Saturday, May 10, 2008

काश

सुबह ज्यों ही
सूरज को
खुले आकाश में उठते
अपनी किरणों को चारों ओर
फैलाते हुए
देखता हूँ तो यकीन होता है
कि हम भी सर उठा कर
चलने लगे हैं,
हम हैं विश्व का सबसे
बड़ा बाज़ार,
डंका बजता है हमारा
पूरी दुनिया में,
अंतरिक्ष में अब भेजते हैं हम
दूसरे देशों के उपग्रह,
हर साल बढ़ते हैं हमारे
देश में खरबपति,
सूचना प्रौद्योगिकी में विश्व
देखता है हमारी ओर,
हमारा है सबसे बड़ा लोकतंत्र
और हमारा सर ऊँचा होता है
गर्व से कि हम चलाते हैं
अमरीका को,
पर भूल जाता हूँ सब कुछ
जब ये गुरूर
चकनाचूर होता है
हर शाम जब
सूरज को ढलते हुए देखता हूँ
टूट जाता है उसका दंभ,
कहते हैं कि वो उस समय रोता है
होता है वो लहूलुहान,
मेरे सामने तब आ जाते हैं
रात के अँधेरे में होने वाले
हर वो गुनाह जो
सुबह अखबारों में समाचार
परोसे जाने का कारण बनते हैं,
सिग्नलों पर भीख माँगते
वो बच्चे
जो कार के अंदर
से कुछ मिल जाने की
उम्मीद में अपने पैर जलाते हैं
पूरे दिन,
चिराग तले अँधेरे का मतलब
समझाती हैं किसानों की
आत्महत्यायें,
मेहमान को भगवान
बनाने वाले देश में
राज करते हैं हैवान,
खून से सराबोर होते हैं
जब खेली जाती है यहाँ होली
जाति व धर्म की,
उसी रंग में नहा जाता है
रोता हुआ वो सूरज
काश नहीं होता ये
सूर्योदय और सूर्यास्त
और नहीं हो पाती
इनमें कोई तुलना
या काश मुझे बना दिया होता
ईश्वर ने अँधा
कि नहीं देख पाता मैं
सूर्योदय और सूर्यास्त!!

1 comment:

Rahul said...

बहुत ही बढ़िया गुरूजी....उगते सूरज और डूबते सूरज के बिच मे भारत का सही चित्रण किया है...कहीं बुर्गेर फेका जा रहा है टू कहीं रोटी को तरसते किसान जान दे रहे है ....हम अब तो आस्मान मे भी अपना झंडा गर चुके लेकिन ज़मीनी हकीकत बहुत दुःख भरी है...आपकी रचना भारत का हकीकत दिखा रही है...बहुत बदिया...