दगी को जीना हम सीख ही नहीं पा रहे हैं।
थोड़ी देर के बाद ही हमारे बाकि दो साथी भी वहाँ पहुँच गये, और हम लोगों ने खाना शुरू करवाया।



रोटियों की हालत बहुत खराब थी। वे चम्मच से नहीं, हाथ से दाल खाते हैं-मुँह तक पहुँचने से पहले ही दाल गिर सकती है।

भोजन समाप्त हुआ हम फिर नीचे आये। वहाँ वही दो शैतान जिनका जिक्र मैंने शुरू में किया था-विशाल और रंजीत...
और तब सुनाया विशाल ने पूरा गाना- "हट जा ताऊ पाछे ने"..इतना सुरीला मुझे ये कभी नहीं लगा, न ही कभी पूरा सुना था....हम हैरान थे कि उसे पूरा गाना कैसे याद है?



विशाल सोमवार को घर जा रहा है...हमसे पूछ्ता है कि गाज़ियाबाद में उसके बारे में कोई पूछता है क्या?...हमें कोई जवाब नहीं मिल पाता है।
रंजीत १५ मई को जायेगा। मैं सोचता हूँ कि ये छोटे बच्चे दिन/रात की पहचान कैसे कर पाते हैं?

जाने का समय हो रहा था। दोनों हमें दरवाज़े तक छोड़ने आये। उन्हें इससे कोई सारोकार नहीं था कि हम कौन हैं, कहाँ से आये हैं। हम उनके साथ रहे...उनको अच्छा लगा.. हमें और कुछ नहीं चाहिये था।
सोचा था कि सांत्वना देंगे...पर हमें क्या पता था कि उन्हीं से बहुत कुछ सीखने को मिल जायेगा...


वहीं पर ये भी पता चला कि हम जिस महाविद्यालय में गये थे, वो प्राइवेट संस्था चला रही है। बगल में ही सरकारी स्कूल भी है।
तो हमारे कदम उस ओर हो लिये। बहुत ही खराब रास्तों से होते हुए हम पहुँच गये उस स्कूल में...
हालत कुछ इस तरह से थी..




बाकि फ़ोटो मैं खीच नहीं पाया, लेकिन इतना समझ लीजिये कि हालत कुछ अच्छी नहीं कही जा सकती।

दफ़्तर में पंखे लगे हुए थे, कूलर नहीं था। दोनों महाविद्यालयों में बहुत अंतर देखा जा सकता था। हमने उनसे कार्ड माँगा तो प्राइवेट वालों ने अपनी पूरी एक मेगज़ीन ही थमा दी।

सरकारी दफ़्तर से पता चला कि वहाँ कूलर और फ्रिज की जरूरत है...

इस सब के बाद हम वापसी के लिये चल दिये। लेकिन अभी ये निर्णय लेना बाकि था कि बचे हुए पैसों का क्या करना है? रूम कूलर लेते हैं तो वो सरकारी दफ़्तर की शोभा बढा़येगा, फ्रिज लेने जितने न तो पैसे थे और न ही ये यकीन की ये उन ज़रूरतमंद बच्चों तक पहुँच भी पायेगा या नहीं। शायद पानी का कूलर खरीदें, जिससे उनकी ज़रूरत पूरी हो सके... या कुछ और...

जो गज़ल की पंक्तियाँ पहले बच्चे ने गाईं थीं, उस के आगे एक शेर ये भी आता है...

घर से मस्जिद है बहुत दूर चलों यूं कर लें
किसी रोते हुए बच्चे को हँसाया जाये..


शायद हम उसमें कुछ कामयाब हुए...
और हम अपने अपने रास्तों पर वापस चल दिये...

उस अँधेरी दुनिया की एक हलकी सी झलक देखने के बाद, देखने के बाद? जिसे हम महसूस नहीं करते..
वो अँधेरी दुनिया. जिसे उस दुनिया के निवासी नहीं देख सकते...लेकिन हमारी दुनिया को महसूस कर सकते हैं..

अब ये समझ में नहीं आ रहा है कि कमज़ोर हम हैं या वे??

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Saturday, April 26, 2008

अश्लील कौन?

जी हाँ। तो ये है आजकल का सबसे गर्म सवाल। इस विषय पर हमारे देश में पिछले कईं वर्षों से बहस जारी है। जब से समाचार चैनलों की संख्या में तेज़ी हुई है, इस विषय पर विवाद बढ़ता ही जा रहा है। सबसे ताज़ा उदाहरण बना है क्रिकेट में मनोरंजन के लिये विदेशी बालाओं के द्वारा किया जाने वाला डांस। अब तंग कपड़ों में कोई हिरोइन रीमिक्स गाने का वीडियो करे तो उस गाने पर लोग शादियों में डीजे पर आधी रात तक थिरकते नज़र आयेंगे। पूरी रात चलने वाली पेज थ्री की पार्टियों में, जिसमें नेता, अभिनेता सब शामिल होते हैं, उसमें पूरी शिरकत करते हैं। लेकिन वही लोग इन विदेशी बालाओं के नृत्य पर सवाल उठाते हैं। जिनकी पार्टियों में "बार" में रोक लगने पर वही बार बालायें नाचती दिखाई देती हैं वही "चीयर लीडर्स" के डांस पर उंगली उठाये हुए हैं।
हर इंसान का सोचने का अपना अलग नजरिया होता है, इसलिये सवाल ये नहीं उठाऊँगा कि नृत्य अश्लील है या नहीं। ये आप लोगों पर निर्भर करता है। पर एक और बात है जो मुझे सोचने पर मजबूर करती है कि मैं एक महान ऐतिहासिक संस्कृति की धरोहर वाले भारत के खोखले होते संस्कारों का गवाह बनता जा रहा हूँ।
घटना हैदराबाद के मैच की है। इन्हीं विदेशी नर्तकियों में से किसी की शिकायत आती है कि जहाँ वे नाच रही थीं उसके ठीक पीछे लोग भद्दी टिप्पणियाँ व इशारे कर रहे थे। वे घबरा गईं हैं। जो लोग घर की औरतों के साथ बुरा व्यवहार करते हैं उनसे इससे ज्यादा क्या उम्मीद की जा सकती है? सवाल ये नहीं कि उन्होंने कैसे कपड़े पहने हैं। ये उनका पेशा है और जैसा आयोजक कहेंगे वे वैसा ही करेंगी। हम ही ने उन्हें अपने घर बुलाया था। वे खुद अपनी मर्जी से कतई नहीं आईं हैं। पर इस घटना के बाद वे दोबारा आने से पहले सोचेंगी। विदेश में भारत की जो छवि बनी हुई है उस पर ये घटना दाग के समान है और छवि धूमिल हो गई है। इसमें कोई संशय नहीं है। अश्लील नृत्य किया हो अथवा नहीं किया हो परन्तु हमारे देश में जो बेइज़्ज़ती हुई है उसको शालीनता तो नहीं कह सकते?? कह सकते हैं क्या?? ये हमारे बनाये हुए ही संस्कार हैं। अगर हम कहते हैं कि वे नर्तकियाँ गलत हैं तो सही तो हम भी नहीं?? पहले हम अपने गिरेबान में क्यों नहीं झाँकते?
आये दिन हो रहा दुर्व्यवहार हमारा ही पैदा किया हुआ है। पहले हम क्यों नहीं सुधरते? नर्तकियों को बुलाया जाता है फिर उन्हीं पर रोक लगाई जाती है। ये हास्यास्पद है और भारत की पूरे विश्व में बदनामी करवाने के लिये काफी है। हम लोग मेहमान को भगवान कहते हैं और उसी का ही निरादर करते हैं। अब समझ आया कि ईश्वर इस धरती पर दोबारा जन्म लेने से क्यों घबराता है!!!
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Friday, April 18, 2008

सहनशीलता या कायरता?

