Monday, November 28, 2011

चर्चा में: शरद पवार, कोलावरी डी और विदेशी पूँजी निवेश Sharad Pawar, Kolaveri Di, Foreign Direct Investment

पिछले सप्ताह हमारे देश में तीन महत्त्वपूर्ण घटनायें हुईं। पहली शरद पवार को हरविंदर सिंह द्वारा मारा गया थप्पड़, दूसरा कोलावेरी डी का तमिल गीत और तीसरा विदेशी पूँजी का भारत में बढ़ता निवेश।

बात शरद पवार की। महाराष्ट्र में उनके चीनी के कारखाने हों या रियल एस्टेट का कारोबार। वे विश्व के सबसे रईस बोर्ड के अध्यक्ष भी हैं। और देश के कृषि मंत्री भी। हमारा देश शुरू से ही कृषि प्रधान देश रहा है। इस लिहाज से यह मंत्री पद महत्त्वपूर्ण पदों में से एक है। पिछले दस वर्षों में लाखों किसानों ने या तो आत्महत्या की है या फिर खेती छोड़ी है। यह देश के लिये बेहद खतरनाक संदेश है। उस पर उनका आईसीसी के कार्यों में भी घुसे रहने का मतलब है पूरी तरह से कृषि मंत्रालय पर ध्यान न देना। उसपर किसान की जमीन पर भू माफ़ियाओं व बिल्डरों का कब्जा होना। उन्हीं के ही राज्य के विदर्भ क्षेत्र में किसानों का आत्महत्या करना। कितने ही विवाद हैं और कितनी ही समस्यायें। इन सब के लिये कोई नीति ही नहीं है। बहरहाल उन पर थप्पड़ मारने की घटना को हँसी में लेने की बजाय गम्भीरता से लेने की आवश्यकता है। इस थप्पड़ का मतलब देश के लोगों का सरकार के ऊपर से विश्वास का उठना है। यह थप्पड़ उस लोकतंत्र पर भी है जहाँ जिन नेताओं को हम चुन कर संसद भेजते हैं उन्हीं पर भरोसा नहीं कर पाते। यह सरकार की विफ़लता झलकाता है। नेताओं व सरकार पर से भरोसा उठना बेहद चिन्ताजनक व दुखद है। यह घटना दुखद है। पर क्या सरकार पर अथवा नेताओं पर इन सबका असर पड़ेगा? यह कहना कठिन है। क्या नेता व मंत्री व अफ़सर अपनी ज़िम्मेदारी समझ पायेंगे? सवाल बहुत है पर निकट भविष्य में इनके जवाब मिलने कठिन हैं।

आगे चलें तो सरकार ने एक बड़ा कदम उठाते हुए खुदरा बाज़ार में 51 प्रतिशत विदेशी निवेश को मंजूरी दे दी है। मैं कोई वित्त विशेषज्ञ नहीं  हूँ लेकिन यदि मैं दो सदी पीछे जाऊँ तो पाता हूँ कि गलती हमने ईस्ट इंडिया कम्पनी को भारत में आ जाने की भी की थी। गाँधी जी ने स्वदेशी अपनाने का आंदोलन भी किया था। आज वही कांग्रेस विदेशियों को अपने देश में आने का निमंत्रण दे रही है। ग्लोबलाइज़ेशन के इस दौर में यह गलत नहीं है। 49 प्रतिशत तक ठीक है क्योंकि विदेशी कम्पनी का कब्जा नहीं हो पायेगा किन्तु पचास फ़ीसदी से अधिक निवेश का आशय स्पष्ट है कि देश में विदेशियों का कब्जा होगा। सरकार की दलील है कि किसान को पूरा पैसा मिलेगा और महँगाई पर रोक लगेगी। इससे छोटे कारोबारियों को नुकसान भी नहीं होगा। हमारे देश में टाटा, रिलायंस, बिड़ला, प्रेमजी व न जाने कितने ही बड़े नाम व कॉर्पोरेट घराने हैं जो खुदरा कारोबार में आ सकते हैं या फिर आ चुके हैं। क्या सरकार इन कम्पनियों को इतना काबिल नहीं बना सकती? क्या जब देश के कॉर्पोरेट घराने खुदरा बाज़ार में कारोबार करेंगे तो सस्ता सामान मुहैया नहीं करा सकते? ऐसा विदेशी कम्पनी में क्या होता है जो देशी में नहीं? क्या खुदरा नीति देश की कम्पनियों के लिये नहीं बदल सकती कि किसानों तक पूरा पैसा पहुँचे? ऐसा क्यों है कि हम हर बार पश्चिम की ओर मुँह कर के खड़े हो जाते हैं। क्यों नहीं हम स्वयं में सुधार करते? विदेशी ही हमारे देश को चलायेंगे तो यह हमारी कमजोरी है और हमारी विफ़लता। वॉल्मार्ट आदि केवल खाद्य उत्पादन ही नहीं बल्कि घर की सभी वस्तुयें जैसे फ़र्नीचर, बर्तन आदि भी बेच सकेंगे।  जो अर्थशास्त्री हैं वे ही इस पर रोशनी डाल सकते हैं कि देशी कम्पनियाँ क्यों नहीं वो काम कर सकतीं जो विदेशी आ कर करेगी? क्या गारंटी है कि चीनी कम्पनियाँ हमारे देश के छोटे व्यवसायों को नुकसान नहीं पहुँचायेंगी जो पहले ही खतरे से जूझ रहे हैं?

आखिर में बात करते हैं कोलावरि डी की। आमतौर पर वही गाने सुनते हैं जिनके बोल हमें समझ आते हैं या यूँ कहें कि जिन भाषाओं की हमें जानकारी है। पर संगीत शायद एक ऐसा माध्यम है जिसने आदि काल से एक दूसरे को जोड़ा हुआ है। संगीत हर दिल में है। कहते हैं कि संगीत की अपनी कोई भाषा नहीं होती। इसीलिये शायद कोलावरि डी आज उत्तर भारत में भी हिट है। आज दिल्ली के रेडियो चैनलों पर तमिल गीत सुनने को मिल रहा है। कुछ लोग यह कह सकते हैं कि फ़िल्म "थ्री" रजनीकांत के दामाद की फ़िल्म है इसलिये यह गाना मशहूर हुआ है। कुछ लोग इसे महज इत्तेफ़ाक या भाग्य भी मानते हैं। लेकिन जब रजनीकांत का कोई तमिल गाना दिल्ली में नहीं बजा (या कहें कि मुझे याद नहीं रहा) तो उनके दामाद का गाना बजना महज एक संयोग तो नहीं। पर फिर भी यदि ऐसा हुआ है तो यह देश की एकता के लिहाज से अच्छा संयोग है। अनेकता में एकता यदि ऐसे संयोग से और प्रगाढ़ हो सकती है तो कहने ही क्या!!! 


जय हिन्द
वन्देमातरम
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गदापि गरियसी

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