डा. हरिवंशराय बच्चन-हिंदी काव्य में एक ऐसे स्तम्भ जिसको हर कोई मानता है। उन्होंने एक कविता लिखी थी मधुशाला। ७५ साल हुए उन बातों को। और आज अचानक कहीं से आवाज़ उठी कि इस कविता की कुछ लाइनें एक धर्म के खिलाफ हैं। या यूँ कहें कि कट्टरपंथियों और धर्म के ठेकेदारों उसके खिलाफ बोल रहे हैं। पिछले शनिवार को अखबार में पढ़ा तो दंग रह गया। निम्न पंक्तियों पर बैन की बात उठी है।
सजें न मस्जिद और नमाज़ी कहता है अल्लाताला,
सजधजकर, पर, साकी आता, बन ठनकर, पीनेवाला,
शेख, कहाँ तुलना हो सकती मस्जिद की मदिरालय से
चिर विधवा है मस्जिद तेरी, सदा सुहागिन मधुशाला।।४८।
बजी नफ़ीरी और नमाज़ी भूल गया अल्लाताला,
गाज गिरी, पर ध्यान सुरा में मग्न रहा पीनेवाला,
शेख, बुरा मत मानो इसको, साफ़ कहूँ तो मस्जिद को
अभी युगों तक सिखलाएगी ध्यान लगाना मधुशाला!।४९।
मस्जिद को यहाँ कुछ लोगों ने शाब्दिक अर्थ में ले लिया और नाराज़ हो गये हैं। क्या बेतुकी बात है। क्या उन्हें ७५ सालों से कुछ दिखाई नहीं दे रहा था? या अब तक सोये हुए थे। ये लोग बच्चन की बात समझ ही नहीं पाये। अगर समझ जाते तो ऐसी बचकानी हरकतें नहीं करते। हरिवंश राय आगे लिखते हैं:
बैर कराते मंदिर मस्जिद, मेल कराती मधुशाला!!!!
क्या खूब लिखा था... और क्या सच बोला था। अगर उपर्युक्त पंक्ति को पढ़कर हिंदू भी भड़क जायें तो आप समझ सकते हैं कि क्या बवाल उठेगा। मुझे समझ में नहीं आता कि इतना उल्टा सोचने का समय कैसे मिल जाता है। बच्चन साहब ने सच लिखा था, मंदिर मस्जिद बैर ही करा रहे हैं। पर उनकी इस अद्भुत और अद्वितीय कलाकृति पर हि सवाल उठ जायेंगे यकीन मानिये मैंने तो नहीं सोचा था।
वैसे अभी हाल ही में एक शख्स ने आर्य समाज और दयानंद सरस्वती की पुस्तक सत्यार्थ प्रकाश पर बैन का प्रश्न उठाया। दिल्ली हाई कोर्ट ने इस अपील को खारिज कर दिया। १२५ बरसों से जिस ग्रंथ ने धार्मिक सद्भाव बिगड़ने नहीं दिया तो वो अचानक कैसे आग भड़का सकती है। ऐसी बेतुकी अपीलें इस देश में आये दिन उठती रहती हैं। कोई है जो इन सवालों के जवाब दे सके।
मुसलमान औ' हिन्दू है दो, एक, मगर, उनका प्याला,
एक, मगर, उनका मदिरालय, एक, मगर, उनकी हाला,
दोनों रहते एक न जब तक मस्जिद मन्दिर में जाते,
बैर बढ़ाते मस्जिद मन्दिर मेल कराती मधुशाला!।५०।
जय हिंद
15 comments:
swhmat hai itnae varshon se nahi dikha kya inko,bas ab chale hai dharm ke naam jhagada karne,ye bin kaam ke logo ke kaam hai aur kuch nahi
ऐसे ही लोगों की वजह से समाज में कटुता और बढती है जो बेवजह किसी बात को सांप्रदायिक रंग देने लगते हैं....कम्बख्तों को लगता है वही हैं जो देख रहे हैं, बाकी लोग कमअक्ल हैं.....साहित्य को इस तरह बदनाम करने वालों को जनता भी अब जानने-समझने लगी है, इसलिये ऐसे लोगों का ऐसा बेतुका ढोंग ज्यादा दिन नहीं चल पाता।
इस खबर की जानकारी देने के लिये शुक्रिया।
देखते रहिये ये सभी बुद्धि से पैदल अपनी मुकाम तक जल्दी ही पहुँच जायेंगे !