ऊपर शीर्षक में दो शब्द दिये हुए हैं। सहनशीलता व कायरता। मैं समझता हूँ कि इन दो शब्दों में बहुत बारीक सी एक लकीर है जो इन दोनों को आपस में विलग करती है। आप सोच रहे होंगे कि अचानक इनकी क्या ज़रूरत आ पड़ी है। दरअसल अभी हाल ही में जो चीन व तिब्बत को लेकर भारत में माहौल चल रहा है, उस से व्यथित होकर मुझे ये लिखना पड़ रहा है।

हम सभी जानते हैं तिब्बत पर चीन का कब्जा है। तिब्बत दुनिया का सबसे ऊँचा इलाका है इसलिये ये "दुनिया की छत" के नाम से जाना जाता है। इस देश का इतिहास सातवीं शताब्दी से शुरू होता है। सन् १९११ में ये चीन से पूरी तरह से अलग हो गया। परन्तु १९४९-५० में चीन के ४०,००० सैनिकों ने तिब्बत पर हमला बोल दिया। तिब्बत के ५००० सैनिक इतनी विशाल सेना का सामना न कर सके और जंग हार गये। तब से चीन ने तिब्बत पर कब्जा किया हुआ है।

इस विषय में यदि आपने जानना है कि किस प्रकार से जुल्म हो रहे हैं तो आप यहाँ पढ़ें।
मैं इस विषय में ज्यादा नहीं जाऊँगा बस मैं इतना जानता हूँ कि ये गलत हो रहा है। अत्याचार हो रहा है। लेकिन मैं दुखी हूँ कि भारत की सरकार चुप क्यों है? गाँधी, नेहरू की चमची ये सरकार उनके द्वारा किये गये कामों को क्यों नहीं दोहराती? उन्होंने भारत को आजाद करवाया तो ये बहरी और निकम्मी सरकार गूँगी बनकर क्यों बैठी है? चीन के खिलाफ बोलते वक्त ये मिमियाती क्यों है? क्या चीन सही कर रहा है? अगर हाँ, तो भारत ने अंग्रेज़ों के खिलाफ आंदोलन क्यों किया था? और अगर गलत कर रहा है, तो भारत तिब्बत की मदद क्यों नहीं कर रहा? भाजपा ने तिब्बतियों के समर्थन में रैली निकाली पर क्या वो सरकार में होती तो चीन को दो टूक जवाब दे पाती?

चीन एक ओर कशमीर पर अपना हक जमाये बैठा है तो दूसरी तरफ पूर्वांचल राज्यों में भी घुसपैठ जारी है। सिक्किम और अरूणाचल के कुछ हिस्सों को तो वो बड़े गर्व से अपना कहता है। चीनी राजदूत भारत में कहता है कि अरूणाचल चीन का है और भारत की सरकार चुप रहती है। भारतीय प्रधानमंत्री चीन के दौरे पर जाते हैं और सीमा रेखा की बात करे बिना ही वापस आ जाते हैं। चीन चाहें जो मर्जी करे भारत कभी भी उसके खिलाफ नहीं बोलता है। किस बात का डर है? एक बार युद्ध में हार गये, क्या इसलिये खौफ खाये बैठे हैं? चीन को मालूम है कि यदि तिब्बत आजाद हो गया तो चीन भारत पर हमला नहीं कर पायेगा। तिब्बत चीन के लिये कवच के समान है।

भारत के पास किस बात की कमी है? आज इसके पास हर तरह के मारक हथियार हैं, जो युद्ध के समय काम आ सकते हैं। चीन से युद्ध करने में हम पूरी तरह सक्षम हैं। तिब्बत को आजाद करवाने से भारत का ही भला होगा। फिर इस नेक काम को करने से पीछे क्यों हटें? भारत का इतिहास रहा है कि इसने बहुत सहनशीलता दिखाई है। कोई भी यु्द्ध करने से पहले कईं बार सोचा है। कभी खुद हमला नहीं किया है। लेकिन यहाँ बात सहनशीलता की नहीं। सही या गलत में से एक को चुनने की है। हमारा पड़ोसी हमारे से मदद की गुहार लगा रहा है और हम डरे सहमें से बैठे हैं। अगर हम तिब्बत को सैनीय मदद न भेजें पर बस उसके आंदोलन को सपोर्ट करें तब भी उनकी हौंसला अफ़ज़ाई के लिये काफी होगा। परन्तु लगता है हमारा देश सहनशील बना रहेगा। आखिर कब तक?मैं समझता हूँ कि भारत सहनशीलता की लकीर फाँद कर कायरता की श्रेणी में प्रवेश कर चुका है, जिसे अपने आप पर विश्वास नहीं है। किस हक से हम आजादी की सालगिरह मनाते हैं जब हम हमारे पड़ोसी को आज़ाद नहीं करा सकते। भारत स्वयं को शांति का दूत कहता है और शांति प्रिय तिब्बतवासियों के लिये कुछ भी नहीं कर रहा है। तीन किमी की ओलम्पिक मशाल की दौड़ औपचारिक व हास्यास्पद लगती है। आज चीन का गुलाम अकेला तिब्बत ही नहीं, भारत भी है।
आपका इस विषय में क्या कहना है। कृपया टिप्पणी करें।
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Friday, April 11, 2008

मिस्टर लाल का परिवार

मि.लाल के परिवार को जानिये मेरी नज़र से। आपकी टिप्पणियों का इंतज़ार रहेगा।

लो चले हैं मिस्टर लाल संग अपने परिवार के
श्रीमती जी और बच्चों को तोहफे दिलवाने त्योहार के।

आज बच्चे खुश हैं, पापा मोबाइल दिलवाने जा रहे हैं,
बीवी और बच्चों के चेहरे पर स्माइल लाने जा रहे हैं।

बड़े दिनों से जिद थी घर में, मॉल से लायेंगे मोबाइल,
चाहें घर में पानी न हो, या फिर न हो रिफाइंड ऑइल।

कोई इनके दिल से पूछे कितने का फोन खरीद पायेंगे,
दस तारीख भी तो सर पे है, होम लोन कैसे चुका पायेंगे।

दिल्ली के एक इलाके में अभी अभी एक घर लिया है ,
आधी पगार है उसमें जाती, ओवरटाइम भी खूब किया है।

लाल जी हैं परेशान, सरदी में आ रहा है पसीना,
गाड़ी की भी तो फरमाइश बाकी है, आने दो अगला महीना

आबादी की तरह बढ़े जा रहा है क्रेडिट कार्ड का बिल ,
परिवार के खर्चे से तेजी से धड़क रहा है लाल जी का दिल।

अभी हाल ही में तो डूबे थे शेयरों में पचास हजार,
साठ हजार पगार महीने की, फिर भी लगते हैं लाचार।

न ज़मीन अपनी है, न घर अपना है, न ही अपनी है गाड़ी,
सस्ते लोन और लालच ने लाल जी की बचत बिगाड़ी।

किसी भुलावे में जी रहा है, मध्यम वर्ग का हर परिवार
मार्केट, मनी, मॉल, मोबाइल से हर कोई है कितना बीमार।
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Tuesday, April 1, 2008

