Saturday, May 14, 2011

फ़िल्मों और गीतों में बढ़ते हुए अपशब्दों के बीच क्या होगा आने वाले संगीत का भविष्य? Use Of Abuse Words In Hindi Songs & Movies

धूप-छाँव पर पहले भी एक लेख छप चुका है जिसमें "गाँव और गाली" को एक समान कहा गया था। फ़िल्मों में गालियों का चलन बढ़ता जा रहा है। कुछ लोग इसको सही मानते हैं और कहते हैं कि इससे सब कुछ "असली" लगता है। चूँकि हम लोग गाली देते हैं और फ़िल्में तो समाज का आईना होती हैं इसलिये इसमें कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिये। फिर भी सेंसर बोर्ड इन फ़िल्मों को "ए" सर्टोफ़िकेट दे कर पास कर देता है। पिछले कुछ वर्षों से ऐसी फ़िल्में आने लगी हैं जिन्हें "डबल मीनिंग" की कैटेगरी में रखा जाता है।

मेरी बात से अधिकतर पाठक सहमत होंगे कि पुरानी फ़िल्मों के गानों में आज के मुकाबले शब्दों पर बड़ा जोर दिया जाता था। पहले जहाँ शब्दों के मतलब को ध्यान में रखकर गाना लिखा जाता था वहीं आज संगीत को तरजीह दी जाने लगी है। शब्द चाहें अंग्रेज़ी के हों, हिन्दी पंजाबी अरबी अथवा कोई ऐसी भाषा जो समझ से परे हो जाये पर संगीत "सॉलिड" होना चाहिये। आजकल फ़टाफ़ट गीत संगीत का जमाना है। मैं संगीत का कोई ज्ञानी नहीं हूँ लेकिन इतना जरूर कह सकता हूँ कि "फ़ास्ट फ़ूड" की भाँति ही "फ़ास्ट संगीत", संगीत की आत्मा की हत्या अवश्य कर रहा है। हाल ही में जगजीत सिंह को यह कहने पर मजबूर होना पड़ा कि ग़ज़ल को आज के दौर में कोई नहीं पूछता। ऐसा लगता है कि आजकल गीत केवल तुकबंदी पर ही चल रहे हैं। आप "चार बज गये पार्टी अब भी बाकि है..." जैसे आज के सुपरहिट गाना उठा लीजिये। तुकबंदी के अलावा कुछ नहीं है। 


बात करते हैं फ़िल्मों की। पहले की फ़िल्में पूरा परिवार साथ बैठ कर देखा करता था। धीरे धीरे ऐसी फ़िल्में बननी कम हो गईं। और आज ये आलम है कि हमें सोचना पड़ता है कि आखिरी बार पूरा परिवार कौन सी फ़िल्म देखने साथ गया था? फ़िल्मों में संवादों में गाली के  बाद उनके नामों में गाली डाल दी गई। ज़िन्दगी को "साली" बना दिया गया। कुछ गालियाँ इतनी आम हो गई हैं कि ऐसा लगने लगा है कि यदि ये न होती तो हम बोलना ही न सीख पाते।

खैर, फ़िल्मों के बाद कमोबेश यही हाल गानों का होता प्रतीत हो रहा है। कुछ गाने ऐसे बनने लगे जो सुनने में तो अच्छे  लगते हों पर उन्हें आप परिवार के साथ देख नहीं सकते। पर आज जो हाल में चलन है उसको देखते हुए ऐसा लगने लगा है कि अब गाने सुन भी नहीं सकते।

हालाँकि किसी को भी साला-साली बनाने की शुरुआत 1974 की फ़िल्म "सगिना" में हो गई थी जब दिलीप कुमार "साला मैं तो साहब बन गया" गाते हैं। उसके बाद जहाँ तक मुझे याद है फ़िल्म "रंगीला" में  क्या करें क्या न करें... गाने में इसी शब्द का प्रयोग हुआ है और फिर फ़िल्म "जोश" में भी शाहरुख इसी शब्द को गाते दिखाई पड़े। वैसे कुछ लोग इसे गाली नहीं मानते। फिर "रंग दे बसन्ती" के एक गाने  में भी यही शब्द इस्तेमाल हुआ। आप ही बताइये "Character Dheela" गाने में "साला" लगाने कि क्या तुक बनती है? हाल ही में आये "दम मारो दम" फ़िल्म के शीर्षक गीत को ही ले लीजिये। जयदीप साहनी ने क्या सोच कर इसके गीत लिखे ये तो वे ही बतायें। आज भी असली "दम मारो दम" और आज के गीत की तुलना कर के देख लीजिये। चाहें गीत हो अथवा संगीत।

आने वाली पीढ़ी स्वच्छ संगीत के दर्शन कर भी सकेगी अथवा नहीं ये कहना कठिन है। पर जो मिलावट आज परोसी जा रही है और रियालिटी शो के जरिये जो गायक बनाये जा रहे हैं उससे संगीत की राह दुर्गम अवश्य लग रही है।

। वन्देमातरम ।

1 comment:

neelam said...

मेरे डैडी हैं नाराज पर पार्टी अभी बाकी है ...................

वाकई बहुत कुछ सोचने को मजबूर करती है ये पोस्ट .................क्या किया जाए जो आज अशिष्ट भाषा को बोलचाल की भाषा बनने से रोका जा सके .