Saturday, September 8, 2007

मौत???

आज की तारीख में भारत दो हिस्सों में बँट चुका है। एक भारत तरक्की कर रहा है। व्यापार, आई.टी व दूसरे क्षेत्रों में आगे बढ़ रहा है।यहाँ आगे बढ़ना, मतलब देश में खूब पैसा आ रहा है। बहुत खुशी होती है जब मध्यम वर्गीय परिवार का कोई आदमी कार, ए.सी खरीदता है। आज से १० साल पहले तक शायद ऐसा नहीं सोचा जा सकता था, पर आज सब मुमकिन है। हम वैज्ञानिक दृष्टि से और सुदृढ होते जा रहे हैं। ऊँची-ऊँची गगन चुम्बी इमारतों, फ़्लाइओवरों,आलीशान होटलों की चकाचौंध, बार, डिस्को, लम्बी गाड़ियाँ, इन सब को देख कर यकीन हो जाता है कि भारत के नाम का डंका आज पूरी दुनिया में क्यों बज रहा है?
लेकिन एक सच और भी है। और वो कड़वा सच है, जो हमारी पोल खोलता है। हमसे कहता है कि क्यों स्वयं को धोखे में रख रहे हो? और भी बहुत कुछ है करने को। एक कार खरीदने को देश की तरक्की नहीं कहते। देश की तरक्की होती है, समाज से। पर हमारा समाज ही संकीर्ण मानसिकता से ग्रस्त है। आगे बढ़ने की चाहत हमे वो कदम भी उठाने पर मजबूर कर देती है, जो न्यायसंगत नहीं होता, जिस कदम से किसी दूसरे के अरमानों का खून होता है।
जो किसी की लाश से होकर गुजरता है। जिस देश में दुनिया के बड़े रइस हैं, उस देश की ७०% जनता को पीने का पानी नहीं है, खाने को रोटी नहीं है, काम करने को रोजगार नहीं है, पहनने को एक जोड़ी कपड़ा नहीं है।फ़िर भी हम तरक्की कर रहे हैं। ये कैसी विडंबना है़!! न जाने क्यों मुझे लगता है हम पैसे की दौड़ में अपने सिद्धांतों का खून करते जा रहे हैं। संस्कृति की नींव खोखली होती जा रही हे।
इस कविता में हो सकता है मैं निराशावादी होऊं, इसके मैं आपसे माफ़ी माँगना चाहूँगा और आगे की कविताओं में आशावादी बनने का प्रयास करूँगा। आपको जैसा भी लगे, या जो आपके मन में इस बारे में बात हो, तो कृपया मुझे बतायें। आपकी टिप्पणियाँ मुझे आगे बढ़ने में मदद देती हैं।


अपनी जवानी में,
मैं हँसता था,
ठहाके लगाता था..
सबसे कहा करता था
देखना,
मेरे बच्चे मेरा नाम
रोशन करेंगे,
सब मिलजुलकर,
प्यार से,
एक ही घर में रहेंगे..

लहलहाते खेतों को देखकर,
मेरा मन आनन्दित होता,
सब के घर में रोटी होगी,
न भूखे सोयेगा कोई बच्चा,
ये सोच कर मैं,
चैन की नींद सोता।

आज़ादी के लिये,
लक्ष्मी बाई और् सरोजिनी को
लड़ते हुए देखकर,
मैं निश्चिन्त था,
भारत की स्त्री,
इस पुरूष समाज में,
अपनी पहचान बनायेगी,
ये सोचकर

संस्कृति की सीख,
जो दी है,
मैंने अपने बच्चों में,
वो उसका मान करेंगे,
कुछ बातें सीख,
अपने ग्रंथों से,
विश्व में अपना नाम करेंगे।

आज साठ साल की,
दहलीज़ पर मैं खड़ा,
उम्र के इस पड़ाव पर,
सोचता हूँ उन दिनों को-

और कराह उठता हूँ-
बहुओं की चीखों से,
उदास होता हूँ-
किसानों की मौतों से,
दिल रोता है-
शहीदों की लाशें देख कर,
विवश महसूस करता हूँ-
नेताओं के गोरखधन्धों पर,
डरता हूँ- लोगों को
खून का प्यासा देखकर,
सहम जाता हूँ-
लोगों की आँखों में
वहशियानापन देखकर,
खून खोलता है-
प्रकृति का विनाश देख कर..
दर्द होता है-
मासूम बच्चे को भूख से
बिलखते देखकर..

सारे सपने,
बिखरते दिखाई देते है..
जब धर्म के नाम पर,
लोग भगवान बाँटते
दिखाई देते हैं..

क्या सोचा था...
क्या पाया...
पाश्चात्य की होड़ में,
अपनी संस्कृति,
अपनी भाषा, अपना पहनावा,
सब गुमराह हो गये,
और पश्चिम के रंग में
ढलता पाया..

ए मालिक,
दे दे तू मेरे बच्चों में
बस इतनी सी समझ,
न भागें पैसे की तरफ़,
दें जज़्बातों पर भी ध्यान,
तोड़ें लालच व
द्वेष की मोटी परत,

मेरे मालिक..
मुझ बूढ़े पर,
एक रहम कर,
साठ साल की उम्र में,
मुझे इन रोगों से मुक्त कर..

काश! कोई मेरी आवाज़ सुन ले..
काश! कोई नई रोशनी कर दे..
काश! कोई दवा दे दे..

इन चीख, चिल्लाहट,
रूदन, तड़प,
बिलखना, मारना,
पीटना, भागना
भूख, लाचारी,
इन सब से,
सिर फ़टा जाता है..
और आगे कितना रुलायेगा भगवान?
ये "भारत" तुझसे
मौत चाहता है..
ये "भारत" तुझसे
मौत चाहता है॥

आभारः तपन शर्मा

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