खबरिया चैनलों की होड़ में बिगड़ता बचपन

मैं ये लेख पहले लिखना चाहता था परन्तु कोई न कोई बात हो जाती और इसमें देरी हो जाती। पर शनिवार को जो बात हुई उसके बाद मुझे ये लिखने के लिये समय निकालना ही पड़ा। अभी कुछ महीनों से एक नाम जो हर हफ्ते मीडिया की खबरों में होता है वो है खली उर्फ दिलीप सिंह। चाहें कोई देश के प्रधानमंत्री का नाम नहीं जानता हो, पर आज की तारीख में खली के नाम और काम से सब वाकिफ़ हैं। पेशे से WWE का पहलवान है। इस तरह की कुश्ती भारत में करीबन १७ सालों से दिखाई जा रही है। जबसे केबल चालू हुआ, तब से। मैं छोटा हुआ करता था और ये कुश्ती बहुत पसंद थी, परन्तु वही देख पाते थे जिनके यहाँ केबल था। अब हर घर में केबल है तो सभी देखते हैं। ट्रम्प कार्ड्स भी खूब बिका करते थे।

भारत में इस कुश्ती के काफी दर्शक हैं और इन दर्शकों में बच्चों की तादाद शायद ९० फीसदी से ऊपर होगी। ये हाल ही में और ज्यादा चर्चा में तब आई जब खली का नाम भी इस कुश्ती में शामिल किया गया। खली भारत का है इसीलिये इस कुश्ती की खबर हर चैनल पर दिखाई जाने लगी। जिस कुश्ती का परिणाम २-३ सप्ताह के बाद पता चलता था वो उसके खत्म होते के साथ ही पता चलने लगा। वो दिन दूर नहीं जब इसका सीधा प्रसारण भी होने लगेगा। लेकिन इन सब के बीच ये कोई ध्यान नहीं दे रहा है कि मासूम बच्चों पर क्या असर पड़ेगा।

मुझे गुस्सा आता है मीडिया पर जो "तेज़" व "सच्ची" खबर आगे रखने का दावा करते हैं पर इन वादों और दावों को पूरा करने में पूरी तरह से नाकामयाब हैं। ये सभी जानते हैं कि इस कुश्ती के पहलवान पूरी तरह से प्रशिक्षित हैं व ये लड़ाई फिक्स होती है। यानि कि परिणाम पहलवानों को पहले से ही पता होता है व जो भी दाँव उन्हें लगाना होता है वे उसकी पहले से ही पूरी प्रैक्टिस करके रखते हैं। किस दाँव को कैसे खेलना है ये उन्हें सिखाया जाता है। और इसके उन्हें पैसे भी खूब मिलते हैं। ये एक धारावाहिक की तरह है जिसके सारे किरदारों पर कहानी लिखी जाती है और ये किरदार उस कहानी को निभाते हैं। पर ये सब बातें हमारा मीडिया नहीं बताता। क्योंकि यदि ऐसा किया गया तो उनके चैनल की टी आर पी कम हो जायेगी। चैनलों का मकसद केवल टी आर पी को बढ़ाने का है। हमारे समय में मीडिया इतना नहीं था इसलिये ये सब बातें हमें पता चलने में देरी हुई। अब इस कुश्ती को देखते हुए ये पता होता है कि ये सब दाँवों की इन पहलवानों को आदत है। पर बच्चों को ये सब कौन बतायेगा?

अब मैं बताता हूँ कि गत शनिवार हुआ क्या था। मेरी बुआ का लड़का जो महज ६ साल का है हमारे घर आया हुआ था। काफी होशियार है और कम्प्यूटर को बखूबी इस्तेमाल करता है। वो मेरे एक और छोटे भाई से खली और ट्रम्प कार्ड्स के बारे में बातें कर रहा था। इस पर मैं उसे समझाने लगा कि ये सब लड़ाई नकली होती है और उस पर ध्यान न दे।
"पर न्यूज़ में दिखाते हैं, तो क्या वो गलत बतायेंगे?"। मैं उसका जवाब सुनकर हैरान रह गया और सच बताऊँ तो मैं इस तरह के जवाब के लिये तैयार नहीं था।

दरअसल इसी तरह की बातें सभी बच्चों के मन में गहरा प्रभाव छोड़ती है। बच्चे हिंसक हो जाते हैं और यही मीडिया फिर स्कूल प्रशासन को दोषी करार देता है। सच्ची खबरें देने का ढोंग करते ये झूठे चैनल केवल अपनी रोटियाँ सेंकने में लगे हुए हैं। कोई भी ये सच्चाई बताने की हिम्मत नहीं कर रहा है। मैं आप सब से गुजारिश करूँगा कि आपके रिश्ते में जितने भी छोटे बच्चे हैं उन सब को सिखायें कि इन सब बातों में न पड़ें|

वरना वो दिन दूर नहीं जब हर स्कूल में गोलियाँ चलेंगी। और इन तेज़ , चालाक, झूठे खबरिया चैनलों को एक और सनसनीखेज़, सच्ची व दर्दनाक खबर मिल जायेगी जो इनका चैनल अगले एक सप्ताह तक चलाती रहेगी।
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Monday, March 24, 2008

एक शहर कईं चेहरे

अभी हाल ही में मुझे चेन्नई शहर में जाने का मौका मिला। हर बड़े शहर की तरह वहाँ भी कंक्रीट के बड़े बड़े पुल बन रहे थे। दिल्ली से काफी हद तक जुदा था। लोगों का रहन सहन, खान पान, भाषा, कार्यशैली सब विलग हैं। कैसे भिन्नता है इसके बारे में कभी आगे के लेखों में जिक्र करूँगा, आज कुछ और ही बताने जा रहा हूँ। ये मेरे अनुभव हैं जो वहाँ के लोगों से मिलकर, उनसे बातें कर के मैंने जाने|

आपके अपने आज के विचार बचपन से ही बनते जाते हैं। आप किस तरह से जीवन व्यतीत करते हैं, आपके परिवार का माहौल कैसा है, आपके घर के आसपास व शहर का राजनैतिक व समाजिक वातावरण भी आपकी सोच पर पूरा असर करता है।

शुरू करता हूँ उस घटना से जो हो सकता है आपको आशावादी बना दे। हुआ यूँ कि मैं और मेरा दोस्त समुद्र किनारे टहल रहे थे। चेन्नई शहर में आपको विदेशी लोग काफी नजर आ जायेंगे जो वहाँ काफी पहले से रह रहें हैं व वहाँ के लोगों के साथ जुड़े हुए हैं। किनारे पर जो विदेशी महिलायें सागर की ओर देख रहीं थीं मेरे दोस्त ने उन से पूछा कि आप रेत पर बैठीं हैं, क्या आपको वहाँ गंदगी फैली हुई नज़र नहीं आती? वहाँ से जवाब मिला, "हम सागर की खूबसूरती को देख रहें हैं फिर गंदगी कौन देखे?"। जीवन की सच्चाई है। हम हमेशा लोगों की गलतियाँ व बुराइयाँ देखते हैं, पर अच्छाइयाँ हमें नज़र नहीं आतीं।