मैंने भी अखबार में इसके बारें में कुछ पढ़ा था...मगर इतनी गहराई से नही| अच्छा लेख है|
डा. रमा द्विवेदी said...
सस्ते ढंग से प्रसिद्धि पाने के तरीके हैं और कुछ नहीं |सब राजनीति है आम आदमी क्या समझेगा ,जिस देश में राष्ट्रगान तक में दोष निकाला जाए उस देश का दुर्भाग्य है | ऐसी घटिया राजनीति से खुदा बचाए | यह युग आरोपों और आक्षेपों का युग है | धन्यवाद सहित....
तपन भैया आपका लेख काफी समय बाद पढने को मिला और बहुत अच्छा लगा
Bahut badiya mere dost .... keep it up and continue doing the good work ..
Our society really needs to revamp itself ....
hmmmmmmmmmmm bouth he aacha post thaa aapka aacha lagaa
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sahi kaha dost.. i also read the same in newspaper but could not found too much details... it is good to know details from here...
but i think our media is also problemetic. When they can publish the main news they should also publish the 'poem' and other stuff to give the full details...
बिना बात के बतंगड़ बनाने की आदत तो लोगो को पहले से ही रही है......लोग तो मासूम होते है, साम्प्रदायिकता का ज़हर कुछ विशेष लोग ही घोलते है जो ख़ुद को धर्म का ठेकेदार कहते है.....
बचपन में मैंने कई कबीर के दोहे पढ़े......
१. पाथर पूजे हरि मिले, मै पूजू पहार,
ताके तो चाकी भली, पीस खाए संसार!
२. कांकर पाथर जोरी के, मस्जिद लियो बनाये,
तां चढी मुल्ला बाग़ दे, क्या बहिरा भया खुदाए!
यह तो सिर्फ़ २ दोहे है उदहारण देने के लिए, कबीर दास जी की तो सारी ज़िन्दगी ऐसे दोहे बनाते निकल गई........जो लोग पढ़े लिखे है, वो शायद उनकी कही बातों की गहराई समझे, आश्चर्य नही की लकीर के फकीरों को शायद इसमे भी साम्प्रदायिकता के रंग दिखे....
आज के इस गंदे माहौल में अगर कबीर दास ऐसी बातें कहते, तो शायद दुबारा मुह खोलने के लिए जिंदा न बचते......अच्छा ही है, उनकी आत्मा ऐसी गन्दगी देखने के पहले ही ऊपर चली गई.
"ग़ालिब बुरा ना मान जो वाईज़ बुरा कहे,
ऐसा भी है कोई के सब अच्छा कहें जिसे"
और मेरा ऐसे है की------
"जब होश था तो उलझा रहा दैर-ओ हरम में,
अब बेखुदी में ये भी सही
वो भी सही है "
अभी तो यह कठमुल्ले बच्चन जी तक ही पहुंचे हैं. अगर इनको शाह मिलती रही तो यह स्वामी दयानंद और फ़िर संत कबीर पर भी हाथ साफ़ करने की कोशिश करेंगे क्योंकि कबीर ने कहा है:
कंकर पाथर जोड़ कर, मस्जिद ली बनाय
टा चढ़ मुल्ला बांग दे, का बहरा हुआ खुदाय?
हर युग में विष-प्याला पाता,
सत्य समझ-कहने वाला.
जनगण-मन में जगह बनाता,
ज्यों का त्यों रहनेवाला.
कठमुल्लों का क्या है?
औरों पर आरोप लगायेंगे.
क्या कोई खुदगर्ज़ हुआ है
सच को सच कहनेवाला?
दया प्रेम बच्चन को कैसे,
भूले मन भोला-भाला?
मीरा-सीता-द्रुपदसुता को
सहन नहीं गडबडझाला.
सच को झूठ, झूठ को सच कह,
मजहब, पंथ, धर्म फलते.
कठमुल्ला को कभी कहाँ
मिल पाया है अल्लाताला?
ताला अल्ला पर डाले जो,
वह क्या समझे मधुशाला?
रूह न जिसकी प्यासी उसको,
अपनाए क्यों मधुबाला?
निशा निमंत्रण उसे न देती,
साकी जो सोया रहता-
जगा कबीरा जिया मस्त हो,
'सलिल' श्वास हर मधुशाला.
Thanks for sharing such a beautiful write up. :)
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