दूसरी घटना तब घटी जब हम सड़क पर चल रहे थे कि तभी मेरे दोस्त की नज़र एक ऐसी लड़की पर पड़ी जो साइकिल के साथ किसी दुकान में जाने के लिये खड़ी थी। पता नहीं क्या हुआ कि वो उसके पास गया और किसी घटना का जिक्र करने लगा। दरअसल मेरे दोस्त ने एक बार उस लड़की को सड़क किनारे किसी बच्चे को खिलौना देते हुए देखा था। तो वो उससे बात करके पूछना चाहता था कि क्या वो वही थी? उस लड़की ने कहा कि वो वहाँ बहुत पहले से है और वहाँ के लोगों व बच्चों के साथ बहुत मिलजुल चुकी है। उससे पता चला कि वो फ़्रांस की निवासी थी।(देयर इज़ ए बॉंडिंग बिटवीन अस) उसका जवाब सुनकर मैं दंग रह गया कि एक वो है जो विदेशी होकर भी भारतीय लोगों को इतना प्यार बाँटती है और एक हम हैं जो आपस में लड़ते रहते हैं। कभी महाराष्ट्र, कभी पूर्वाँचल और कभी द्रविड़ प्रदेशों में हम मारपीट करते हैं। मुझे शर्म आ रही थी।

अगली घटना बहुत दुःखदाई थी। मैं चेन्नई में एक महीने से ऊपर रहा और कभी भी मैंने ये नहीं देखा कि उत्तर भारतीयों के साथ कोई बुरा सुलूक किया हो। किया भी हो तो मुझे इसका आभास कभी नहीं हुआ। पर मेरे दिल्ली आने से ठीक एक रात पहले जब मैं अपने दोस्त के साथ रेस्तरां में भोजन कर रहा था कि तभी हमारी टेबल के पीछे कुछ तमिल बोलने वाले लोग आकर बैठे। मेरी पीठ उनकी तरफ थी पर मेरा दोस्त उन्हें ठीक से देख पा रहा था। वे चार लोग थे। रात के करीबन साढ़े दस बज रहे होंगे, ज्यादा लोग रेस्तरां में नहीं बचे थे। वेटर भी खाना खा रहे थे। हम खाना खा रहे थे और आपस में बात कर रहे थे। क्योंकि हम दोनों ही दिल्ली की तरफ के थे तो हिन्दी में ही बातें कर रहे थे। तभी मुझे पीछे से आवाज़ें सुनाई देने लगी। "ऐ, नो हिन्दी, नो हिन्दी"....."हिन्दी पीपल, खच खच खच", ये वाक्य एक आदमी ने हाथ से चाकू की तरह काटने का इशारा करते हुए कहा। मेरा दोस्त ये सब देख रहा था। मेरी पीछे मुड़के देखने की हिम्मत नहीं हुई हालाँकि एक दफा कोशिश जरूर करी थी। पर मेरे दोस्त ने पीछे देखने से मना किया। हम लोग तब खाना खत्म ही करने वाले थे। वेटर ने बाद में माफी भी माँगी। पर तब तक मैं चेन्नई का एक और रूप देख चुका था। शायद ये वहाँ का राजनैतिक रूप था। क्या यही वहाँ की सच्चाई है? क्या मिलता है नेताओं को ऐसी बातों से? ये सवाल मेरे मन में आज भी गूँज रहे हैं।

अगले ही दिन मेरी वापसी थी। हवाई जहाज में मेरी सीट रास्ते के बगल वाली थी। खिड़की की तरफ एक १५-१६ साल की लड़की बैठी थी व बीच में मुझसे करीबन ७-८ वर्ष बड़ी उस लड़की की बहन थी। लड़की की बहन की शादी हो चुकी थी और वे एक शादी के समारोह में शामिल होने दिल्ली आ रहीं थीं। मैं अपनी डायरी के पन्नों में कुछ लिख रहा था तो उन्होंने मुझसे पूछा कि मैं दिल्ली क्यों जा रहा हूँ। बस वहीं से हमारी बातें शुरू हुईं। मैंने उन्हें बताया कि मैं करीबन ३५ दिन चेन्नई में रहके अब वापस दिल्ली जा रहा हूँ। वे मूलतः हैदराबाद के पास की किसी जगह से थीं व चेन्नई में उनका विवाह हुआ था। उनकी हिन्दी में मुझे कोई गलती नहीं दिखी। बहुत साफ बोलतीं थी वे। बातों ही बातों में मैंने उन दीदी को अपनी पिछली रात वाली घटना बताई। उन्होंने कहा कि पहले ये काफी होता था पर अब लोगों को हिन्दी आती है और वे बोलते भी हैं। और जो लोग ऐसा करते भी हैं तो वे राजनैतिक लोगों की वजह से। उनकी बातों से लगा कि जो पढ़ा लिखा बुद्धिजीवी वर्ग है शायद उसको फर्क न पड़ता हो परन्तु वो तबका जो बेरोजगार है व एक किस्म की मानसिक बीमारी से ग्रस्त है व जो पिछले कईं सालों से आँख मूँदे राजनेताओं की जी हुजूरी करते जी रहा है केवल वो ही ऐसी हरकतें कर रहा है।

ये चार वे घटनायें जो एक ही शहर के उन लोगों के विचार दर्शाती हैं। आप किस शहर को, किस व्यक्ति को, किस घटना को किस नज़र से देखते हैं ये सब आप पर निर्भर करता है। चेन्नई की हर एक घटना ने मेरी सोच को व मेरे जीवन को प्रभावित किया है। इसीलिये मैंने ये सब आपके समक्ष रखीं हैं। आगे अभी और भी ऐसी ही घटनायें आपके सामने रखूँगा जैसे ही मुझे याद आयेंगी। तब तक के लिये चेन्नई की मेरी यात्रा से इतना ही।
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Tuesday, March 11, 2008

बैसाखियों के सहारे भारत

मान लीजिये किसी के पैर में चोट लग गई है तो आप सबसे पहले क्या करेंगे? जाहिर सी बात है कि चोट ठीक करने का प्रयास करेंगे। पर यदि कोई चिकित्सक उसको बैसाखियाँ पकड़ा दे और चोट का इलाज न करे तो आप उसको पागल ही कहेंगे। ठीक है? अब "ब्रेकिंग न्यूज़" ये है कि आजकल ऐसे चिकित्सक भारत में आम हो गये हैं। और कमाल की बात ये है कि रोगी भी इलाज की बजाय बैसाखी पसंद कर रहे हैं। आखिर क्यों?

पिछले कुछ वर्षों में छात्रों में आत्महत्या जैसी घटनायें बढ़ गईं हैं। सरकार व सी.बी.एस.ई ने इस बाबत कदम उठाये हैं। कोशिश रहती है कि परीक्षाओं से ठीक पहले मनोचिकित्सक से बात करवाई जाये जिससे परीक्षा का भय कम हो सके। पर इस तरह "क्रैश कोर्स" करेंगे तो कैसे चलेगा? पूरे साल की मेहनत है भई। सी.बी.एस.ई भी हर साल अलग अलग बदलाव करके कोशिश करती है कि परीक्षायें सरल हो जायें, बच्चे पास हो जायें। एक वर्ग तो इन्हें समाप्त करवा देना चाहता है। कमाल है!मुझे ये समझ नहीं आ रहा है कि आत्महत्याएं अभी क्यों बढ़ रहीं हैं? सरल से सरल पेपर होने पर भी छात्र ऐसे कदम उठा रहे हैं। आज से १०-१५ साल पहले तक तो ऐसा नहीं था। जबकि कहा जाता है कि पेपर तब ज्यादा कठिन हुआ करते थे।
दरअसल हम समस्या की जड़ तक पहुँचने की बजाय उसका जल्द समाधान करने के चक्कर में एलोपैथी खा रहे हैं और होम्योपैथी से दूर भाग रहे हैं। हम ये नहीं समझ रहे कि बच्चों को गाइडेंस चाहिये जो उसको अभिभावकों से मिले। पर आज के समय में किसी के पास बच्चों के लिये समय नहीं है और उनके मन में भय आ जाता है। ऊपर से माता-पिता का जोर की ९० प्रतिशत अंक ही आने चाहियें। आप सभी ने "तारे जमीं पर" तो देखी ही होगी। उम्मीद है कि कुछ सीखा ही होगा। इन सब दबावों में बच्चा अपने आप को अकेला समझने लगता है और इसी उधेड़बुन में गलत कदम उठा लेता है। और हम कहते हैं कि परिक्षा कठिन थी। अगर ये बात है तो १०-१२ वर्ष पहले इससे ज्यादा आत्महत्या के किस्से होने चाहियें थे। पर ऐसा नहीं है। परीक्षायें समाप्त करना ही हल नहीं है। बच्चों को समझाया जाये कि ये तो बहुत छोटी परीक्षा है आगे ज़िन्दगी में इससे बड़ी परीक्षायें देनी हैं। इनहीं छोटी छोटी परीक्षाओं से ही सीखा जाता है। ये सब बताने की जगह उन्हें ग्रेडिंग प्रणाली की बैसाखी थमा देना मेरी नज़र में एक बचपने वाला कदम है।
ऐसा ही एक कदम हम ६० वर्ष पहले उठा चुके हैं जब आरक्षण का बीज हमने बोया था। फसल कितनी खराब उगी है इसका पता आज के समाज को देख कर लगाया जा सकता है। हर भारतीय बैसाखियों के सहारे चलने पर आतुर है। शायद हमें इनकी आदत हो गई है।
मुझे आज से अगले ३० बरस बाद की अपंग भारत की तस्वीर नज़र आने लगी है। क्या आप भी वही देख रहे हैं?
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Friday, March 7, 2008

अनेकता में Unएकता

भारत एक ऐसा देश है जिसमें २९ राज्य हैं। हर राज्य व केंद्र शासित प्रदेश की अपनी अलग ही खूबी है, अलग पहचान है। ये पहचान बनती है वहाँ के खानपान से, रहन सहन से, भाषा से, कपड़ों से व और भी कईं कारणों से। सन् १९४७ में जब हिन्दुस्तान का विभाजन हुआ व पाकिस्तान बना तब कहते हैं कि राजनेताओं ने अलग अलग राज्यों के राजा महाराजा व वहाँ के स्थानीय नेताओं से मिलकर एक ही देश में शामिल होने के लिये मनाया था। और इस तरह अलग अलग प्रदेश एक देश बने थे और हर जगह गूँजने लगा था एक ही नारा। अनेकता में एकता।

भारत में न जाने कितने ही तरह के लोग रहते हैं। करीबन २० भाषायें हैं और बोलियाँ कितनी हैं इसके बारे में मुझे नहीं पता। सबसे ज्यादा बोले जाने वाली भाषा हिन्दी है। भारत मुख्यतया ४-५ हिस्सों बाँटा जा सकता है।
एक सबसे ऊपर उत्तर में कश्मीर। जिसका ४७ से अब तक कोई हिसाब किताब नहीं है। पाकिस्तान उसे अपना कहता है, हिन्दुस्तान अपना कहता है और वहाँ रहने वाले लोग न पाकिस्तान में जाना चाहते है और न ही भारत में। अजीब विडम्बना है। ऐसे राज्य को अपना कहें भी तो कैसे जब वहाँ के लोग ही विरूद्ध हैं। क्या यही राजनीति है? मुझे जवाब नहीं पता।

दूसरे आते हैं हिन्दी भाषी राज्य जिसमें हिमाचल, पंजाब (इस पर सवाल उठाना चाहें तो उठा सकते हैं पर मैं पंजाबी को हिन्दी के बहुत नज़दीक मानता हूँ), दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, बिहार/झारखण्ड, मध्य प्रदेश/छत्तीसगढ़ व कुछ हद तक गुजरात शामिल हैं। ये वो राज्य हैं जहाँ की खबरें हम लोग ज्यादातर सुनते हैं। हिन्दी या उससे मिलती जुलती भाषायें अथवा बोलियाँ यहाँ बोली जाती हैं। यहाँ आपस में मतभेद अलग ही कारणों से है। यहाँ सदियों पहले बनाई गई जाति प्रथा हावी है। कुछ जातियाँ पिछड़ी हुई मानी जाती हैं पर उनका विकास उन राजनेताओं के भरोसे है जो उनका इस्तेमाल राजनैतिक रोटियाँ सेंकने में करते हैं। आरक्षण उसकी जीती जागती मिसाल है। प्राथमिक शिक्षा न दे कर उच्च शिक्षा में आरक्षण देना उन बच्चों के लिये बैसाखी थमाने लायक है, जिसके वे आदी हो चुके हैं। कहने को सबका धर्म एक ही है पर कोई मीणा है, कोई जाट है, कोई गुर्जर है, कोई राजपूत है। इसी के चलते कभी "आजा नच ले" पर विवाद होता है तो कभी "जोधा अकबर" का। समझ में ये नहीं आता कि जब ये फिल्में बन रहीं होती हैं तब विवाद नहीं होता अपितु बनने के बाद होता है। क्या ये भी राजनीतिक चालें तो नहीं?

आइये आगे चलते हैं महाराष्ट्र की तरफ जहाँ मराठी लोग रहते हैं। यहाँ के बारे में आज के बारे में क्या बोलूँ कुछ समझ नहीं आ रहा है। पर एक बात मैं ठाकरे परिवार से कहना चाहूँगा कि जितने भी मराठी विदेशों में जा कर बसे हुए हैं उन सब को वापस बुला लें क्योंकि वे लोग भी विदेशी लोगों के लिये "बिहारी" ही हैं। जैसे बिहार के लोग विभिन्न राज्यों में जा कर मेहनत करते हैं व अपना पेट पालते हैं, ठीक वैसे ही हम भी पैसा कमाने के लिये विदेश का रूख करते हैं। आगे से आपके परिवार के लिये गुजारिश है कि पासपोर्ट व वीसा आपके पास होना चाहिये यदि आप महाराष्ट्र से बाहर जाते हैं तो। अभी हाल ही में मैं चेन्नई गया था, तो वहाँ चाट वाला मिला जो बिहार से ही था। उसने कहा कि ऐसा क्यों है कि सबसे ज्यादा साक्षर राज्य यानि केरल से ज्यादा आई.ए.एस अधिकारी बिहार जैसे पिछड़े राज्य से बनते हैं। जवाब आसान है- क्योंकि वहाँ के लोग मेहनती हैं।

अब रूख करते हैं द्रविड़ प्रदेशों का। यहाँ भी हालात कुछ ज्यादा अच्छे नहीं हैं। यहाँ पर स्थानीय नेताओं व पार्टियों का दबदबा ज्यादा है। मीडिया में भी कम कवरेज मिलता है। क्या आपको पता चला कि रामेश्वरम में १६ गायों की असामयिक मृत्यु हो गई। पता कैसे चलेगा जब मीडिया वहाव ध्यान ही नहीं देता। मैंने ये बात अपने पिछले लेखों में भी बताई है। और वहाँ के कुछ लोगों में भी हिन्दी भाषियों के लिये बैर ही है।

यदि बंगाल व पूर्वोत्तर राज्यों की तरफ जायें तो हालात बद से बदतर होते जायेंगे। उस तरफ कोई राजनेता ध्यान नहीं देता है। आतंकवाद वहाँ है, भूख वहाँ है, अशिक्षा वहाँ है, बेरोजगारी, रोटी, कपड़ा, मकान की समस्या वहाँ है। इन सबके बावजूद टीवी पर उन राज्यों की खबर तभी आती है जब वहाँ कोई हादसा हो जाता है। बहुत शर्म की बात है। और मुझे लगता है कि यही हाल रहा तो वहाँ को लोग कब अलग देश की माँग करें पता नहीं।

इतने सारे राज्यों में घूमें ये तो पता चल गया कि भारत में अनेकता है। पर अगर आज को देखूँ तो मैं बहुत निराशावादी हो जाता हूँ और मुझे नहीं लगता कि इस समय कोई एकता बची है। लोगों के मन में द्वेष का भाव भरा हुआ है और हर कोई केवल अपने राज्य की सोच रहा है, पूरे देश की नहीं।

ये तो अभी हम लोगों ने लेख में धर्म या मजहब नाम के राक्षसों को तो छुआ ही नहीं है। धर्म पर मैं अपने विचार पहले ही यहाँ (http://tapansharma.blogspot.com/2007/01/blog-post_4643.html) जाहिर कर चुका हूँ।
मुझे डर है कि कहीं एक पुराने गाने की तर्ज पर कुछ ही सालों में हमें एक नया गाना सुनने को न मिल जाये-
इस भारत के टुकड़े हजार हुए,
मेरे भारत के टुकड़े हजार हुए,
कोई यहाँ गिरा, कोई वहाँ गिरा,
कोई यहाँ गिरा, कोई वहाँ गिरा।
क्या मैं गलत हूँ जो अगर मैं कहूँ कि आज के दौर में अनेकता में Unएकता छुपी हुई है?
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Sunday, March 2, 2008

वो सवा घंटा

आज सोचा था कि कुछ मालामाल क्रिकेट पर लिखा जाये, शायद पैसा हम पर भी मेहरबान हो जाये। पर अपनी ऐसी किस्मत कहाँ? आज नोएडा और दिल्ली के बीच जब सफर किया तो पता नहीं क्यों इसी पर लिखने का मन कर रहा है। हालाँकि काफी बार मैं इस रूट पर सफर कर चुका हूँ। पिछले २.५ साल से कर रहा हूँ पर बस से सफर का जो आनन्द है वो कैब में कहाँ? :-) मुझे पूरी उम्मीद है कि इसे पढ़ने के बाद जो दिल्ली वाले पाठक हैं उन्हे खुद पर बीते हुए कुछ वाकये याद आ जायेंगे। और जो दिल्ली के बाहर हैं उन्हें घर बैठे दिल्ली के सफर का मजा मिलेगा।

चलिये शुरू करते हैं कश्मीरी गेट से नोएडा का सफर व्हाइट लाइन बस में। ये वो बस होती है जिसका किराया एक ही होता है। इसमें कोई स्लैब्स नहीं होते। फिक्स्ड रेट १० रू। मैट्रो स्टेशन से बाहर आते ही मुझे ये बस खड़ी मिली और मैं उसमें चढ़ गया। नज़रें घुमाईं और मुझे एक सीट मिल गई। खिड़की की सीट थी तो मैं खुश था। सोने को भी मिल जायेगा और भीड़ से भी बचा जा सकेगा। फिर धूप की किसे फिक्र हो।

मैं बैठा और थोड़ी ही देर में मैंने अपने बैग से एक उपन्यास निकाल लिया। आदत से मजबूर हूँ, लम्बा सफर हो तो एक ही सहारा होता है। आसपास वाले हैरान हुए कि ये हिन्दी में क्या पढ़ रहा है? खैर बहुत जल्द लालकिले पर पहुँच गये। बस में लगातार लोग चढ़ रहे थे। कंडक्टर के लिये तो जगह खत्म होने को ही नहीं आ रही थी। देखते ही देखते दरियागंज आ गया और बस खचाखच भर गई। अगर बस की सीटिंग ४० लोगों की हो तो दिल्ली की बसों में खड़े होकर ८० लोग आ जाते होंगे्। कुल मिलाकर १०० से कम तो नहीं हो सकते। शतक तो ठोका ही जायेगा।
ओ भाई, कितनी बोरियाँ हैं तेरे पास? कंडक्टर ने एक आदमी से जब पूछा तो उसने डरते हुए जवाब दिया, "तीन"।
"तीन बोरियों के हिसाब से ३० रूपये निकाल ले फटाफट"
"२० ही तो लगेंगे"
उस आदमी के जवाब पर कंडक्टर भाई साहब बिफर गये और ये हाथ हवा में लहराया।
"देने हों तो दे, वरना सामान लेकर यहीं उतर जा, पीछे बड़ी सवारियाँ आ रहीं हैं"
आदमी सहम गया। क्या करता, ३० रू निकाल कर उसके हाथ में थमा दिये। दिल्ली सरकार के हिसाब से १०वीं पास ही कंडक्टर बन सकता है|पर इस तरह से किसी से बातें करना तो गँवारों की तरह लगता है।

"रे ताऊ, तैने समझ न आई के, भीतर ने हो ले बाकी सवारी भी आयेंगी अभी"। एक और दसवीं पास की आवाज़ (?)। दरअसल हर बस में एक सहायक भी होता है। जो आगे की सीट पर बैठा हुआ, टूटी हुई खिड़की से बाहर झाँकता है और अपने हाथों से बस के बाहर का हिस्सा पीटता रहता है। वो बताता है कि ड्राइवर को बस कितनी तेज़ चलानी है, और कहाँ रूकना है। कोई भी स्टॉप आयेगा तो आगे आने वाले १० जगहों के बारे में होटल के बैरे के मीनू बताने से भी तेज़ बोलता रहेगा। अब हुआ यूँ था कि किसी बुजुर्ग का बैग अड़ रहा था और वे बस में अंदर घुस नहीं पा रहे थे। घुसते भी कैसे, जहाँ खड़े होने के लिये २ लाइनें होनी चाहियें, वहाँ तीन और कहीं कहीं पर चार लाइनें थीं। अब आप अपना दिमाग चलाइये और हिसाब लगाइये कि २ की जगह ४ लाइनें हों तो निकलने की कितनी जगह मिलेगी।
पर दिल्ली की बसों में यही जुगाड़ तो चलता है।

ये तो शुक्र था कि आज उसी रूट पर चलने वाली कोई और बस उसी समय नहीं चल रही थी, वरना तो फर्मूला वन होते देर नहीं लगनी थी। वैसे भी ग्रेटर नोएडा में ही ट्रैक बनाने की योजना है। बस की आधी खिड़कियाँ टूटी हुईं थीं। गनीमत है कि सर्दियों के खत्म होने पर मैं उस बस से सफर कर रहा था, वरना कुल्फी जमते देर नहीं लगनी थी। मुझसे २ सीट आगे की खिड़की ऐसी थी मानो किसी ने उलटी कर रखी हो। हो भी सकता है। कुम्भ के मेले में तबीयत तो खरीब हो ही सकती है। खड़े हुए लोगों को देख कर मुझे अपनी किस्मत अच्छी लगने लगी थी।

उपन्यास के १५ पन्ने पढ़ने के बाद मुझे नींद आने लगी थी और मैं सो गया। जब नींद टूटी तो पता चला कि अगला स्टॉप मेरा ही था।

बैग में फटाफट किताब डाली। और मोबाइल फोन भी। पर्स चैक किया, वो पहले से ही बैग में था। आप सोच रहे होंगे कि किताब तो समझ आती है, पर फोन और पर्स क्यों डाला बैग में। २ बार पर्स और १ बार फोन जेब कतरों के हवाले कर चुका हूँ मैं। इसलिये बचाव के लिये ऐसा कदम मैं हमेशा उठाता हूँ। कोशिश रहती है कि पर्स बैग में ही रहे, और ज़रूरत के हिसाब से खुले पैसे जेब में।

पर अब मेरे सामने १० कदम का पहाड़ जैसा रास्ता था जो मुझे अगले एक मिनट में पूरा करना था।
ओह! जैसे ही पैर सीट के बाहर रखा बगल में खड़े एक आदमी ने मुझे घूरा। मेरा पैर उसके पैर पर जो पड़ गया था।
आगे एक सज्जन ने अपना एक बैग भी बस के फर्श पर रखा हुआ था। जहाँ पैर रखने की जगह नहीं वहाँ बैग!!
"अरे हटो भाई, आगे जाने दो" मैं ये शब्द दोहराता हुआ, भीड़ को चीरता हुआ, चला जा रहा था। सुबह जो खाकर निकला था, वो सारा अब हजम हो रहा था। मैं सोच रहा था कि पेट को पाचन क्रिया करने की ज़रूरत ही क्या है? बस में चढ़ो और भीड़ के धक्कों में झूलो। कुछ ऐसा ही उस वक्त मुझे महसूस हो रहा था।५ कदम चल चुका था और आगे का रस्ता संकीर्ण होता जा रहा था। पहाड़ो पर बर्फ गिरती है तो ज़मीन पर पैर नहीं पड़ते। ठीक वैसा ही मेरे साथ हो रहा था। ५-६ कदम चलने के बाद भी पैर फर्श तक नहीं पहुँच पा रहे थे। ३ कतारों को काट के आगे बढ़ रहा था तो मुझे लगने लगा कि बस में सफर करने वाले हर आदमी को बहादुरी पुरस्कार मिलना ही चाहिये। बैग को कंधे से मैं कब का उतार चुका था और वो मेरे दाहिने हाथ में ऊपर लटक रहा था। उसी दाहिने हाथ से मैंने छत पर लगा हुआ डंडा पकड़ा हुआ था। मेरे हाथ पैर अब तेज़ी से आगे की तरफ बढ़ रहे थे और मुझे अपनी मंज़िल नज़र आने लगी थी। वाह, आगे गेट है। पर दरवाज़े की ३ सीढियों पर ४ लोग पहले से ही खडे़ थे और कमाल की बात ये थी कि उनमें से किसी को भी वहाँ नहीं उतरना था। शुक्र है कि बस खडी थी वरना कईं बार तो लोगों को बस से गिरते हुए भी देखा है, जब चालक जानबूझ कर जल्दबाजी के चक्कर में बस रोकता ही नहीं है।

पर आखिरकार, मेहनत रंग लाई और मैं झूले खाता हुआ उतरा व खुली हवा में फिर से साँस लेने लगा।

ये वो सफर है जिसका चश्मदीद दिल्ली में रहने वाला हर वो शख्स है जो इन बसों में सफर करता है। दिल्ली सरकार इन बस मालिकों का कुछ क्यों नहीं करती जो लोगों की जान जोखिम में डाल कर ज़रुरत से ज्यादा लोग भर लेते हैं। सरकार उन सहायकों व चालकों का कुछ क्यों नहीं करती जो यात्रियों से बुरी तरह पेश आते हैं। लगता ही नहीं कि ये दिल्ली के स्कूलों से पास हुए १०वीं व १२वीं के छात्र हैं। सवाल बहुत हैं पर जवाब किसी अफसर के पास नहीं है। क्योंकि यही बस मालिक इनका पेट भरते हैं। चलिये मेरा ये सफर यहीं समाप्त होता है। अरे हाँ, एक बात बतानी तो मैं भूल ही गया। वापसी में ऐसी ही एक बस में मैं ३० मिनट खड़े होकर गया। सोच रहें हैं कि मेरा क्या हुआ होगा। शायद इसीलिये मैंने आप सब के साथ अपना दुःख बाँटने के लिये ये लिखा है।
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Wednesday, February 20, 2008

रंगीन होती भारत की सड़कें

जब आप इस शीर्षक को पढ़ेंगे तो सोचने लगेंगे कि तपन ये किस बारे में लिख रहा है। होली आने में तो अभी करीबन एक महीना है क्योंकि तभी सड़कें रंगों से सराबोर होती हैं तो ये किस बारे में बात कर रहा है?

होली में हम रंग हम पिचकारी से डालते हैं परन्तु यहाँ जो आए दिन सड़कों पर लाल-लाल रंग हम डालते हैं उसका क्या? मुद्दे पर आता हूँ। मैं बात कर रहा हूँ पान तम्बाकू खाने वालों के मुँह से निकलने वाले लाल रंग से रंगे हुए थूक का!!
कभी कोई रिक्शे वाला पान चबाये हुए रिक्शा चलाते चलाते सडक पर थूक देता है और लीजिये जनाब सड़क पर एक दिलचस्प डिज़ाईन तैयार। और कभी कोई व्यक्ति अपनी मस्ती में मगन सड़क किनारे चलते हुए, अपनी बाईं ओर गर्दन करता है और मुँह से पीक निकालता है और फुटपाथ, "थूक बाथ" बन जाता है| अब वो ये नहीं देखता कि पीछे से कोई आ रहा है या नहीं।

वाह!! पूरा सीन नज़रों के सामने तैर गया। अब तो चलते हुए सिर्फ ट्रैफिक का ही नहीं थूक वर्षा का भी ख्याल रखना होता है। ये तो बात हुई रिक्शे चलाने वाले व पैदल चलने वालों की। कहते हैं कि कार खरीदने का मतलब ये नहीं कि अक्ल भी खरीद ली गई। जब कार का शीशा नीचे होता है या ट्रैफिक सिग्नल पर कार का दरवाज़ा खुलता है तो आपने किसी सज्जन को सड़क रंगीन करते ज़रूर देखा होगा।

चाहे किसी भी तबके के लोग हों, चाहें अनपढ़ हों अथवा ऊँचे स्थान पर बैठे पढ़े लिखे मूर्ख लोग, सब के सब एक ही थाली के चट्टे बट्टे हैं। अब मुँह में पान डाला है तो थूकना तो पड़ेगा ही।

ज़रा इन सज्जनों से कहें कि अगर पान खाने का इतना ही शौक है तो अपने घर के फर्श पर क्यों नहीं थूकते? दरअसल हम अपने घर को ही अपना समझते हैं। जब हमारे हक की बात आती है तो हम कभी दिल्ली हमारी है, मुम्बई हमारी है, ऐसे नारे देते हैं और जब अपनी ड्यूटी की बात आती है तो हम पीछा छुड़ाते हैं। कि ये काम सरकार का है। फलाना काम निगम वाले देखेंगे। हम लोग कभी भी अपने देश को,प्रदेश को, शहर को अपना समझते ही नहीं है। वरना किसी भी तरह से गंदा करने की सोचते ही नहीं। सड़कों पर कूड़ पड़ा रहता है। हम अपने घर का निकला कूड़ा घर के बाहर ही डाल देते हैं। चलो घर से तो निकला कम से कम। आगे की ज़िम्मेदारी सरकार की है। हम ये क्यों करें?

पूरे शहर को अगर कैन्वास पर उतारा जाये तो एक ज़बर्दस्त माडर्न आर्ट बन जाये।

हमारी सोच इतनी अविकसित है और हम क्या सोच कर अमरीका, यूरोप से बराबरी करते हैं। अरे अगर बराबरी करनी है तो सफाई में बराबरी करो, वहाँ लोगों की तरह ही कानून के नियमों का पालन करो। हम लोग अमरीका जा कर नहीं थूकेंगे, यहाँ वापस आकर वहाँ की तारीफ करेंगे और फिर यहाँ आकर वही काम करते हैं। हद है बेशर्मी की। अपने हक को माँगने वालों कभी अपने फर्ज़ की तरफ भी ध्यान दो। सरकार और शिक्षकों का ये फर्ज़ बनता है कि बच्चों को डिग्रियाँ बाँटने के अलावा उनको नैतिक शिक्षा भी दें ताकि अगली बार कोई थूकने से पहले हर कोई सोचे कि वो अपने घर पर, व अपनी मातृभूमि पर थूक रहा है जिसे हम हिन्दुस्तानी माँ का दर्जा देते हैं।
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Saturday, February 9, 2008

हँसी मनोरंजन में टूटता भारत

पिछले दिनों मैंने एक लेख लिखा था झूठे, मतलब परस्त - हम भारतीय!! जिसमें मैंने भारतीयों की क्षेत्रवाद व नस्लवाद के प्रति पाक-साफ़ दिखने वाली छवि पर कुछ प्रश्न किये थे। आज थोड़ा और आगे बढ़ते हैं। कुछ ऐसी बातें जो हमारी एकता पर सवाल करती हैं, कुछे ऐसी बातें जिनसे हमारे भारत के शरीर पर पड़ती झुर्रियाँ, मकानों में दरारें व घर-परिवार में दीवार खिचती दिखाई देती है। जिसकी झलक आप खेल में, चुनावों में, यहाँ तक कि टीवी के कार्यक्रमों में भी देख सकते हैं। मैं यहाँ ये साफ़ के देना चाहता हूँ कि कारण और भी हैं परन्तु मैं फिलहाल एक को ही ध्यान में रख कर लिख रहा हूँ।
करीबन १२-१३ साल पहले २ कार्यक्रम शुरू हुए थे। एक था दूरदर्शन पर आने वाला "मेरी आवाज़ सुनो" व ज़ी पर अभी भी धूम मचाने वाला "सा रे ग म" जो आजकल "सारेगमप" के नाम से जाना जाता है। मंशा थी कि जनता में से बेहतरीन आवाज़ें आगे लाना ताकि हमारे देश में संगीत कोने कोने तक फैले और नई प्रतिभाओं को आगे आने का मौका मिल सके। सब बढ़िया तरीके से चल रहा था। कुछ ३-४ वर्ष पूर्व अचानक ही मनोरंजन जगत में इस कार्यक्रम को टक्कर देने के लिये सोनी ने इंडियन आइडल की शुरुआत की। उसी दौरान क्रांति आई और संगीत के ऐसे ही कुछ और कार्यक्रम शुरू हुए। लेकिन बदले हुए अंदाज़ में। इन प्रोग्रामों को "रियालिटी शो" का नाम दिया गया। चूँकि अब नलों से ज्यादा मोबाइल हो गये हैं तो क्यों न लोगों को मैसेज करना भी सिखाया जाये। ये बीडा उठाया समाचार चैनलों ने जो हर रोज़ किये जाने बेतुके सवालों पर पोल करते हैं और लोगों के मैसेज इंबोक्स में ज़ंग लगने से रोकते हैं। कम्पीटीशन इस कदर बढ़ गया कि अब इन शो में जजों के होने या न होने का कोई मतलब नहीं रह गया और लोगों से फोन की सहायता से वोट माँगे जा रहे हैं। हाँ भई, भारत देश में लोकतंत्र जो है।
मजाक में कही जाने वाली एक कहावत है : इस देश में क्रिकेट और राजनीति पर इस विषय में शून्य ज्ञान रखने वाले भी १ घंटे तक बिना रुके बोल सकते हैं। अब इसमें संगीत को भी जोड़ देना चाहिये। अब ज़रा वोट माँगने के तरीके पर गौर फरमायें। मैं राजस्थान के सभी लोगों से अपील करूँगा कि मुझे वोट करें। यहाँ राजस्थान की जगह आप पंजाब, हरियाणा, आँध्र, तमिलनाडु, उप्र, कश्मीर, असम, बंगाल कोई भी राज्य लगा सकते हैं। ये सभी जानते हैं कि इस तरह की वोटिंग से हमारे मन में उस प्रतियोगी के लिये अलग जज़्बात उभरते हैं और हम ये भूल जाते हैं कि हम प्रदेश के लिये नहीं, देश के लिये चुनना होता है। और यहाँ शुरू होता है देश का बिखराव। यहाँ राज्यों के हिसाब से ही नहीं वरन् धर्म और मजहब के आधार पर भी वोटिंग होती है। मैं किसी को ठेस नहीं पहुँचाना चाहता पर २-३ वर्ष पूर्व एक ऐसे ही शो में काज़ी व रूपरेखा के चुने जाने पर बवाल हुआ था। उत्तर पूर्व से एक के बाद एक संचिता, देबोजीत, अनीक,प्रशांत का आगे आना, व तीन क्षेत्रों में पिछड़ने के बाद इशमीत का उत्तर क्षेत्र(जिसमें उनका अपना राज्य पंजाब आता है) में आगे आना, व और भी कईं ऐसे किस्से हुए हैं। मैं इनकी प्रतिभाओं पर संदेह नहीं कर रहा हूँ।हजारों लाखों लोगों में से चुने गये हैं तो कुछ तो दम होगा ही। जिनमें एक खराब परन्तु कईं बार ऐसा हुआ है जब उम्मीदवार केवल इसलिये आगे है क्योंकि उसके क्षेत्र के लोगों ने वोट करे थे। खराब प्रदर्शन भी उस उम्मीदवार को खेल में बनाये रखता है। जिस मकसद से "मेरी आवाज़ सुनो" व "सारेगम" प्रतियोगितायें होतीं थीं वो मकसद अब खत्म होता जा रहा है या यूँ कहें कि वो मकसद ही बदल गया है।
उम्मीदवार खुद फोन व सिम खरीद कर लोगों में बाँटते फिर रहे हैं। फोन कम्पनी करोड़ों कमा रही है। यही हाल चैनलों का है। लोग बावलों की तरह वोट करते हैं।
ये कहाँ का संगीत है? ये किस बात का मनोरंजन है? इसलिये तो इन कार्यक्रमों को शुरू नहीं किया गया था? पैसे की खनक ने पायल और तबले की आवाज़ों को दबा दिया है। रूपये और पैसे की दौड़ में कहीं हम भारत की एकता को तो नहीं बेच रहे हैं? ये बात हमें समझनी चाहिये। चैनल व सरकार दोनों से अनुरोध है कि अगर आप तक मेरी बात पहुँचे तो कृपया जनता के वोटों को बंद कराइये। मैं जानता हूँ चैनल व मोबाइल कम्पनी दोनों को घाटा होगा पर संगीत व भारत की अखंडता के लिये यदि नोटों व वोटों को भुला दें तो यही सभी के लिये हितकारी होगा।
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